देवकी माता के आठवें पुत्र श्री गजकुमार श्रीकृष्ण के छोटे भाई और श्री नेमिप्रभु के चचेरे भाई थे । उनका रूप अत्यन्त सुन्दर था । लोक में उन्हें जो भी देखता, वही उन पर मुग्ध हो जाता । ही नैमिनाथ प्रभु केवलज्ञान प्राप्त करके तीर्थंकर रूप में विचरते थे, यह उसी समय की बात है । श्रीकृष्ण ने अनेक राजकन्याओं के साथ-साथ सोमिल सेठ की पुत्री सोमा के साथ भी नजकुमार के विवाह की तैयारी की थी । इसी समय विहार करते -करते श्री नेमिनाथ तीर्थंकर का समवसरण द्वारिका नगरी अगया । जिनराज के पधारने से सभी उनके दर्शन के लिए गये । श्री नेमिप्रभु के दर्शन कर गजकुमार को एक उत्तम भाव जागा, उन्हें – ऐसा भाव जागा कि – तीन लोक के नाथ जिनेश्वर देव! मानों मुझे मोक्ष ले जाने के लिए ऐसे नेमिनाथ प्रभु के दर्शन से राजकुमार हु।! प्रसन्न चरित्र क? सुना एम्स की परम महिमा सुनकर गंजकुमार का हृदय वैराग्य से ओत-प्रोत हो गया, वे तत्क्षण विषयों से विरक्त हो गये । वे भावना भाने लगे कि – अरे रे! मैं अभी तक संसार के विषयभोगों में डूबा रहा और अपनी मोक्ष साधना से अ गया । अब मैं आज ही दीक्षा लेकर उत्तम प्रतिमायोग धारण करके मोक्ष की साधना करूँगा । इसप्रकार निश्चय करके उन्होंने तुरन्त ही माता-पिता, राज-पाट तथा राज-कन्याओं को छोड्कर जिनेन्द्रदेव के धर्म की शरण ले ली । संसार से भयभीत मोक्ष के लिए उत्सुक और प्रभु संग्रह के परमभक्त ऐसे उन वैरागी गजकुमार ने भगवान नेमिनाथ की आज्ञार्त्त दिगम्बरी दीक्षा धारण की । उनकी अनन्त आत्मशक्ति जागृत हो गयी । मुनि गजकुमार चैतन्य के ध्यान में तल्लीन होकर महान तप करने लगे । उनके साथ जिनकी सगाई हुई थी, उन राजकन्याओं को उनके माता- पिता ने बहुत समझाया कि अभी तुम्हारा विवाह नहीं हुआ, हम तुम्हारा विवाह दूसरी जगह बड़े ही धूमधाम से करेंगे, लेकिन उन उत्तम संस्कारी कन्याओं ने दृढ़तापूर्वक कहा – ‘ ‘नहीं, पिताजी! मन से एकबार जिन्हें पतिरूप स्वीकार किया, उनके अलावा अब कहीं दूसरी जगह हम विवाह नहीं करेंगे । जिस कल्याण मार्ग पर वे गये हैं, उसी कल्याण मार्ग पर हम भी जावेंगे । उनके प्रताप से हमें भी आत्महित करने का यह अपूर्व अवसर मिला इसप्रकार वे कन्याएँ भी संसार से वैराग्य प्राप्त कर दीक्षा लेकर आर्यिका बनीं! धन्य आर्य संस्कार! जब मुनिराज गजकुमार श्मशान में जाकर अति उग्र पुरुषार्थ पूर्वक प्रतिमायोग ध्यान कर रहे थे । उसी समय वहाँ सोमिल सेठ आया और ‘ ‘मेरी पुत्री को इसी गजकुमार ने तड्फाया है, इसी ने उसे घर छोड़ने को मजबूर किया है । ” – ऐसा विचार कर वह अत्यन्त क्रोधित हुआ । ‘ ‘साधु होना था तो फिर मेरी पुत्री के साथ सगाई ही क्यों की? दुष्ट । तुझे मैं अभी मजा चखाता हूँ । ‘ ‘ – इसप्रकार क्रोधपूर्वक उसने गजमुनि के मस्तक पर मिट्टी का पाल बाँधकर उसमें अग्नि जलाई । मुनिराज का मस्तक जलने लगा, साथ ही उनका अत्यन्त कोमल शरीर भी जलने लगा । घोर उपसर्ग हुआ । फिर भी वे तो उग्र ध्यान में ही जमे रहे, मानों शान्ति के पहाड़ हों, ध्यान से डिगे ही नहीं । बाहर में अग्नि से माथा जल रहा था और अन्दर में ध्यानाग्नि से कर्म जल रहे थे । छिद जाय या भिद जाय अथवा प्रलय को भी प्राप्त हो । चाहे चला जाये जहाँ पर ये मेरा किंचित् नहीं । बाहर में उन मुनिराज को वचनरूपी बाणों से भेदा जा रहा था, परन्तु वे अन्दर आत्मा को मोह-बाण नहीं लगने देते थे । वे गम्भीर मुनिराज तो स्वरूप की मस्ती में मस्त, अडोल प्रतिमायोग धारण किये हुए थे । बाहर में मस्तक भले ही अग्नि में जल रहा था; परन्तु अन्दर आत्मा तो चैतन्य के परम शान्तरस से ओत-प्रोत था । शरीर जल रहा है फिर भी आत्मा’ स्थिर है, क्योंकि दोनों भिन्न -भिन्न हैं । जड़ और चेतन के भेदविज्ञान द्वारा चैतन्य की शान्ति में स्थित होकर घोर उपसर्ग सहनेवाले मुनिराज अत्यन्त श्हूवीर थे, उन्होंने जिस दिन दीक्षा ली, उसी दिन शुक्लध्यान के द्वारा कर्मों को भस्म कर केवलज्ञान और फिर मोक्ष प्राप्त किया? ” अंतःकृत ‘ ‘ केवली हुए, उनके केवलज्ञान और निर्वाण दोनों ही महोत्सव देवों ने एक साथ मनाये ।