प्र. आ. चंदनामती माताजी : बचपन में आम तौर पर सब बालक – बालिकांये खेल कूद पसंद करते है, पर ऐसी उम्र में आपके मन में वैराग्य का अंकुर कैसे जागृत हुआ ?
ग.प्र.आ.शि.ज्ञानमती माताजी : जब सात-आठ वर्ष की मेरी अवस्था होगी, घर के बाहर प्रांगण में सभी लड़कियाँ सायंकाल में खेलने आ जातीं। उस समय मैं भी बाहर खेलने के लिए जाना चाहती।
माँ से आज्ञा माँगती, तब वे कहतीं-‘‘खेल-कूद कर क्या करना? देखो! यह काम कर लो, यह कर लो, जल्दी निपटकर अभी मन्दिर चलूँगी, वहाँ आरती करूँगी और शास्त्र सुनूँगी।’’ सो मैं कभी-कभी मन मारकर रह जाती और कभी खुश भी हो जाती।
सायंकाल खेल में न जाकर थोड़ी देर बाद माँ के साथ मन्दिर जाती , आरती करती पुनः शास्त्र सुनने बैठ जाती। उस समय मंदिर में कोई पण्डित शास्त्र बाँचते थे या कभी गाँव के ही कोई बड़े पुरुष बाँचते थे।
मैं प्रौढ़ महिलाओं के बीच में बैठ जाती। कभी-कभी बराबर की लड़कियाँ भी आती थीं किन्तु वे सब प्रायः बातों में लगी रहती थीं अतः मैं उन लड़कियों के साथ नहीं बैठती थी।
शास्त्र बाँचने में कभी कुछ, कभी कुछ विशेष बातें अवश्य मिल जाया करती थीं जो कि मेरे हृदय में प्रवेश कर जाया करती थीं। एक बार प्रकरण आया- ‘‘आत्मा में अनन्त शक्ति है।’’
मैंने सोचा ‘‘जब आत्मा अनन्त शक्तिवाली है तो मैं उसको प्रगट क्यों नहीं कर सकती? उस पुरुषार्थ के लिए भला क्या नहीं कर सकती?’’
माँ प्रातः स्वाध्याय करके ही जलपान लेती थीं। वह शास्त्र था ‘पद्मनंदिपंचविंशतिका’ जिसे खोलकर विधिवत् मंगलाचरण करके एक श्लोक संस्कृत का पढ़कर उसकी हिन्दी पढ़ लेती थीं।
कभी-कभी दो श्लोक पढ़ लेती थीं। यही उनका नियम था। वे क्वचित् कदाचित् मेरे से भी पढ़ा लिया करती थीं। बाद में माँ की आज्ञा से मैंने भी उस ग्रन्थ का स्वाध्याय प्रारम्भ कर दिया जिससे ज्ञान और वैराग्य प्रस्फुटित होता चला गया।
आ.सुव्रतमती माताजी : धन्य है वो माँ, जिन्होंने अपने संतानों पर जिनधर्म के इतने अच्छे संस्कार किये.
आ.सुदृढ़मती माताजी : क्या आपकी माँ आपको कोई कथाएं पढ़ने के लिए देती थी ?
ग.प्र.आ.शि.ज्ञानमती माताजी : हां. जरुर ! कभी-कभी कहतीं- ‘‘लो यह दर्शनकथा और शीलकथा पढ़ो।’’
मैं उन्हें लेकर पढ़ने बैठ जाती। उन दोनों कथाओं में मुझे बहुत ही रस आता । यहाँ तक कि मैंने उन दोनों कथाओं को सैकड़ों बार पढ़ डाला। बहुत से प्रकरण मुझे याद हो गये थे, जिनको मैं स्वतः मन ही मन गुना करती थी।
शीलकथा की मुझ पर इतनी गहरी छाप पड़ी कि मैं स्वयं एक दिन भगवान के मंदिर में जाकर बैठ गई और बोली-‘‘भगवन्! आज तो कोई दिगम्बर गुरु दिखते नहीं हैं जैसा कि मनोरमा को मिल गये थे अतः अब मैं आपके सान्निध्य में ही शीलव्रत ले रही हूँ।
हे देव ! इस जन्म में मैं पूर्णतया शीलव्रत पालन करूँगी।’’ दर्शनकथा पढ़कर भी मैंने ऐसे ही देवदर्शन करने का हमेशा के लिए नियम कर लिया था पुनः एक दिन चुपके से अपनी छोटी बहन शांतिदेवी को भी यह शीलव्रत दे दिया था, कई एक साथ की सहेलियों को भी दे दिया।
आ.सुवर्णमती माताजी : उस जमाने मे आम तौर पर लडकीयों को पढाई छोडकर घर-गृहस्थी के काम सम्हालने पडते थे, फिर आप जिनवाणी के पाठों का स्वाध्याय कैसे करती थी ?
ग.प्र.आ.शि.ज्ञानमती माताजी : ये तो मेरा ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपक्षम हि था कि घर मे मैं प्रायः चौका साफ करते समय, महरी के मंजे बर्तनों को पुनः धोते हुए और दाल चावल आदि साफ करते हुये कई एक पाठ याद कर लिया करती थी। पुस्तक या जिनवाणी को विनय से एक उच्चस्थान पर खोल कर रख लेती थी और एक-एक पंक्ति देख कर रट लिया करती थी।
उन रटे हुए पाठों को प्रतिदिन सोते समय और उठकर प्रातः पढ़ा करती थी जिससे हृदय में वैराग्य भावना की लहर उठा करती थी। सीताजी की बारह भावना में एक पंक्ति मुझे बहुत ही प्रिय लगती थी जिसे मन ही मन गुनगुनाया करती थी-
‘‘परवश भोगी भारी वेदना, स्ववश सही नहिं रंच।
शाश्वत सुख जासों पावती, लेई करम ने वंच।।’’
मैंने परवश में अर्थात् कर्म के अधीन होकर बहुत भारी कष्ट सहन किये हैं किन्तु स्ववश-स्वाधीन होकर अर्थात् अपनी इच्छा से रंचमात्र भी दुःख नहीं सहन किये हैं, यदि स्वाधीन होकर अर्थात् अपनी रुचि से धर्म अनुष्ठान में-तपश्चर्या मं किंचित् भी दुःख सहन कर लेती तो शाश्वत अविनाशी सुख प्राप्त कर लेती किन्तु हा ! कर्म ने मुझे ठग लिया है।
वैराग्य भावना की ये पंक्तियां भी बहुत ही अच्छी लगती थीं-
‘‘सुख होता संसार विषे तो, तीर्थंकर क्यों त्यागे।
काहे को शिवसाधन करते, संजम सों अनुरागे।।’’
यदि इस संसार में सच्चा सुख होता तो तीर्थंकर जैसे महापुरुष उसे क्यों छोड़ते? क्यों वन में जाकर तपश्चर्या करते और क्यों संयम से प्रेम करके मोक्ष के साधन में लगते?
जब कभी बैलगाड़ी पर अधिक सामान लदे रहने से बैलों को भार ढोते देखती व इक्का (घोड़ा तांगा) पर बैठने का प्रसंग आता तो घोड़ों पर चाबुक का प्रहार देखते ही रोम-रोम सिहर उठता और सोचने लगती-‘‘इन अनाथ पशुओं का नाथ-रक्षक कौन है?देखो, बेचारे वैâसे कष्ट भोग रहे हैं? कोड़ों से पीटे जाना, अधिक भार लादना, समय पर दाना पानी नहीं मिलना आदि।
कभी कुत्ते घर में घुसते तो नौकर मार कर भगाते। उस समय भी मेरा जी भर आता, बहुत-दुःख होता। मैं प्रायः रोटी का टुकड़ा ले जाकर बाहर डालकर कुत्तों को घर से भगाती थी और इन पशुओं के नाना दुःख देखकर संसार से वैराग्य भावना भाने लगती थी।
घर में छोटे-छोटे भाई बहनों को कभी नजला, खाँसी आदि देखकर कभी-कभी अन्य कुछ छोटे-मोटे कष्ट देखकर मैं सोचने लगती-‘‘इस शरीर के साथ अनेक रोग, शोक, आधि, व्याधि लगी ही रहती हैं। भगवन् ! ऐसा क्या उपाय है कि जो इस शरीर से ही छुटकारा पाया जा सके?’’
प्र. आ. चंदनामती माताजी : हमने सुना है की उस समय आप पर किसी ग्रंथ का विशेष प्रभाव था, आप कृपया उस बारे में कुछ बताइए.
हमारी गृहस्थ अवस्था की माँ को दहेज में उनके पिता ने ‘पद्मनंदिपञ्चविंशतिका’ नाम के एक ग्रन्थ को दिया था। माँ सदा ही उसका स्वाध्याय किया करती थीं। बहोत् बार वे उसे पढ़ चुकी थी। एक बार वह ग्रन्थ पूरा हो जाता तो पुनः उसी को चालू कर लिया करती थीं। वे कहा करती थीं कि- ‘‘मैंने इसी ग्रन्थ का स्वाध्याय करके सर्वप्रथम आजन्म शीलव्रत और अष्टमी, चौदस का ब्रह्मचर्य व्रत ले लिया था।’’
उन्हीं की प्रेरणा से मैं भी उस ग्रन्थ का स्वाध्याय करने लगी थी किन्तु मुझे अतिशय प्रिय लगने से मैं १-२ श्लोकों से अधिक पढ़ लिया करती थी अतः वर्ष दो वर्ष के अंतर्गत ही मैंने स्वयं उसका अनेक बार स्वाध्याय कर लिया था और उसमें से अनेक प्रिय श्लोक याद कर लिये थे।
उस ग्रन्थ के शरीराष्टक अधिकार से मुझे शरीर के स्वरूप का ज्ञान हो जाने से वैराग्य बढ़ रहा था और ब्रह्मचर्याष्टक अधिकार पढ़कर तो ऐसी भावना हो रही थी कि-‘‘हे भगवन्! मैं इस जन्म में तो ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर ही लूँ साथ ही ऐसी तपश्चर्या करूँ कि जिससे मैं लौकांतिक देव हो जाऊँ।
जहाँ पर पूर्ण ब्रह्मचर्य ही है, जहाँ पर जाने के बाद वापस एक भव ही लेना पड़ता है पुनः संसार में अधिक भ्रमण नहीं करना पड़ता है।’’ कभी-कभी रात्रि में मेरी नींद खुल जाती तब यही सोचने लगती-‘‘ क्या उपाय किया जाये कि जिससे मैं विवाह के बंधन में न पड़ूँ और लौकांतिक देव के पद को प्राप्त करने का पुरुषार्थ कर लूँ इत्यादि।’’