प्रस्तुत टिप्पणी में शाकाहार के महत्व एवं विश्वव्यापी स्तर पर उसके बढ़ते चलन पर प्रकाश डाला गया है।भारतीय संविधान सभी धर्मों को सम्मान व अपने नागरिकों को पूर्ण स्वतंत्रता की गारन्टी देता है। अहिंसा सब धर्मों का मूल है। संसार में सभी प्राणी सुख चाहते हैं। ठीक ही कहा गया है कि ‘‘जे त्रिभुवन में जीव अनन्त, सुख चाहें दु:ख तें भयवन्त!’’हमारी सामाजिक व अध्यामिक परम्पराएँ एवं मान्यताएँ अहिंसा के इर्द-गिर्द ध्वनित होती है। हिंसा को सर्वथा हेय माना गया है। अहिंसा ही जीवन का सार है। जग-जाहिर है कि निरामिष आहर ही निरापद होती है। एतावता शाकाहार ही सुख का आधार है। सुख तो अनुभूतिगम्य चीज है। खान-पान में संयम होना चाहिए। महज जिव्हा के स्वाद ओर उदरपूर्ति के लिए कुछ भी ग्रहण कर लिया जाना कोई मायने नहीं रखता।शारीरिक सौष्ठव के साथ-साथ आत्मिक उत्कर्ष के प्रति सतत जागरूकरता अनिवार्य है। अन्त:करण की शुचिता के लिये आहार की शुद्धि होती है। एक तरह से अहिंसा और शाकाहार में अविनाभावी सम्बन्ध है। अतीत काल से ही सभ्यता के विकास के साथ ही साथ समय-समय पर खान-पान, रहन-सहन एवं आचार-विचार विषयक प्रयोग किए जाते रहे हैं। हमारे मनीषियों के द्वारा अन्वेषण, विश्लेषण और विवेचन किया गया है। लोक कल्याण के हेतु से तथ्यात्मक निरूपण किया गया है। प्रासंगिक रूप से यही अवधारणा आज भी खरी उतरती है। एक नीतिकार ने कहा है: ‘‘सर्वे भवन्तु सुखिन:, सर्वे सन्तु निरामया! सर्वे भद्राणि पश्यन्तु या कश्चित दु:ख भाग भवेत् !! अर्थात् सभी लोग सुखी हो, सभी निरोग हो, सभी लोगों का मंगल हो, कोई दु:खी न हो। चारों और शान्ति का सामाज्य हो!’’ -यही शाकाहार में अनुप्राणित होती है। वस्तुत: शाकाहार प्राणी को प्रकृति और पर्यावरण से जोड़ता है।
‘जीओ और जीने दो’ सहजीवी जीवन-पद्धति का उत्प्ररेक है। उल्लेखनीय होगा कि विश्व शाकाहार कांग्रेस द्वारा इस सम्बन्ध में पुर जोर प्रयास किए जा रहे हैं। शाकाहार के बढ़ते निरापद प्रभाव को महसूस करते हुए संसार के ७३ देश विश्व शाकाहार कांग्रेस के सदस्य बन चुके हैं। विश् व शाकाहार दिवस दिनांक १ अक्टूबर को मनाया जा रहा है; तो २ अक्टूबर को महात्मा गाँधी जयन्ती दिवस तथा ३ अक्टूबर को पशुओं के प्रार्थना दिवस के रूप में मना रहे हैं। इण्डियन पेडरेशन ऑफ अहिंसा आर्गेनाईजेशन्स कलकत्ता के तत्वाधान में ‘‘भक्ष्य-अभक्ष्य विकल्प की खोज’’ थीम पर राष्ट्रीय अहिंसा सम्मेलन आयोजित किया गया है एक ओर बड़े राष्ट्र अत्याधुनिक हथियारों व अन्य उपकरणादि पर अन्धाधुन्ध तरीके से बेतहाशा खर्चा करते जा रहें हैं। तो दूसरी ओर छोटे देशों के सामने भी रक्षार्थ एतद् व्यय-भार भुगतने की विवशता हैं। झूंठे दम्भ और शक्ति के मद में बौराये प्रतीत होते हैं। इस प्रवृत्ति पर अंकुश अत्यावश्यक है। अहिंसा की महत्ता अपरिमित है। महावीर और बुद्ध अराजकता के काल में भी अहिंसा को सुप्रतिष्ठापित किया। गाँधीजी अहिंसा का अवलम्बन लेकर विषम परिस्थितयों में भी अडिग रहे। ईसा और सुकरात ने भी अहिंसा की ही मिसाल कायम की है। इस्लाम में भी शाकाहार को सर्वोपरि माना गया है। इस्लाम में अध्यामिक साधना में मांसाहार पूर्णतया वर्जित है। मांस खाने को ही नही; किसी भी प्रकार की हिंसा करने को हेय मानते हुए अहिंसा के पालन का स्पष्ट विधान है। ऐसा बताते हैं कि कर्नाटक राज्य में गुलबर्ग में अल्लन्द जाने के मार्ग में करीब आठ किलोमीटर की दूरी पर चौदहवीं शताब्दी के एक दरवेश की समाधि है, जहाँ केवल शाकाहारी ही दर्शन करने जा सकते हैं। स्पष्टत: वैज्ञानिकों ने भी इस तथ्य को स्वीकारा है कि शाकाहार ही जीवनी-शक्ति एवं ऊर्जा में बखूबी इजाफा करने वाला होता है। अन्न को प्राण कहा गया है ‘‘जैसा खावे अन्न, वैसा होवे तन-मन’’।
शुद्ध अन्न-जल का सेवन हमारी सात्विक वृत्ति को बढ़ाता है तथा शारीरिक, मानसिक और वैचारिक क्षमता को एक नई ताजगी एवं चेतना प्रदान करता है। गैर-शाकाहारी खान-पान तामसिक प्रवृत्ति को बढ़ाने वाला तथा स्वास्थ्य के लिए घातक होता है। ऐसे व्यक्ति के विकार अधिक बढ़ते हैं, तथा अमर्यादित आचरण की ओर उन्मुख होने लगता है। प्रकृति सबसे बड़ी नियामक होती है। यदि हम व्यापक दृष्टि से विचार करें तो पाते हैं कि सम्पूर्ण सृष्टि का छोटा हो या बड़ा, जीव एक-दूसरे का पूरक व सहकारी है। जैसे कि कार्बन-डाई-ऑक्साइड हम लोग छोड़ते हैं, जो वृक्षों का भोजन है; जबकि वे जो ऑक्सीजन का उत्सर्जन करते हैं, वह हमारे लिए प्राण-वायु है। इसी प्रकार से पशु-पक्षियों की भी बड़ी उपयोगिता है। व्यवस्था में सबकी पारम्परिक समेकित रूप से सहाभागिता रहती है। यही स्वाभाविक क्रिया-प्रक्रिया सतत् रूप से चलती रहती है। इसमें किसी भी प्रकार का पेâरफार, विसंगतियों को उत्पन्न करने का प्रमुख कारक होता है आहर और आचार-विचार का परस्पर गहरा संबंध है। हम जीने के लिये खाते हैं; न कि खाने के लिए जीते हैं। आहार की शुचिता, भारतीय संस्कृति एवं चेतना के समस्त प्रवाहों का केन्द्र रही है। चिन्तन का प्रवाह प्राण-तत्व शाकाहार को मात्र भोजन के आयाम पर अभिकेन्द्रित नहीं करता, प्रत्युत इसे सम्पूर्ण दर्शन और सहजीवन के ताने-बाने से बुनी जीवन-पद्धति के रूप में आख्यायित करता है। शाकाहार व्रूâरता-विहीन जीवन संस्कृति की बुनियाद है, जिसमें वात्सल्य, करूणा और सह-अस्तित्व के स्वर अनुगुंजित होते हैं।
अहिंसा और शाकाहार की प्रणेता एक सत्य घटना दृष्टव्य है।जयपुर के तत्कालीन पूर्व राजघराने के जमाने में दीवान अमरचन्द ने भूखे शेर के सम्मुख जलेबियों से भरा थाल रखते हुए उसको कहा कि यदि मांस ही खाना हो तो मेरा मांस खा लीजिए वरना इस भोजन को खाकर अपनी भूख शान्त करें। इतना कहकर उन्होंने आँखे बन्द कर लीं। शेर ने चुपचाप थली में रखी जलेबियाँ खा ली। वस्तुत: चमत्कृत करने वाली रोचक बात है। अब तो आधुनिकता का दम भरने वाले पाश्चात्य देश भी मांसाहार से उकता कर तौबा करने लगे हैं तथा शाकाहार को भी तरजीह देने लगे हैं। चिकित्सा शास्त्र भी इस तथ्य की संपुष्टि रता है कि मानव स्वास्थ्य के लिए कृषि-जन्य उत्पादों का सेवन ही हितकर है। गहन अध्ययनों से पता चला है कि शाकाहारी न केवल स्वस्थ और निरोगी रहते हैं अपितु बुद्धिशाली और दीर्धजीवी भी होते हैं इन्हीं खोजों के अनुसरण में आज अमेरिका व इंग्लैण्ड जैसे विकसित देश शाकाहार को तेजी से अपना रहे हैं। ब्रिटेन में किए गए एक शोध से पता चलता है कि वहाँ पर बड़े जोर-शोर के साथ लोगों का शाकाहार की तरफ रूझान बढ़ता जा रहा है। अकेले ब्रिटेन में एक हजार से ज्यादा हैल्थ फूड शॉप हैं, जिनमें सिर्प शाकाहार से संबंधित व्यंजन पाये जाते हैं। कोई दस लाख से अधिक लोग पूर्णत: शाकाहारी है। एक सर्वेक्षण के मुताबिक अब शाकाहार के मामले मेंं ब्रितानी यूरोप में दूसरे स्थान पर हैं। फिलहाल जर्मनी पहले स्थान पर है। जापान भी शाकाहार की राह पर बढ़ रहा है। ऐसी अपेक्षा है कि यदि शाकाहार अपनाने की रफ्तार बदस्तूर जारी रही तो शायद सन् २०४७ तक ब्रितानियों की खाने की मेज से मांसाहार पूरी तरह गायब हो जायेगा। इसी तर्ज पर एक और खास खबर काविले-गौर है। तकरीबन दो साल पहले का वाक्य है।
अमेरिका की एक अदालत ने बहुराष्ट्रीय कम्पनी फूड चेन मैकडोनल्ड्स कारपोरेशन को शाकाहारी व्यंजनों में मांस से तैयार जायकेदार तत्व मिलाने और उपभोक्ताओं को गलत सूचना देकर बेवकूफ बनाने का दोषी करार दिया। इस कारण से कम्पनी को शाकाहार को बढ़ावा देने वाले संंगठनों को ेएक करोड डॉलर का हर्जाना देने हेतु आदेशित किया गया। अमेरिका में तो पूर्णतया शाकाहारियों की संख्या पांच करोड़ तक पहुंच गई बताते हैं। विदित ही होगा कि हमारे यहाँ भी कुछ अर्से पूर्व मांस अर्व-युक्त टॉफियों का बावेला मचा था जन-जन के नित्य उपयोग की चाय जैसी साधारण-सी चीज भी निरापद नहीं रहने दिए जाने जैसी बात अस्वाभाविक लगी। भारी जन-अक्रोश के उपरान्त केन्द्र द्वारा तत्संबंधित नियम-उपनियम को संशोधित करके स्थिति को संभला गया। इस बात को स्पष्ट किया गया कि हमारे यहाँ पर चाय में ऐसा कोई सम्मिश्रण नहीं किया जाता है। तथा अगर अन्यत्र कहीं पर होता भी है तो उसे हमारे यहाँ नही आने दिया जावेगा। एक अन्य अधिसूचना जारी करके खाद्य सामग्री (मिलावट निरोध) नियम १९९५ में संशोधन करते हुए निर्माताओं के लिए यह आवश्यक कर दिया गयाकि वे प्रत्येक पैकिट पर यह लिखें कि अमुक खाद्य सामग्री शाकाहारी है अथवा गैर-शाकाहारी। इसके अनुसरण में गैर-शाकाहारी खाद्य पदार्थों के पैकिट पर एक भूरे रंग का गोलाकार निशान बना रहेगा। अतएव वस्तु खरीदते वक्त उपभोक्ता को सावधानी बरतनी चाहिए। चौंकाने वाली बात है कि स्वाधीनता प्राप्ति के वक्त बूचड़खाने मात्र करीब तीन सौ थे; जबकि आज देश में कोई ३६ हजार से भी ऊपर संख्या बड़े कत्लखानों की हो चुकी है। तब जहाँ माँस की दुकानों पर पर्दा टंगा रहना जरूरी था, वहीं आज खुले आम सड़क पर मांस के लोथड़े नजर आते हैं।
अण्डे तो आलू की तरह बिकने लगे हैं। शाकाहारी अण्डा जैसा अनर्गल प्रचार हो रहा है। ऊपर से तुर्रा यह कि मांस निर्यातक लॉबी विदेशी मुद्रा अर्जन का तर्वâ देते हुए सरकार पर अपना दबाव बढ़ाने में मशगूल है। सब तरफ बुरी तरह से घालमेल का बोलबाला है। दरअसल पशु वध रोका जाना केवल एक धार्मिक, नैतिक अथवा दया की बात ही नहीं हैं, बल्कि आमजन के स्वास्थ्य की रक्षा, बीमारियों की रोकथाम व राष्ट्र की उन्नति को परिलक्षित करते हुए सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। कहना न होगा कि शाकाहार ही सम्पूर्ण आहार होता है। प्रकृति ने मनुष्य के लिए अनेक प्रकार के पदार्थ, अनाज, दालें, मूंगफली, सोयबीन, मेवे, फल व सब्जियाँ इत्यादि उत्पन्न किए हैं। इनमें सभी आवश्यक पोषक तत्व विटामिन, प्रोटीन, कोर्बोहाइड्रेट्स, खनिज, लवण फाइबर, वैलोरी वगैरह प्रचुर परिणाम में उपलब्ध होते हैं। इनका सेवन ही लाभकारी है। भोजन का असर शरीर के अवयवों पर ही नहीं पड़ता अपितु मन-मस्तिष्क भी पूरी तरह से प्रभावित होते हैं। चैतन्य केन्द्र एवं वृत्तियों का गहन सम्बन्ध है इसे ठीक से जानना, समझना और अपनाना ही समीचीनता रखता है। शोधकर्ताओं का कथन है कि दीर्ध आयु का रहस्य भी शाकाहारी जीवन-शैली में ही छिपा है। ऐसा बताते है कि घने बर्फीले क्षेत्रों में एस्कीमों, जो कि परिस्थितिवश मांसाहार पर रहते हैं, उनकी औसत आयु केवल ३० वर्ष ही है।
शाकाहारी अधिक ऊर्जावान, परिश्रमी और सहनशील होते हैं। वे न केवल स्वस्थ व निरोग रहते हैं, वरन् दीर्घजीवाी होते हैं व उनकी बुद्धि भी अपेक्षाकृत तेज होती है। आज का युग अर्थप्रधान है। सभी क्षेत्रों में उपभोक्तावाद हावी है। नैतिक मूल्यों की घोर अवमानना हो रही है। सैद्धांतिक बातें अप्रांसगिक लगने लगी है। खुलेपन के नाम पर भौड़ापन परोसा जा रहा है सामाजिक सरोकार गौण हो चले है। सात्विक घर के भोजन के बजाए बाजारू व्यंजनों का प्रचलन बेहद बढ़ता जा रहा है। शुद्ध हवा पानी मिलना भी दुश्वार होता जा रहा है। फल-सब्जियों, दूध, दही, छाछ, शरबत वगैरह की गुणवत्ता को दरकिनार करते हुए फैशन-परस्ती के भ्रमजाल में डिब्बा बंद खाद्य पदार्थों व पेय, पेप्सी, कोला जैसी चीजों की सर्वत्र भरमार देखकर बड़ा क्षोभ होता है। विचारणीय बात है कि यह बनावटीपन का दौर आखिर कहाँ ले जाना वाला है? वक्त की मांग है कि अब तो हमें चेतना होगा ही; अन्यथा आने वाली पीढ़ी हमें माफ नहीं करेगी अस्तु, प्रकृति के साथ खिलवाड़ को रोका जाना चाहिए। पर्यावरण तथा पारिस्थितिकीय सन्तुलन को कायम रखना निहायत जरूरी है। प्राणीमात्र, पशु-पक्षियों व पेड़-पौधों के हितार्थ ईमानदारी के साथ वस्तुष्ठि आधार पर ठोस कदम उठाने होगें। बहरहाल, कानून कायदे की बात छोड़िये। इन्हें अपनी जगह रहने दीजिए। मगर, कम से कम इन्सानियत के दायरे में तो सोचिए! प्राणी-रक्षा अहम चीज है। यही अभीष्ट है। कर्तव्य भी यही है। शाकाहार में संरक्षण और समता सन्निहित रहते हैं सुखी होने का उपाय शाकाहार ही है।