पर्यावरण असन्तुलन आज की एक विश्वव्यापी ज्वलन्त समस्या बनी हुई है। पर्यावरण का अर्थ है— जीव—सृष्टि एवं वातावरण का पारस्परिक आकलन, जिसमें समस्त प्राणी, आबोहवा, भूगर्भ और आसपास की परिस्थिति विषयक विज्ञान का समावेश होताहै। व्यापक दृष्टि से देखें तो इसमें केवल मानव, पशु—पक्षी, जीव जन्तु एवं वनस्पति ही नहीं, अपितु समग्र ब्रह्माण्ड, तारक—वृन्द, सूर्यमंडल, गिरिकंदरा, पर्वत, सरिता—सागर, झरने , वन—उपवन, पुष्प तथा भूपृष्ठ सहित सभी प्राकृतिक पदार्थ जैसे—पृथ्वी, हवा, अग्नि, जल, आदि पंचमहाभूत तत्त्वों का भी समावेश होता है। मनुष्य पर्यावरण का एक महत्वपूर्ण घटक है, यदि उसके शरीर में विकार उत्पन्न होते हैं तो संपूर्ण पर्यावरण कलुषित हो उठता है। अत: स्वच्छ पर्यावरण के लिए मनुष्य का स्वस्थ होना आवश्यक है। हम वही होते है जो पेट में डालते हैं। अर्थात् पर्यावरण का संबंध हमारे आचार—वचार, खान—पान आहार—विहार से घनिष्ठ रूप से जुडा हुआ है। पर्यावरण केवल बाह्य जगत से ही नही वरन् अन्तर्जगत और जीवन के प्रति दृष्टिकोण से सह संबंधित आन्तरिक पर्यावरण से भी होता है। अर्थात् पर्यावरण के निर्माण में जड़ (पुद्गल) और चेतन (मन—मस्तिष्क, आत्मा) दोनों की अपनी—अपनी निश्चित भूमिका होती है। आन्तरिक पर्यावरण— मानसिक धरातल से जुड़ा होता है। इसका प्रदूषण व्यक्ति की काषायिक भावों से हुआ करता है, जो क्रोध, मान, माया और लोभ रूप एवं हिंसा, अतिभोगवाद एवं संग्रह की दुष्प्रवृत्ति के कारण बढ़ता है। जब तक मन इन कषायों से निर्मूक्त होकर स्वच्छ नहीं होगा, भीतरी पर्यावरण विशुद्धि नहीं बन सकती नही बन सकती है।
अस्तु आन्तरिक पर्यावरण की विशुद्धि अहिंसा, करुणा, दया और मैत्री जैसे उदात्त जीवन—मूल्यों सेही संभव हो सकती है। हमारे देश के ४१ वें संविधान संशोधन द्वारा प्रत्येक नागरिक का यह मूल कत्र्तव्य हो गया है कि वह प्राकृतिक पर्यावरण जिसके अंतर्गत वन, झील, वन्य—प्राणी आदि आते हैं, की रक्षा करे, उसका सम्बद्र्धन करे, प्राणी मात्र के प्रति दया भाव रखे तथा अवैध शिकार से बचे। संविधान की उक्त धारा में पर्यावरण के दोनों घटकों के संरक्षण की बात आ जाती है। पर्यावरणविदों की मान्यतानुसार, इस विराट सौरमण्डल में केवल पृथ्वीगृह पर अद्भुत जीवन—संरचना है। यहां अगाध सागर, उत्तुंग पर्वत, जीवन रस बहाती नदियाँ और वायुमण्डल की छत्रछाया है। नदियों के जल का सिंचन पाकर इस उर्वरा भूमि पर हरे भरे पेड—पौधे उत्पन् न हुए हैं। पेड़—पौधो ने अपनी प्राण—वायु से अन्य जीवधारियों को सांसे दी, भोजन एवं जीवन की आवश्यकताओं की सम्पूर्ति की है। प्रकृति की संपूर्ण व्यवस्था प्राणियों की जीवनधारा को सुरक्षित बनाए रखने की हुआ करती है। परन्तु मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए अतुल प्राकृतिक—सम्पदा को नष्ट करने पर उतारु बना हुआ है। एक संवेदनशील चिंतक ने एक जगह लिखा है— ‘‘आसमा भर गया परिदों से, पेड़ कोई हरा गिरा होगा’’। इसके कारण पर्यावरण विक्षुब्ध हो रहा है। वह अपने सुख के लिए अन्य प्राणियों की हत्या करने बाज नहीं आ रहा है। जिस कारण पर्यावरण का संतुलन लड़खड़ा गया है। आज संपूर्ण विश्व में एक चेतावनी, चिंतन और चेतना का दौर सा चल रहा है।
चेतावनी का विषय है— पर्यावरण, चिंतन का विषय है— पर्यावरण का असन्तुलन/प्रदूषण और चेतना का विषय है— पर्यावरण को सन्तुलित/संरक्षित करने का उपाय। आज की नई सभ्यता, जो आधुनिक टैक्नोलॉजी पर आधारित भोगवादी संस्कृति की प्रणेता है, ने पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी को असन्तुलित कर दिया है। पर्यावरण ऐसी प्राकृतिक—सुधा है, जिसके बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यह करोड़ों वर्षों से मानव का संरक्षण एवं सम्पोषण करती आ रही है। लेकिन विकास की अंधी—दौड़ में मानव प्रकृति का अंधाधुंध दोहन कर रहा है। वर्तमान में पर्यावरण प्रदूषण तथा पारिस्थितिकी असन्तुलन की समस्या मानवता के अस्तित्व के लिए चुनौती बनी हुई है। इसका प्रमुख कारण मांसाहार है। मांसाहार की बढ़ती हुई प्रवृत्ति के कारण प्रकृति का स्वाभाविक सन्तुलन तेल से बिगड़ता जा रहा है। जैसे एक गाय के मांस से अधिकतम ५० व्यक्तियों की क्षुधाग्नि शांत हो सकती है। जब कि वह अपने संपूर्ण जीवनकाल में लगभग एक लाख व्यक्तियों को एक समय पिला सकने लायक दूध देती है। शाकाहार जीवन शैली, अत्यन्त स्वाभाविक है और मनुष्य के मूल अस्तित्व से जुड़ी है। अनुमान है पृथ्वी पर मनुष्य का अस्तित्व १५ करोड़ वर्ष प्राचीन है। इनमें १४ करोड़ ९५ लाख वर्षों तक उसने फल—फूल/कन्दमूल/पत्ते—पौधो से ही अपना पेट भरा, जो विभिन्न ऋतुओं मे एकत्रित करता और खाता रहा।
जीवाश्म—वज्ञानी डॉ. आलन वाकर१ ने शाकाहार की पुरातनता को अपनी खोजों से प्रमाणित किया है और निष्कर्ष दिया कि मनुष्य का मूल आहार—शाकाहार तथा फलाहार था। शाकाहार किसी मजहब से संबंधित नहीं है। वह एक धर्म—निरपेक्ष जीवन—शैली है, जिसका सहअस्तित्व, करुणा, अहिंसा ओर मनुष्यता जैसे उदात्त जीवन—मूल्यों से सीधा सम्बंध है। भारतीय संस्कृति में वृक्ष—वनस्पति को मानवी भावना प्रदान की। इसीलिए वन, वृक्ष पेड़—पौधों और प्रकृति की सुरम्यता का जीवन के साथ अटूट सम्बंध रहा है। काल—चक्र इसका गवाह है। श्री राम चौदह वर्ष के वनवास के लिए निकले। राम, सीता और लक्ष्मण वट—वृक्ष की छााया में बड़े आनन्द से रहे। सीता ने पर्णकुटी के आस—पास पौधे लगाये, जो उन्हें गोदावरी के पानी से सींचती थीं। सीताहरण के बाद जब राम पुन: पंचवटी में आते है तो सीता द्वारा लगाए वृक्षों को देखकर वे रो पड़ते हैं। रघुवंश में वर्णन आया है कि पार्वती ने सिर पर पानी के घड़े रखकर देवदार के वृक्षों को सींचा और बालकों की भांति उनका पालन—पोषण किया।
शकुन्तला का वर्णन करते हुए कण्व ऋषि कहते है — ‘‘शकुन्तला वृक्षों को पनी पिलाये बिना पानी नहीं पीती’’ । वह वृक्षों के फूल नही तोड़ती न पत्ते नोचती थी।उस प्रेममयी शकुन्तला के वियोग में आश्रम के वृक्षों और लता—बेलों ने भी अश्रु गिराये होंगे। ‘‘शाकाहार—संस्कृति’’का पर्यावरण संतुलन एवं संरक्षण से क्या संबंध है? यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है, जिस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए शाकाहार का सम्बंध केवल हमारे भोजन/ आहार से नहीं है वरन् संपूर्ण जीवन—शैली से जुड़ा हुआ है। शाकाहार में जैनाचार्य उमास्वामी देव का ‘‘परस्परोग्रहो—जीवानाम् का मूलमंत्र छिपा हुआ हैं, जो हर प्राणी को प्रकृति और पर्यावरण से जोड़ता है। शाकाहारी के जीवन—प्रागंण में मैत्री एवं भ्रातृत्व के फूल खिलते हैं। शाकाहार भारतीय संस्कृति के उस मानवीय गुण का दर्पण है जिसमें दूसरों के दुख से द्रवीभूत होने का भाव जुड़ा होता है।
सहजीवी व्यवस्था और पर्यावरण संतुलन
पृथ्वी पर जीवन विकास के संबंध में वैज्ञानिकों के मतानुसार पूर्णरूपेण अनुकूल वातावरण में जीवन का उद्भव एवं विकास संभव है। प्रकृति में परस्पर सहयोगी व्यवस्था शाश् वत है इस सहयोगी/सहजीवी व्यवस्था के विपरीत परजीवी—अवधारणा बहुत समय तक बनी रहीं परन्तु वैज्ञानिक विकास के साथ सहजीवी व्यवस्था की निरंतर पुष्टि होती गई। वस्तुत: वनों पर आधारित सहजीवी जीवन—पद्वति में, अहिंसा की प्रतिष्ठा है जैन पुराणों में कर्मयुग के पूर्व भोग भूमि के समय दस प्रकार के कल्प—वृक्षों का वर्णन आया है, जिनके द्वारा मनुष्य व अन्य प्राणी अपना जीवन निर्वाह करते थे। जीवों की आवश्यकताओं और वृक्षों के उपादान में एक तालमेल और सामंजस्य था। उस समय मनुष्यों की आकांक्षायें बहुत सीमित थीं संग्रह वृत्ति लेशमात्र नहीं थी।
कल्प—वृक्षों द्वारा जीवन निर्वाह शाकाहार—जीवन—पद्वति का स्वर्ण—युग कहा जा सकता है। वे कल्प वृक्ष भोजनांग (विभिन्न प्रकार की खाद्य सामग्री प्रदान करने वाले), पानांग (पेय पदार्थ देने वाले), अलयांग (आवास सामग्री देने वाले), वस्त्राग, भूषणांग, भाजनांग (पात्त सामग्री देने वाले) मलयांगा (सुगंधित पदार्थ देने वाले) दीपांग (प्रकाश देने वाले) और तेजांग (सूर्य के हानि कारक विकरणों को रोकने वाले) आदि दस वर्गों के अंतर्गत विभाजित किये जा सकते हैं। जो शाकाहार के श्रेष्ठ प्रतीक और पर्यावरण के सच्चे साथी थे। परन्तु व्यक्ति की आकांक्षाओं के बढ़ने के साथ जब संग्रह वृत्ति बढ़ने लगी तो इनकी कमी महसूस होने लगी और यह कहा जाने लगा कि कर्म—भूमि के साथ इनका प्रभाव घटने लगा। वस्तुत: यह वन—संस्कृति) (शाकाहार सृस्कृति) के श्रेष्ठ अवदान का समय था, जब व्यक्ति और प्रकृति में एक स्वाभाविक रिदिम थी। मनुष्य का मन सरल, निश्च्छल और अहिंसक था। परन्तु कलुष—भावनाओं के उद्गम के साथ अति व अनावश्यक संग्रह से पर्यावरण सन्तुलन भी चरमराने लगा।
कत्लखाने — पर्यावरण के दुश्मन
जीवन—दायिनी अहिंसा के अभाव में व्रूरता की शक्ति बढ़ने लगी और व्यक्ति मांसाहारी हो गया। इस मांसाहार के कारण हमारे देश में कत्लखानों का श्री गणेश हुआ। कत्लखानों का दिनोंदिन बढ़ना पर्यावरण के लिए सबसे बड़ा अभिशॉप है। मांसाहार—हिंसा और व्रूरता की जमीन से पैदा होने वाला आहार है जो प्रकृति के सर्वथा प्रतिवूâल है और जिसके कारण पर्यावरण सर्वाधिक प्रदूषित व असन्तुलित हो रहा है। आज देश में ३६०३० बड़े वैध कत्लखाने खुले हुए हैं जो पर्यावरण के दुश्मन हैं। अलकबीर कत्लखाने द्वारा इस्लामी देशों में मांस—निर्यात के लिए और विदेशी मुद्रा कमाने के लिए और विदेशी मुद्रा कमाने के लिए कत्ल का रास्ता अपनाना हमारी भारतीय संस्कृति और प्रकृति दोनों के खिलाफ है। पांच वर्षों में पांच करोड़ विदेशी मुद्रा अर्जित करेगा और मात्र तीन सौ लोगों को रोजगार देगा।
इस दौरान यहां ९१२००० भैंसे और २८ लाख २५ हजार भेड़े मार डाली जाएंगी। इससे १००० गुना आर्थिक क्षति होगी। हमारी बदकिस्मती है कि पर्यावरण—संतुलन का हिसाब नहीं रखा जाता, इससे जो भयंकर नुकसान पहुंचेगा उसके बारे में कोई जान नहीं सकेगा। इससे पशुधन अनुपात गड़बड़ा गया है। इसी प्रकार दिल्ली नगर—नगम की ओर से चलाए जाने वाले ‘ईदगाह’ कत्लखाने के आस—पास रहने वाले लोगों की शिकायत है कि इसके कारण हवा दूषित होने के अलावा इसके चारों ओर भयंकर गंदगी फैल गयी है, क्योकि वहां क्षमता से अधिक भेड, पशु, बकरी—भैंस, गाय आदि काटे जाते हैं। माननीय राष्ट्रपतिजी को पशु समाज की ओर से ज्ञापन दिया गया है कि मांसाहारी होटलों में चेतावनी बोर्ड लगाया जाए कि मांस—स्त्रंवन, पशुओं के प्रति अपराध है और मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। धास खाकर दूध देने व श्रम के बदले कत्ल कर देना क्या सभ्य मानव समाज का यही न्याय है? एक विशिष्ट आयोग का गठन कर आज के संदर्भ में हमारी उपयोगिता प्रकृति एवं पर्यावरण में हमारे योगदान पर मूल्यांकन कराया जावे। शाकाहार— पर्यावरण— संरक्षण का आधार स्तंभ है— शाकाहार— अहिंसा की महान् प्रतिष्ठा का सरल, सात्विक, स्वास्थ्यवद्र्धक आहार है, जो ना केवल बाह्य पर्यावरण को संतुलित बनाए रखता है वरन् जीवन में पवित्रता, सदगुण, सदाचरण और संयम की ओर जाता है, जिससे उसका अंत:करण शुद्धि को प्राप्त होता है। अहिंसा — जीवन का श्रेष्ठ विज्ञान है। यह धारणा कि मांसाहार, शाकाहार की तुलना में अधिक शक्तिवद्र्धक होता है, एक भ्रमपूर्ण एवं गलत धारणा है।
शाकाहार— उस पर्यावरण की ओर ले जाता है जो ‘‘शा’’ यानी शांति ‘‘का’’ कांति, ‘‘हा’’—हार्द (स्नेह) और ‘‘र’’ रसा या रक्षा परिचायक है। अर्थात् शाकाहार— हमें शांति, कांति, स्नेह और रसों से परिपूर्ण कर हमारी रक्षा करता है। वैज्ञानिक वी. विद्यानाथ ने अपने वैज्ञानिक— शोधों से यह दृढ़ता पूर्वक स्थापित कर दिया है कि स्वास्थ्य और पर्यावरण रक्षा की दृष्टि से शाकाहार अधिक बेहतर आदर्श आहार है। एक शाकाहारी ०.७२ एकड़ भूमि से जीवनयापन कर सकता है जब कि एक मांसाहारी के लिए १.६३ एकड़ जमीन की जरूरत होती है। यह एक भ्रान्त धारणा है कि यदि तमाम मांसाहार, शाकाहारी बन जाये तो उनके लिए पर्याप्त अनाज उपलब्ध नहीं पायेगा। मांस उत्पादन से पर्यावरण का बड़े पैमाने पर अवक्रमण हुआ है। केवल अमेरिका में एक किलो गेहूं उत्पादन करने के लिए ५० गैलन जल की आवश्यकता होती है। जबकि इतने गौमांस के लिए १०,००० गैलन पानी चाहिए। विश्व के यदि सभी लोग शाकाहारी हो जायें तो अन्न की कहीं कमी नहीं होगी बल्कि प्राकृतिक संसाधनों का अपव्यय रुकेगा। यदि अमेरिका में ही केवल १० प्रतिशत व्यक्ति अपना मांसाहार बंद कर दें तो विश् व को पर्याप्त भोजन मिल सकता है। शाकाहार के संदर्भ में इससे बड़ी मिशाल पर्यावरण संरक्षण की और क्या हो सकती है। रोगों को रोकने में फाइवर का बड़ा महत्व है। मांसाहारी पदार्थों में फाइवर (दाल/अनाज का ऊपरी छिलका) की मात्रा बिलकुल नहीं होती। अत: मांसाहार में रोगों की प्रतिरोधक क्षमता शून्य होती है। इसके विपरीत शाकाहारी खाद्यान्न में फाइवर के साथ सन्तुलित आहार के सभी तत्त्व पाये जाते है जैसे प्रोटीन, वसा, कार्बोहाईट्रेड, खनिज लवण, विटामिन आदि। सभी वनस्पतियों अनाज, दाल और दूध फलों से यह सुलभता से प्राप्त हो जाता है। केवल शाकाहार पर मनुष्य पूरी व लम्बी आयु सरलता से जी सकता है।
जापान में किए गये अध्ययनों से पता चला है कि शाकाहारी ने केवल स्वस्थ व निरोगी रहते हैं अपितु दीर्घ जीवी भी रहते हैं और उनकी बुद्धि अपेक्षाकृत कुशाग्र रहती है। महात्मा गांधी के जीवनकाल की एक बात है। कांग्रेस की एक मीटिंग में सत्याग्रह संबंधी आन्दोलन के एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव पर विचार होने वाला था। परन्तु जिस रिपोर्ट के आधार पर प्रस्ताव लिखा जाना था वह कहीं खो गई थी। गांधी जी ने राजेन्द्रबाबू से पूछा आपने तो रिपोर्ट पढ़ ली थी कुछ याद है ? उन्होंने उत्तर दिया हाँ मैं लिखवा सकता हूँ। और वे बोल कर लिखवाने लगे। जब लगभग १५० पन्ने राजेन्द्र बाबू लिखवा चुके, तब तक रिपोर्ट की मूल प्रति भी मिल गयी। नेतागण उसे मिलाने लगे वह शब्दश: मिल रहा था। नेहरू जी ने व्यंग्य में कहा— राजेन्द्र बाबू।कमाल का दिमाग है आपका। यह आपको कहां मिला उनका उत्तर था— ‘‘यह अण्डे का नहीं, दूध का दिमाग है।’’ ईसाइयोें के ग्रन्थ बाईबिल मेें लिखा है— ‘‘यदि तुम शाकाहार करोगे तो तुम्हें जीवन /ऊर्जा प्राप्त होगी। किन्तु यदि मांसाहार करते हो तो मृत आहार तुम्हें भी मृत बना देगा।४ जीवन से तात्पर्य किसी व्यक्ति के जीने भर से न होकर उसकी सामाजिक, आर्थिक, मानसिक, पारिस्थितिकीय तथा पर्यावरणीय परिस्थितियो से है।
प्रकृति, पर्यावरण एवं शाकाहार
पर्यावरण के दूषित व असन्तुलित होने की समस्या, हिंसा से जुड़ी है। अहिंसा पर्यावरण प्रदूषण से मुक्ति का सर्वोत्तम उपाय है। मांसाहार दूसरे जीवों को व्रूरतापूर्वक दुख पहँुचाये बिना प्राप्त हो ही नहीं सकता। यह प्रकृति के विरुद्ध मनुष्य का घोर दुष्कृत्य है। शाकाहार में व्रूरतापूर्वक दूसरों को दुख पहँचाकर पेट भरने के लिये कोई स्थान नहीं है। शाकाहार समरसता और सहिष्णुता जैसे चारित्रिक गुणों पर आधारित एक जीवन प्रक्रिया है। मांसाहारी का मन उतना संवेदनाशील नहीं रह जाता, जितना एक शाकाहारी का बना रहता है। शाकाहार के साथ ललित, जीवन मूल्यों का जितना घनिष्ठ सम्बन्ध है, उतना किसी अन्य आहार के साथ नहीं है। एक संतुलित सामाजिक पर्यावरण के लिये शाकाहार की अपरिहार्यता को स्वीकार करना होगा। एक आदमी को जितनी ऊर्जा जरूरी होती है, शाकाहार से वह सहज ही मिल जाती है। शाकाहारी को वनस्पतियोंसे सीधा और स्वस्थ पोषण मिलता हैं किनतु मांसाहारी को वही टेढ़ रास्ते चलकर पाना होता है। दुनिया में ऐसा एक भी सभ्य मनुष्य नहीं है जो सिर्पâ मांसाहार पर जीव नयापन करता है। उसे शरीर के चयापचय के लिये शाकाहार पर निर्भर रहना होता है।
एक शंका का निर्मूलन
प्राय: एक शंका उठायी जाती है कि यदि मांसाहार बंद हो जाये तो अन्न, धान्य, फल और सब्जी के भाव आसमान पर चढ़ जायेंगे। पशु—पक्षी इतने बढ़ जायेंगे कि रहने की जगह और खने को अनाज नहीं मिलेगा। इसका समाधान क्या है? अर्थशास्त्री मालथस के अनुसार खाने — पीने की वस्तुओं और जनसंख्या के बीच का संतुलन प्रकृति स्वयं बनाये रखती है। यदि मनुष्य आबादी को बेरोकटेक बढ़ने देता है तो प्रकृति महामारियों तथा विपदाओं द्वारा उसे संतुलन करती है। इसलिये यह कहना कि मांसाहार को शाकाहार के लिए जीवित रखा जा रहा है, एक धूत्र्तपूर्ण संयोजन है। माँ जब बच्चे को जन्म देती है, तो इसके पूर्व उसके स्तनों में दूध नहीं होता। लेकिन बच्चे के जन्म पाते ही माँ के स्तनों में स्वभावत: दूध की व्यवस्था हो जाती है। प्रकृति यह जानती है कि बच्चे के दाँत नहीं हैं, उसका पेट कैसे भरेगा। जीवन संरक्षण प्रकृति के साथ चलता है। जब बच्चा साल डेढ़ साल का हो जाता है और उसके मुँह में दांत आ जाते हैं तथा वह अनाज खाने लायक बन जाता है तो माँ के स्तनों का दूध अपने आप बन्द हो जाता है। कोई भी वैज्ञानिक या डाक्टर प्रकृति की इस व्यवस्था को चेलेन्ज नहीं कर सकता।
शाकाहार एवं सामयिक सन्दर्भ
अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में डॉ. विमल के.छज्जर ने हृदय रोगियों को लेकर शाकाहार संबंधी कुछ विशिष्ट प्रयोग किये। फिजियोलॉजी विभाग की देखरेख में ८० हृदय रोगियों को ढूंढा गया। इनमें ४० रोगियों को सादा शाकाहारी भोजन, व्यायाम और तनावयुक्त जीवन जीने की सलाह दी गई और शेष ४० रोगियों को हृदय रोग की आधुनिकतम दवायें खोज कर दी गई। दो वर्ष के पश्चात् (१९९२—९४) सभी की जाँच की गई तो प्रथम वर्ग के संतुलित जीवन प्रक्रिया वाले हृदय रोगियों को अब दवा की जरूरत नहीं थी। वे पहले से ज्यादा बेहतर थे। जबकि दवा लेने वाले दूसरे वर्ग के रोगियों की स्थिति सुधरी अवश्य थी मगर दवायें बन्द करते ही उनकी हालत वापस बिगड़ने का खतरा बरकरार था। इस प्रयोग की सफलता के आधार पर हृदय रोगियों को शाकाहार एवं सात्विक भोजन की सलाह दी जा रहीं है। अमेरिका व इंग्लैण्ड जैसे विकसित देशों के लोग मांसाहार को छोड़कर शाकाहार को अपना रहे है। जिसके कारण मेक्डोनाल जैसी मांस व्यापार करने वाली बहुराष्ट्रीय कम्पनी को अमेरिका छोड़कर भागने को मजबूर होना पड़ा।
अमेरिका में शाकाहार के बारे में प्रकाशित पुस्तक की सर्वाधिक बिक्री लोगों की शाकाहार के प्रति बढ़ती हुंई गहरी रुचि का प्रतीक कही जाती है। ब्रिटेन में शाकाहार एक महान सामाजिक क्रांति के रूप में उभरकर सामने आ गया है। सिर्पâ लन्दन में दो सौ सये अधिक शाकाहारी रेस्त्रां हैं तथा ब्रिटेन के हर स्कूल में शाकाहारी भोजन को प्रवेश मिल गया है। वहाँ शुद्ध शाकाहारियों की संख्या उत्तरोत्तर बढ़ रही है। वहाँ अब लगभग ३० लाख से अधिक शाकाहारी तथा १ लाख ८० हजार वीगन हैं।६ न्यूयार्क स्थित में आज से २१ वर्ष पूर्व केवल ३५ सदस्य थे, आज उनकी संख्या २५ हजार तक पहुँच गई है। वे सभी शाकाहारी हैं। संयुक्त राज्य अमेरिका में डेढ़ करोड़ लोग शाकाहारी हैं, जो वहाँ की संख्या का लगभग ६.२ प्रतिशत है। विश्व में शाकाहार के प्रति बढ़ती इस अभिरूचि के पीछे निश्चित ही पर्यावरण असंतुलन की गहरी समस्या हैं। जिससे निजात पाने के लिये यही एकमात्र समाधान है।
वन सम्पदा का विनाश और मंडराता पर्यावरणीय खतरा
शाकाहार और वन—सम्पदा एक दूसरे से अभिन्न है। वृक्ष—वध ही पर्यावरण की हत्या है। वृक्ष है। वृक्ष—पादप और लतायें शाकाहार के सर्जन में महत्त्वपूर्ण भूमिका रखती हैं। पृथ्वी—हरा भरा ग्रह, शस्य श्यामल और सुजलाम्— सुफलाम् की संज्ञा, इन्हीं वन—सम्पदा के कारण है। सघन वन, जहाँ मेघो को अपने पास बुलाकर भूमि को सिंचन का वरदान देते हैं, वहीं वनोपज औषधियां आदि मधुरस देते हैं। कल्पवृक्ष की अवधारणा जीव—संस्कृति का श्रेष्ठ अवदान है वृक्ष ही तो कल्पवृक्ष हैं, क्योकि उनसे जीवन की अनिवार्य आवश्यकतायें पूरा हुआ करती हैं। सदियों से वन, मानव व पशु—पशु—पक्षियों के जीवन से जुड़ा हुआ है। वन जल व मृदा का भी संरक्षण करता है। वायुमण्डलीय तापक्रम, आद्र्रता, वर्षा का नियंत्रण, बाढ़ की रोकथाम, तूफानी हवाओं से बचाव और वन्य प्राणियो के संरक्षण में वनों का अपरिमित महत्त्व है।
इस प्रकार वन पर्यावरण संतुलन में एक अहम् भूमिका का निर्वाहन करते हैं। क्योंकि पर्यावरण संतुलन का समीकरण तभी गड़बड़ा जाता है जब वर्षा अभाव, असमय वर्षा या अनावृष्टि हो, अन् न का अकाल तथा रेगिस्तान का प्रसार, धरती की ताप वृद्धि तथा धरती के पादप वृक्षों का सर्वनाश हो। अमेरिका में जंगल की २६ करोड़ एकड़ भूमि को मांसाहार उत्पादन के लिये नष्ट किया गया। एक सर्वेक्षण के अनुसार वहाँ एक एकड़ भूमि में २०,०० कि.ग्रा. आलू उत्पन्न होता है, वहीं केवल १२५ कि.ग्रा. गौमांस ही उत्पन्न हो पाता है। एक एकड़ भूमि में जितना शाकाहार उत्पन्न होता है वहाँ उतने गौमांस के लिये सात एकड़ भूमि की आवश्यकता होती है। भारत मेें पर्यावरणीय संतुलन बनाये रखने के लिये कुल क्षेत्रफल का कम से कम ३३.३ प्रतिशत वनों से आच्छादित होना चाहिये। लेकिन वनों की बेहताशा कटाई से यह क्षेत्रफल लगभग २० प्रतिशत (७ करोड़ एकड़) रह गया है। इससे न केवल पर्यावरण का संतुलन बिगड़ रहा है वरन ईधन की समस्या भी उत्पन्न हो गई है। साथ ही भू-संरक्षण, भूस्खलन एवं मरुस्थलीकरण जैसे पारिस्थितिक्रीय विक्षोम के कारण लाखों टन उपजाऊ मिट्टी प्रतिवर्ष क्षरित हो जाती है।
वनस्पतियाँ पौष्टिता के सर्वश्रेष्ठ स्रोत हैं
वनस्पति जनित आहार में दीर्घ जीविता के तत्त्व विद्यमान होते हैं। वृक्ष स्वयं इसके जीते जागते उदाहरण हैं। जैसे कुरुक्षेत्र (हरियाणा) का ज्योतिसर स्थित वटवृक्ष लगभग ५ हजार वर्षों से यथावत है। इसी प्रकार आस्ट्रेलिया के क्वान्सलेण्ड नगर में १२ हजार साल पुराना मेक्रोजामिया जाति का वृक्ष है। जिसमें मनुष्य के जंगली रूप में लेकर सभ्य रूप तक देखा है। वनों के सफाया होने से जीव—जन्तुओं की अनेक प्रजातियाँ विलुप्त होती जा रही हैं। सन् १६०० से अबतक लगभग १२० स्तनधारियों की तथा २२५ पक्षियों की प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं।और सन २०वीं सदी के अन्त तक लगभग ६५० वन्य प्राणियों की प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर हैं।
शाकाहार और पर्यावरण सम्बन्धी अन्तर्राष्ट्रीय मान्यताओं के सन्दर्भ
सफदरगंज हास्पिटल, नईदिल्ली के न्यूरोलॉजी विभागाध्यक्ष प्रो. डी. सी. जैन ने सिद्ध fकया है कि शाकाहार से तन पर ही नहीं, मन पर भी अच्छा प्रभाव पड़ता है।व्यक्ति के चारित्रिक गुणों का विकास होकर अध्यात्म और धर्म के प्रति उसकी सहज भावना होने लगती है। प्रयोग के बतौर ग्वालियर जेल में आजीवन सजा भुगत रहे दुर्दान्त अपराधियों को छह माह तक केवल शुद्ध शाकाहार दिया गया। परिणाम स्वरूप उनके व्यवहार में भारी अन्तर दिखाई दिया और वे अपने अपराध के लिए पछतावा करते पाये गये। उनका झुकाव ईश्वर—भक्ति अध्यात्म/भजन की ओर बढ़ता दिखाई दिया। तब उनमें से कुछ पुन: मांसाहार लेने लगे तो उनका दमित प्रतिशोध पुन: उभरने लगा। नोबल पुरस्कार से सम्मानित डॉ.अर्तुरी वर्तुनेन ने शाकाहार को पर्यावरण संरक्षण का मौलिक कारक/घटक माना है। और विश्वास प्रकट किया है कि शाकाहारियों को जीवन ऊर्जा के सभी आवश्यक पोषक तत्त्व नैसर्गिक रूप से प्राप्त हो जाते हैं।
आज शाकाहार के बढ़ते निरापद प्रभाव के फलस्वरूप विश्व के ७३ देश विश्व शाकाहार कांग्रेस के सदस्य बन चुके हैं। जिन्होंने इस अन्तर्राष्ट्रीय संगठन के द्वारा शाकाहार की वैज्ञानिकता को स्वीकार कर इससे वैन्सर और हृदय रोग जैसे असाध्य रोगों के निदान में इसकी सर्वमान्यता में सहमति व्यक्त की है। ‘विश्व शाकाहार कांग्रेस’ ने अपने वार्षिक प्रतिवेदन (१९९५) में शाकाहार के उज्ज्वल भविष्य पर आशातीत विश् वास प्रकट करते हुए पारिस्थितिकी और पर्यावरणीय संतुलन बनाये रखने में इसकी सार्वभौमिकता की ओर संकेत किया है। ‘आल इंडिया एनीमल वैलपेयर एसोसिएशन’ ने जीव—जन्तुओं के मौलिक अधिकारों के परिप्रेक्ष्य में शाकाहार को एक नया आयाम दिये जाने की बात दुहराई है और देश के पर्यावरण की रक्षा के लिए जागरूकता का निर्माण करने का संकल्प लिया है। इसी प्रकार इंग्लैण्ड की वेजीटेरियन सोसायटी (१८४७) ने वेजीटेरियन शब्द का व्यापक अर्थ दिया—सम्पूर्ण, निर्दोष, स्वस्थ, ताजा और जीवन्त। अर्थात् शाकाहार एक निर्दोष सम्पूर्ण आहार है जो व्यक्ति को स्वस्थ ताजा और जीवन्त बनाये रखता है।
उपसंहार
इस शोध आलेख का आलोढ़न करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि शाकाहार—अहिंसा की मूल भावना पर केन्द्रित एक अहिंसक जीवन शैली/जीवन पद्वति है। इसलिये यह जैन धर्म का प्राण—तत्त्व है। जैनधर्म का वैज्ञानिक चिन्तन और परिलब्ध्यिां पर्यावरणीय सहभागिता के साथ जुड़ी हैं। यदि राष्ट्रीय और सामाजिक कल्याण की दिशा मे जैनधर्म के सिद्धान्तों की निष्पक्ष और विवेकपूर्ण समीक्षा की जाये तो इसे विश्व शांति का अग्रदूत कह सकते हैं। आज विश्व के विकसित राष्ट्र भले ही शाकाहार की अक्षुण्ण महनीयता को सर्वोच्च प्राथमिकता न दे, परन्तु समय की मांग शाकाहार की महत्ता को अन्तर्राष्ट्रीय मंच पर स्थापित करेगी। ‘जीवन जीना जीव का बुनियादी हक है।’ शाकाहार इस सत्य को अपने शीर्ष पर विराजमान किये है। अस्तु शाकाहार मानवीय अस्मिता का दीप—स्तम्भ बनकर पर्यावरणीय चेतना से जन सामान्य को जोड़ सकेगा। आवश्यकता है एक विचार क्रांति की।
मांसाहार की वीभत्सता को उजागर करने, इसका संकुचन और निरसन करने के लिए हमें अभी हजारों मेनका गांधी चाहिये। क्योंकि मेनका गांधी आज के सन्दर्भ में एक ऐसा अन्तर्राष्ट्रीय नाम है जो शाकाहार का पर्यायवाची बन गया है। शाकाहार प्रकृति का अनुपम उपहार है। शाकाहार जीवन मूल्यों क स्वर्णिम किरीट है। शाकाहार सर्वमान्य निरापद और समृद्ध आहार है। शाकाहार संयम का पाथेय है। लोगों में हमें यह विश् वास पैदा करना है कि ऐसी राजनीति जो मांस निर्यात को बढ़ावा दे, विष कन्या है। शाकाहार पर्यावरण के उस रहस्य को उद् घाटित कर सकता है जो यह शंखनाद करे कि धरती का एक-एक तत्त्व पवित्र है। लतायें और उन पर खिलती कलियां हमारी बहनें हैं। पशु—पक्षी हमारे भाई हैं। मनुष्य की ऊष्मा और मौसम की ठंडक हमारे कुटुम्बी हैं। धरती हामरी माँ और आकाश हमारा पिता है। ऐसे आत्मीय भाव से जोड़ने वाली सौगात है शाकाहार जो प्रकृति का आशीष और पर्यावरणीय चेतना का अविभाज्य अंग है।
सन्दर्भ:
१. प्राध्यापक
२. तत्त्वार्थ सूत्र, आचार्यउमास्वामी, अध्याय—५/२१
३. प्रख्यात पत्रकार प्रीतिश नन्दी की रिपोर्ट
४. डॉ. मानचन्द खण्डेला, शाकाहार क्रांति (मासिक), इन्दौर, सित.९६
५. दैनिक भास्कर समाचार सेवा, दैनिक भास्कर २१ जनवरी ९५
६. शाकाहार— १०० तथ्य, डॉ. नेमीचंद जैन
७. डॉ. भूपेन्द्र मिश्रा, राष्ट्रीय वनीकरण, प्रतियोगिता दर्पण— जुलाई ८९