आचार्य मानतुंंग ने भक्तामर स्तोत्र में तीर्थंकर भगवान की माता की स्तुति करते हुए कहा है-
स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान् , नान्यासुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता।
सर्वादिशो दधति भानि सहस्र रश्मिम्, प्राच्येव दिग्जनयतिस्फुर दंशुजालम् ।।
अर्थात् सैकड़ों स्त्रियां सैकड़ों पुत्रों को पैदा करती हैं परन्तु आप जैसे पुत्र को दूसरी मां पैदा नहीं कर सकती है क्योंकि नक्षत्रों को सब दिशाएं धारण करती हैं परन्तु किरणों के समूह वाले सूर्य को पूर्व दिशा ही प्रकट करती है। जैनधर्म के चौबीसवें सूर्य, अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर को कुण्डलपुर की पवित्र धरती पर जन्म देने वाली माता त्रिशला भी वह जगज्जननी एवं त्रिलोकपूजनीय माता हैं जो कि वैशाली के राजा चेटक की ज्येष्ठ पुत्री थीं। दिगम्बर जैनशास्त्रानुसार ‘‘वैशाली नगरी’’ सिन्धुदेश में थी जहां राजा केक के पुत्र ‘‘चेटक’’ राज्य करते थे। ‘‘उत्तरपुराण’’ नामक आर्षग्रंथ में श्री गुणभद्राचार्य ने सिंधुदेश के अंतर्गत वैशाली नगरी, महाराजा चेटक एवं उनके पुत्र-पुत्रियों का वर्णन करते हुए कहा है-
सिन्ध्वाख्यविषये……………………ततः संयममग्रहीत् ।।३-१४।।
सिन्धु नामक देश की वैशाली नगरी में चेटक नाम के अतिशयप्रसिद्ध, विनीत और जिनेन्द्रदेव के अतिशय भक्त राजा थे उनकी रानी का नाम सुभद्रा था। उन दोनों के दश पुत्र हुए जो कि धनदत्त, धनप्रभ, उपेन्द्र, सुदत्त, सिंहभद्र, सुकुम्भोज, अकम्पन, पतंगक, प्रभंजन और प्रभास नाम से प्रसिद्ध थे तथा उत्तम क्षमा आदि दश धर्मों के समान जान पड़ते थे। इन पुत्रों के सिवाय सात ऋद्धियों के समान सात पुत्रियां भी थीं जिनमें सबसे बड़ी प्रियकारिणी थी, उससे छोटी मृगावती, उससे छोटी सुप्रभा, उससे छोटी प्रभावती, उससे छोटी चेलिनी, उससे छोटी ज्येष्ठा और सबसे छोटी चंदना थी। विदेहदेश के कुण्डलपुर में नाथवंश के शिरोमणि एवं तीनों सिद्धियों से सम्पन्न राजा सिद्धार्थ राज्य करते थे। पुण्य के प्रभाव से प्रियकारिणी (त्रिशला) उन्हीं की स्त्री हुई थी। वत्सदेश की कौशाम्बी नगरी में चन्द्रवंशी राजा शतानीक रहते थे, मृगावती नाम की दूसरी पुत्री उनकी स्त्री हुई थी। दर्शाणदेश के हेमकच्छ नामक नगर के स्वामी राजा दशरथ थे जोकि सूर्यवंशरूपी आकाश के चन्द्रमा के समान जान पड़ते थे। सूर्य की निर्मल प्रभा के समान सुप्रभा नाम की तीसरी पुत्री उनकी रानी हुई थी। कच्छदेश की रोरुका नाम की नगरी में उदयन नाम का एक बड़ा राजा था प्रभावती नाम की चौथी पुत्री उसी की हृदयवल्लभा हुई थी। अच्छी तरहसे शीलव्रत धारण करने से इस का दूसरा नाम शीलवती भी प्रसिद्ध हो गया था। गान्धारदेश के महीपुर नगर में राजा सत्यक रहता था उसने राजा चेटक से उसकी ज्येष्ठा नाम की पुत्री की याचना की परन्तु राजा ने नहीं दी इससे उस दुर्बुद्धि मूर्ख ने कुपित होकर रणांगण में युद्ध किया परन्तु युद्ध में वह हार गया जिससे मानभंग होने से लज्जित होने के कारण उसने शीघ्र ही दमवर नामक मुनिराज के समीप जाकर दीक्षा धारण कर ली। इन महाराज चेटक की पाँचवी पुत्री चेलना मगध देश के राजगृही नगरी के राजा श्रेणिक की रानी हुई हैं तथा ज्येष्ठा और चन्दना ने आर्यिका दीक्षा धारण की। ये राजा चेटक सोमवंशी थे जैसा कि उत्तरपुराण में कहा है-
सुरलोकादभू: सोम-वंशेत्वं चेटको नृप:।
इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि राजा सिद्धार्थ नाथवंशी थे और वैशाली के राजा चेटक सोमवंशी थे अत: इन दोनों राजाओं के देश अलग-अलग हैं, राजधानी अलग-अलग हैं और वंश, गोत्र आदि भी अलग-अलग हैं। दिगम्बर जैनागम में जहाँ भगवान महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर बताई गई वहीं उनकी जननी प्रियकारिणी त्रिशला की जन्मभूमि वैशाली बताई गई है। वीरजिणिन्दचरिउ ग्रंथ की पांचवी संधि में पृष्ठ ६०में श्री पुष्पदंत महाकवि कहते हैं कि राजा श्रेणिक ने भगवान महावीर के समवसरण में गौतम गणधर से जब आर्यिका चंदना के चरित्र को पूछा तब गौतम स्वामी ने कहा-
सिन्धु-विसइ वइसाली पुरवरि। घर-सिरि-ओहामिय-सुर-वर-घरि।
चेडउ णाम णरेसरु णिवसइ। देवि अखुद्द सुहद्द महासइ।।
अर्थात् सिन्धु देश में वैशाली नामक नगर है जहाँ के घर अपनी शोभा से देवों के विमानों की शोभा को भी जीतते हैं। उस नगर में चेटक नामक नरेश्वर निवास करते हैं। उनकी महारानी सुभद्रा से उनके धनदत्त आदि दस पुत्र उत्पन्न हुए। उनकी अत्यन्त रूपवती सात पुत्रियाँ भी हुई, जिनके नाम हैं-प्रियकारिणी,मृगावती, सुप्रभादेवी, प्रभादेवी, चेलिनी, ज्येष्ठा, चन्दना। इनमें से प्रियकारिणी (त्रिशला) का विवाह श्रेष्ठ नाथवंशी कुण्डलपुर नरेश सिद्धार्थ के साथ कर दिया गया। इसी प्रकार से हरिषेणाचार्यकृत वृहत्कथाकोष में भी राजा चेटक की सातों पुत्रियों का वर्णन करते हुए सबसे बड़ी कन्या प्रियकारिणी (त्रिशला) को बताया है। साथ ही यह भी कहा है कि ये सातों ही पुत्रियां स्वर्गलोक से चलकर आई थीं, उनका चरित्र विद्वानों के चित्त को हरण करेगा। हरिवंशपुराण में प्रियकारिणी महारानी त्रिशला के विषय में आचार्य जिनसेन के शब्द मार्मिक तथा यथार्थ में गौरवपूर्ण है-
कस्तां योजयितुं शक्तास्त्रिशलां गुणवर्णनै:।
या स्वपुण्णैर्महावीरप्रसवाय नियोजिता।।८।।
ऐसी सामथ्र्य किसमें हैं, जो महारानी प्रियकारिणी-त्रिशला के गुण वर्णन की योजना कर सके, क्योंकि अपने पुण्य के कारण ही वह भगवान महावीर की जननी बनी थीं। उन होनहार जननी की स्वर्ग से आई देवांगनाएं किस प्रकार सेवा करती हैं और उनके गुणों का कथन करते हुए स्तुति करती हैं इसका बहुत ही सुन्दर चित्रण आचार्यश्री ने किया है। वह कहते हैं कि देवियों द्वारा की गयी स्तुति कोई अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं थी, अपितु यह वास्तविकता से पूर्ण कथन था। प्रभात में जैसे प्राची दिशा प्रत्येक के प्रेम को प्राप्त करती है और सभी इसी ओर अपनी दृष्टि पुनः-पुनः डाला करते हैं, इसके समान ही स्थिति माता के विषय में भी थी जिन्होंने चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर को जन्म देकर सम्पूर्ण लोक को सनाथ कर दिया था। अनेक दिगम्बर जैन आर्षग्रंथों में पूर्वाचार्यों ने माता त्रिशला की स्तुति करते हुए उनके गुणों का वर्णन किया है। ऐसी त्रिलोकपूज्यनीय, जगत्जननी, वंदनीय माता त्रिशला जिनके जन्म से वैशाली नगरी पावन हुई हो उनका स्मरण सबके लिए मंगलकारी होवे।