भगं पुण्यं अस्तीति भगवान् अर्थात् भग का अर्थ है पुण्य, यह जिसके पूर्ण रूप से प्रकट हो गया है वह भगवान् कहलाते हैं । भगवान बनने के लिए कई भव पूर्व से पुरुषार्थ करना पड़ता है जो एक दिन मानव जीवन में साकार होता है। तीर्थंकरों की श्रृंखला में भगवान् शान्तिनाथ का जीवन अत्यन्त प्रेरणादायी है। कहाँ से प्रारम्भ होता है अतीत का इतिहास ?
जम्बूद्वीप में सीता नदीके दक्षिण तट पर विदेह क्षेत्र में ‘‘वत्सकावती’’ नाम का एक देश है जो अपनी रमणीयता के कारण पूरे जम्बूद्वीप में प्रसिद्ध है । उस देश की प्रभाकरी नगरी जिनमंदिरों से सुशोभित थी। नगर के न्यायप्रिय राजा का नाम था स्तमितसागर। उन महाराज स्तमितसागर की दो शीलवती धर्मपत्नियाँ थीं, जिनके नाम थे—वसुन्धरा और वसुमति। पातिव्रत्य धर्म से युक्त महादेवी वसुन्धरा ने अपराजित नामक पुत्र को जन्म दिया एवं वसुमती रानी अनन्तवीर्य पुत्र की माता कहलाई। अपने-अपने नामानुसार दोनों पुत्र शत्रुओं से कभी पराजित न होने वाले अतुल्य बल के धारक थे। स्वाभाविक प्रीति एवं स्नेह को प्राप्त उभय भ्राता अपने पिता के पास सूर्य और चन्द्रमा के समान सुशोभित होते थे। एक दिन वनपाल ने आकर सूचना दी कि पुष्पसागर नामक राजकीय उद्यान में भगवान् स्वयंप्रभ जिनेन्द्र विराजमान हैं । इस समाचार को सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुए और वनपाल के लिए पारितोषिक देकर स्वयंप्रभ जिनेन्द्र के दर्शन हेतु परिकर सहित निकल पड़े। उद्यान में पहुंचकर राजा ने दूर से ही मानस्तम्भ देखकर रथ से उतरकर श्री जिनेन्द्र को विनय सहित नमस्कार किया और मनुष्य के कोठे में बैठकर दिव्यवाणी श्रवण करने लगे। भगवान् की दिव्यध्वनि में मुनिधर्म का वर्णन सुनते—सुनते राजा को वैराग्य हो गया अतः उन्होंने अपने ज्येष्ठ पुत्र को राज्यलक्ष्मी सौंप कर वहीं जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली किन्तु दीक्षा के वास्तविक स्वरूप को पहचाने बिना उन मुनिराज ने समवसरण में स्थित महान् ऋद्धियों के धारक धरणेन्द्र को देखकर निदान बंध कर लिया कि मैं अपने तपश्चरण के फलस्वरूप धरणेन्द्र पदवी प्राप्त करूँ । स्तमितसागर मुनिराज के प्रथम पुत्र अपराजित ने भव्यत्व भाव से अनुगृहीत होने के कारण समवसरण में श्रावकोचित पंचाणुव्रतग्रहण किए किन्तु द्वितीय पुत्र अनन्तवीर्य पिता की दीक्षा से उद्विग्न होकर शोकसहित वापस घर चले गए, उन्होंने कोई नियम आदि ग्रहण नहीं किया। दोनों भाई हर्ष-विषाद से मिश्रित भाव लेकर अपने परिकर सहित राजमहल वापस आ गए और दुःखी हृदय से अन्तःपुर में ही रहने लगे। अब वहाँ के राजा अपराजित थे अत: सभी ने उनसे राज्यभार ग्रहण करने का आग्रह किया किन्तु मंत्रीगण एवं प्रजाजनों के अतीव आग्रह पर भी अपराजित छोटे भाई अनन्तवीर्य को सारा राजपाट सौंप कर स्वयं युवराज की तरह रहने को तैयार हो गया। यद्यपि अनन्तवीर्य कुछ गर्विष्ठ प्रकृति का था तथापि बड़े भाई के संसर्ग से वह भी नीतिमान् हो गया इसीलिए उत्कृष्ट लक्ष्मी से युक्त होकर उभय भ्राता एक कल्पलता से युक्त कल्पवृक्ष के समान सुशोभित होने लगे। किसी समय एक अपरिचित विद्याधर आकाशमार्ग से आया और राजसभा में पहुंचकर दोनों राजभ्राताओं को प्रणाम कर बोलने लगा—हे राजन्! एक दिन दमितारि चक्रवर्ती राजसभा में बैठे हुए थे कि उन्होंने अकस्मात् आकाश से उतरते हुए नारद मुनि को देखा। चक्रवर्ती ने उन्हें देखते ही नमस्कार किया और सभा में आते ही उनकी पूजादि करके उचित सम्मानपूर्वक काष्ठासन पर विराजमान किया । जब नारदजी थोड़ी देर विश्राम कर चुके तब चक्रवर्ती ने उनके आने का कारण पूछा। पुनः नारदजी बड़ी प्रसन्नतापूर्वक कहने लगे कि हे श्रीमन् ! सुनिये-एक प्रभाकरी नाम की नगरी में भाई के ऊपर पृथ्वी का भार सौंप कर अपराजित नामक राजा राज्य करता है । कल उसके यहाँ दो गायिकाएँ गाना गा रही थीं, उनमें से एक का नाम किरातिका और दूसरी का बर्बरिका है। राजा अपराजित उन दोनों के गीत में इतना मस्त हो गया कि उसने वहाँ पहुंचे मुझ नारद मुनि की ओर दृष्टि तक नहीं डाली । नारद मुनि ने पुनः चक्रवर्ती दमितारि से कहा कि ‘‘वे योग्य गायिकाएं तुम्हारी ही सभा के योग्य हैं’’ इसके सिवाय मुझ मुनि का और कुछ कहना अनुचित है। ऐसा कहकर जब नारदजी कहीं चले गए तब चक्रवर्ती ने उन गायिकाओं के लिए मुझ दूत को आपके पास भेजा है । इतना कहकर दूत ने मंत्री के हाथ में चक्रवर्ती द्वारा प्रदत्त कुछ मुहरबन्द भेंट प्रदान की । पुनः राजा ने उस दूत को विश्रामकक्ष में भेजकर मंत्री से वह भेंट खोलने को कहा। मंत्री ने ज्यों ही भेंट खोला,त्यों ही उस रत्नहार में से पूर्ण चांदनी जैसा प्रकाश छा गया, उस प्रकाश को काफी देर तक अनवरत रूप से देखकर राजा अपराजित मूच्र्छित हो गया । शीतोपचार करने पर जब मूर्छा दूर हुई तब राजा ने अपने तीसरे भव का जातिस्मरण समाचार बताया कि मैं इस भव से तीसरे भव में अमिततेज नाम का अनुपम विद्याधर राजा था। यह विद्याधर जो दूत बनकर यहाँ आया है वह तब मेरे पिता का भान्जा था और मेरा छोटा भाई अनन्तवीर्य वहाँ श्रीविजय नाम का राजा था। हम सभी वहाँ सुखपूर्वक रह रहे थे। आज इस रत्नहार को देखकर मुझे वे सारी बातें याद आ गई हैं।
इस जातिस्मरण कथा के पश्चात् राजा अपराजित ने अपने भाई अनंतवीर्य तथा मंत्रियों के साथ मंत्रशाला में प्रवेश किया और गम्भीरतापूर्वक कहने लगे कि दमितारि चक्रवर्ती द्वारा मेरे पास यह ‘‘अमूल्य रत्न हार की भेंट ’’ किस उद्देश्यपूर्वक भेजी गई है और हमें इसके प्रत्युत्तर में उसके पास क्या समाचार भेजना चाहिए ? पुनः सन्मति नामक प्रधानमंत्री राजा एवं सभासदों की आज्ञा लेकर कहने लगे कि दमितारि चक्रवर्ती ने सब ओर से आपको अपने समान देखकर गायिकाओं को प्राप्त करने हेतु ही साम और दान के द्वारा अपना दूत भेजा है, इस समय आपको भी उसके पास समानरूप उपहार ही प्रेषित करना चाहिए। इस प्रकार मंत्री के वचन सुनकर अनन्तवीर्य ने किंचित् क्रोधपूर्ण वचन कहे कि दमितारि का अभिप्राय तिरस्कार से सहित है इसलिए उसने गायिकाओं का युगल भेजने को कहा है किन्तु ये गायिकाएं मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं । यदि मेरे भैया अपराजित इन्हें मेरे पास से हटाकर दमितारि के पास भेजते हैं तो मुझे अत्यंत दुःख होगा। अपराजित के अभिप्राय को जानने की इच्छा से बार—बार उसकी मुखस्थिति को देखता हुआ अनन्तवीर्य इतना कहकर चुप हो गया, पुनः धीर-वीर गुणों से परिपूर्ण महाराज अपराजित कहने लगे— मैं पूर्व भव में विद्याओं का पारदर्शी और साधक था एवं इस भव में भी उन विद्याओं ने मुझे बड़े प्रेम से स्वीकृत किया है। पूर्वभव में अर्जित समस्त विद्याएं मुझे मेरे भाई के साथ ऐसी आ मिली हैं जैसे सूर्य के समक्ष किरणें आकर मिल जाती हैं । उन विद्याओं के प्रभाव से हम दोनों भाई रूप बदलकर गायिका का वेष धरकर दमितारि के पास जावेंगे। हमारे वापस आने तक आप लोग इस राज्य की यत्नपूर्वक रक्षा करें। यह सुनकर बहुश्रुत नाम का मंत्री प्रसन्नतापूर्वक कहने लगा—हे राजन्! यह आपने अति सुन्दर निर्णय लिया है। मैंने एक बार एक तत्त्वज्ञ ज्योतिषी से यह बात पहले ही जान ली थी कि आप दोनों भाइयों के द्वारा समस्त विद्याधर राज उन्मूलित किए जाएंगे। इस विषय में मेरी एक राय है कि दमितारि के दूत से कहला देवें कि तुम्हें अनन्तवीर्य के लिए अपनी कोई पुत्री देनी चाहिए, इससे उसका अभिप्राय ज्ञात हो जावेगा। मंत्रशाला से निकलकर राजा अपराजित ने कोषाध्यक्ष से एक वेशकीमती हार मंगवाकर दमितारि के दूत को प्रदान कर उसका सत्कार किया, पुन: बहुश्रुत मंत्री उससे बोला—हमारे राजवंश और दमितारि के वंश में प्राचीनकाल से सम्बन्ध चले आ रहे हैं। परस्पर की आपत्ति के समय दोनों कुलों ने जो कार्य किया था उसे आज भी वृद्धजन बताया करते हैं। यद्यपि वर्तमान में वे सम्बन्ध कुछ टूटे हुए हैं तो भी अनन्तवीर्य के लिए दमितारि की कोई कन्या देकर आप वह सम्बन्ध पुन: स्थापित कर सकते हैं। राजा के पूछने पर दूत ने अपना नाम अमित बताया और गायिकाओं को साथ ले जाने का निवेदन किया तब बहुश्रुत मंत्री ने अपराजित और अनन्तवीर्य दोनों राजभ्राताओं को गायिकाओं के वेश में दूत के लिए सौंप दिया और उनकी सुरक्षा हेतु संकेत देते हुए कहा कि ये गायिकाएँ समस्त देवताओं से सहित हैं, पवित्र हैं, परम आदर से रखने योग्य हैं। ये निरन्तर एकान्त में रहना पसन्द करती हैं तथा अन्य राजाओं को नमस्कार नहीं करती हैं। राजा अपराजित ने इसी प्रकार से इनका पालन किया है अत: आप भी इसी तरह से इन्हें रखना। सभी बातें स्वीकृत कर अमित विद्याधर उन दोनों को अपने विमान में बैठाकर चल दिया। यद्यपि वह विमान गुप्त रूप से चल रहा था फिर भी पुष्पवृष्टि आदि शुभ निमित्तों को दर्शाता हुआ विमान दमितारि के पास पहुँचा। उन दिव्य गायिकाओं को प्राप्त कर चक्रवर्ती अतिशय प्रसन्न हुए और पूर्ण विधि के अनुसार दोनों को सुन्दर एकान्त स्थान में प्रवेश करा दिया।
अमित नामक विद्याधर दूत जो दमितारि चक्रवर्ती के द्वारा राजा अपराजित के पास भेजा गया था, नारद मुनि की आज्ञानुसार चक्रवर्ती ने लोभवश अपराजित के दरबार में गीत गाने वाली सुन्दरियों को लाने हेतु भेजा था । दूत के निवेदन से मंत्रियों से विचार—विमर्श करके अपराजित और अनन्तवीर्य दोनों भाई विद्या के बल से स्त्री का रूप धारण कर दूत के साथ चल दिये । चलते-चलते उनका विमान विजयार्ध पर्वत पर पहुंच गया । उस पर्वत की अप्रतिम शोभा देखकर वे लोग बड़े प्रसन्न हुए तथा अमित विद्याधर के साथ वहां की गुफाओ में विराजमान मुनियों के दर्शन किए, बाग-बगीचों एवं सरोवरो का अवलोकन किया पुनः अमित ने उन्हें दमितारि चक्रवती के शिवमन्दिर नामक नगर में पहुँचा दिया । प्रसन्नचित्त का धारक वह दूत उस नगर को देखकर इतना खुश हुआ जिसका वर्णन करना अशक्य है, श्रीमद् असग महाकवि ने ‘‘शान्तिनाथपुराण’’ में कहा है- ‘‘जननी जन्मभूमिं च प्राप्य को न सुखायते।’’ अर्थात् जननी और जन्मभूमि को देखकर कौन सुखी नहीं होता ? सभी सुख का अनुभव करते हैं । पुनः उस दूत ने अपने साथ आई हुई गायिकाओं से राजभवन की विभूति का वर्णन कर विमान को सभांगण में उतारा और चक्रवर्ती को नम्रतापूर्वक गायिकाओं के आने की सूचना प्रदान की । अतिथि सत्कार की व्यवहारिकता निभाते हुए राजा ने सभा के मध्य यथोचित सम्मानपूर्वक दोनों सुन्दरियों को बुलाया और योग्य आसन पर उन्हें बैठने को कहा । अपने दूत अमित विद्याधर से इनके विषय में दिव्य कथा सुनकर दमितारि उनके अप्रतिम सौन्दर्य को देखते हुए विचार करने लगा कि अहो ! क्या ये सचमुच ही देवाधिष्ठित हैं ? अथवा क्या ये नागकन्याएं हैं ? कुछ क्षण उनसे बात करके राजा ने अमित को आदेश दिया कि इन्हें पुत्री ‘‘कनकश्री’’ के पास भेज आओ, वही इनके निवास, भोजन आदि की उत्तम व्यवस्था संभालने में कुशल है। दूत ने तुरन्त उन सुन्दरियों को राजमहल में ‘‘कनकश्री’’ के पास पहुंचाकर उनसे कहा कि अब आप लोग यहां सदा सुखपूर्वक निवास करिए । उन लक्ष्मीस्वरूप गायिकाओ को देखकर कनकश्री ने दूत को विदा किया और दोनों को समस्त सुख-सम्पन्नतायुक्त कमरे में रहने का निवेदन किया। गायिका के छद्म वेष में रहते हुए उन दोनों अपराजित और अनन्तवीर्य नामक भाइयों ने शीघ्र ही राजकन्या को अपनी ओर आकर्षित कर लिया। कनकश्री कन्या को अपराजित ने अपने भाई अनन्तवीर्य के प्रति सम्मोहित कर दिया, पुनः दमितारि से युद्ध करने की इच्छा से एक दिन वे दोनों कन्या का अपहरण कर चल दिये तब राज्य के एक वृद्ध कंचुकी ने उन्हें देख लिया। अपराजित से कुछ वार्तालाप करने के बाद वह कंचुकी आकर राज्यसभा में इस प्रकार कहने लगा- हे देव! आपने जिन गायिकाओं को अन्तःपुर में भेज दिया था वे गायिकाएं नहीं किन्तु स्वयं राजा अपराजित और उसका भाई है। गायिका का बहाना रख उद्दण्ड अपराजित ने यहां आपके पास आकर तथा आपकी पुत्री को अपने भाई के अधीन कर दिया है। महाधनुष को धारण कर वह आज ही प्रातः आपकी कन्या को विमान में चढ़ाकर ले गया है । राजन्! वह कुछ दूर जाकर हम लोगों को देखकर रुका और निर्भयतापूर्वक हंसकर कहने लगा-आपके राजा के साथ युद्ध करने हेतु मेरे भाई ने उनकी कन्या का हरण किया है। जाओ, अपने राजा को भेजो क्योंकि तुम लोगों के समक्ष युद्ध की वार्ता भी व्यर्थ है। उसने कहा है कि जब तक चक्रवर्ती युद्ध करने नहीं आयेंगे तब तक हम लोग इस पर्वत से एक पग भी आगे नहीं जायेंगे ऐसी हमारी प्रतिज्ञा है। यह अनहोनी वार्ता सुनकर चक्रवर्ती को क्रोध तो बहुत आया किन्तु धैर्यपूर्वक कहने लगा कि उस अभिमानी को तो मैं अकेला ही मार डालूंगा। जिसने मेरे साथ ऐसा मायाजाल रचा है उसे एक क्षण के लिए भी मैं जीवित नहीं देख सकता हूँ। इस समाचार से सारी सभा में खलबली मच गई। वहां के वीर सैनिक कहने लगे कि हम लोगों के रहते हुए राजा को युद्ध में जाने की आवश्यकता ही नहीं है। हे राजन्! आपका पराभव करने की किसमें हिम्मत जागी है ? महाबल नामक एक वीर बोला- दमितारि की पुत्री को हर कर जाता हुआ एक मनुष्य लौटकर उसी को यु़द्ध के लिए बुलाता है, यह तो वास्तव में अश्रुतपूर्व बात सुनी है । सो अब हम लोग उसे जीवित नही छोड़ेंगे। सबकी बात सुनकर ‘‘सुमति’’ नामक मंत्री राजा एवं वीरों को सम्बोधित करता हुआ कहने लगा- हे राजन् ! संसार में विद्वानों द्वारा एक सूक्ति कही गई है-‘‘अच्छी तरह पका हुआ अन्न,विचार करके कहा गया शब्द, विचार पर किया हुआ कार्य और साधुजनों की मित्रता दीर्घकाल निकल जाने पर भी विकार को प्राप्त नहीं होते हैं। तब आपस में मंत्रणा करके राजा ने प्रीतिवर्धन नामक दूत को अपराजित के पास भेजा। दूत ने अपराजित के पास पहुंचकर कहा-हे राजन् ! जाति, कुल से विशुद्ध आप जैसे नररत्न के लिए इस कन्यारत्न रूप पराए धन को हरण करना उचित नहीं है, जिस प्रकार से आप लोग यहां गुप्त रूप से आए हैं उसी प्रकार से वापस चले जाना ही श्रेयस्कर है। भाई अनन्तवीर्य के निमित्त से आप में जो यह चपलता आई है वह ठीक नहीं है। उसने आगे कहा कि हमारे राजा तो यह समझ कर सन्तोष कर लेंगे कि ‘‘एक कन्या मेरे नहीं हुई’’ क्योंकि दुराचारिणी सन्तान माता-पिता को सदा कष्ट ही देती है। राजा दमितारि आपके पिता तुल्य हैं उन्होंने तुम्हारे अपराध क्षमा कर दिया है अतः आओ! अपने चक्रवर्ती को नमन करो तथा कन्या को छोड़ दो इसी में तुम्हारा हित है। इस प्रकार प्रीतिवर्धन द्वारा उपदेश दिये जाने पर अपराजित ने उत्तर में कहा-हे दूत! मेरे स्पष्ट अर्थ वाले उद्यम में तू विघ्न उपस्थित करने का प्रयत्न मत कर, शूरवीरों का कर्तव्य है कि शत्रु की ललकार सुनते ही उन्हें तुरन्त रणक्षेत्र में उपस्थित होना चाहिए । क्या विद्याधरों के देश में यही परम्परा है कि युद्धक्षेत्र में प्रतीक्षा कर रहे शत्रु के समक्ष दूत को भेजा जाता है। साम, दाम, दण्ड, भेद नीति का प्रयोग राजाजनों को स्तुतिप्रिय, लोभी, भयभीत और पौरुषहीन व्यक्तियों के साथ करना चाहिए , मेरे जैसे पौरुषवान् के ऊपर ये नीतियां कोई असर नहीं डाल सकती हैं अतः तुम वापस जाकर अपने राजा को युद्धक्षेत्र में भेजो, इससे अधिक मैं कुछ भी कहना नहीं चाहता। अब दमितारि के भी धैर्य का बांध टूट गया और दूत की बात सुनकर उसने शीघ्र ही सेना तैयार करने के लिए सेनापति को आदेश दिया। पुनः दल—बल के साथ रथ पर सवार होकर चक्रवर्ती दमितारि सिंह चिन्ह वाली पताका को फहराता हुआ युद्ध के लिए नगर से बाहर निकल पड़ा। नगर के बाहर प्रतीक्षारत अपराजित दूर से ही चक्रवर्ती की पूरी सेना को देखने लगा और भाई अनन्तवीर्य को कनकश्री की रक्षा का भार सौंपकर स्वयं अतिशय सुन्दर धनुष लेकर निकल पड़ा। उसने अपने पराक्रम से सामने आने वाले क्षत्रिय समूह को क्षण भर में पराजित कर दिया । राजा दमितारि और अपराजित युद्धक्षेत्र में अपना-अपना रणकौशल प्रदर्शित कर रहे थे किन्तु अपराजित के आगे कोई भी शत्रु टिक नहीं पा रहा था। दमितारि की सेना के सभी सैनिक पराभव की आशंका से अनुत्साहित हो गए। आसाधारण व्यक्तित्व के धनी अपराजित के अप्रतिम तेज से दमितारि की असंख्य सेना भी डरकर पलायन करने लगी तब अनेक वीरों ने उसे समझा— बुझा कर स्वामिभक्त बनने की प्रेरणा दी अतः सैनिक उत्साहित होकर युद्ध में प्रवृत्त हो गये। सैनिकों के द्वारा छोड़े हुए बाणों को अपराजित बीच में ही काटकर अपने बाणों से कई सैनिकों को एक बार में मार डालता था जिससे धरती पट गई थी। उस धनुर्विद्या के जानकार अपराजित के द्वारा आक्रान्त दमितारि चक्रवर्ती का चक्र नहीं चल रहा था जिससे ऐसा जान पड़ता था कि मानो जीवित पकड़कर वह बाणों के पिंजरे में डाल दिया गया हो। बाणों से ग्रस्त होकर कितने ही विद्याधर गिरे पड़े थे, कितने ही इधर-उधर घूमने लगे थे, किन्हीं के मुँह से रक्त की धारा बह रही थी और कई मृत्यु की प्रतीक्षा करते हुए अन्तिम साँस ले रहे थे किन्तु अपराजित बिल्कुल अजेय बनकर अपनी विद्याओं का खेल दिखाता हुआ अकेला भी निडर था। हिंसा के भीषण कांड को देखकर जनता का दिल करुण क्रन्दन कर रहा था और सैनिकों में भी त्राहि माम् का शोर मचा हुआ था अतः जिन्हें अपना जीवन प्रिय था ऐसे कितने ही सुभट बाणवर्षा के भय से लौट गए थे और जिन्हें पौरुष प्रिय था ऐसे कितने ही योद्धा शत्रु के बाणों से भी न डरकर उनका सामना कर रहे थे। बाणसमूह को छोड़ने वाले अपराजित ने रथ पर सवार सैनिकों के रथ तोड़ दिए, घोड़ों पर सवार योद्धाओं के घोड़े मार गिराए और हाथियों पर आरूढ़ सुभटों के हाथियों की सूंड काट डाली अतः एक हाथी ने पागल होकर अपने स्वामी को ही कुचल डाला और तमाम सेना को चूर-चूर कर दिया। उस युद्ध की विभीषिका का दृश्य अवर्णनीय है किन्तु मदान्ध प्राणियों को राज्यवैभव के अतिरिक्त किसी की परवाह नहीं रहती है। वह रणांगण कहीं तो टूटे रथ के भीतर स्थित घावो से पीड़ित महारथियों से युक्त था, कहीं पड़े हुए अनेक उन्मत्त हाथी रूपी पर्वतों से व्याप्त था, कहीं अनेक राजाओं के मरे हुए सैनिकों से पटा हुआ था, सब ओर श्मशान के समान वीरानियत नजर आ रही थी। नीतिकारों ने कहा भी है—
‘‘विजयलक्ष्मी की प्राप्ति भाग्य से ही होती है, बहुत भारी सेना रूप सामग्री से नहीं।’’
यही नीति दमितारि के ऊपर भी साकार हो रही थी तथापि उसने युद्ध बन्द नहीं किया। विशाल सेना के मारे जाने पर अहंकारयुक्त चित्रानीक नाम प्रसिद्ध सेनापति युद्धभूमि में उतर पड़ा किन्तु अपराजित ने क्षणमात्र में उसे भी गिरा दिया, पुनः महाबल नाम का वीर विद्याधर युद्ध के लिए तत्पर हुआ और जब अनेक विद्याओ के द्वारा भी वह अपराजित को रञ्चमात्र भी कष्ट नहीं पहुँचा पाया तब वह अनेक शरीर बनाकर आकाश में चला गया, वहाँ से अपराजित पर प्रहार करने लगा परन्तु अपराजित ने शीघ्रगामी बाणों द्वारा उन सबको खदेड़ कर महाबल को मार डाला। इस आश्चर्यजनक दृश्य को देखने के लिए आकाश से देवतागण भी उमड़ पड़े थे और अपराजित की जय जयकार से धरती-आकाश गूंज उठा था। बलभद्र पद के धारक अपराजित ने पूर्व पुण्य से प्राप्त विद्याबल के आधार पर शत्रुओं की समस्त विद्याओं को छेद दिया था तथा एक होकर भी वह सभी ओर अनेक रूप दिखाई पड़ता था। उधर प्रतिनारायण पदवी के धारी अनन्तवीर्य ने जब देखा कि मेरे भाई ने सारी सेना को मार गिराया है,अब केवल एक दमितारि ही शेष बचा है तब उसने प्रगट होकर भाई से शेष युद्ध की आज्ञा मांगी और उसे प्रणाम कर अपना संकल्प बताया कि ‘‘मैं शीघ्र ही दमितारि को मारकर युद्ध समाप्त कर दूंगा ।’’ अब नारायण और प्रतिनारायण के बीच निर्णयात्मक द्वन्द शुरू हो गया । दमितारि ने अत्यन्त क्रोध होकर दोनों भाइयों को मारने की भावना से शीघ्र ही अस्त्र-शस्त्रों से युक्त होकर रणभूमि में उत्साहपूर्वक प्रवेश किया। उसे क्या पता था कि मैं स्वयं इनके द्वारा मारा जाने वाला हूँ अथवा मेरा काल ही मुझे इस स्थिति तक लेकर आया है । उसने कुछ दूर जाकर अनन्तवीर्य के साथ अपराजित को देखा पुनः उन्हें वचनों से तिरस्कृत किया और दूसरे ही क्षण उन पर बाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दी । इधर अनन्तवीर्य अपराजित को ‘कनकश्री’ के पास भेजकर स्वयं युद्ध के लिए तैयार ही था। युद्ध करते हुए दोनों योद्धाओं के बाण समूह से दशों दिशाएं आच्छादित हो गर्इं। यद्यपि अनन्तवीर्य ने बाण चलाकर दमितारि के धनुष की डोरी को खण्डित कर दिया था तो भी दमितारि का उत्साह क्षीण नहीं हुआ था। उसने उस धनुष को छोड़कर कटाक्ष से चक्र की ओर देखकर अनन्तवीर्य से कहा- अरे मूर्ख ! युद्ध से दूर भाग जा। व्यर्थ ही पतंगे के समान मृत्यु के मुख में मत प्रवेश कर। जिसने जीवन में असली योद्धा को देखा तक नहीं हो ऐसे तुझ बालक को मैं मारना नहीं चाहता हूँ। वीर अपराजित की संगति में रहने से तू व्यर्थ ही योद्धाओ जैसी चेष्टा कर रहा है, अपने विमान में जा और उसी में बैठकर प्राणों की रक्षा कर। मैं तुझे युद्ध के योग्य नहीं समझता, इसीलिए वचनों से तुझे समझा रहा हूँ। तब कुपितहृदय अनन्तवीर्य हाथों में धनुष उठाकर इस प्रकार बोला- हे सुभट! यह युद्धक्षेत्र है,यहाँ हथियारों से बात करो, वचनालाप का अवसर नहीं है। क्या हाथी प्रौढ़ हो जाने पर भी किसी सिंह के बच्चे को मार सका है ? दमितारि! यदि विश्राम कर चुके हो तो शस्त्र उठाओ। मैं अपने तीक्ष्ण बाणों से तुम्हारे चक्र को भी तोड़ने में समर्थ हूँ। इस प्रकार अनन्तवीर्य की अहंकारपूर्ण वाणी को सुनकर उस दमितारि ने क्रोधवश अपने चक्ररत्न को शत्रु के संहार हेतु आज्ञा दे दी। तुरन्त वह चक्र जाकर अपनी बहुत भारी किरणों के समूह से युक्त हो अनन्तवीर्य के दाहिने कन्धे पर टिक गया, तब दमितारि चक्र को गिराने के अभिप्राय से तलवार लेकर आगे दौड़ा किन्तु अनन्तवीर्य ने उसी के चक्र से उसका सिर छेद डाला। दमितारि मरण को प्राप्त हो कर धरती पर गिर गया, पुनः अपने स्वामी की मृत्यु पर व्रुâद्ध उद्दण्ड योद्धाओं ने यद्यपि अपना पराक्रम दिखाना चाहा परन्तु वे भी उस चक्ररत्न रूपी अग्नि में जलकर मर गए। इस प्रकार दमितारि को मारकर चक्ररत्न से सुशोभित अनन्तवीर्य ने अपने भाई अपराजित को प्रणाम कर आशीर्वाद प्राप्त किया। अपराजित ने स्नेहपूर्वक तीन खण्ड की लक्ष्मी लघु अनन्तवीर्य को सौंप दी और स्वयं से ‘‘अपराजित’’ नाम को सार्थक किया । विद्याओं ने उसी रणभूमि में बड़े आदर से दोनों भाइयों का सम्मान किया।
रणभूमि में नारायण अनन्तवीर्य ने दमितारि चक्रवर्ती को मारकर उसकी कन्या ‘‘कनकश्री’’को लेकर बड़े भाई अपराजित बलभद्र के साथ अपने नगर के लिए प्रस्थान कर दिया । कन्या अपने पिता के वियोग के कारण भारी विलाप करने लगी, तब दोनों भाइयों ने उसे सान्त्वना प्रदान कर होनहार को ही प्रबल बताया । विमान से जब वे उस नगरी से प्रस्थान कर रहे थे तब नीचे पृथ्वी पर शत्रुओं के असंख्य मृत शरीर देखकर अपराजित हिंसा के भयंकर पाप से ग्लानि करता हुआ अपने कार्य की निन्दा करने लगा। कुछ दूर पहँुचकर सहसा मार्ग में ही उनका विमान अटक गया। नीचे देखने पर पता चला कि इस ‘‘भूतरमण’ नामक अटवी में ‘‘कंचनगिरी’’ पर्वत पर कैवल्यपद प्राप्त एक मुनिराज विराजमान हैं। उन्हें देखते ही सभी ने उतर कर केवली भगवान को नमस्कार किया और ‘‘कनकश्री’’ ने मनुष्य के कोठे में बैठकर अपने भवान्तर पूछे, केवली की दिव्यध्वनि खिरने लगी- हे पुत्री ! मध्यलोक के धातकीखण्ड द्वीप में ऐरावत क्षेत्र के शंखपुर नामक ग्राम में एक ‘‘देवक’’ संज्ञा वाला गृहस्थ अपनी ‘‘पृथुश्री’’ भार्या के साथ निवास करता था, उनके कोई पुत्र नहीं हुआ और कानी, लंगड़ी आदि अंगहीन सात पुत्रियाँ हुर्इं। उन सब पुत्रियों में बड़ी तथा पूर्ण अंगों वाली एक तू भी ‘‘श्रीदत्ता’’नामक कन्या थी। बचपन में ही माता-पिता का मरण हो जाने से तू ही सारे परिवार की जिम्मेदारी निभाने लगी। एक दिन तू उन बहनों की इच्छापूर्ति करने हेतु फल तोड़ती हुई ‘‘शंखपर्वत’’ के निकट जा पहुँची । वहाँ से फल तोड़कर वापस आते समय मार्ग में ‘‘सर्वयश’’ नामक मुनिराज के दर्शन किए और उनसे तूने अपने कष्टों को कहकर उनके निवारण का उपाय पूछा। मुनिवर ने तुझे धर्म का उपदेश देते हुए ‘‘धर्मचक्रवाल’’ नाम का व्रत करने को कहा। इस व्रत में एक उपवास एक आहार, दो उपवास एक आहार, तीन उपवास एक आहार, चार उपवास एक आहार,पाँच उपवास एक आहार और छः उपवास एक आहार इस प्रकार २१ उपवास करने होते हैं। इस कठिन व्रत से यद्यपि ‘‘श्रीदत्ता ’’ की पर्याय में तेरा शरीर सूख गया था किन्तु उत्साह से हृदय सदा प्रफुल्लित रहता था, कुछ दिन बाद तूने ‘‘सुव्रता’’ नाम र्आियका को अपने घर में आहार कराया । आहार के पश्चात् वमन हो जाने पर तेरा मन ग्लानि से भर गया,पुनः एक बार उसी पर्याय में तूने एक विद्याधरी का प्रसव देखकर वैसा निदान कर लिया था। व्रत-उपवास एवं पारिवारिक कत्र्तव्यों का निर्वाह करते हुए आयु के अन्त में मरण कर तू सौधर्म स्वर्ग में इन्द्र की ‘‘विद्युत्प्रथा’’ नाम की देवी हुई । स्वर्गिक सुखों को भोगकर निदानबन्ध के कारण अब तू दमितारि चक्रवर्ती की पुत्री हुई है। बेटे! आगे और सुन, शिवमन्दिर नगर में रहने वाले ‘‘कनकपुंख’’ राजा की जयदेवी नामक पत्नी से मैं ‘‘कीर्तिधर’’ नामक बड़ा पुत्र हुआ, पुनः मेरी पवनवेगा रानी से ‘‘दमितारि’’ नाम का बड़ा पुत्र हुआ। मैंने उस योग्य पुत्र के कन्धों पर राज्यभार सौंपकर ‘‘शांतमोह’’ नामक मुनिराज के पास जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। एक वर्ष तक प्रतिमायोग से खड़े रहकर तप करने से मुझे अब कैवल्य पद की प्राप्ति हुई है। तुमने र्आियका सुव्रता के साथ जो ग्लानि का भाव किया था उसी के फलस्वरूप बन्धुजनों के वियोग का दुःख सहन करना पड़ा है। यह सब सुनकर कनकश्री के हृदय में वैराग्य भाव उत्पन्न हो गया, पुनः उसने अपराजित और अनन्तवीर्य की नगरी में पहँुचकर उनके समक्ष भावना व्यक्त करते हुए दीक्षा लेने की आज्ञा माँगी । तदनन्तर चार हजार कन्याओं के साथ ‘‘कनकश्री’’ ने स्वयंप्रभ जिनेन्द्र के पास र्आियका दीक्षा धारण कर ली । बलभद्र अपराजित और नारायण अनन्तवीर्य अपने नगर में सुखपूर्वक राज्य करने लगे। एक समय अपराजित की ‘‘विरजा’’ नाम की सुन्दर रानी ने दिव्य प्रभाधारिणी एक कन्या को जन्म दिया जिसका नारायण की सलाह से ‘‘सुमति’’ यह नाम रखा गया। बाल्यावस्था से ही सुमति जिनेन्द्र भगवान् की उपासना किया करती थी। उसके रूप लावण्य के सामने अप्सराओं का सौन्दर्य भी शर्माता था अतः अपराजित के मन में पुत्री के सदृश ही सुन्दर-गुणवान वर ढूंढने की भावना जागृत हो गई। सुमति को चन्द्रकलाओं के समान पूर्ण होती देख राजा अपराजित ने मन्त्रियों से मन्त्रणा की। जब उसे ज्ञात हुआ कि अनेक राजा—महाराजा कन्या वरण करने को आतुर हैं तब उसने अपने महामंत्री की सलाह से स्वयंवर की घोषणा समस्त राज्य में करवा दी। उन्होंने सोचा कि स्वयंवर में मेरी बेटी जिसे पसन्द करेगी, उसी के साथ विवाह कर दिया जाएगा जिससे मुझे किसी राजा का कोपभाजन नहीं बनना पड़ेगा। निर्धारित दिवस और समय पर नगरी को तोरण,वन्दनवार,पूâलमालाओं से खूब सुसज्जित किया गया। राजपुत्री को प्राप्त करने की आशा से अनेकों राजा आकर नगरी के उद्यानों में अलग-अलग ठहर गये । पुनः अन्तःपुर से एक विशेष विमान द्वारा सुमति को स्वयंवर सभा में लाया गया औेर क्रम-क्रम से उसे राजाओं का परिचय कराया जाने लगा । इसी बीच विमान में बैठी ऋद्धियो की धारक एक देवी ने ‘‘सुमति’’ नामक सुन्दर कन्या से इस प्रकार कहना शुरू किया- हे भद्रे ! मैं तुझे तेरे पूर्व भव की कथा सुनाती हूँ, वहाँ तेरे-मेरे बीच हुए वायदे के अनुसार ही आज मैं तेरे स्वयंवर के मध्य आई हूँ। पुष्करार्ध द्वीप के भरतक्षेत्र में ‘‘नन्दन’’नाम का उत्तम नगर है। उस नगर के राजा माहेन्द्र एवं रानी अनन्तमती से हम दोनों ने कन्या के रूप में जन्म लिया था। वहाँ मैं अनन्तश्री नाम की बड़ी बहन थी और तू धनश्री नाम की मेरी छोटी बहन थी। हम दोनों ने एक बार ‘‘सिद्धगिरी’’ पर ‘‘नन्द’’ नामक मुनिराज के पास ‘‘प्रोषध’’ व्रत लिया था। हे बहन! तुझे भी याद होगा कि एक बार ‘‘अशोकवाटिका’’ में हम लोगों को क्रीड़ा करते देख ‘‘त्रिपुरा’’ के स्वामी ‘‘वङ्कागद’’ विद्याधर ने हमारा अपहरण कर लिया था पुनः उसकी पत्नी उसके ऊपर तलवार से प्रहार करने उठ पड़ी अतः उसने डरकर हम लोगों को ‘‘पर्णलघ्वी’’ विद्या के द्वारा नीचे जंगल में गिरा दिया था। वहाँ हम धीरे-धीरे नीचे आकर एक सरोवर तट पर गिरे थे और भयंकर जंगल में भयभीत होकर दोनों ने चतुराहार त्याग कर सल्लेखनापूर्वक शरीर त्याग कर दिया था। जिसके प्रभाव से तू कुबेर की रति नामक प्रिय देवी हुई और मैं महेन्द्र की नवमिका नामक वल्लभा हुई हूँ । एक बार नन्दीश्वर द्वीप की यात्रा में परस्पर एक-दूसरे को देखकर तुमने मुझसे कुछ कहा था सो अब भूलने का प्रयास मत करो। मैं तुम्हें इसीलिए यहाँ सम्बोधित करने आई हूँ कि तुमने देव पर्याय तजकर जो यह मनुष्य योनि पाई है, इसे संयम के द्वारा सुशोभित करो। संसार में परिग्रह त्याग से बढ़कर कोई सुख नहीं है अतः विषय भोगों में न फंसकर अब तुम आत्महित करो और सुन्दर शरीर को तपस्या की अग्नि में तपाकर कुन्दन बनाओ यही मेरा कहना है। पूर्व भव सम्बन्धी इस कथानक को सुनकर ‘‘सुमति’’ मूर्च्छित हो गई पुनः चन्दन ,पंखा आदि के द्वारा सचेत अवस्था प्राप्त होने पर उसने दीक्षा लेने का निर्णय कर लिया। माता-पिता ने भी उसके वैराग्यपूर्ण वचन सुनकर सहर्ष त्याग की स्वीकृति प्रदान करते हुए कहा—बेटी ! तुम्हारे इस निर्णय से हमारे कुल की शोभा बढ़ेगी तथा हम माता-पिता भी धन्य होंगे। पुनः सुमति ने उस देवी का आभार प्रगट कर हाथ जोड़कर उसे विदा किया और स्वयंवर मंडप से वापस चली गई। माता-पिता एवं कुटुम्बीजनों से आज्ञा प्राप्त कर ‘‘सुमति’’ ने ‘‘सुव्रता’’ नामक र्आियका के पास अनेक सखियों के साथ दीक्षा धारण कर ली। यद्यपि अपराजित अपनी पुत्री के वियोग से दुःखी थे फिर भी लघु भ्राता अर्ध चक्रवती नारायण अनन्तवीर्य के साथ राजकाज करते हुए चौरासी लाख पूर्व वर्ष व्यतीत कर दिये। एक दिन शय्या पर सोते हुए बिना किसी कष्ट के अनन्तवीर्य की मृत्यु हो गई। महान् शोक को प्राप्त बलभद्र अपराजित ने किसी प्रकार धैर्य धारण कर भाई का दाह संस्कार किया, पुनः उन्हें संसार से वैराग्य हो गया। उन्होंने अपने अरिंजय नामक ज्येष्ठ पुत्र को राज्यभार सौंपकर यशोधर मुनिराज के पास जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली । उत्कृष्ट त्याग-तपस्या करते हुए महामुनि अपराजित का शरीर अत्यन्त कृश हो गया और उन्होंने सिद्धगिरि नामक पर्वत पर अपने नश्वर शरीर को रत्नत्रय आराधनापूर्वक त्याग कर अच्युत स्वर्ग का वैभव प्राप्त कर लिया ।
जम्बूद्वीप में विदेह क्षेत्र के वत्सकावती देश की ‘प्रभाकरी’ नगरी के राजा अपराजित ने मुनि दीक्षा लेकर समाधिमरण करके अच्युतेन्द्र पद को प्राप्त कर लिया था, पुनः वह अच्युतेन्द्र एक दिन नन्दीश्वर द्वीप के दर्शन कर वहाँ लौटते समय जम्बूद्वीप के सुमेरू पर्वत की वन्दना करने लगा । वहाँ एक चैत्यालय में उसने किसी विद्याधर को देखा । दोनों किसी चिर परिचित के समान एक दूसरे को अनिमेष दृष्टि से निहारने लगे । तदनन्तर अच्युतेन्द्र ने अपने अवधिज्ञान से उसका और अपना अनेक भवों का सम्बन्ध जान लिया और विद्याधर को अपने निकट पाकर कहने लगा- मित्र ! हम दोनों की मित्रता का सम्बन्ध पूर्व भवों से जुड़ा हुआ है । जम्बूद्वीप के विजयार्ध पर्वत पर ‘रथनूपुर’ नाम का एक नगर है, वहाँ किसी समय ‘ज्वलनजटी’ नाम का राजा अपनी ‘वायुवेगा’ रानी के साथ निवास करता था। उन दोनों के सूर्य के समान प्रतापशाली ‘अर्वâकीर्ति ’ नाम का पुत्र और ‘स्वयंप्रभा’ नाम की एक पुत्री थी। दोनों पुत्र -पुत्रियों सहित वे दम्पत्ति स्र्विगक सुखों जैसा आनन्द प्राप्त कर रहे थे। पुनः पुत्र की युवावस्था होने पर राजा ‘ज्योतिरथ’ की पुत्री ‘ज्योतिर्माला’ कन्या के साथ अर्वâर्कीित ने उसका विवाहोत्सव किया अतः वे दोनों दाम्पत्य सूत्र में बंधकर राजसुखों का उपभोग करने लगे। कुछ दिनों पश्चात् पुत्री ‘स्वयंप्रभा’ को भी यौवनलक्ष्मी से युक्त देखकर अर्वâर्कीित ने पुरोहित से विचार विमर्श किया और उनकी उचित सलाह पर ‘पोदनपुर’ के राजा ‘प्रजापति’ के छोटे पुत्र ‘त्रिपृष्ठ’ के साथ शुभ मुहूर्त में स्वयंप्रभा का विवाह कर दिया। इधर ‘अश्वग्रीव’ चक्रवर्ती भी उस स्वयंप्रभा को चाहता था परन्तु जब वह उसे नहीं मिली तब क्रोध से परिपूर्ण होकर अश्वग्रीव अपने विद्याधर राजाओं को लेकर त्रिपृष्ठ के साथ युद्ध करने को रणभूमि में उतर पड़ा। पुनः विजयार्ध पर्वत के निकट अश्वग्रीव को मारकर त्रिपृष्ठ नारायण हुआ और उसका बड़ा भाई ‘विजय’ बलदेव की पदवी से अलंकृत हुआ। वे दोनों वीर चक्ररत्न के द्वारा भरतक्षेत्र के तीन खंडों पर विजय प्राप्त कर अर्धचक्री के वैभव का उपभोग करते हुए स्वर्गसुखों के समान आनन्द प्राप्त करने लगे। एक बार उस चक्रवर्ती के मामा एवं विजयार्ध पर्वत के राजा ‘ज्वलनजटी’ ने ‘अभिनन्दन’ नामक मुनिराज का उपदेश सुनकर जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली और अपने पुत्र ‘अर्ककीर्ति ’ को राज्यभार सौंप दिया। हे मित्र! उन अर्वâकीर्ति की ‘ज्योतिर्माला’ नामक स्त्री से ‘अमिततेज’ नामक पुत्र उत्पन्न हुआ उस विद्याधर राजा का पुत्र ‘मैं ’ अनेक विद्याओं का स्वामी हुआ था। तदनन्तर हमारे माता-पिता ने ‘सुतारा’ नाम की सुन्दर कन्या उत्पन्न की और स्वयंप्रभा ने श्रीविजय नामक ज्येष्ठ पुत्र, विजय नामक लघु पुत्र एवं ज्योतिप्रभा नाम की पुत्री को क्रम से जन्म देकर अपना मातृत्व सफल किया। इधर त्रिपृष्ठ के पिता ‘‘प्रजापति’’ राजा ने पिहितास्रव मुनि के समीप दीक्षा धारण कर घोर तपश्चर्या के द्वारा घाति-अघाति कर्मों को नष्टकर मोक्षधाम प्राप्त कर लिया। आगे चलकर स्वयंप्रभा की कन्या ज्योतिप्रभा के साथ मेरा विवाह हो गया और मेरी बहन सुतारा ने स्वयंवर में स्वयंप्रभा के पुत्र श्रीविजय को अपना पति बनाया । चिरकाल बाद त्रिपृष्ठ मरण को प्राप्त हो गया और उनके लघु पुत्र विजय ने मुनि अवस्था में तप करके केवलज्ञान लक्ष्मी को प्राप्त किया एवं गन्धकुटी में विराजमान होकर भव्य जीवों को अपनी दिव्यध्वनि से सम्बोधित करने लगे । कुछ दिनों बाद मेरे पिता अर्ककीर्ति ने मुझे राज्यभार सौंप कर अभिनन्दन मुनिराज के पास दीक्षा ले ली और तुमने भी अपने पिता का राज्य संभालकर नाम सार्थक किया। एक दिन की बात है कि पोदनपुर के राजा ‘‘श्रीविजय’’ राज्यिंसहासन पर आरूढ़ थे, तब किसी ब्राह्मण ने वहाँ आकर कहा कि ‘‘आज के सातवें दिन पोदनपुर नरेश के मस्तक पर आकाश से वज्रपात होगा और राजा मरण को प्राप्त हो जाएगा।’’ उस निमित्तज्ञानी ब्राह्मण के वचन सुनकर राजा ने मंत्रियों से अपनी रक्षा का उपाय पूछा । सभी मंत्रियों ने राजा को अनेक उपाय बताए किन्तु ‘‘मतिभूषण’’ नामक एक विद्वान मंत्री ने सबका खंडन करते हुए कहा कि ऐसे समय में जिनधर्म की शरण लेना श्रेयस्कर है। उसने एक लघु कथानक भी सुनाया। गिरिराज के निकट एक ‘कुम्भकट’ नाम का नगर है । उसमें ‘चण्डकौशिक’ नाम वाला एक दरिद्र ब्राह्मण रहता था। उसकी स्त्री का नाम ‘सोमश्री’था, उसने भूतों की आराधना करके एक ‘मुण्डकोैशिक’ नामक पुत्र प्राप्त किया। वहीं पर निवास कर रहा कुम्भ राक्षस उस पुत्र को खाना चाहता था अतः उससे रक्षा करने के लिये ब्राह्मण ने वह पुत्र भूतों को दे दिया और भूतों ने उसे गुफा में छिपा दिया परन्तु वहाँ भी भयंकर अजगर ने अकस्मात् आकर उसको खा लिया । अतः हे राजन् ! मेरे कहने का सार यह है कि धर्म को छोड़कर मृत्यु से प्राणियों की रक्षा कोई नहीं कर सकता है । आप पोदनपुर के स्वामित्व को दूर कर कुछ दिनों के लिए जिनमंदिर की शरण ले लें और अपने स्थान में राजसिंहासन पर किसी अन्य को स्थापित कर दें । राजा ‘श्रीविजय’ को मंत्री की यह सलाह पसन्द आई अतः सात दिन के लिए राज्य का त्याग कर नियम सल्लेखनापूर्वक जिनमंदिर में र्धािमक अनुष्ठान प्रारम्भ कर दिया और इधर मंत्रियों ने एक तांबे का कुबेर बनाकर उसे राजसिंहासन पर स्थापित कर दिया। सातवाँ दिन पूर्ण होते ही आकाश से भीषण गर्जना के साथ वङ्कापात हुआ और सिंहासन पर आरूढ़ कृत्रिम राजा का मस्तक चूर-चूर हो गया। मंदिर में स्थित राजा पूर्ण रूप से स्वस्थ रहे पुनः उन्होंने अपना नियम पूरा करके खूब ठाट-बाट के साथ अपने राज्य में प्रवेश कर नये राज्याभिषेक को स्वीकार किया एवं ‘अमोघजिह्व’ नामक ब्राह्मण को पुरस्कार में ‘पद्मिनीखेट’ नगर ही दे डाला। पुनः वह राजा श्रीविजय किसी समय अपनी माता से दो विद्याएं लेकर सुतारा के साथ क्रीड़ा करने के लिए ज्योतिर्वन चला गया, उसके चले जाने के कुछ समय पश्चात् वहाँ आकाश से कोई विद्याधर आया। राजसभा में माता स्वयंप्रभा ने उसे योग्य आसन पर बैठाकर यथोचित सम्मान दिया , तब उस विद्याधर ने कहा कि हे मात:! मैं आपके पुत्र श्रीविजय के लिए कुछ कल्याणकारी समाचार सुनाने आया हूँ। संभिन्न नामक विद्याधर का मैं दीप्रशिख नाम का पुत्र हूँ। मैं अपने पिता के साथ आराधना करके जब अपने नगर की ओर जा रहा था तब रास्ते में अमिततेज को तथा एक विमान में स्त्री को रोते हुए देखा। वह स्त्री बार-बार भाई (मेरा) तथा पति (श्रीविजय) का नाम लेकर विलाप कर रही थी । मैंने अपने स्वामी का नाम सुनकर और स्त्री के प्रति करुणा भाव से विमान से उतरकर उस रुदन रहस्य को ज्ञात किया तब पता चला कि वह और कोई नहीं आपकी बहू है, उसने बताया कि अशनिघोष विद्याधर मेरे पति को छल कर मुझे अपनी नगरी की ओर लिए जा रहा है, मेरे पति की रक्षा करो। बात यह हुई कि सुतारा का रूप धारण करने वाली विद्या झूठमूठ ही कुक्कुट सर्प के विष के बहाने मर गई। उसे सचमुच की सुतारा का मरण समझकर राजा श्रीविजय बहुत व्याकुल हुआ तथा उसे लेकर स्वयं भी चिता पर बैठ गया। इतने में ही अच्छा अवसर देखकर अशनिघोष वास्तविक सुतारा को हरण कर ले गया। मेरे पिता ने यह सब सही स्थिति जानकर जब श्रीविजय को बताया तब वह मेरे पिता संभिन्न के साथ सुतारा को प्राप्त करने की इच्छा से ‘‘रथनूपुर’’ चले गए हैं और उन्होंने मुझे आपके पास समाचार देने भेजा है। यह सब सुनकर स्वयंप्रभा भी दीप्रशिख विद्याधर के साथ ‘‘रथनूपुर’’ के लिए रवाना हो गई। आकाशमार्ग से रथनूपुर पहँुचकर उसने राजसभा में प्रवेश किया, वहाँ पत्नी वियोग से दुःखी अपने पुत्र को तथा विद्याधर नरेश को देखकर कहने लगी- ‘‘आप जैसे महापुरुषों के लिए यह समय दुःखी होने का नहीं बल्कि पुरुषार्थ करने का है । जल्दी उठो और शत्रु के चंगुल से मेरी पुत्रवधू की रक्षा करो। ’’ स्वयंप्रभा के इस संबोधन पर विद्याधर नरेश ने श्रीविजय को हेतनिवारिणी और बन्धमोचिनी विद्याएं देकर अपने पुत्रों के साथ ‘‘अशनिघोष ’’ शत्रु के पास युद्ध करने हेतु भेज दिया तथा स्वयं ‘‘महाज्वाला’’ नामक विद्या सिद्ध करने के लिए सहस्ररश्मि के साथ ‘‘ह्रीमन्त’’ पर्वत पर पहँुच गया। उसने शीघ्र ही विद्या सिद्ध कर ली और वहीं से शत्रु की ‘‘चञ्चा’’ नगरी की रणभूमि में पहुच गया, जहाँ अशनिघोष अपनी बहुरूपिणी और भ्रामरी विद्या से करोड़ों रूप बनाकर श्रीविजय के साथ युद्ध कर रहा था। पुनः रथनूपुर नरेश ने क्षण मात्र में अपनी शक्ति से उसकी विद्याएं छेद दीं, तब अशनिघोष डरकर भागने लगा। अनेक विद्याधर राजा उसे मारने को पीछे-पीछे भागने लगे। जब उसे अपनी रक्षा का कोई दूसरा उपाय नजर नहीं आया तो वह नासिक शहर के गजध्वज(गजपंथा)पर्वत पर जा पहँुचा । वहाँ पर्वत पर ‘‘विजय’’ केवली भगवान के समवशरण में पहुचकर सभी की परस्पर में मैत्री हो गई।
गजपंथा पर्वत पर राजा अशनिघोष विद्याधर नरेश अमिततेज के साथ विजय केवली भगवान के समवसरण में भक्तिपूर्वक बैठे थे। पुनः स्वयंप्रभा रानी भी अपनी पुत्रवधू सुतारा को लेकर वहीं पहुंच गई। वहाँ धर्मानुराग से सभी ने वैर भाव त्यागकर मैत्री को धारण कर लिया था। तदनन्तर विजयार्धपति अमिततेज ने केवली भगवान् से धर्म का मर्म पूछा, तब उन्होंने दिव्यध्वनि के द्वारा मुनिधर्म एवं गृहस्थ धर्म का वर्णन करते हुए पांच महाव्रत, अणुव्रत एवं बारह व्रतों का विस्तार से वर्णन किया। इस हितकारी वाणी को सुनकर सभी ने यथाशक्ति सम्यग्दर्शन एवं देशव्रतों को स्वीकार कर मानव जीवन धन्य किया। पुनः विद्याधर राजा ने पूछा कि हे भगवन्! अशनिघोष ने सुतारा का हरण किया, इसमें क्या कारण है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् की देशना खिरने लगी,उन्होंने कहा- इस जम्बूद्वीप के दक्षिण भरतक्षेत्र में ‘‘मलय’’ नाम का बड़ा देश है। उसके ‘‘रत्नपुर’’ नगर में ‘‘श्रीषेण’’ नाम के राजा राज्य करते थे । उनकी दो पत्नियाँ थीं। एक का नाम था-अनिन्दिता तथा दूसरी का नाम सिंहनन्दा था। उन दो रानियों से इन्द्र, उपेन्द्र नामक दो पुत्र उत्पन्न हुए। समय के अनुसार बाल्यकाल व्यतीत कर दोनों पुत्रों ने युवावस्था प्राप्त की, पुनः ‘‘इन्द्र’’ का ‘‘श्रीमती’’ कन्या के साथ विवाह हो गया। इन्द्रिय सुखों को भोगते हुए उसने चन्द्रमा के समान प्रभावान् पुत्र उत्पन्न किया, जिसका नाम रखा गया ‘‘चन्द्र’’। इस प्रकार राजा श्रीषेण पुत्र-पौत्र की सम्पदा को प्राप्त कर गौरवपूर्वक राज्य संचालन कर रहे थे कि एक दिन तरुण स्त्री ‘‘रक्षा करो-रक्षा-करो’’ कहकर करुण क्रन्दन करती हुई राजा के समीप पहुची। राजा ने उसके दुःख का कारण पूछा तथा उसकी रक्षा करने का आश्वासन प्रदान किया, तब वह स्त्री इस प्रकार कहने लगी- हे राजन्! आपके राज्य में जो ‘‘सात्यकि’’ नाम का प्रिय ब्राह्मण है उसकी धर्मपत्नी ‘‘जम्बूमती’’ नाम की पतिव्रता स्त्री से उत्पन्न मैं ‘‘सत्यभामा’’ नाम की कुलबालिका हूँ। ‘‘कपिल’’ नामक एक अजनबी विद्वान् ने ब्राह्मण क्रियाओं से मेरे पिता को धोखा देकर मुझसे विवाह कर लिया परन्तु उसके दुराचार से मैंने जान लिया है कि यह नीच कुल में उत्पन्न हुआ है क्योंकि मनुष्य के आचार-विचार से भी उसके कुल की पहचान हो जाती है। वह कन्या और आगे बताने लगी कि एक दिन कोई वृद्ध गरीब ब्राह्मण मेरे घर आ गया तब कपिल ने मुझसे कहा कि यह तुम्हारा श्वसुर है, उन अतिथि देवता की मैंने कई दिन सेवा-सुश्रूषा की। पुनः एक दिन उनका विश्वास प्राप्त कर मैंने उनसे विनयपूर्वक पूछा- पिताजी! यद्यपि आपका यह पुत्र आपके रूप का सामंजस्य करता है, फिर भी इसके आचरण से मुझे सन्देह हो रहा है। आप वेद-वेदांग के पाठी हैं अतः सत्यता से परिचित अवश्य कराएंगे ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास है। ऐसी शंकास्पद बात सुनकर ब्राह्मण देवता ने कहना शुरू किया- पुत्री! मैं मगधदेश के अचल ग्राम में रहने वाला धरणीजट नाम का ब्राह्मण हूँ। मेरी पत्नी यशोभद्रा ने श्रीभूति और नन्दिभूति नाम के दो पुत्र उत्पन्न किये थे एवं यह कपिल एक दासी का पुत्र था और मेरे यहाँ सेवक था। इसने अपनी बुद्धि से ही अनेक शास्त्रों का अध्ययन करके पाण्डित्य प्राप्त कर लिया तथा गर्व से अपने को ब्राह्मण कहने लगा। आज तेरे पूछने पर मैंने सच्ची बात बतला दी है। इस प्रकार कहकर वह ब्राह्मण तो अपने देश चला गया किन्तु मुझे कपिल से अत्यन्त ग्लानि हो चुकी है अतः हे राजन्! उस दुराचारी से मेरी रक्षा करने में आप ही समर्थ हैं। धर्मसंकट के इस प्रसंग में राजा श्रीषेण ने सत्यभामा को अपने महल में सुरक्षित कर दिया और कपिल को दंडित करने का आश्वासन दिया। गुरु उपदेश सदा हितकारी- बसन्त ऋतु ने जब धरती को अपने सौन्दर्य से परिपूर्ण कर लिया था। पूरे नगर की नारियाँ उपवन में क्रीड़ा करती नजर आती थीं। बसन्ती, गुलाबी मौसम घर—घर में छाया था, ऐसे स्र्विणम क्षणों को राजभवन भी विस्मृत न कर सका और अपने परिकर के साथ राजा श्रीषेण एक दिन वैभार पर्वत पर बसन्त क्रीड़ा करने हेतु गए। वहाँ उन्होंने एक शिलातल पर चारित्रसम्पन्न ‘‘आदित्ययश’’ नामक महामुनिराज के दर्शन किये। उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार करके राजा ने पूछा कि हे भगवन् ! मेरा हित वैâसे हो सकता है ? मुनिराज ने उसे निकट संसारी जानकर श्रावक धर्म का उपदेश दिया तथा बताया कि- ‘‘ राजन्! तुम्हें शीघ्र ही सत्पात्रदान का लाभ प्राप्त होने वाला है जो संसार में सर्वश्रेष्ठ फल देने वाला होता है।’’ गुरुवाणी को हृदय में धारण कर राजा अपने नगर में जाकर न्यायपूर्वक राज्य संचालन करने लगे पुनः कुछ दिन पश्चात् उस नगरी में दो मास का उपवास करने वाले चारणऋद्धिधारी अमित और आदित्यगति नाम के दो मुनिराज आहारचर्या के लिए पधारे। राजा ने विधिपूर्वक उनका पड़गाहन करके उन्हें अपने भवन में प्रवेश कराया और नवधाभक्तिपूर्वक उन्हें आहार दिया। उत्तमपात्र, उत्तमदातार, उत्तमविधि और उत्तमद्रव्य के निमित्त से राजा के आंगन में देवों ने पंचाश्चर्य की वृष्टि करते हुए खूब जय-जयकार किया। सत्यभामा ने भी उस दान की अनुमोदना करके महान् पुण्य संचित कर लिया। एक वेश्या दो भाइयों के युद्ध का कारण बनी एक बार राजा श्रीषेण के बड़े पुत्र ‘‘इन्द्र’’ की धर्मपत्नी के साथ रूप एवं यौवन से परिपूर्ण ‘‘बसन्तसेना’’ नाम की एक वेश्या भेंट में प्राप्त हुई। यद्यपि इन्द्र ने उसे स्वीकृत कर लिया था तो भी काम से आतुर उपेन्द्र ने उसे अपने वश में करके उसके साथ जबर्दस्ती विवाह कर लिया। पिता के द्वारा मना करने पर भी उसके ऊपर कोई भी असर न पड़ा, तब एक दिन दोनों भाइयों में उस वेश्या को लेकर घमासान युद्ध छिड़ गया। दोनों ने अपनी तलवारें खींच लीं और एक दूसरे पर वार करने को तैयार ही थे तभी आकाश से आकर एक विद्याधर उन दोनों के बीच में खड़ा हो गया और कहने लगा कि हे राजपुत्रों! सुनो! सुनो! जिसके लिए तुम परस्पर का घात करने को तैयार हुए हो वह वेश्या पूर्व भव में तुम दोनों की बहन थी। इतना शब्द सुनते ही दोनों हतप्रभ रह गए ,उनके हाथ की तलवारें धरती पर गिर गर्इं। तब विद्याधर उन्हें उस वेश्या के पूर्व भव का कथानक सुनाने लगा- धातकीखंड द्वीप में पूर्व मेरू के पूर्व विदेह में ‘‘पुष्कलावती’’ नामक देश है। वहाँ के विजयार्ध पर्वत पर आदित्य नाम का नगर है। उस नगर के राजा सुकुण्डल एवं रानी अमिता का मैं मणिकुंडल नामक पुत्र हूँ। मेरे पिता ने मुझे राज्यभार सौंप कर मुनिदीक्षा धारण कर ली है। एक बार मैं विजयार्ध पर्वत से उतरकर पृथ्वी पर क्रीड़ा करने की इच्छा से पुण्डरीकिणी नगरी पहुचा, वहाँ अमितकीर्ति मुनिराज के दर्शन करके मैंने अपना पूर्व भव पूछा। मुनिराज मेरे पूर्व भव के बारे में कहने लगे— हे भद्र! तुम इससे पहले सौधर्म स्वर्ग में देव थे, वहाँ तुम्हारे साथ दो देव और रहते थे, वे पूर्व भव में तुम्हारी पुत्रियाँ थीं तथा वहाँ की एक देवांगना भी पहले तुम्हारी पुत्री थी। पुनः मेरी जिज्ञासा अधिक होने पर मुनिराज ने मेरे देव से पूर्व का भव बताया कि पुष्करार्ध द्वीप के पश्चिम विदेह में ‘‘वीतशोका’’ नगरी है। वहाँ चक्रायुध राजा के विद्युन्मती और कनकश्री नाम की दो पत्नियाँ थीं। विद्युन्मती ने ‘‘पद्मावती’’ नाम की कन्या को उत्पन्न किया और कनकश्री ने सुवर्णलतिका एवं पद्मलता नाम की दो पुत्रियों को जन्म दिया। वे तीनों कन्याएं अपने पिता चक्रवर्ती की गोद में क्रीड़ा करती हुई लक्ष्मी के समान शोभा को प्राप्त करती थीं। एक बार इस परिवार को ‘‘अमितश्री’’ नाम की गणिनी र्आियका का सानिध्य प्राप्त हुआ तो समस्त माता-पुत्रियों ने सम्यक्त्व सहित श्रावक व्रत ग्रहण कर लिये और जीवन भर धर्माराधना करते हुए समाधिमरण करके सौधर्म स्वर्ग में देव पर्याय प्राप्त कर ली । पद्मावती नाम की कन्या ने उसी स्वर्ग में देवी पद को प्राप्त किया। मुनिराज ने बताया कि कनकश्री का जीव जो देव हुआ वही तुम थे,अब तुम वहाँ से मनुष्य लोक में आकर सुकुण्डल के पुत्र मणिकुंडल हुए हो और तुम्हारी दोनों पुत्रियाँ राजा श्रीषेण के तुम दोनों पुत्र रूप में जन्मे हो। पहले पद्मावती का जीव ही स्वर्ग की देवी पर्याय से निकल कर यह बसन्तसेना वेश्या हुई है। यही सब बातें सुनकर हे राजन्! मैं वहाँ से चलकर शीघ्र आप दोनों का युद्ध रोकने आया हूँ। संसार की ऐसी विचित्र स्थिति सुनकर दोनों भाई संसार से विरक्त होकर ‘‘सुधर्मा ’’ मुनिराज के समीप दीक्षा धारण कर लेते हैं। राजा श्रीषेण पुत्र वियोग के दुःख से संतप्त होकर विषलिप्त कमल को सूंघकर अपनी जीवन लीला समाप्त कर देते हैं पुनः रानी सिंहनन्दा एवं अनिन्दिता ने भी सत्यभामा के साथ परामर्श करके सबने वही कमल सूंघकर मरण को प्राप्त कर लिया। आगे इन सबका अगले भव में भी सम्बन्ध चलता रहा। इन भव-भवान्तरों का कथानक सुनाते हुए केवली भगवान् ने बताया कि जिस कपिल वेषधारी ब्राह्मण को राजा श्रीषेण की पर्याय में तुमने दंड देकर देश से निकाल दिया था वही अब निदानबन्ध के कारण विद्याधर ‘‘अशनिघोष’’ हुआ है और सात्यकि की पुत्री सत्यभामा अब ‘‘सुतारा’’ हुई है। पूर्व भवों की प्रीति के कारण ही अशनिघोष ने सुतारा का हरण किया है। गजपंथा पर्वत पर भगवान् विजय केवली की गन्धकुटी में अपने पूर्व भवों को सुनकर अशनिघोष ने वैराग्य भाव से जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली और रानी स्वयंप्रभा ने र्आियका दीक्षा ग्रहण कर ली। शेष सभी लोग अपने -अपने स्थान चले गए।
पुनः एक समय की बात है कि-चांदनपुर के जिनमन्दिर में किसी समय वहाँ का राजा उपवास का नियम लेकर भक्ति आराधना कर रहा था, वहाँ अकस्मात् देवगुरु और अमरगुरु नामक दो चारणऋद्धिधारी मुनि आ गए। मुनिराजों को नमस्कार कर राजा ने उनसे अपने पिता के पूर्व भव पूछे, तब देवगुरू मुनिराज ने अपने ज्ञान से कहना शुरू किया- भगवान् ऋषभदेव का जो ‘‘मरीचि’’ नामक पौत्र था, वह मिथ्यात्व के कारण चिरकाल तक संसार में भ्रमण करता हुआ एक बार मगध देश के ‘‘राजगृह’’ नगर के राजा ‘‘विश्वभूति’’ का पुत्र ‘‘विश्वनन्दी’’ हुआ। पिता ने वैराग्य भाव धारण कर अपने छोटे भाई ‘‘विशाखभूति’’ को राज्य वैभव सौंप कर तथा पुत्र विश्वनन्दी को युवराज बनाकर ‘‘श्रीधर’’ मुनिराज के पास जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली, पुनः समस्त कर्मों का क्षय कर मोक्ष पद प्राप्त कर लिया। कुछ दिनों बाद विशाखभूति राजा की पत्नी लक्ष्मणा ने ‘‘विशाखनन्दी’’ नामक पुत्र को जन्म दिया। युवावस्था प्राप्त होने पर एक दिन उसने माता से अपने बड़े भाई विश्वनन्दी के सुन्दर उपवन को माँगा। माता ने पिता को उसकी इच्छा से परिचित करा दिया तब उन्होंने भतीजे को एक राजा के साथ युद्ध करने बाहर भेज दिया और वह वन अपने पुत्र को सौंप दिया। पुनः जब विश्वनन्दी अपने प्रतिद्वन्दी राजा को मारकर वापस आया तो सारा समाचार जानकर वह क्रोध के कारण अपने चाचा के पास न जाकर सीधा उसी वन में पहुच गया। वहाँ विशाखनन्दी को खूब त्रस्त किया। विशाखभूति यह सब समाचार सुनकर राज्य से विरक्त हो गए, तब भाई के प्रति दयाद्र्र होकर विश्वनन्दी ने भी चाचा के साथ ही ‘‘संभूत’’ नामक मुनिराज से जिनदीक्षा ले ली। दोनों ने क्रम-क्रम से समाधिपूर्वक मरण करके महाशुक्र स्वर्ग में देव पद प्राप्त कर लिया, पुनः चिरकाल तक वहाँ के सुखों को भोगकर विशाखभूति का जीव ‘‘विजय’’नाम का नारायण हुआ है । नारायण के पूर्व भव श्रवण कर समस्त सभा हर्ष विभोर होकर तप के फल की प्रशंसा करने लगी और पोदनपुर का राजा भी अपने महलों में जाकर सुखपूर्वक निवास करने लगा। उसके पश्चात् एक बार विद्याधर राजा तथा भूमिगोचरी राजा दोनों रथनूपुर नगर के उद्यान में भ्रमण कर रहे थे। वहाँ अशोक वृक्ष के नीचे उन्होंने ‘‘विपुलमति’’और ‘‘विमलमति’’ नामक दो मुनियों के दर्शन किए, अपने हाथ से तोड़े हुए पुष्पो के द्वारा गुरुचरणों की पूजा करके दोनों राजाओं ने विनयपूर्वक उनसे अपनी आयु के बारे में पूछा। मुनिराज ने कहा कि तुम दोनों की आयु मात्र छत्तीस दिन की है अतः अब शीघ्र ही तुम्हें आत्महित का मार्ग अपनाना चाहिए। यह सुनकर विद्याधर राजा अमिततेज ने सुतेजस् नामक पुत्र को अपना राज्य सौंप दिया एवं श्रीविजय नामक भूमिगोचरी राजा ने ‘‘श्रीदत्त ’’ पुत्र को राजसिंहासन पर आरूढ़ कर दिया, पुनः दोनों ने ‘‘अभिनन्दन’’आचार्य के पास दीक्षा लेकर सन्यास मरण करके आनत स्वर्ग में ‘‘आदित्यचूल’’ और ‘‘मणिचूल’’ नामक देव का वैभव प्राप्त किया। वहाँ से देवायु पूर्ण कर आदित्यचूल अपराजित बलभद्र हुआ एवं मणिचूल ‘‘अनन्तवीर्य ’’नाम से उसका भाई नारायण हुआ। वहाँ से मरकर अनन्तवीर्य पहले नरक में चला गया था पुनः उसे पूर्व भव के पिता के जीव देव ने जाकर सम्बोधन प्रदान कर सम्यक्त्व ग्रहण कराया जिसके फलस्वरूप नरक से निकल कर विजयार्ध पर्वत के ‘‘गगनबल्लभ’’ नगर में विद्याधर राजा ‘‘मेघवाहन’’ का पुत्र ‘‘मेघनाद’’ हुआ। वहाँ पिता का उत्कृष्ट राज्यपद प्राप्त कर उसने अपने पाँच सौ पुत्रों सहित खूब राजसुख भोगा, तब आदित्यचूल नाम का देव जो आगे जाकर अच्युतेन्द्र बना था, उसने पूर्व भव का सम्बन्ध जानकर मेघनाद को सम्बोधित करते हुए कहा कि- हे राजन् ! हम दोनों के अनेक जन्मों से अच्छे सम्बन्ध चले आ रहे हैं इसीलिए आज परस्पर मे देखकर अत्यन्त प्रीति हुई है। अब आप इन विषय सुखों को छोड़कर वैराग्य मार्ग को अपनाओ तथा जिनदीक्षा धारण कर उत्कृष्ट तप को स्वीकार करो। इस प्रकार बार-बार सम्बोधन पाकर ‘‘मेघनाद’’ ने विद्याधर के समस्त वैभव को तृण के समान त्याग कर ‘‘अभिनन्दन’’ गुरू के पास जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली। उत्कृष्ट तपस्या में लीन, उपसर्ग विजयी, आगम ज्ञाता मुनि श्री मेघनाद ने उत्तम सल्लेखना विधि से मरण करके उसी अच्युत स्वर्ग में प्रतीन्द्र पद प्राप्त कर लिया। वहां अपने उपकारी अच्युतेन्द्र को देखकर वह परम प्रसन्न हुआ और साथ-साथ स्र्विगक सुखों का उपभोग करते हुए जिनेन्द्र भगवान् की भक्ति में अपने समय का सदुपयोग करने लगा।
अनादिनिधन जम्बूद्वीप के विदेहक्षेत्र में मंगलावती देश के रत्नसंचय नगर में क्षेमंकर नामक प्रजापति राजा अपने सिंहासन पर आरूढ़ थे। अनेक देव-देवी उनके समक्ष किंकर बनकर खड़े थे और सभासद अपने-अपने स्थानों पर राजसभा में विद्यमान रहकर उनकी शोभा में चार चाँद लगा रहे थे। प्रातःकाल की मधुरिम बेला में राजा की पट्टरानी कनकचित्रा अपनी नित्य क्रियाओं से निवृत्त होकर सखियों के साथ राजसभा में प्रवेश करती हैं और अपने योग्य आसन को ग्रहण कर वे पतिदेव से निवेदन करती हैं- ‘‘स्वामिन् ! आज रात्रि के पिछले प्रहर में मैंने सूर्य, चन्द्रमा, सिंह, हाथी, चक्र और छत्र ये छह स्वप्न देखे हैं। आपके मुख से मैं इनका फल जानना चाहती हूँ। भगवन्! मेरे ये स्वप्न किस भविष्य की सूचना दे रहे हैं।’’ मति, श्रुत, अवधिज्ञान से युक्त राजा क्षेमंकर ने प्रसन्नतापूर्वक उत्तर दिया— ‘‘देवि! तुम्हारे पवित्र गर्भ में एक षट्खंडाधिपती चक्रवर्ती पुत्र अवतीर्ण हुआ है। उसी की वीरता,ऐश्वर्य आदि की मंगल सूचना देने वाले ये तुम्हारे स्वप्न हैं।’’ परम आल्हाद से युक्त, लज्जा एवं शील गुण से विभूषित रानी कनकचित्रा पतिदेव को नमस्कार कर अन्तःपुर में चली गर्इं तथा गर्भावस्था के नव मास उन्होंने जिनेन्द्रपूजा, तीर्थयात्रा, दान, स्वाध्याय आदि में व्यतीत किये। पुनः अत्यन्त पराक्रमी सुन्दर पुत्र को जन्म देकर उन्होंने अपना मातृत्व धन्य कर लिया। पुत्र जन्म का अपूर्व उत्सव मनाकर माता-पिता ने उसका ‘वङ्कायु्रध’ यह नाम रखा। पूर्व कथानक में जिस अच्युतेन्द्र ने मेघनाद के जीव को वैराग्य हेतु सम्बोधन प्रदान किया था वही अच्युतेन्द्र वहाँ से च्युत होकर ‘‘वज्रायुध’’ हुआ है। अपनी बाललीलाओं से परिवारजनों को प्रसन्न करता हुआ वह बालक सूर्य के समान वृद्धिंगत होने लगा। युवावस्था प्राप्त होने तक उसके रूप-सौन्दर्य, पराक्रम, तेजस्विता की ख्याति दूर-दूर तक फैल गई, तब माता-पिता ने अपने युवराज पुत्र का विवाह ‘‘लक्ष्मीमती’’नामक एक सुन्दर राजकन्या के साथ कर दिया। दाम्पत्य सुखों का उपभोग करते हुए वे अपना जीवन व्यतीत कर रहे थे कि उधर से अच्युत स्वर्ग का प्रतीन्द्र (विद्याधर राजा मेघनाद का जीव) वहाँ से च्युत होकर लक्ष्मीमती के गर्भ में आ गया और ‘‘सहस्रायुध’ नाम के पुत्र रूप में उसका जन्म हुआ। वज्रायुध ने उस समय प्रसन्नतापूर्वक अपना भण्डार खोलकर याचकों के लिए किमिच्छक दान बाँटा और सारी नगरी में बहुत भारी उत्सव मनाया। पुनः एक बार बसन्त ऋतु के आगमन पर युवराज वज्रायुध अपनी रानियों के साथ वनक्रीड़ा करने देवरमण वन में गया, वहाँ इच्छानुसार जलक्रीड़ा आदि करते हुए उन लोगों ने दीर्घकाल तक विषय सुखों का उपभोग किया। इसी मध्य उसी वन में युवराज को यह क्रीड़ा करते देखकर विद्युद्दंष्ट्र नामक देव ने अपना विमान वहीं लाकर रोक दिया और पूर्वजन्म के वैर का बदला लेने हेतु उस देव ने पहले तो एक बहुत बड़े नागपाश के द्वारा युवराज को बाध दिया, पुनः सरोवर के ऊपर पत्थर की शिला ढक दी ताकि युवराज वहीं मरण को प्राप्त हो जायें किन्तु वज्रायुध तो भावी चक्रवर्ती था, उसने अपने शौर्य पराक्रम से नागपाश को तोड़ डाला एवं शिला को हटाकर बाहर आ गया। एक मानव की इतनी भारी वीरता देखकर, अवधिज्ञान से उन्हें भावी चक्रवर्ती जानकर वह देव भी डरकर भाग गया, जैसे सूर्य को देखकर अन्धकार भाग जाता है। युवराज वज्रायुध की यशपताका इस विजय से चारों दिशाओं में लहराने लगी। उन्हें बड़े उत्सवपूर्वक जयजयकारों के साथ नगर में प्रवेश कराया गया तब वज्रायुध ने सर्वप्रथम तीर्थंकर पद धारक अपने पिता श्री क्षेमंकर के चरणों में नमन करके उनसे आशीर्वाद प्राप्त किया। किसी समय राजा क्षेमंकर को संसार से वैराग्य हो गया तब लौकान्तिक देवों ने आकर उनके वैराग्य की अनुमोदना,प्रशंसा की और प्रभु ने युवराज वज्रायुध को अपना मुकुट पहनाकर उन्हें राजसिंहासन सौंप दिया। पुनः उसी रत्नसंचय नगर के उद्यान में जाकर उत्तरमुख विराजमान होकर सिद्धों की साक्षीपूर्वक जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। राजा वज्रायुध पिता के सिंहासन पर स्थित होकर अत्यधिक सुशोभित हो रहे थे। प्रजा का न्यायपूर्वक पालन करते हुए अपने पुत्र सहस्रायुध को युवराज बनाकर उन्होंने इसका विवाहोत्सव सम्पन्न कर दिया और उससे उत्पन्न ‘‘कनकशान्ति’’ नामक पौत्र के लाड़—प्यार में गृहस्थ जीवन को व्यतीत करने लगे। भगवान् जिनेन्द्र की पूजा, गुरु उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान इन श्रावक की षट्क्रियाओं का पालन करते हुए सम्यग्दृष्टि वज्रायुध अपने पिता के गुणों का वर्णन प्रायः पुत्र-पौत्रों के मध्य किया करते थे। यह पुण्यकथा सबके हृदय में सम्यक्त्व आलोक के उत्पन्न करने में प्रबल निमित्त थी। जैसा कि श्री मानतुंगाचार्य ने भक्तामर स्तोत्र के नवमें काव्य में कहा है— आस्तां तवस्तवनमस्तसमस्तदोषं, त्वत्संकथापि जगतां दुरितानि हन्ति। दूरे सहस्रकिरणः कुरुते प्रभैव, पद्माकरेषु जलजानि विकासभांजि।।९।। अर्थात् हे आदिनाथ जिनेन्द्र ! आपका समस्त दोषरहित स्तवन तो दूर रहे, आपकी पुण्यमय कथा सुनकर भी लोगों के पापकर्म नष्ट हो जाते हैं। जैसे-सूर्य दूर से ही अपनी प्रभा के द्वारा सरोवरों में कमल को खिला देता है इसी प्रकार से तीर्थंकर क्षेमंकर की कथा भी उन भव्यात्माओ के मन कमल को विकसित कर रही थी। अकस्मात् एक दिन- स्वर्ग में देवों की सभा चल रही थी,वहाँ सम्यक्त्व की चर्चा में ईशानेन्द्र ने राजा वज्रायुध की खूब प्रशंसा की, तब वहाँ से एक देव मनुष्य का रूप धारण कर उनकी परीक्षा करने के लिए मध्यलोक में जम्बूद्वीप के विदेहक्षेत्र की रत्नसंचय नगरी में राजमहल में आ गया। द्वारपालों से राजा को ज्ञात हुआ कि कोई विद्वान पण्डित आपसे धर्मचर्चा करने की जिज्ञासावश आपके पास आना चाहते हैं। राजा की स्वीकृति मिलने पर पण्डित का वेश धारण करने वाले उस देव ने राजसभा में प्रवेश किया और योग्य विनय के पश्चात् उसने अपना आसन ग्रहण करके राजा से कहना शुरू किया- हे राजन् ! आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने वाले प्रमाणों का अभाव होने से आत्मा निरात्मरूप है ऐसा कई महात्माओं ने प्रतिपादन किया है। हे विभो! यह स्पष्ट ही प्रमाण आत्मा को देखने के लिए समर्थ नहीं है क्योंकि परोक्ष आत्मा के देखने में उसकी अप्रत्यक्षता का प्रसंग आता है, इत्यादि अनेक हेतुओं से उसने नैरात्म्यवाद नामक मत की पुष्टि करते हुए वज्रायुध को आत्मतत्व से विमुख करने का बहुत पुरुषार्थ किया किन्तु सम्यग्दृष्टि उस पृथ्वीपति ने उसके सारे हेतुओं का आगम, तर्क एवं दृढ़ श्रद्धान के बल पर खण्डन किया। अन्त में अपनी पराजय जानकर देव ने राजा की मान्यता को स्वीकार कर लिया और ‘‘राजन्! आपके समान दूसरा सम्यग्दृष्टि नहीं है, ऐसा ईशानेन्द्र का वाक्य बिल्कुल सत्य निकला है ’’ यह कहकर देव वापस स्वर्ग चला गया। देव के चले जाने पर वहाँ उपस्थित सभासदों ने राजा से पूछा कि यह सब क्या चल रहा था ? वह व्यक्ति कौन था और यहाँ क्यों आया था ? इसके उत्तर में वज्रायुध ने अपने अवधिज्ञान से कहा कि महाबल नामक विद्याधर का जीव पूर्व भवों में दमितारि के साथ युद्ध करते हुए मेरे द्वारा मारा गया था सो संसार में भ्रमण कर देव हुआ और यहाँ मेरे सम्यक्त्व की परीक्षा करने आया था। समस्त सभासद इस तत्त्वचर्चा से बहुत प्रभावित हुए, पुनः जिनधर्म पर दृढ़ श्रद्धान करते हुए सम्यग्दर्शन को ग्रहण कर लिया जो संसार से मोक्ष तक पहुँचाने में प्रथम सोपान है। कहा भी है- न सम्यक्त्वसमं किंचित् त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि। श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्व समं नान्यत्तनूभृताम्।।
‘‘रत्नसंचयपुर’ नगर रत्नों की गरिमा से परिपूर्ण है। प्रजा सुख—क्षेमपूर्वक निवास करती हुई अपने राजा वज्रायुधकी प्रशंसा करते नहीं थकती है। पूरे शहर में चारों ओर खुशियाँ ही खुशियाँ छाई हैं। तोरण एवं वन्दनवारों की शोभा प्रत्येक यात्री को आर्किषत किये बिना नहीं रहती,ये सभी प्रसन्नताएँ मानो वज्रायुध के चक्रवर्ती पद की भावी सूचना दे रहे हैं। प्रातःकाल की मंगल बेला में राजसिंहासन पर आरूढ़ राजा वज्रायुध अपनी अप्रतिम आभा एवं मन्द मुस्कानों से राजसभा को आल्हादित कर रहे थे,उसी समय उनके सेनापति ने आकर निवेदन किया- ‘‘हे राजन्! आपकी आयुधशाला में शत्रुओं को नम्रीभूत करने वाला उत्तम चक्ररत्न प्रगट हुआ है।’’ राजा ने हर्षपूर्वक चक्र उत्पत्ति का समाचार श्रवण कर आयुधशाला के अध्यक्ष नन्द को वेशकीमती आभूषण से पुरस्कृत किया पुनः उसके जाते ही किसी भाग्यशाली मनुष्य ने आकर सन्देश दिया कि- ‘‘हे पृथ्वीपते! आपके पिता तीर्थंकर श्री क्षेमंकर ने घातिया कर्मों का नाश कर केवलज्ञान प्राप्त कर लिया है। श्रीनिलय उद्यान में असंख्य भव्य प्राणी उनके समवसरण में दिव्य उपदेश श्रवण करने पहुच रहे हैं। यह पावन सन्देश पाकर राजा ने आनन्द अश्रुओं से अपने तन—मन को प्रक्षालित कर परोक्ष में ही तीर्थंकर प्रभु को तत्काल नमन किया और उस वनपालक को अपने अनेक रत्नाभूषण उतार कर भेंट कर दिया। दो समाचार एक साथ सुनकर उन्होंने चिन्तन किया कि छह खंड की सम्पत्ति का मूल तो धर्म ही है अतः मुझे सर्वप्रथम ‘‘धर्म पुरुषार्थ’’ का सेवन करने हेतु भगवान केवली के समवसरण में जाना चाहिए। कुछ क्षणों पश्चात् बड़ी भारी विभूति सहित वे पिताश्री के समवसरण में पहुचे और उनकी उपासना कर दिव्यध्वनि का श्रवण किया पुनः हृदय में केवली के परम ऐश्वर्य का अनुभव करते हुए वापस अपने नगर में आ गए। वहाँ आकर विधिपूर्वक चक्ररत्न की पूजा कर सेनापति नंद को संतुष्ट किया। वे चक्ररत्न को आगे करके जब छह खण्ड विजय हेतु निकले तब समस्त पृथ्वी के राजा बिना किसी ईष्र्या, द्वेष के उनके समक्ष नम्रीभूत होकर चक्रवर्ती की आधीनता स्वीकार करने लगे । इस प्रकार बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजाओं को वश में करते हुए चक्रवर्ती वज्रायुध ने शीघ्र ही वृषभाचल पर्वत पर अपनी विजयप्रशस्ति लिखकर अपूर्व विभूति के साथ नगर में प्रवेश किया। भव्यत्व गुण के कारण वह सम्राट चौदह रत्नों की अपेक्षा रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को ही अपने सुख का साधन मानता था, इस कारण यद्यपि बत्तीस हजार राजा उसकी सेवा करते थे और नौ निधियों का वह स्वामी था, तो भी उसका हृदय विषयों से विरक्त रहता था। उस विदेह क्षेत्र के विजयार्ध पर्वत पर एक ‘‘शिवमन्दिर’’ नाम का नगर है। उसमें विद्याधरों का राजा मेरूमाली निवास करता था। उसकी रानी का नाम था-विमला। उन दोनों के ‘काञ्चनमाला’ नाम की सुन्दर पुत्री थी। मेरूमाली ने चक्रवर्ती वज्रायुध के पौत्र कनकशान्ति के साथ अपनी कन्या का परिणयोत्सव कर दिया पुनः जयसेन नामक एक पृथुकसार नगर के राजा ने भी अपनी पुत्री बसन्तसेना को कनकशान्ति के लिए सौंप दिया-विवाह कर दिया। बसन्तसेना की बुआ का पुत्र ‘हिमचूल’ विद्याधर था, वह उसे विवाहना चाहता था परन्तु कनकशान्ति के साथ विवाही जाने पर उसका मनोरथ व्यर्थ हो गया अतः वह दुखी होकर कनकशान्ति का उपकार करने की इच्छा से निरन्तर भस्म से ढकी अग्नि के समान क्रोध से युक्त रहने लगा। एक दिन अपनी दोनों स्त्रियों के साथ कनकशान्ति राजकुमार हिमालय पर्वत पर वनक्रीड़ा करने गया, इच्छानुसार रमण करते हुए वे चिरकाल तक वहाँ के उद्यान, सरोवर आदि का आनन्द प्राप्त करते रहे, पुनः एक दिन उन्हें एक शिला पर विराजमान दिगम्बर मुनिराज के दर्शन हुए। कनकशान्ति ने सपरिवार गुरूदेव के चरणों में जाकर नमन किया और उनसे पूछा-‘‘हे भगवन्! मेरा हित कैसे हो सकता है ?’’ तत्पश्चात् मुनिराज ने परमौषधि रूप अपने वचनों से उसे सम्बोधन प्रदान किया—
अविद्यारागसंक्लिष्टो, बंभ्रमीति भवान्तरे। विद्या वैराग्य संयुक्त:, सिध्दत्यविकलस्थितिः।।१।।
आत्मनीनमतः कार्यं, तत्वावहित चेतसा। जैनं विश्वजनीनं हि, शासनं दुखःनाशनम्।।२।।
अर्थात् हे भव्य! अज्ञान और राग से संक्लिष्ट रहने वाला प्राणी संसार के भीतर कुटिल रूप धारण करता है और विद्या तथा वैराग्य से युक्त प्राणी अखण्ड मर्यादा का धारी होता हुआ सिद्ध होता है इसीलिए तत्वों में चित्त लगाकर भी आत्महित करना चाहिए क्योंकि जिनेन्द्र भगवान का सर्वजन हितकारी शासन दुःखों का नाश करने वाला है। कनकशान्ति ने उन तपस्वी मुनिराज से संसार का दु:ख और मोक्ष का सुख जानकर परम वैराग्य को प्राप्त होकर जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली। उसकी दोनों रानियाँ यह दृश्य देखकर अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गईं पुनः पतिवियोग के दुःख से अतिशय संतप्त होकर आपस में वार्तालाप करती हुई कांचनमाला बसन्तसेना से कहने लगी-‘‘बहन! संसार में सर्वांगीण विषय सुख भी बड़े पुण्य से प्राप्त होते हैं। हम लोगों ने पूर्व जन्म में अवश्य किसी के सुख में विघ्न उपस्थित किया होगा ? उसी के फलस्वरूप यहाँ हमें इस युवावस्था में पतिवियोग का आकस्मिक दुःख सहन करना पड़ रहा है।’’ पुनः बसन्तसेना बोली- दीदी! ऐसा लगता है कि हिमालय की इन पर्वतमालाओं को, सरोवर की अधिष्ठात्री देवी को, उद्यान में पुष्पों का पराग ग्रहण करते भ्रमरों को और इस वन के पशुओ को हमारी क्रीड़ा का सुख सहन नहीं हुआ इसीलिए उन सबने मिलकर पतिदेव का हृदय हम लोगों के राग से विरक्त कर दिया। हाय, हाय! अब मैं इस संसार में किसके आश्रित रहकर जीवन यापन करूंगी। हे नाथ! यदि इसी प्रकार से तुम्हें वैराग्य धारण करना था तो हमें राग में क्यों फंसाया ? इस प्रकार बहुत देर विलाप करती हुई दोनों रानियों ने स्वयमेव जब कुछ सन्तोष धारण किया तब वहीं संघ में विराजमान ‘‘सुमति’’ नाम की गणिनी र्आियका माताजी ने उन्हें संसार की असारता का सारर्गिभत उपदेश दिया,जिससे प्रभावित होकर उन लोगो ने सुमति गणिनी के समीप ही र्आियका दीक्षा ग्रहण कर ली। वास्तव में संसार में वैराग्य की महिमा अपरम्पार है। देखो! जो कुछ क्षण पहले प्रबल रागभाव से अनुरञ्जित थे वही लोग वीतरागी मुनिराज का निमित्त पाकर वीतरागी बनकर तपस्या में लीन हो गए। कनकशान्ति मुनिराज को एक दिन वन में हिमचूल ने तप करते देखा तो क्रोध से आगबबूला होकर उसने अपनी विद्याओं के बल से भयंकर राक्षस आदि के द्वारा खूब उपसर्ग किया किन्तु एक धरणेन्द्र ने तत्काल उपस्थित होकर हिमचूल को डाँट—फटकार कर भगा दिया और मुनिराज का उपसर्ग दूर किया। किसी समय एक मास का उपवास कर वे मुनिराज विहार करते हुए एक बार ‘रत्नपुरु’ नगर पहुंचे। वहाँ धृतषेण नामक राजा ने दूध के आहार से उनका पारणा कराया तब उनके घर में देवताओं द्वारा पंचाश्चर्य वृष्टि की गई। उस नगर के उद्यान में मुनिराज प्रतिमायोग लेकर विराजमान थे तब एक दिन शुक्लध्यान की विशुद्धि द्वारा उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। सम्राट वज्रायुध ने जब अपने पौत्र कनकशान्ति के केवलज्ञान की बात सुनी तो वहाँ भी जाकर श्रद्धापूर्वक उनकी पूजा, आराधना करके दिव्यध्वनि का पान किया। पुनः हजारों वर्ष तक राजसुखों का उपभोग करते हुए चक्रवर्ती को एक बार संसार,शरीर, भोगों से वैराग्य उत्पन्न हो गया और उन्होंने अपने पुत्र सहस्रायुध को राज्यभार सौंपकर क्षेमंकर जिनेन्द्र के निकट तीन हजार राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली। उन्हें छह खण्ड के भूमण्डल की रक्षा का अभ्यास था इसीलिए मानो वे प्रयत्नपूर्वक छह प्रकार के प्राणि समूह की रक्षा करते थे। बारह भावनाओं का चिन्तन करते हुए महामुनि वज्रायुध एक बार सिद्धिगिरि पर्वत पर एक वर्ष का प्रतिमायोग लेकर खड़े हो गये तब वन लताओं का समूह उनके शरीर पर चढ़ गया,सर्प-बिच्छू आदि जन्तुओं ने वामी बना ली किन्तु मुनिराज की ध्यानलीन अवस्था को देखकर स्वर्ग की अप्सराओं ने आकर वहाँ मुनि के ऊपर उपसर्ग कर रहे पूर्व भव के वैरी देवों को भगाया एवं उनके शरीर से लताओं का वेष्टन दूर किया, इस प्रकार उपसर्ग-परीषहों को सहन करते हुए उन मुनिराज ने एक वर्ष के बाद प्रतिमायोग समाप्त किया। उसके पश्चात् उनकी आहार-विहार आदि क्रियाएँ हुइ। क्रमशः ये ही वज्रायुध मुनिराज आगे चलकर तीर्थंकर भगवान शांतिनाथ हुए हैं। इन्होंने पूर्व भव में भगवान् बाहुबली के समान एक वर्ष का ध्यान किया था। पिता की अत्यन्त कठिन तपस्या को सुनकर उनके गुणों में उत्सुक होते हुए ‘‘सहस्रायुध’’ने भी अपने पुत्र प्रीतिंकर को राज्य सौंपकर जिनदीक्षा ग्रहण कर ली। वज्रायुध मुनिराज सिद्धगिरि पर्वत पर विधिपूर्वक शरीर का परित्याग कर उपरिमग्रैवेयक में अहमिन्द्र बन गए। इधर सहस्रायुध ने भी चिरकाल तक तपश्चरण करके ईषत्प्राग्भार नामक पर्वत पर सल्लेखना मरण किया जिसके प्रभाव से वे भी अपने पिता के समान ही उपरिम ग्रैवेयक के कान्तप्रभ नामक अहमिन्द्र हो गए।
जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में सीता नदी के उत्तर तट पर स्थित ‘‘पुष्कलावती’’ देश में ‘‘पुण्डरीकिणी’’ नगरी में न्यायप्रिय राजा घनरथ का शासन चल रहा था। ये राजा घनरथ इसी पर्याय से इन्द्रों के द्वारा पंचकल्याणकों को प्राप्त करके तीर्थंकर पद को धारण करने वाले थे अतः स्वभाव से ज्ञान का तेज उनके रोम-रोम से छलकता था। अप्सरा के समान सुन्दर आकृति वाली उनकी ‘‘मनोहर’’ नाम की प्रथम रानी के पवित्र गर्भ में ‘‘अमितविक्रम’’ नाम का अहमिन्द्र (राजा वज्रायुध का जीव) उपरिम ग्रैवेयक से च्युत होकर आ गया और नव माह पश्चात् मेघरथ नाम के पराक्रमी पुत्र के रूप में जन्म लिया। इसी प्रकार राजा घनरथ की दूसरी रानी ने भी दृढ़रथ नाम के पुत्र को जन्म दिया जो ‘‘कान्तप्रभ’’अहमिन्द्र (सहस्रायुध का जीव )था। पूर्व भवों से चले आ रहे सम्बन्ध के कारण मेघरथ और दृढ़रथ नामक दोनों भाइयों में स्वाभाविक अगाढ़ स्नेह था। दोनों राजपुत्र धीरे-धीरे चन्द्रकलाओं के समान वृद्धि को प्राप्त करते हुए बचपन से युवावस्था में प्रवेश कर गए तब पिता ने सुन्दर कन्याओं के साथ उनका परिणय संस्कार कर दिया। बड़े पुत्र मेघरथ की मनोरमा एवं प्रियंवदा नाम की दो कन्याओं के साथ शादी हुई। छोटे पुत्र दृढ़रथ को सुमति नाम की पत्नी प्राप्त हुई। तब दोनों भाई राजमहल में इन्द्रिय सुखों का अनुभव करते हुए अपने अमूल्य मानव जीवन को व्यतीत करने लगे। दो मुर्गों का युद्ध राजसभा में- एक बार राजसभा में विराजमान राजा घनरथ के समक्ष दो मुर्गे उपस्थित होकर युद्ध करने लगे। बहुत देर तक उन दोनों का युद्ध देखते हुए घनरथ ने अपने अवधिज्ञानी पुत्र मेघरथ से कहा- ‘‘हे वत्स! इन पक्षियों के जन्मान्तर से आए हुए वैर को तथा इनके न थकने के कारण को यदि कुछ जानते हो तो बताकर मेरा समाधान करो।’’ मेघरथ इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहने लगे- इसी जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में ‘रत्नपुर’ नाम का एक नगर है वहाँ किसी भव में ये दोनों बैलगाड़ी के चालक गाड़ीवान थे, एक बार दोनों की बैलगाड़ियों में टक्कर हो जाने से दोनों ने तीव्र क्रोध से भड़क कर एक-दूसरे को मार डाला। पुनः दोनों हाथी हो गये वहाँ भी शत्रुभाव से मरकर अयोध्या नगरी में मेंढ़ा हुए। मेंढ़ा पर्याय में भी दोनों युद्ध द्वारा एक-दूसरे को मारकर मरे, जिससे अब ये मुर्गे हुए हैं तथा पूर्वभव सम्बन्धी क्रोध के कारण इनके द्वारा इस प्रकार वैर बढ़ाया जा रहा है। हे पिता! इन मुर्गों में इतनी देर तक थकावट नहीं आने का कारण भी बड़ा विचित्र है। किसी भव में जिनका आपके साथ पुत्रत्व सम्बन्ध था ऐसे जयंत और विजय नामक पूर्व जन्म के पुत्रों ने तप करके अब इस भव में विद्याधर राजा का पद प्राप्त किया है। किसी अवधिज्ञानी मुनिराज के मुख से इन्हें ज्ञात हुआ कि पूर्वभव के आपके पिता अभयघोष नामक मुनि हुए थे पुनः अच्युतेन्द्र पद के पश्चात् अब वे राजा घनरथ हुए हैं। अब ये कौतुकवश आपको देखने यहाँ आए और ‘‘आप इन मुर्गों का युद्ध देखना चाहते हैं।’’ यह जानकर वे दोनों विद्याधर अपनी विद्या से इन्हें लड़ा रहे हैं। इतनी सारी घटना सुनकर उन दोनों विद्याधर राजाओं ने राजसभा में अपने असली रूप में प्रगट होकर भावी तीर्थंकर एवं पूर्व जन्म के पिता राजा घनरथ की खूब पूजा स्तुति की और मुर्गों ने अपने पूर्व भव सुनकर जन्म जन्मान्तर सम्बन्धी कर्मजन्य वैर को छोड़ दिया और शरीर का परित्याग कर वे ‘भूतरमण’’ नामक अटवी में व्यन्तर देव हो गये। राजा घनरथ की दीक्षा-कालान्तर में राजा घनरथ को किन्हीं कारणों से राज्यवैभव से वैराग्य हो गया, तब लौकान्तिक देवों ने आकर उनके वैराग्य की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए तप का अनुमोदन किया और राजा अपने पुत्र मेघरथ को राजमुकुट बाँधकर स्वयं जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर घोरातिघोर तपस्या करने लगे। राजा मेघरथ ने न्यायपूर्वक राज्य का संचालन करते हुए अपने लघु भ्राता दृढ़रथ को युवराज पद पर आसीन कर दिया और खूब प्रेमपूर्वक दोनों भाई सूरज और चंद्रमा के समान धरती पर अपना प्रकाश फैलाने लगे। कृतज्ञ व्यंतर देवों ने उपकार का बदला चुकाया-एक बार राजा मेघरथ राजसभा में बैठे थे तभी दो देव आकाशमार्ग से उनके पास आए और हाथ जोड़कर राजा से कहने लगे- ‘‘हे भद्र! आपके उपदेश के प्रभाव से ही हम लोग मुर्गे जैसी तुच्छ पर्याय से छूटकर इस दिव्य शरीर को प्राप्त हुए हैं। हे स्वामी! यद्यपि आपके पास तो सब कुछ विद्यमान है फिर भी हम अपने कर्तव्य का पालन करने हेतु आपकी कुछ सेवा करना चाहते हैं, कृपया हमें अवसर प्रदान करके अनुगृहीत कीजिए। देवों के इस नम्र निवेदन पर मेघरथ ने उनके कंधे पर बैठकर ढाई द्वीप के अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना की तथा वापस आकर राजसभा में समस्त प्रजा के समक्ष वहाँ के सौन्दर्य आदि का वर्णन किया। पुनः इन्द्रिय भोगों के फलस्वरूप राजा मेघरथ की पत्नी प्रियमित्रा से एक ‘‘नन्दिवर्धन’’ नाम का पुत्र उत्पन्न हुआ और युवराज दृढ़रथ की रानी सुमति ने भी ‘‘धनसेन’’ नामक पुत्र को जन्म दिया। अंगूठा दबाकर चलायमान पर्वत को भी स्थिर कर दिया- जब बसन्तऋतु अपनी मादकता से परिपूर्ण थी तब राजा मेघरथ एक दिन अपनी स्त्रियों के साथ ‘देवरमण’वन के क्रीड़ापर्वत पर क्रीड़ा करने गये थे। वहाँ वे दोनों व्यंतर प्रगट होकर सुन्दर नृत्य-गायन आदि के द्वारा राजा-रानी का मनोरंजन करने लगे। इतने में अचानक वह क्रीड़ा पर्वत हिलने लगा जिससे स्त्रियाँ भयभीत होकर पति के आलिंगन हेतु भागने लगीं। तब राजा मेघरथ ने अपने बाएँ पैर के अंगूठे से दबाकर उस पर्वत को स्थिर कर दिया। उसी समय पर्वत के नीचे से बड़ी भारी रुदन की आवाज आई और एक विद्याधर देवी आकाश से प्रगट होकर कहने लगी कि हे राजन्! मेरे पति ने अज्ञानतावश पर्वत को चलायमान करने का दुःसाहस किया था किन्तु आप उन्हें क्षमा करके जीवनदान देवें और मेरे सौभाग्य की रक्षा करें यही आपसे मेरी नम्र विनती है। मेघरथ ने तुरन्त अंगूठे का ढीला कर लिया और विद्याधर राजा को अभयदान देते हुए उन्होंने उसका सारा पूर्व भव जान लिया। पुनः विद्याधर के द्वारा बार-बार पश्चात्ताप करने पर तथा अपनी रानी प्रियमित्रा के द्वारा उसके वैरजन्य पूर्व भव के वृत्तांत पूछने पर मेघरथ अवधिज्ञान से बताने लगे- भरतक्षेत्र में शंखपुर नगर के राजा उदार का एक अत्यन्त गरीब महावत था, जिसका नाम था-राजगुप्त। उसकी शंखिका नाम की पत्नी थी। एक बार उस महावत ने शंखपर्वत पर सर्वगुप्त मुनिराज का धर्मोपदेश सुनकर ‘‘द्वात्रिंशत् कल्याण’’ नाम का व्रत किया। पुनः उसने मुनि को आहारदान देकर महान् पुण्य अर्जित किया। कुछ दिनों के पश्चात् पति-पत्नी दोनों ने गुरुदेव के पास मुनि-आर्यिका की दीक्षा धारणा कर ली, पुनः समाधिमरण करके महावत का जीव ब्रह्मलोक स्वर्ग में देव हुआ और शंखिका सौधर्म स्वर्ग में देवी हुई। आगे यही महावत का जीव स्वर्ग से चयकर विजयार्ध पर्वत के राजा विद्युद्रथ की मानसवेगा नामक रानी के गर्भ से यह हेमरथ नाम का पुत्र हुआ एवं शंखिका का जीव स्वर्ग की देवी की आयु समाप्त कर पवनवेगा नाम की इसकी पत्नी हुई है। यह विद्याधर राजा अमितवाहन की सेवा करके वापस जा रहा था, यहाँ पर इसका विमान रुक गया तो उसने मुझे विमान रोकने में निमित्त समझ कर मान के कारण इस पर्वत को उखाड़ फेकने की भावना से इस पर्वत को चलायमान किया एवं अब अपने कृत्य पर पश्चाताप कर रहा है। उस विद्याधर राजा ने जब मेघरथ से अपने पूर्व भव सुने तो बहुत प्रसन्न हुआ एवं राजा मेघरथ की महानता,क्षमा और उदारता की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगा। इसके पश्चात् थोड़ी देर में ही उन सबको ज्ञात हुआ कि मुनिराज घनरथ ने चार घातिया कर्मों को नाश करके केवलज्ञान प्राप्त कर लिया है। देवों का आगमन देख वे सभी घनरथ जिनेन्द्र के समवसरण में पहुँचकर महामहिम पूजा करने लगे। पुनः उन लोगों ने तीर्थंकर की दिव्यध्वनि का पान करके आत्मिक सुख को प्राप्त किया और विद्याधर राजा हेमरथ ने वहीं समवसरण में जिनदीक्षा धारण कर ली। उन जिनेन्द्र भगवान् की बारह सभाओं से युक्त समवसरण की आराधना करके राजा मेघरथ दल बल सहित अपने राजमहल वापस आ गए और श्रावक के कर्तव्यों का पालन करते हुए राज्य संचालन करने लगे।
जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में पुष्कलावती देश की पुण्डरीकिणी नगरी के राजा मेघरथ के न्यायप्रिय शासन से समस्त प्रजा असीम सुख का अनुभव कर रही है। चारों ओर राजा के गुणों का वर्णन चल रहा है, सदावर्त दान बँट रहा है एवं जिनेन्द्र भगवान की जय-जयकारों से नगरी स्वर्ग के समान प्रतिभासित हो रही है। इस प्रकार कितने ही दिवस, मास और वर्ष व्यतीत हो गए और किसी समय कार्तिक मास का शुक्ल पक्ष आने पर राजा मेघरथ ने पूरे राज्य में घोषणा करवा दी ‘‘कोई भी मनुष्य किसी जीव की हिंसा नहीं करेगा।’’ और स्वयं भी तेला का नियम लेकर जिनमन्दिर में भक्तजनों के साथ आष्टान्हिक पूजा करने लगे। एक दिन धर्मसभा में एक कबूतर राजा मेघरथ की शरण में आकर प्राणों की रक्षा हेतु स्पष्ट भाषा में बोलने लगा-हे राजन्! मेरी रक्षा करो,रक्षा करो। उसके पीछे ही एक बाज पक्षी आ पहुचा जो उस कबूतर को मारना चाहता था। वह बाज भी मनुष्य की वाणी में राजा से कहने लगा- हे नरश्रेष्ठ! आप इस समय प्रत्येक प्राणी पर समताभाव धारण कर जिनपूजा में संलग्न हैं अतः आपको मेरे ऊपर दया करके इस कबूतर को छोड़ देना चाहिए। यह मेरी भूख शान्त करने वाला मेरा भोजन है। यदि आप उसकी रक्षा करेंगे तो क्षुधा से त्रस्त मेरे प्राणों के निकल जाने पर भी तो आपको हिंसा का पाप लगेगा। कृपया आप मेरा भोजन मेरे लिए छोड़ दें अन्यथा मैं शीघ्र ही मर जाऊंगा। इस प्रकार कहता हुआ वह बाज पक्षी राजा की गोद में छिपे हुए उस कबूतर को क्रोध से देख रहा था कि उसी क्षण मेघरथ उन दोनों के पूर्वभव सम्बन्धी वैर अपने अवधिज्ञान से जान गये और सच्चे अहिंसा धर्म का उपदेश देते हुए बाजपक्षी से कहने लगे- हे भव्य प्राणी! वैर की परम्परा जन्म-जन्मान्तर में आत्मा को दुःख देने वाली है अतः इसे छोड़कर मैत्री भाव को धारण करो एवं जिनधर्म की शरण प्राप्त कर उच्चगति प्राप्त करो। पुनः उसका क्रोध शान्त न होता देखकर उन्होंने दोनों का पूर्वभव कहना शुरू किया- इसी जम्बूद्वीप के ऐरावत क्षेत्र में ‘‘पद्मिनीखेट’’ नाम का एक बड़ा नगर है वहाँ ‘सागरसेन’ नामक एक वैश्य रहा करता था। उसकी ‘‘अमितमति’’ नाम की पत्नी ने कालक्रमानुसार दत्त और नन्दिषेण नाम के दो पुत्रों को जन्म दिया था। वे दोनों पुत्र लाड़—प्यार में बिगड़कर अनर्थकारी अवगुणों में निष्णात हो गये। पिता के स्वर्गवासी होने के पश्चात् दोनों भाइयों ने शीघ्र ही सारा धन नष्ट कर दिया और निर्धनता से व्याकुल होकर वे इधर-उधर घूमने लगे। एक बार उन लोगों ने व्यापार करने के उद्देश्य से पिता के एक मित्र के पास कुछ धन मांगा और ‘‘नागपुर’’ शहर की ओर प्रस्थान कर दिया। काफी दिनों के बाद दोनों इच्छानुसार धन कमाकर अपने नगर की ओर लौट रहे थे, तभी शंख नदी के तट पर विश्राम हेतु लेटे हुए बड़े भाई दत्त को मारने का विचार छोटे भाई के मन में आ गया। उसने ज्यों ही तलवार का एक वार भाई पर किया, वह उठकर खड़ा हो गया और क्रोध के आवेश में छोटे भाई को मारने लगा। परस्पर में लड़ते-लड़ते वे दोनों घायल होकर एक सरोवर में गिरकर मर गये। उनमें से बड़ा भाई दत्त तो उसी नगर के उपवन में कबूतर हुआ जो मेरी शरण में प्राणरक्षा की भिक्षा मांग रहा है और नन्दिषेण नामक छोटा भाई तू बाज पक्षी के रूप में जन्मा है। पूर्व जन्म का वैर ही तुम दोनों को इस जन्म में भी एक—दूसरे को मारने का भाव उत्पन्न कर रहा है। यह सब कथानक सुनकर दोनों पक्षियों को जातिस्मरण हो गया जिससे उनके नेत्रों से अविरल अश्रुधारा प्रवाहित हो पड़ी। वे दोनों भाई-भाई के समान ही प्रेम का प्रदर्शन करते हुए एक—दूसरे का आलिंगन करने लगे। पुनः राजा मेघरथ से भाई दृढ़रथ पूछने लगे कि ये पक्षी मनुष्य की भाषा में स्पष्ट कैसे बोल रहे हैं। इसके उत्तर में मेघरथ ने बताया कि- एक बार संजय नामक एक विद्याधर मेरे द्वारा युद्धक्षेत्र में मरण को प्राप्त होकर मनुष्य हुआ और वहाँ मिथ्या तापस के रूप में तपस्या करके मरा तो ऐशान स्वर्ग में सुरूप नामक देव हो गया। स्वर्ग में इन्द्र द्वारा प्राणिरक्षा के विषय में मेरी प्रशंसा सुनकर वह देव यहाँ मेरी परीक्षा लेने के अभिप्राय से आया है जो इन पक्षियों के शरीर में प्रविष्ट होकर मनुष्य की भाषा में इन्हें बोलने को प्रेरित कर रहा है। यह सुनकर वह देव भी वहाँ प्रगट होकर राजा मेघरथ की भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगा और उनकी स्तुति-पूजा करके अपने स्थान पर चला गया। कालान्तर में वे दोनों पक्षी शान्त भाव से मरकर भवनवासी देव हो गये। राजा मेघरथ आष्टान्हिक व्रत के पश्चात् अपने महल में आ गये और धर्मध्यानपूर्वक पुनः राज्य का सुचारू संचालन करने लगे। एक दिन धर्मधर नामक तपस्वी मुनिराज राजभवन में आहारचर्या हेतु पधारे। राजा ने विधिपूर्वक उनको आहार कराया, पुनः उनके महल में पंचाश्चर्यवृष्टि होने लगी। यह सब वैभव आहारदान के पुण्य प्रभाव से राजा मेघरथ को प्राप्त हुआ था। एक बार मेघरथ को श्मशान भूमि में प्रतिमायोगपूर्वक ध्यानस्थ देखकर स्वर्ग से ईशानेन्द्र ने उन्हें नमस्कार किया। उसे देखकर स्वर्ग की अप्सराएं मेघरथ को ध्यान से विचलित करने हेतु प्रगट हो गइ। श्रृंगार रस से सुशोभित वचन और चेष्टा के द्वारा भी वे देवांगनाएं राजा मेघरथ के मन में क्षोभ उत्पन्न न कर सकीं। तब श्रद्धा से उन्हें नमस्कार करके अपने स्थान पर चली गइ। राजा मेघरथ गृहस्थ में रहते हुए भी कई बार इस प्रकार प्रतिमायोग धारकर मुनिपद का अभ्यास किया करते थे, जो उनके कर्मक्षय में प्रबल निमित्त बनकर खड्ग का कार्य करता था। रानी के रूप की परीक्षा-एक बार कोई दो सुन्दर स्त्रियाँ मेघरथ की पत्नी परमसुन्दरी ‘‘प्रियमित्रा’’ के पास पहुची। रानी को योग्य भेंट आदि देकर जब वे समुचित स्थान पर बैठ गइ तो प्रियमित्रा ने उनसे पूछा कि आप लोग किसलिए मेरे पास आई हैं ? उन्होने कहा- हे देवि! हम लोग कौतूहलवश आपके सौन्दर्य को देखने के लिए आई हैं। प्रियमित्रा उन देवांगनाओं से बोली- अभी कुछ देर बाद मैं स्नानादि से निवृत्त होकर विभिन्न अलंकारों से सुसज्जित होकर बैठूंगी तब आप लोग मेरे असली सौन्दर्य को देखिएगा,तब तक विश्रामकक्ष में आप विश्राम कीजिए । थोड़ी देर बाद जब रानी अपनी राजसी वेश-भूषा में उपस्थित हुई, तब देवियों ने पुनः प्रकट होकर कहा कि हे साम्राज्ञी! आपका रूप पहले की अपेक्षा इस समय बहुत क्षीण हो गया है। मनुष्यों की कान्ति नश्वर तथा निःसार होती ही है, उसकी तुलना देवोपुनीत शरीर से कथमपि नहीं की जा सकती है। हे रानी! यद्यपि आपका लावण्य ढलती हुई जवानी से युक्त है तो भी यह स्थाई यौवन से सुशोभित अप्सराओं के भी रूप को जीतने में समर्थ हैं। इन्द्र ने स्वर्ग में आपके रूप की जैसी प्रशंसा की थी आप सचमुच में वैसी हैं, यह कहकर दोनों देवांगनाएं तिरोहित हो गइ। तदनन्तर रूप के ह्रास की बात सुनकर जिसे अत्यधिक वैराग्य उत्पन्न हो गया था ऐसी रानी प्रियमित्रा ने अपने पतिदेव राजा मेघरथ से देवियों की सारी बात कह सुनाई। राजा तो स्वयं वैराग्य भावों से युक्त थे अतः उन्होंने रानी को शरीर की निःसारता का विस्तार से वर्णन सुनाया। चारों गतियों में अनादिकाल से पंचपरिवर्तन कर रहे इस अनमोल चैतन्य आत्मा का स्वरूप बताया और कहने लगे कि देवी! संसार में तप के समान आत्मा का दूसरा कोई हितकारी बन्धु नहीं है इसलिए भव्य जीवों को शक्ति के अनुसार सदा तपस्या में प्रवृत्ति करनी चाहिए। इस प्रकार उत्कृष्ट बुद्धि के धारक मेघरथ सभा के बीच में रानी के लिए हित का उपदेश देकर स्वयं भी उस समय राज्य भोगों को छोड़ने के लिए इच्छुक हो गये। उनके इस उपदेश से युवराज एवं लघु भ्राता दृढ़रथ को भी वैराग्य हो गया तब मेघरथ ने अपने पुत्र नन्दिवर्धन को राजनीति का उपदेश देकर उसका राज्याभिषेक कर अपने पिता घनरथ तीर्थंकर के पास जाकर भाई के साथ जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली एवं रानी प्रियमित्रा भी सुव्रता आर्यिका के समीप दीक्षित होकर आत्मकल्याण करने लगीं। महामुनि मेघरथ उग्रोग्र तपस्या करते हुए तीर्थंकर के पादमूल में दर्शनविशुद्धि आदि सोलहकारण भावनाओं का चिन्तन करने लगे तथा आयु के अन्त में उन्होंने एक मास तक प्रायोपगमन सन्यास धारण कर वीरमरण करके सर्वार्थसिद्धि विमान में अहमिन्द्र पद प्राप्त कर लिया। इसी प्रकार दृढ़रथ ने भी घोर तपस्या का आश्रय लेकर समाधिमरण के द्वारा उसी सर्वार्थसिद्धी विमान में अहमिन्द्र पद प्राप्त किया। वहां दोनों भाई अवधिज्ञान से एक—दूसरे के पूर्व भव जानकर अहमिन्द्र पद की निर्मल संपदा का उपभोग करने लगे।
जम्बूद्वीप में सुशोभित भरतक्षेत्र में अत्यन्त शोभा को प्राप्त कुरुदेश में हस्तिनापुर नाम की नगरी है। उस हस्तिनापुर नगरी में राजा विश्वसेन अपनीr महारानी ऐरादेवी के साथ निवास करते थे। राजा विश्वसेन जब कुरुदेश का शासन कर रहे थे तब उत्तम ऋद्धियों का धारक राजा मेघरथ का जीव,जो सर्वार्थसिद्धि स्वर्ग विमान में सुख भोग रहा था वह पृथ्वीतल पर आने का इच्छुक हुआ,उसके गर्भ में आने के छः महिने पहले से ही कुबेर ने सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से माता के आंगन में रत्नों की वर्षा शुरू कर दी। दिक्कुमारी देवियों से सेवा को प्राप्त माता ऐरादेवी ने रात्रि के पिछले प्रहर में सुन्दर-सुन्दर सोलह स्वप्न देखे । प्रातःकाल मंगलमय कार्यों को सम्पन्न कर रानी ऐरादेवी अपनी सखियों के साथ राजदरबार में पहुचीं, वहाँ सभा में बैठे हुए राजा विश्वसेन को स्वप्नों के बारे में बताया। उन स्वप्नों को सुनकर अत्यन्त हर्ष से भरे हुए राजा विश्वसेन ने उनको स्वप्नों का यथायोग्य फल कहा, पुनः राजा बोले कि प्राणवल्लभे! तुमने स्वप्नों के अन्त में जो अपने मुखकमल में प्रवेश करता हुआ ऐरावत हाथी देखा उसका तात्पर्य यह है कि तुम्हारे पवित्र गर्भ में तीर्थंकर पुत्र अवतीर्ण हो चुका है यह सुनकर माता ऐरादेवी हर्ष से रोमांचित हो उठीं । इस प्रकार भाद्रपद शुक्ला सप्तमी की रात्रि में जब चन्द्रमा भरणी नक्षत्र पर स्थित था तब मेघरथ का जीव सर्वार्थसिद्धि विमान से च्युत होकर माता के गर्भ में प्रविष्ट हुआ। तत्क्षण देवों ने अपने इन्द्र परिकर के साथ उस नगरी में आकर पुष्पवृष्टि,रत्नवृष्टि आदि करते हुए अन्त में माता ऐरादेवी की पूजा की और अपने-अपने स्थान पर चले गये । अथानन्तर माता के पवित्र गर्भ से वे त्रिलोकीनाथ ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी के दिन प्रातःकाल की मंगल बेला में भरणी नक्षत्र में उत्पन्न हुए। उन महाप्रतापी जिनेन्द्र भगवान के उत्पन्न होने पर इन्द्रों के सिंहासन सहसा ही कंपित हो उठे। समस्त देव इन्द्रादि स्वर्ग से चलने के लिए उद्यत हुए पुनः हस्तिनापुर पहुंचकर इन्द्रादिक देवों ने दूर से ही वाहनों से उतरकर तथा राजा को अपना परिचय देकर मरुतुल्य राजभवन में प्रवेश किया। जिनेन्द्र जन्मगृह को देखकर उनके मुकुट श्रद्धा से झुक गए तथा मुख स्तोत्रों से शब्दायमान हो उठे, पुनः उन देवों ने उस जन्मगृह की तीन प्रदक्षिणा देकर पश्चात् गृह में प्रवेश किया । तदनन्तर शचि इन्द्राणी ने माता के आगे मायामयी बालक रखकर उन जिनराज को उठा लिया तथा सौधर्म इन्द्र ऐरावत हाथी के सुन्दर स्कन्ध पर उन जिनेन्द्र को विराजमान कर आकाश मार्ग से मेरू की ओर चला। उस समय ऐशानेन्द्र ने जिनराज के ऊपर वह सफेद छत्र लगा रखा था जिसे देव लोग उनके जन्माभिषेक के लिए आए हुए क्षीरसमुद्र की आशंका से देख रहे थे। इन्द्राणियाँ उन इन्द्रों के आगे हस्तिनियों पर सवार होकर जा रही थीं। वहाँ पहुचकर इन्द्रों ने सुमेरू पर्वत की ईशान दिशा में स्थित चन्द्रकला के आकार वाली पाण्डुक नामक शिला के सिंहासन पर उन जिनराज को श्रद्धापूर्वक विराजमान किया तथा रत्नमय कलशों को धारण करके समस्त इन्द्र मेरू पर्वत से लेकर क्षीरसमुद्र तक पंक्तिरूप से खड़े हो गए, पुनः इन्द्रों ने क्रम-क्रम से क्षीर-समुद्र के जल से भरे हजार कलशों को अपनी हजार भुजाओं से लेकर जिनबालक का जन्माभिषेक किया,पश्चात् इन्द्रों ने जिनबालक की अनेक प्रकार से पूजा और स्तुति की, पश्चात् वापस नगर की ओर प्रस्थान किया। नगर प्रवेश की सूचना मिलते ही राजा विश्वसेन ने भी मांगलिक द्रव्यों को हाथ में लेने वाले राजाओं के साथ क्रम से सात कक्षाएँ पारकर प्रभु की अगवानी की और भीतर ले जाकर इन्द्राणी ने जिनबालक को माता को सौंप दिया, पुन: ‘‘इनका नाम शान्ति है’’ ऐसा इन्द्र ने सूचित कर सभी देवों के साथ इन्द्रलोक को प्रस्थान कर दिया। चक्ररत्न की उत्पत्ति—अथानन्तर दस अतिशयों से युक्त ऐसे शान्ति जिनेन्द्र भव्य जीवों के मनोरथों के साथ बढ़ने लगे। इसी शृंखला में दृढ़रथ का जीव,जो सर्वार्थसिद्धि में अहमिन्द्र हुआ था वह भी उन्हीं विश्वसेन राजा की यशस्वती रानी से चक्रायुध नाम का यशस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ। दोनों ही महापुण्यवान् बालक साथ-साथ विचरते थे। इस पृथिवी के होते हुए भी देवोपुनीत भोगों को भोगते हुए भगवान शान्तिनाथ के २५ हजार वर्ष व्यतीत हो गए । अथानन्तर किसी दिन शान्तिनाथ भगवान सभा के मध्य स्थित थे उसी समय शस्त्रों के अध्यक्ष अर्थात् सेनापति ने भगवान को नमस्कार कर सूचना दी कि हे प्रभो! आपकी आयुधशाला में ‘‘चक्ररत्न’’ उत्पन्न हुआ है। ऐसा सुनकर शान्ति जिनेन्द्र ने पहले उसे इच्छित पुरस्कार देकर पश्चात् भाई चक्रायुध के साथ जाकर चक्ररत्न की पूजा की । तदनन्तर उनके पीछे आकर चक्र ने रत्नों और निधियों के साथ तीन प्रदक्षिणा देकर शान्तिजिनेन्द्र को समीप से नमस्कार किया। इस महिमाशाली दृश्य को देखकर देवों ने आकाश में प्रगट होकर आश्चर्य किया कि अधिकांशतः सब चक्रवर्ती चक्ररत्न को नमस्कार करते हैं परन्तु यह चक्ररत्न ही शान्तिजिनेन्द्र को नमन कर रहा है। छह खण्डों पर दिग्विजय—पुनः एक दिन मंत्री और सेनापति ने विनयपूर्वक शान्तिनाथ जिनेन्द्र से निवेदन किया कि हे प्रभो! इस भरतक्षेत्र में भरत आदि चार चक्रवर्ती हो चुके हैं उन्होंने चक्र के रहते हुए भी कठिनाई से ही सबको वश में किया था परन्तु आप तो उस धर्मचक्र के नेता हैं जिसका प्रभाव षट्खण्ड में ही नही अपितु तीनों लोकों में ही अस्खलित है अतः इस चक्ररत्न के उपरोध से ही आपको चक्रर्वितयों का क्रम जो दिग्विजय आदि है वह करना चाहिए। इस प्रकार प्रभु से निवेदन कर तथा उनकी आज्ञा पाकर मंत्री और सेनापति ने दिग्विजय के लिए जोर से भेरी बजवा दी। तदनन्तर जिनके आगे-आगे चक्र चल रहा था ऐसे प्रभु ने गजराज पर आरूढ़ हो नगर से निकलकर सर्वप्रथम पूर्व दिशा के उपवन में प्रस्थान किया वहाँ उन्होंने रत्न और लकड़ी से र्निमित महल में निवास किया। वहाँ सभा मे बैठे हुए धीर—वीर भगवान यद्यपि तीन ज्ञान के धारक थे तो भी वृद्धजनों से पूर्व चक्रर्वितयों की कथा को सुनते हुए साधारण जन के समान आनन्द लेते रहे, तदनन्तर दिन समाप्त होने पर वे बाह्य सभा को छोड़कर अभ्यन्तर सभा में प्रविष्ट हुए वहाँ उन्होंने प्रकरण के अनुरूप मन्त्री और सेनापति से वार्तालाप कर पश्चात् उन्हें विदाकर रात्रि का प्रारभ्भ भाग सघन होने पर निवासगृह में प्रवेश किया, पुनः रात्रि के तीन प्रहर बीतने पर शंखनाद हुआ तब शान्ति जिनेन्द्र ने यथायोग्य सत्कारों से राजाओं का सम्मान कर तथा जयपर्वत नामक हाथी पर सवार हो दिग्विजय के लिए प्रस्थान किया। शान्ति जिनेन्द्र पूर्व,पश्चिम आदि खण्डों पर क्रम-क्रम से विजय को प्राप्त करते हुए मध्यम खण्ड की ओर गए, तदनन्तर वहाँ के राजाओं के नायक आवर्त और चिलात ने मेघमुख देवों के साथ आकर प्रभु को नमस्कार किया, पुनः जिनके आगे-आगे चक्ररत्न चल रहा था ऐसे शान्तिप्रभु ने अग्रभाग में वनपुष्प मञ्जरियों को बिखेरने वाले प्रसन्न व्यन्तरों के साथ वृषभाचल की ओर प्रयाण किया और वहाँ ‘‘ऐरा और विश्वसेन का पुत्र कौरववंशी, काश्यप गोत्री शान्तिनाथ तीर्थंकर और चक्रवर्ती हुआ’’ इस प्रकार राजराजेश्वर शान्तिजिनेन्द्र ने पूर्व परम्परा से चला आया प्रशस्ति लेख अपने हाथ से लिखा सो ठीक है क्योंकि महापुरुषों का धन यश ही होता है। इस प्रकार चक्ररत्न के द्वारा समस्त पृथ्वी को जीतकर शान्तिनाथ जिनेन्द्र्र ने देवों सहित बड़ी विभूति के साथ नगर में प्रवेश किया। भव्य जीवों ने उन शान्तिप्रभु की वर्तमान में छद्मस्थ होने पर भी आगे प्रगट होने वाले अरहन्त के गुणों की कल्पना कर स्तुति की। इस प्रकार चक्रवर्ती के सुखों का उपभोग करते हुए छियानवे हजार रानियो के साथ उन शान्तिनाथ भगवान के पच्चीस हजार वर्ष व्यतीत हो गए, तत्पश्चात् किसी समय भगवान को वैरागी जानकर सारस्वतादिक लौकान्तिक देवों के समूह ने आकर उन प्रभु को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया तथा उनकी अनेक प्रकार से स्तुति की। जिनकी कीर्ति रूपी निधि लोक के अन्त तक विद्यमान थी ऐसे शान्तिनाथ भगवान लौकान्तिक देवों को विदाकर नारायण नामक पुत्र पर अपनी वंशलक्ष्मी का भार सर्मिपत कर तप की इच्छा से उस पालकी पर आरूढ़ हुए जो सौधर्म आदि इन्द्रों के द्वारा धारण की गई थी। आकाश को तेजोमय करते हुए शान्तिजिनेन्द्र हस्तिनापुर के सहस्राम्रवन में पहुचे, वहाँ इन्द्रों के द्वारा उठाई गई पालकी से उतरकर शान्तिप्रभु ने नन्दीवृक्ष के नीचे बैठकर शुद्ध बुद्धि से सिद्धो को नमस्कार किया, पुनः ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी के दिन जबकि चन्द्रमा भरणी नक्षत्र पर स्थित था, अपरान्ह समय में दो दिन के उपवास का नियम लेकर निष्ठापूर्वक जैनेश्वरी दीक्षा धारण की । भगवान के द्वारा केशलोंच किए गए केशों को इन्द्र ने पिटारे में क्षीरसमुद्र में क्षेप दिया। उन शान्तिजिनेन्द्र को दीक्षा लेते ही सात ऋद्धियों के साथ मनःपर्यय ज्ञान प्राप्त हो गया पुनः तीसरे दिन भगवान ने आहार प्राप्ति के लिए मन्दिर नामक नगर में प्रवेश किया, वहाँ के राजा सुमित्र ने उन्हें नवधाभक्तिपूर्वक खीर का आहार दिया, उसी समय राजा के यहाँ देवों द्वारा पंचाश्चर्य की वृष्टि हुई। सामायिक की विशुद्धि से सहित भगवान ने सोलह वर्ष तक उत्कृष्ट तप करते हुए तदनन्तर सहस्राम्रवन में नन्दिवृक्ष के नीचे ही शुद्ध शिला पर आरूढ़ होकर घातिया कर्मों का क्षय करने वाले शुक्लध्यान को धारण किया, पुनः पौष शुक्ला दशमी के दिन अपरान्ह समय में भरणी नक्षत्र के उदयकाल में केवलज्ञान वैभव को प्राप्त कर लिया। तदनन्तर इन्द्रों के द्वारा र्निमित समवशरण के मध्य गंधकुटी में भगवान शान्तिनाथ पूर्वाभिमुख होकर विराजमान हुए और उन्हें घेरकर प्रदक्षिणा रूप में बारह सभाएँ बनी हुई थीं। जिसमें गणधर आदि बैठते थे, पुनः इन्द्र ने भगवान से अनेक प्रश्न पूछे तब भगवान ने दिव्यध्वनि रूप से द्रव्यों के लक्षण के साथ-साथ छह द्रव्यों के स्वरूप का क्रम से कथन किया, जिससे वह समवशरण सभा श्रद्धा से संयुक्त हो गई। अथानन्तर शान्तिजिनेन्द्र भव्य जीवों के पुण्यास्रव के लिए आस्रव तत्व का कथन करने को उद्यत हुए फिर गुणस्थान, मार्गणा, गुप्ति, समिति आदि का यथार्थ उपदेश दिया पुनः ‘‘इच्छा से रहित शान्तिजिनेन्द्र विहार कर रहे हैं इसलिए समस्त लोक में शान्ति प्रवर्तमान हो’’ इस प्रकार सर्व दिशाओं में प्रस्थानकालिक नगाड़ा शब्द करने लगा। क्रम-क्रम से विहार करते हुए उन शान्तिनाथ भगवान ने तपश्चरण के सोलह वर्ष सहित कुछ कम बीस हजार वर्ष तक भव्य जीवों को सम्बोधित करने के लिए विहार किया। अन्त में जहाँ अजितनाथ आदि तीर्थंकर ने निर्वाण प्राप्त किया था ऐसे सम्मेदाचल पर्वत पर जाकर प्राणिसमूह के मध्य समीचीन धर्म का सार स्थापित करके एक मास का योग धारण किया। तत्पश्चात् श्रेष्ठ गुणों से सहित कृतकृत्य शान्तिजिनेन्द्र ने ज्येष्ठ कृष्णा चतुर्दशी के दिन प्रदोष समय के व्यतीत हो जाने पर भरणी नक्षत्र के योग में समस्त कर्मसमूह का क्षयकर शान्तभाव से लक्ष्मी नाम से प्रसिद्ध उत्कृष्ट सिद्धपद प्राप्त किया। तत्क्षण इन्द्रादिक देव निर्वाणकल्याणक की पूजा के लिए उस श्रेष्ठ सम्मेदाचल पर आ गए। यद्यपि भगवान का शरीर बिजली के समान तत्काल विलीन हो गया था तथापि अग्निकुमार देवों ने उनके शरीर का प्रतिनिधि बनाकर अग्निशिखा की ज्वाला रूप लाल कमलों के द्वारा उसकी पूजा की। इस प्रकार पंचकल्याणक विभूति से सम्पन्न सोलहवें तीर्थंकर, पंचम चक्रवर्ती, बारहवें कामदेव श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र के पावन चरण कमलों में शत्—शत् नमन करते हुए मैं उनका संक्षिप्त जीवनवृत्त यहीं समाप्त करती हूँ।