श्रेष्ठ यही होगा कि हम अपने पद व मर्यादा, संस्कृति व सभ्यता के अनुरूप ही वस्त्रों का चयन करें। कम से कम बालिकायें धार्मिक आयतनों/शिविरों/ गोष्ठी/तीर्थयात्रा/ पंचकल्याण/वेदी प्रतिष्ठा आदि महोत्सवों में सदैव चुन्नी वाले सलवार-सूट का प्रयोग करें व महिलाएँ साड़ी का प्रयोग करें व सिर ढककर ही दर्शन/पूजा/ प्रवचन आदि में भाग लें। साड़ी भी इस ढ़ग से न पहने कि लोग कह दे कि भैया ! इससे तो अच्छे सूट ……..। परमार्थ से देखा जाये तो आत्मा निग्र्रन्थ स्वरूप है और पर्याय दृष्टि से विचार करें तो भी मानव जन्म के समय निग्र्रन्थ रूप लेकर ही जन्मता है। हमारे निग्र्रन्थ गुरुओं का रूप नैसर्गिक है, प्रकृति प्रदत्त है। जन्म समय से ही जिनेन्द्र की मुद्रा से अंकित है, जैसा कि अकलंक देव ने अकलंक स्त्रोत में कहा है-
‘‘नो ब्रह्माकिंत ……… नग्नं पश्यत वादिनों जगदिदं जैनेन्द्रमुद्रांकितम् ।।’’
निग्र्रन्थ गुरुओं को दिगम्बर कहा जाता है अर्थात दिशा ही है वस्त्र जिनके। वास्तव में देखा जाये तो निग्र्रन्थ स्वरूप को तिरोभूत करने वाले कोई भी वस्त्र अच्छे नहीं, लेकिन जब तक ऐसी निग्र्रन्थ दशा नहीं प्रगटती, तब तक कैसे वस्त्र पहनें ? आइये भारतीय संस्कृति व जैन संस्कृति के परिपे्रक्ष्य में विचार करते हैं- भारत एक विशाल देश है, हमें पूरे देश में विभिन्न राज्यों में अनेकानेक प्रकार की पोशाक पहने लोग दिखाई देते हैं, कृपया इस बात पर ध्यान दें, कि हमारे देश में पोशाकों में विभिन्नता तो है, लेकिन शरीर से चिपके वस्त्र किसी भी क्षेत्र में नहीं पहने जाते थे, चाहे वे स्त्री के हों या पुरुष के। यदि आप निष्पक्ष दृष्टि से विचार करें तो जो ‘स्कीन टाईट’ वस्त्र पहनते हैं उनकी परछाई ऐसी दिखती है जैसे वे निर्वस्त्र हों। वस्त्र पहने-पहने भी उनके एक एक अंगों के उभार अलग अलग दिखाई देते हैं, जो कि शोभनीय नहीं लगते। हमारे देश में प्राचीन समय में पुरुषों की ड्रेस धोती-कुर्ता रहती थी जो कि हमारे मध्य भारत की आबोहवा के अनुकूल रहती थी। इसके बाद धोती का स्थान पैजामें ने ले लिया वह भी उचित ही था। लेकिन वर्तमान में प्रचलित जींस-टी शर्ट एकदम टाईट हो तो वह दूसरों के लिए नहीं, स्वयं के लिए दु:खदायक हो जाते हैं, वे मन्दिर आकर भी भगवान को साष्टांग नमस्कार नहीं कर पाते और उन वस्त्रों में वायु का प्रवेश न होने के कारण वे बिना पँखा-कूलर -ए.सी के नहीं रह पाते और ऐसे ही लोगों को धर्मायतनों में जो कि अहिंसा धर्म के आयतन हैं वहाँ उन्हें ए.सी. आदि की जरूरत महसूस होती है और वे मजबूरी के नाम पर इसे क्रियान्वित भी कर देते है। अब महिलाओं के पौशाक की बात आती है, महिलाओं में हम सर्वप्रथम आर्यिका जी के वस्त्रों की बात करें तो वे एक सूती-सफेद अल्प मोल की सोलह हाथ प्रमाण वस्त्र को साड़ी के रूप में प्रयोग करती है, उनका यह वेश अत्यंत शोभा को प्राप्त होता है। वास्तव में देखा जाये तो सारे विश्व में भारतीय नारियाँ अपनी पोशाक ‘साड़ी’ के कारण एक अलग ही पहचान रखती है, ऐसा उत्तम पहनावा अन्य किसी भी देश में नहीं है। प्राचीन समय में बालिका जब छोटी रहती थी वह घाघरा व पोलका पहना करती थी और जैसे ही बड़ी होती थी वे उस पर साड़ी पहना करती थी व सदैव सिर ढक कर रहती थी। जरा सिर उघड़ा कि घर की बुजुर्ग महिलायें कह देती थी कि सिर पर पल्ला नहीं सम्भलता तो आओं कील ठोंक देवें। वर्तमान समय में वस्त्रों के पहनावे में पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण ने अत्यंत विकृति को जन्म दिया है। जींस/ टी शर्ट/ स्लीवलेस/ स्किन टाईट कपड़े किसी भी रीति से महिलाओं पर, बालिकाओं पर शोभनीय नहीं लगते, इस प्रकार के वस्त्रों से हम परहेज करें, तो ही उत्तम होगा। ‘‘वस्त्र वे ही अच्छे हैं जो हमारे शील की सुरक्षा कर सके।’’ जिनके बनाने की पद्धति अहिंसक हो, जीवों की हिंसा से निर्मित जैसे- सिल्क- कोसा आदि के नहीं, जिनके रखरखाव में, धोने में अधिक हिंसा न हो। वस्त्र अल्पमोल के हो, जिनके लिये अधिक न कमाना पड़े, न्याय-नीति की कमाई से जिनका मोल हम चुका सके। यदि किसी को आवश्यकता हो तो देने के लिये हमें सोचना न पड़े। उदा. श्री गणेश प्रसाद जी वर्णी, गांधी जी। वस्त्र सदैव साफ-सुथरे उज्ज्वल हो धर्मायतनों में तो कम से कम गहरे कत्थई, नीले, हरे, काले वस्त्रों का प्रयोग न करें। वर्तमान में एक विकृति और चली है कि विवाहित महिलायें साड़ी के स्थान पर सलवार सूट आदि -२ ड्रेसों का प्रयोग करने लगी हैं और यह परम्परा वैâक्टस की भाँति इतनी अधिक फैल गई है कि वे धर्मायतनों में भी इस प्रकार के वस्त्रों को पहिनने से परहेज नहीं करती, यदि उन्हें टोका जाये तो जबाब आता है, साड़ी तो ‘आउट आफ डेट’ हो चली है या साड़ी पहन कर हम ‘बहिन जी छाप’ नहीं कहलाना चाहते। तो बहनों थोड़ा विचार करो, क्या ! हमारे आर्यिका जी की यह वेशभूषा ‘आउट आफ डेट’ है ? आज भी ब्रह्मचारिणी बहनों की भी वही पोशाक है। आप कहेंगे आप तो धार्मिक लोगों की बात करने लगे, तो आईये हम जन-सामान्य की बात करते हैं। अभी पिछले कार्यकाल में हमारे देश की राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा पाटिल जी थी, आपने उन्हें देखा भी होगा, वे सदैव हमें फुल बाँहों का ब्लाउज व साड़ी में ही दिखाई देती थी, उनकी साडियाँ पारदर्शी नहीं होती थी। वे साड़ी इतने सुन्दर ढंग से पहनती थी कि उनका शरीर सदैव ढका हुआ रहता था। और यदि आप कहें कि जैसा देश वैसा भेष तो राष्ट्रपति कार्यकाल में उन्होंने अनेक देशों का भ्रमण किया, लेकिन उन्होंने सदैव ऐसा ही पहनावा पहना। इसी रीति से हम वर्तमान में श्रीमती सोनिया गाँधी को देखते है, यद्यपि वे विदेशी है, इटली की है, वे चाहे तो पाश्चात्य संस्कृति के वस्त्र स्वयं पहनें और अपने बच्चों को पहनाये, लेकिन नहीं, भारत देश की बहू होने के नाते वे सदैव वस्त्रों की मर्यादा का ध्यान रखती है। अत: श्रेष्ठ यही होगा कि हम अपने पद व मार्यादा, संस्कृति व सभ्यता के अनुरूप ही वस्त्रों का चयन करें। कम से कम बालिकायें धार्मिक आयतनों/ शिविरों/ गोष्ठी/तीर्थयात्रा/पंचकल्याणक/वेदी प्रतिष्ठा आदि महोत्सवों में सदैव चुन्नी वाले सलवार-सूट का प्रयोग करें व महिलायें साड़ी का प्रयोग करें व सिर ढककर ही दर्शन/पूजा/ प्रवचन आदि में भाग लें। साड़ी भी इस ढ़ग से न पहने कि लोग कह दे कि भैया ! इससे तो अच्छे सूट ……..। छोटी-छोटी बच्चियों को भी इस रीति के वस्त्र पहनायें कि जो वस्त्रों का प्रयोजन है शरीर ढकना, वह पूरा हो सके। यदि हम बच्चों को आज गलत ढंग के वस्त्र पहनाते हैं, तो वे कल बड़े होने पर वैसे ही वस्त्र पहिनने की जिद करेंगे। फिर आप कहेंगे ‘‘क्या करे बहुत मना करते हैं पर मानते ही नहीं’’ । अत: प्रारम्भ से ही उनमें ऐसी समझ विकसित की जाये कि सहीं गलत का निर्णय वे स्वयं कर सके। वस्त्र लज्जा के प्रतिक माने जाते हैं। इस देश की शीलवान लज्जावान नारियाँ सदा ही ऐसे उत्तम वस्त्रों का प्रयोग करती रहीं है जो कि उनकी पद व मर्यादा के अनुरूप हो, इसके विरूद्ध वस्त्र निर्लज्जता के प्रतीक है। इस देश की सतवन्ती, कुलवन्ती नारियों का आदर्श ही है जिसके कारण भारत आज भी विश्व मंच पर गुरु के पद पर विराजमान है। श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार जी ग्रन्थ के टीकाकार पं. सदासुखदास जी साहब इस संबंध में ‘अनुपसेव्य त्याग प्रकरण’ के अन्तर्गत हमारा मार्गदर्शन करते हैं, वे कहते हैं- ‘‘अनुपसेव्य जानकर विकार रूप वस्त्र आभरण नहीं पहिनना चाहिए, जो उत्तम कुल के योग्य नहीं, अपने आप में तथा दूसरों में विकार पैदा नहीं करने वाले, अपने पद के योग्य, अवस्था के योग्य, लोक से अविरूद्ध ऐसे आभरण, वस्त्र, भेष धारण करना ही उचित है।’’ अंत में निग्र्रन्थ दशा ही हम सबका साध्य होवे, इसी भावना के साथ-
‘‘वेश दिगम्बर धार, तू खुशहाली का । मजा कहा नहीं जाये, इस कंगाली का ।।’’