तर्ज – एक था बुल और एक थी बुलबुल………….
शान्तिनाथ- सुन ले मेरी प्यारी माता, मुझको दीक्षा लेना है।
नहीं राज्य करना है मुझको, मुझे न घर में रहना है।।सुन ले…।।
माता- तुझे पता है मेरे लाडले, तुझ बिन नहिं रह पाऊँगी।
तेरी ये वैरागी बातें, नहीं सहन कर पाऊँगी।।तुझे…….।।
शान्तिनाथ- माता मैंने बहुत तरह के, सुख भोगे हैं बचपन से।
कामदेव-तीर्थंकर-चक्री, जैसे पद पाये मैंने।।
अब मुझको इस नश्वर तन से, अविनश्वर पद पाना है।। नहीं राज्य..।।१।।
माता- तेरे सुख में ही सुख मुझको, बेटा बात ये सच्ची है।
अभी न जल्दी करना कुछ भी, आगे उमर पड़ी ही है।।
मैं भी तो वृद्धावस्था में, आतम ध्यान लगाऊँगी।।तुझे पता……।।१।।
शान्तिनाथ- माता जैसे रोग-मृत्यु की, कोई उम्र न होती है।
वैसे ही तप-त्याग ग्रहण की, आयु न कोई होती है।।
मुझको तो अब केवल अपनी, आत्मसाधना करना है।।नहीं राज्य..।।२।।
माता- बेटा देखो! महल में रहकर, धर्मध्यान तुम खूब करो।
पत्नी-पुत्रों के संग रहकर, सबके मन सन्तुष्ट करो।।
तेरा मुखड़ा देखे बिन मैं, जीवित नहिं रह पाऊँगी।।तुझे पता….।।२।।
शान्तिनाथ- पत्नी-पुत्रों के संग कैसे, धर्मध्यान हो सकता है?
महल में रहकर बोलो कैसे, मन विरक्त रह सकता है?
ऋषभदेव आदिक जिनवर सम, मुझे भी मुक्ती पाना है।।नहीं राज्य…।।३।।
पिता- बेटा! तेरे जन्मोत्सव में, मैंने रतन लुटाए थे।
तेरे राजा बनने के, सपने आँखों में सजाए थे।।
वह सपना तो पूर्ण हुआ, पर अब इक सपना बाकी है।
मेरे अन्तिम क्षण तक बेटा! तू ही मेरा साथी है।।मेरे……..।।३।।
शान्तिनाथ- मात-पिता-पत्नी-पुत्रों का, झूठा नाता है जग में।
इनका मोह नचाता रहता, चौरासी के चक्कर में।।
इसी मोह को जीत मुझे अब, निर्मोही बन जाना है।।नहीं राज्य..।।४।।
माता- बेटा! तुम निर्मोही बनकर, ध्यान लगाओगे वन में।
तुम बिन कैसे रह पाएँगे, हम इन स्वर्णिम महलों में।।
भूखे-प्यासे रहोगे जब तुम, देख नहीं मैं पाऊँगी।।तुझे पता…….।।४।।
शान्तिनाथ- माता तुम तो ज्ञानवान हो, धीर-वीर-गंभीर भी हो।
तीर्थंकर सुत की जननी हो, साधारण माता नहिं हो।।
तुमको तो अब खुशी-खुशी, बस मुझको आज्ञा देना है।।नहीं राज्य…।।५।।
माता- बेटा! साधारण माता हो, अथवा तीर्थंकर जननी।
हर माता के दिल में होती है ममता अतिशायि घनी।।
जब तुम छोड़ चले जाओगे, धैर्य न मैं रख पाऊँगी।। तुझे पता…।।५।।
शान्तिनाथ- मुझसे पहले पन्द्रह जिनवर, ने आतम कल्याण किया।
राजदुलारे थे फिर भी, दीक्षा ले शिवपद प्राप्त किया।।
मुझको भी उस परम्परा का, ही परिपालन करना है।।नहीं राज्य..।।६।।
पिता- जैसे जल में रह करके भी, कमल भिन्न रह सकता है।
समवसरण के मध्य भी जिनवर, की दिखती निस्पृहता है।।
वैसे ही तू महल के अंदर, रह सकता वैरागी है।
मेरे अन्तिम क्षण तक बेटा! तू ही मेरा साथी है।।मेरे……।।६।।
शांतिनाथ- महल में रहते-रहते मेरा, आधा जीवन निकल गया।
सुख भोगे हैं तरह-तरह के, मैंने और किया ही क्या।।
महलों का सुख छोड़ मुझे अब, शाश्वत सुख ही पाना है।।नहीं राज्य..।।७।।
माता- बेटा! तुम अन्त:पुर में, जाकर देखो क्या हाल वहाँ।
सभी छ्यानवे सहस्र रानियाँ, रो-रोकर बेहाल वहाँ।।
उनको ऐसी हालत में मैं, कैसे-क्या समझाऊँगी।।तुझे पता..।।७।।
शान्तिनाथ- भव-भव से ना जाने कितनी, बार जन्म पाए हमने।
मात-पिता-पत्नी-पुत्रों के, कितने ही संबंध बने।।
जन्म-मरण की उसी शृँखला, का ही समापन करना है।।नहीं राज्य…।।८।
माता- बेटा! तेरे दृढ़ निश्चय ने, हम सबको तो हरा दिया।
तेरे आतमबल के आगे, हमने मस्तक झुका दिया।।
बेटा! अब मैं भी तेरे संग, आतम ध्यान लगाऊँगी।
नहीं रहूँगी महल में अब मैं, दीक्षा लेने जाऊँगी।।नहीं…..।।८।।
शान्तिनाथ- माता! तुमने समझ लिया है, झूठा है जग का नाता।
कितनी सुन्दर बात कही है, तुमने हे मेरी माता!।।
अब तुमको तो दीक्षा लेकर, जग की माता बनना है।
नहीं महल में रहना है अब, हमको दीक्षा लेना है।।नहीं…।।९।।
सभी लोग मिलाकर- ना जाने कितने भव-भव में, हमने कितना पुण्य किया।
जिसके कारण हमने यह, दुर्लभ मानुज तन प्राप्त किया।।
दीक्षा लेकर अब तो ‘सारिका’, जीवन सार्थक करना है।
नहीं रहेंगे महल में अब हम, हमको वन में रहना है।।नहीं….।।९।।