भोजन करना समस्त मानवीय अनुष्ठानों में सर्वाधिक व्यापक है। चाहे न्यूयॉर्क हो या मैड्रिड या नई दिल्ली अलग—अलग समयों में लोग प्रात: कालीन नाश्ता या दोपहर अथवा रात का भोजन करते मिलेंगे। विश्वभर में उपलब्ध वस्तुओं के अनुसार स्वाद, पोषण तथा मूल्य को ध्यान में रखते हुए भोजन की व्यवस्था की जाती है। किन्तु प्राचीन भारत की कृति भगवद्गीता में, जो कि इस्कॉन का मुख्य ग्रंथ है, एक अन्य विचार पर बल दिया गया है, ‘‘ हम जैसा खाते हैं वैसा ही हमारा निर्माण होता है।’’ एक बार सुप्रसिद्ध विज्ञानी अल्बर्ट आइन्सटाइन ने हमारे आहार तथा हमारे जीवन की गुणता के बीच पाये जाने वाले महत्वपूर्ण संबंध की ओर संकेत किया था। इसी तरह से गीता में भी बतलाया गया है कि किस तरह नाना प्रकार के भोजन से विभिन्न प्रकार के भौतिक, मनोवैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक परिणाम निकलते हैं। भगवद्गीता का कथन है कि दूध से बनी वस्तुएँ अन्न, फल, तथा तरकारियां आयु को बढ़ाती हैं और बल, स्वास्थ्य, सुख तथा संतोष प्रदान करने वाली हैं। मांस, मछली आदि को सड़ा तथा गन्दा भोजन बताया गया है। तमाम वैज्ञानिक अध्ययनों से सिद्ध हो चुका है कि पशु मांस खाना हमारे स्वास्थ्य के लिए अत्यन्त घातक है। उदाहरणार्थ संयुक्त राज्य अमरीका में नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज (विज्ञान की राष्ट्रीय परिषद) ने मांसाहार का संबंध कैंसर रोग से जोड़ा है। इसी तरह अमरीका के हृदय संघ ने सूचित किया है कि अधिक हृदय रोग का कारण भोजन में अधिक मांस वसा को होना है। चूँकि मांसाहार से निर्दोष पशुओं का वध होता है, इसलिए मांसाहार से गंभीर धर्म संबंधी तथा मनोंवैज्ञानिक प्रश्न उठते हैं।
सुप्रसिद्ध नाटककार जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने लिखा है कि भोजन के लिए पशुओं की हत्या करते समय मनुष्य अपनी दया तथा करुणा को दबाता है। जिससे वह व्रूर बन जाता है। वेदों के अनुसार (गीता इनका अंग हैं) पौधे, कीड़े, मछली तथा अन्य निम्न योनि वाले जीव अपनी रूचि के अनुसार भोजन करने के लिए बाध्य हैं। किन्तु मनुष्यों में उच्चतर बुद्धि होने से वे अपने भोजन का चुनाव करते समय उच्चतर आध्यात्मिक सिद्धांतों को ग्रहण कर सकते हैं। समस्त मुख्य धार्मिक ग्रन्थों में मनुष्य को आदेश दिया गया है कि व्यर्थ की हत्या किये बिना जीवनयापन करें। नवीन तथा प्राचीन टेस्टामेंट में आदेश हैं ‘‘ तू हत्या नहीं करेगा।’’ जेनेसिस में मनुष्य को समस्त प्राणियों के ऊपर स्थान प्रदान किया गया है, किन्तु जब हम जीसस के उपदेशों को पढ़ते हैं तो पाते हैं कि इस स्थान के साथ—साथ उसमें दया होनी चाहिए, व्रूरता नहीं। बौद्ध मत में पशु हत्या पूरी तरह वर्जित है। कुरान में पशु वध पर नियंत्रण की बात मिलती है। भगवद् गीता में बतलाया गया है कि संसार में हमारा स्थान अद्वितीय है, क्योंकि मनुष्य होने के नाते हम उस परम स्रष्टा के अस्तित्व को जान सकते हैं, जो सभी प्रकार के जीवों के लिए भोजन देने वाला है । गीता बतलाती है कि ईश्वर समस्त प्राणियों के बीज प्रदाता पिता हैं। यह समझते हुए कि हम अपने भोजन के लिए किस तरह ईश्वर पर निर्भर हैं।
हम अपनी कृतज्ञता तो प्रकट कर ही सकते हैं। कि भोजन करने के पूर्व भगवान को यह भोजन अर्पित करें। गीता से हम इस महत्वपूर्ण आध्यात्मिक सिद्धांत को जान पाते हैं । भोजन का अर्पण भी आत्मसाक्षात्कार का मुख्य अंग है। अनेक शाकाहारी भोजन हैं, जिनमें किसी प्रकार की हत्या नहीं की जाती। यही नहीं, जब पौधों को मारा जाता है तो उन्हें संवेदनशील पशुओं की अपेक्षा कम कष्ट होता है। तो भी जब हम किसी की भी हत्या करते हैं तो उसका परिणाम (फल) भोगना ही पड़ता है। यह सकाम कर्म है और क्रिया—प्रतिक्रिया या कार्य—कारण का सूक्ष्म नियम है। लेकिन कृष्ण या ईश्वर बतलाते हैं कि जब वे प्रेम तथा भक्ति से अर्पित किये गये शाकाहारी भोजन को स्वीकार करते हैं, तो वे हमें कर्मफल से मुक्त कर देते हैं । कृष्ण कहते हैं, ‘‘मुझे प्रेम तथा भक्ति के साथ एक फल, एक फूल, एक पत्ती या जल अर्पित करो। मैं उसे स्वीकार करूँगा।’’
इस्कॉन के सदस्य कर्म से मुक्त भोजन को पसन्द करते हैं। यह कल्याणक ढंग से चावल, तरकारी,पनीर, दही, फल, मसाले से तैयार किया पौष्टिक और स्वादिष्ट भोजन है। यह आध्यात्मिकृत भोजन प्रसाद है और परम तुष्टि प्रदान करने वाला है। रविवार के भोजों में विश्वभर में २०० शहरों में जनता को ऐसा शाकाहारी भोजन उपलब्ध कराया जाता है। यहीं नहीं, इस्कॉन द्वारा अमरीका, यूरोप, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड तथा एशिया में ऐसे ४२ भोजनालय चलाये जा रहे हैं।