णियमेण य जं कज्जं तं णियमं णाणदंसणचरित्तं।
विवरीयपरिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं।।३।।
जो करने योग्य है नियम से वो ही ‘नियम’ है।
वो ज्ञान दर्शन औ चरित्ररूप धरम है।।
विपरीत के परिहार हेतु ‘सार’ शब्द है।
अतएव नियम से ये ‘नियमसार’ सार्थ है।।३।।
अर्थ-नियम से जो करने योग्य है वह ‘नियम’ कहलाता है। वह दर्शन, ज्ञान और चारित्र ही है। इसमें विपरीत को दूर करने के लिय ‘सार’ यह पद कहा गया है। श्री कुंदकुंददेव ने इस गाथा में रत्नत्रय को ‘नियम’ शब्द से कहा है और उसमें विपरीत अर्थात् मिथ्यात्व को दूर करने के लिए ‘सार’ यह शब्द प्रयुक्त किया है। इस तरह गं्रथ का नाम ‘नियमसार’ रखने की सार्थकता व्यक्त की है। वास्तव में यह ‘सार’ शब्द ‘सम्यक्’ शब्द के स्थान पर प्रयुक्त किया गया है। जैसे ‘सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग:’ में सम्यक् शब्द मिथ्यात्व का परिहार करके सबके साथ लग जाता है उसी प्रकार से यहाँ पर सार शब्द से मिथ्यात्व, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र का परिहार होकर ‘सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र’ का ग्रहण हो जाता है, ऐसा समझना चाहिये।
शंका– मेरी समझ में यह ‘सार’ शब्द विपरीत-विकल्प अर्थात् भेद रत्नत्रय का परिहार करने के लिये दिया गया है क्योंकि इस ग्रंथ में निर्विकल्परूप अभेद रत्नत्रय का ही प्रतिपादन किया गया है ?
समाधान– आपका यह कथन नितांत गलत है क्योंकि इस तीसरी गाथा के अनंतर चौथी गाथा से ही लेकर आगे चतुर्थ अध्याय पर्यंत गाथा ७५ तक व्यवहार रत्नत्रय को कहा है पुन: इस चतुर्थ अध्याय की अंतिम गाथा ७६ में स्पष्ट कर दिया है कि ‘मैंने यहाँ तक व्यवहारनय के चारित्र को कहा है अब इसके आगे निश्चयनय के चारित्र को कहूँगा२’ इत्यादि। पुन: ये ही श्री कुंदकुंददेव यहीं पर ‘सार’ शब्द से उस भेद रत्नत्रय का परिहार करने के लिए कैसे कह सकते थे ? देखिये! अगली गाथा में ही श्री कुंदकुंद देव क्या कहते हैं- ‘‘नियम-ज्ञान, दर्शन, चारित्र’ यह मोक्ष का उपाय है और इसका फल परम निर्वाण है। अब यहाँ इन तीनों की-प्रत्येक की पृथक्-पृथक् प्ररूपणा होती है।’’३ इस गाथा में श्री कुंदकुंद देव ने भेद रत्नत्रय को कहने का संकल्प किया है पुन: आगे क्रम से दर्शन, ज्ञान, चारित्र का वर्णन करते हैं। उसमें सबसे पहले सम्यक्त्व का लक्षण बतलाते हुए कहते हैं- ‘‘आप्त, आगम और तत्त्वों के श्रद्धान से सम्यक्त्व होता है४। यह सम्यक्त्व का लक्षण व्यवहारपरक ही है। यदि श्री आचार्य महोदय को ‘सार’ शब्द से व्यवहार सम्यक्त्व का परिहार करना इष्ट होता तो वे इस महान ग्रंथ में उनका लक्षण क्यों कहते ? पुन: आगे इसी गाथा में उत्तरार्ध में आप्त का लक्षण बताते हुए कहते हैं- ‘‘जो अशेष दोषों से रहित हैं और सकल गुणों से सहित हैं वे ही आप्त कहलाते हैं।’’ ‘‘अशेष दोष क्या हैं ?’’ ‘‘क्षुधा, तृषा, भय, रोष, राग, मोह, चिंता, जरा, रोग, मृत्यु, स्वेद, खेद, मद, रति, विस्मय, निद्रा, जन्म और उद्वेग ये अठारह महादोष हैं। ये ही अशेष दोष कहलाते हैं क्योंकि अन्य जो भी दोष होंगे वे सब इन्हीं के अंतर्गत आ जावेंगे। इन महादोषों के नष्ट हो जाने पर सर्व दोषों से रहित अरिहंत परमेष्ठी ही ‘आप्त’ कहलाते हैं।
इस प्रकार से जो इन सर्व दोषों से रहित हैं और केवलज्ञान आदि परम वैभव से युक्त हैं वे ही परमात्मा कहलाते हैं किन्तु जो इनसे विपरीत होते हैं वे परमात्मा नहीं हैं१। यह आप्त का लक्षण नियमसार में कहा गया है। इन दोनों गाथाओं में प्रकारांतर से वीतराग और सर्वज्ञ इन दो विशेषणों को पुष्ट किया गया है क्योंकि रागद्वेष आदि अठारह दोषों के न होने से वीतरागता और केवलज्ञान आदि गुणों के होने से सर्वज्ञता प्रकट होती है पुन: आगे आगम का लक्षण कहते हैं। ‘‘उन आप्त के मुख से निकल हुए वचन जो कि पूर्वापर विरोध दोष से रहित हैं और शुद्ध हैं उन्हें ही ‘आगम’ यह संज्ञा है तथा इस आगम के द्वारा कहे गये पदार्थ ही तत्त्वार्थ कहलाते हैं। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल और आकाश ये छह ‘तत्त्वार्थ’ इस नाम से कहे गये हैं। ये नाना गुण और नाना पर्यायों से संयुक्त हैं२। आचार्य महोदय ने इस गाथा में आगम और तत्त्वों का लक्षण बता दिया है तथा प्रकारांतर से आप्त के गुणों में जो हितोपदेशीपना गुण है वह भी इस गाथा से लिया जा सकता है अत: आप्त का लक्षण जो अन्यत्र ग्रंथों में देखने को मिलता है कि वीतरागता, सर्वज्ञता और हितोपदेशता ये तीनों गुण यहाँ पर भी आप्त में घटित हो जाते हैं। सम्यग्दर्शन का लक्षण भी आप्त, आगम और तत्त्वों के श्रद्धानरूप है।
यह लक्षण व्यवहार सम्यग्दर्शन का ही है क्योंकि व्यवहार सम्यग्दर्शन के बिना निश्चय सम्यग्दर्शन अथवा व्यवहार रत्नत्रय के बिना निश्चय रत्नत्रय होना असंभव ही है इसीलिये व्यवहार रत्नत्रय हेय न होकर उपादेय ही है क्योंकि वह निश्चय रत्नत्रय के लिए कारण है और परम्परा से मोक्ष का भी कारण है न कि संसार का। यहाँ पर व्यवहार से व्यवहाराभास या लोकव्यवहार को नहीं लेना चाहिए क्योंकि जिसके चार अनंतानुबंधी और तीन दर्शनमोह ये सात प्रकृतियों के उपशम, क्षय या क्षयोपशम के होने पर सम्यग्दर्शन प्रकट हुआ है उसी को आप्त, आगम और तत्त्वों पर सच्चा श्रद्धान हो सकता है अन्य को नहीं, ऐसा समझना चाहिए। तात्पर्य यह हुआ कि ‘नियम’ शब्द से ‘दर्शन, ज्ञान, चारित्र’ को लेकर ‘सार’ शब्द से मिथ्यात्व का परिहार करके ‘सम्यक्’ अर्थ ग्रहण करना चाहिये पुन: प्रत्येक का वर्णन करने में सबसे पहले सम्यक्त्व के लक्षण में सच्चे देव, शास्त्र और उनके द्वारा कथित तत्त्वों पर श्रद्धान करना चाहिए। यहाँ ‘तत्त्वार्थ’ से छह द्रव्य ही कहे गये हैं। इस व्यवहार रत्नत्रय को सर्वथा उपादेय ही समझना चाहिये क्योंकि जिसने एक बार भी सम्यक्त्व को प्राप्त कर लिया है जब वह भी नियम से मोक्ष जायेगा ही जायेगा, तब जिसने तीनों रत्न प्राप्त कर लिये हैं वह निश्चय रत्नत्रय को प्राप्त कर मोक्ष का अधिकारी क्यों नहीं होगा ? अर्थात् अवश्य ही होगा।