उषा-बहन! वैयावृत्य किसे कहते हैं?
मालती-आचार्य, उपाध्याय आदि दस प्रकार के साधुओं के क्लेश और संक्लेश को दूर करने के लिए जो व्यावृत्त-प्रवृत्त होता है, उसका मन, वचन, काय का जो भी व्यापार-कार्य है वह वैयावृत्य कहलाता है। यह वैयावृत्य एक तप है तथा सोलहकारण भावनाओं मेें से एक भावना है।
उषा-यह कौन सा तप है और कौन सी भावना है?
मालती-अनशन, अवमौदर्य, वृत्तपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त-शय्यासन और कायक्लेश ये छह बाह्य तप हैं। प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये छ: अन्तरङ्ग तप हैं। इनमें से यह वैयावृत्य अन्तरङ्ग तप है, जो बाह्य तप की अपेक्षा भी महान है। ऐसे ही दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता आदि सोलह भावनाओं के अन्तर्गत यह ‘नवमी भावना’ है।
उषा-आचार्य आदि दस प्रकार के साधु कौन से हैं?
मालती-आचार्य, उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष, ग्लान, गण, कुल, संघ, साधु और मनोज्ञ ये दस भेद दिगम्बर जैन मुनियों के होते हैं। जो शिक्षा-दीक्षा देते हैं, संघ के नायक हैं, वह आचार्य हैं। संघ में पढ़ाने वाले उपाध्याय हैं। महोपवासी साधु तपस्वी होते हैं। रोगादि से युक्त साधु ग्लान है। स्थविर की संतति गण है। दीक्षाचार्य की परम्परा कुल है। चातुर्वर्ण श्रमण समूह अथवा मुनि-आर्यिका श्रावक-श्राविका ये संघ है। चिरकाल से दीक्षित को साधु संज्ञा है और लोक में अतिशय मान्य साधु मनोज्ञ कहलाते हैं। इनके क्लेश, कष्ट, उपद्रव, संकट, रोग आदि के प्रसंग में औषधि परिचर्या, सेवा सुश्रूषा आदि करना वह सब वैयावृत्य कहलाता है।
आचार्यों ने तप करने के लिए शक्तित: शब्द का प्रयोग किया है, किन्तु वैयावृत्य के लिये सर्वशक्त्या१ शब्द का प्रयोग किया है। बल्कि ग्रन्थकारों ने तो इस वैयावृत्य तप को तपश्चरण का प्राण ही कह दिया है। देखिये-
‘‘सहधर्मियों पर आपत्ति आने पर जो प्रमाद कर देते हैं, वे मनुष्य सर्व सम्पत्तियों को छोड़ देते हैं। क्योंकि यह वैयावृत्य तप, तप का हृदय-प्राण है, ऐसा जिनेन्द्रदेव ने कहा है।’’ वैयावृत्य करने वाले साधु या श्रावक साधुओं की समाधि में सहयोगी बनते हैं। निर्विचिकित्सा गुण का पालन करते हैंं। सहधर्मियों में वात्सल्य करते हैं और भी गुणों के स्वामी बन जाते हैं।श्रीकृष्ण ने एक मुनिराज के शरीर में कुछ रोग देखा, तब गुरू से प्रश्न किया-भगवन्! इस रोग के लिए क्या औषधि है? मुनि ने कुछ नाम बता दिया। वैद्य को बुलाकर श्रीकृष्ण ने उस औषधि को समझा। पुन: रसोईघर में उस औषधिमिश्रित लड्डू बनवा दिये। मुनि को आहार के समय वे लड्डू दिये गये जिससे उनका रोग शान्त हो गया। उस पुण्य के प्रसाद से श्रीकृष्ण भविष्य में तीर्थंकर होवेंगे।
वास्तव में यह शरीर ही धर्म का साधन है। यदि इसमें वात, पित्त, कफ आदि दोष प्रकुपित हो जाते हैं तब धर्म साधना में भी बाधा उपस्थित हो जाती है। ऐसे प्रसंग पर श्री कुन्दकुन्द देव ने भी प्रवचनसार में मुनियों को साधुओं की वैयावृत्य के लिये असंयमियों से, श्रावकों से बोलने की छूट दी है। इससे भी वैयावृत्य का महत्त्व विशेष रूप से दिख जाता है। समयोचित सेवा करना ही वैयावृत्य है और गुरू के अनुकूल प्रवृत्ति करना भी वैयावृत्य है।
एक समय श्री धर्मघोष मुनिराज चम्पानगरी में आहार करके तपोवन की ओर आ रहे थे। चलने के अधिक परिश्रम से वे अत्यधिक थक गये तब एक वृक्ष के नीचे बैठ गये। उस समय वे प्यास की बाधा से व्याकुल हो रहे थे। गंगादेवी उन्हें प्यासा देखकर एक कलश में पवित्र जल लेकर वहाँ आई और बोली-‘हे भगवन्! आप इस ठण्डे जल को पीकर प्यास शान्त कीजिये।’ मुनि ने कहा-‘देवि! तूने अपना कर्तव्य किया सो ठीक, परन्तु हमारे लिये देवों द्वारा दिया गया आहार-पानी काम नहीं आता।’ सुनकर देवी चकित रह गई। उसी समय वह विदेह क्षेत्र में गई और वहाँ भगवान के समवसरण में प्रश्न किया कि-‘हे भगवन्! एक प्यासे मुनि को मैं जल पिलाने गई किन्तु उन्होंने नहीं पिया सो क्या कारण है? दिव्यध्वनि से उसे उत्तर मिला कि-‘‘मुनि लोग देवों के हाथ से आहार नहीं लेते हैं।’’ देवी उत्तर पाकर निरूपाय हुई फिर भी उसने सोचा कि हमें कुछ तो वैयावृत्य करके इनकी प्यास को शान्त करना चाहिये। वहाँ से आकर मुनि के चारों तरफ सुगन्धित ठण्डे जल की वर्षा शुरू कर देती है जिससे ठण्डी-ठण्डी हवा लगकर मुनि को एकदम शान्ति हो जाती है। इसके बाद वे मुनिराज ध्यान में आरूढ़ होकर तत्क्षण ही केवली हो जाते हैं। स्वर्ग से देव उनकी पूजा करने आ जाते हैं और वहाँ पर गन्धकुटी की रचना हो जाती है। यह थी देवी की वैयावृत्ति!श्री समन्तभद्र स्वामी ने तो अतिथिसंविभाग व्रत के स्थान पर वैयावृत्य नाम का ही अन्तिम शिक्षाव्रत लिया है और उसमें मुनियों के आहार-दान आदि पर अत्यधिक जोर दिया है। बल्कि यहाँ तक कहा है कि ‘‘गृहस्थी में पंचसूना आदि से जो हमेशा पाप संचित होते रहते हैं उनके क्षालन का यदि कोई उपाय है तो एक गृहवास से रहित मुनियों को आहार देना जैसे कि रुधिर से रंगे हुए वस्त्र को जल धोकर साफ कर देता है वैसे ही अतिथियों को दिया गया आहार गृहस्थ के पापों को धोकर साफ कर देता है।
उषा-यह तो आपने साधुओं के लिये वैयावृत्ति का विधान किया किन्तु हम श्रावक-श्राविकायें गृहस्थों की भी वैयावृत्ति कर सकते हैं या नहीं?
मालती-क्यों नहीं, गृहस्थों में भी पूज्य पुरुषों की, गुणीजनों की, घर के बड़े जनों की और तो क्या, छोटे हों या बड़े, स्त्री हों या पुरुष हों, सभी की समयोचित वैयावृत्ति करनी चाहिये।
बात यह है कि ‘‘धर्म धर्मात्माओं के बिना नहीं रहता है।’’ इसलिये रत्नत्रयरूप धर्म को धारण करने वाले साधुओं की वैयावृत्ति करना एक तप है। शेष लोगों की वैयावृत्ति भी धर्म है, कर्तव्य है, सेवा है। इससे भी परस्पर में स्नेह बना रहता है। इसलिये गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी यथोचित सभी की सेवा-वैयावृत्ति करनी ही चाहिये। देखो! जीवंधर ने कुत्ते को भी महामन्त्र सुनाकर उसे सान्त्वना दी यह भी तो एक वैयावृत्ति ही है।
उषा-सच है, इस वैयावृत्ति तप का महत्त्व अचिन्त्य ही है।