चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर महाराज का जीवन चरित्र तथा संस्मरण सन 1955 में कुन्थलगिरी सिद्ध क्षेत्र से आचार्य शांतिसागर जी ने समाधी मरण को प्राप्त किया था, 36 दिन की सल्लेखना चली, 36 दिन की सल्लेखना में आचार्य श्री की साधना तथा बल बहुत विशिष्ट था, और उन्होंने लगभग 20 उपवास हो जाने के बाद एक अन्तिम उपदेश दिया था जो मराठी भाषा में था, वैसे तो आचार्य श्री मुक्तागिरी सिद्ध क्षेत्र में सल्लेखना करने का भाव रखते थे, लेकिन फिर कुन्थलगिरी सिद्ध क्षेत्र की तरफ उनका लक्ष्य परिवर्तित हो गया, महाराष्ट्र में 3 सिद्ध क्षेत्र है- गजपंथ, मांगी-तुंगी, कुन्थलगिरी ! इनका जन्म कर्नाटक राज्य के अन्दर बिलकुल महाराष्ट्र की जो सीमा रेखा है उसके पास Yelagula, कोल्हापुर, महाराष्ट्र में हुआ था जो भोजग्राम से करीब 4km अन्दर आता है! इनके पिता का नाम भीमगोड़ा पाटिल तथा माँ का नाम सत्यवती था, ये पाटिल थे, गाँव के प्रमुख मुखिया जैसे माने जाते थे, जैन धर्मं की परंपरा थी इनके वंश में, और माता पिता भी संस्कारित थे, जब ये गर्भ में आए थे तो इनकी माँ को बहुत शुभ दोहला उत्पन्न हुआ था इनकी माँ की तमन्ना हुई थी की मैं 1000 पंखडी वाले 108 कमलो से मैं जिनेन्द्र देव की पूजा करू, ये भावना उत्पन्न हुई थी, फिर कमल पुष्प कोल्हापुर के राजा के सरोवर के यहाँ से मनवाए गए थे, फिर उन्होंने पूजा की थी, 9 वर्ष की उम्र में वहा बाल विवाह की प्रथा होने की कारण बालक सातगोड़ा का विवाह होगया था, लेकिन कर्म योग ऐसा था की उस कन्या जो 6 वर्ष की थी उसका अवसान होगा गया, अब ये अकेले रह गए फिर समय से साथ ये बड़े होते गए, इनका शरीर बहुत बलवान था, सामान्य व्यक्ति से अधिक शक्ति इनके शरीर में थी, बोरे उठा लेना, जब बैल थक जाते था तो ये अपने कंधो पर ही वो रस्सिया लेकर पानी कुँए से खीच लेते थे क्योकि जब कुँए से पानी लेने के लिए बैल का इस्तमाल किया जाता था, जब सातगोड़ा शिखर जी के यात्रा के लिए गए तो इन्होने देखा की एक बूढी माता जो शिथिल शरीर होने के कारण बहुत धीरे धीरे यात्रा कर रही थी तो इनको ऐसा भाव आया की इनको मैं वंदना कर देता हूँ, और इन्होने उनको अपने कंधे पर लेकर पूरी यात्रा करा दी ! सातगोड़ा जी के गाँव के पास बहुत सी नदिया बहती थी, तो जब कोई मुनिराज आते थे तो नदी पार करके आना पड़ता था, क्योकि अगर घुटने से उपर पानी में मुनिराज को अगर नदी पार करना पड़े तो उस प्रयाशिचित करना पढता है और वो प्रायश्चित पानी जितना ज्यादा होता था उतना जी ज्यादा होता था इसलिए ! तो ये नदी के पार चले जाते थे तथा आदिसागर जी महाराज जी को अपने कंधे पर बिठा कर नदी पार करा देंते थे, और फिर वापस छोड़ कर भी आते थे , फिर महाराज से निवेदन करते थे की “मैं तो आपको नदी पार करा रहा हूँ, आप मुझे संसार सागर पार करा देना” तो इस प्रकार उनका बाल्यकाल बहुत अच्छे संस्कार के साथ निकला ! फिर 18 वर्ष की उम्र में इन्हें बडे तपस्वी साधु का समागम मिला वो दक्षिण भारत में सिद्धप्पा मुनि के नाम से जाने जाते थे, और सिद्धप्पा बचपन में अपंग थे !
उन सिद्धप्पा का शरीर बचपन में कोई काम का नहीं था, 10 वर्ष तक की उम्र में उनकी माँ उनको अपनी गोदी में उठाकर चलती थी तो उनका परिवार व् माँ तो दुःख के समुद्र में डूबा हुआ था की ये बचा बड़ा होकर क्या करेगा, अभी तो ये छोटा है मैं इनको उठा लेती हूँ, लेकिन जब बड़ा हो जायेगा फिर क्या होगा , तो किसी ने बोला पास के गाँव में बहुत बडे डॉक्टर है उनका इलाज हो नहीं कराती यहाँ रोने-धोने से क्या लाभ है तो फिर वो पास के गाँव में जा रही थी तो रास्ते में जंगल पड़ता था, तो उस जंगल मैं जैसे ही उस बच्चे को उतारा तो तो उनको लगा की आस पास में कोई है तो फिर एक मुनिमहाराज थे वह पर उनका नाम श्री सिद्ध था, उन मुनि राज के पास जाकर उनको नमस्कार किया और हाथ जोड़ कर उदास बैठ गयी और बच्चा भी साथ में, तब मुनिराज ने मराठी भाषा मैं पूछा “तू रोती क्यों है” तो माँ बोले की ये मेरा बच्चा अपंग है इसको कोई ऐसी बीमारी है जिससे ये चल फिर नहीं सकता तो मैं इसके भविष्य का चिंतन करके रोती हूँ, अभी तो मैं हूँ लेकिन आगे इसका कौन ध्यान रखेगा, तब मुनिराज ने 1 नजर डाली ऑर बोले “ये तो जैन-शासन के लिए एक रत्न है – जिन धर्मं की महान प्रभावना इसके निमित्त से होने वाली है” तब माँ बोली की जब ये चल-फिर नहीं सकता तो ये कैसे प्रभावना करेगा, तब मुनिराज बोले ये महान साधु बनेगा, ऑर ये चलता फिरता नहीं देखो अभी चलेगा, तब महाराज जी ने उस बालक को बोला की तू बोल तो लेता है चल णमोकार मन्त्र सुना, उस बालक ने फिर णमोकार मन्त्र सुना दिया फिर उन मुनिराज ने अपनी पिंछी से उस बालक के शरीर पर 2-3 बार स्पर्श किया, फिर उस बच्चे से कहते है चल खड़ा होजा, माँ ऐसे आश्चर्य चकित होकर देख रही है की ये महाराज जी क्या करने वाले है, सचमुच वो बच्चा खड़ा होगया, माँ की आँखों में ख़ुशी के आंसु आगये, फिर उस बालक से बोले की अब तू वह से चल कर वापस आजा, ऑर वो वापस आगया फिर मुनिराज बोले देख तेरा बालक चलने लगा ना !
अब देख ये बड़ा होकर बहुत बड़ा साधु बनने वाला है , जा लेजा, फिर जब ये बात गाँव वालो को पता चली तो पहले तो उस बालक को किसी ऑर नाम से पुकारा करते थे, लेकिन ये उन श्री सिद्ध मुनिराज से ठीक हुआ था इसलिए उस बालक का नाम सिद्धप्पा हो गया था, “अप्पा” एक शब्द चलता है दक्षिण भारत में, कर्णाटक में विशेष रूप से जैसे मलप्पा. फिर आगे चलकर इन्होने गृहस्थ जीवन को भी स्वीकार किया ऑर 4 संतान हुए तथा इतना ईमानदार जीवन था, इनका जीवन चरित्र शिवलाल शाह जी ने मराठी भाषा में लिखा हुआ है जिसका हिंदी अनुवाद नई दुनिया प्रिंटर, इंदौर से छपा हुआ है, ये बहुत छोटा सा ग्रन्थ है, उसमे बहुत सुन्दर जींवन चरित्र दिया हुआ है जो किसी को भी भाव-विभोर कर सकता है ! सिद्धप्पा मुनि के जीवन में ऐसी ऐसी अदभुत घटनाये घटित हुई है की एक बार मंदिर जी में कुछ लोग आकर उनको परेशान करने लगे तो देवताओ में उपसर्गों से इनकी रक्षा की है यहाँ तक की स्थिति बनी है, और ब्रम्हचर्य की इनको सिद्धि प्राप्त हो गयी थी, जब साधु का ब्रम्हचर्य बहुत अधिक निर्मल हो जाता है तब ऐसे सिद्ध ब्रम्हचारी साधु से शरीर से खुशबु आने लगती है बहुत दुर्लभ है ये, इन मुनि के शरीर से खुशबु आती थी तो भ्रमर बार बार आते थी एक बार तो भ्रमर ने इनके शरीर में छेद कर दिया और रक्त निकल गया फिर जब मुनि आहार के लिए आये तो लोगो ने देखा की इनके शरीर पर इतने घाव है क्या बात है ! फिर उन्होंने बताया की वह बहुत से भ्रमर थे जिनके कारण से ऐसा हुआ ! फिर इस तरह सातगोड़ा पाटिल का पुनः विवाह करने के लिए घर वाले सोच रहे थे लेकिन इन्होने बोला की मेरी रूचि नहीं है मै अभी विवाह नहीं करना चाहता फिर इनको जब सिद्धप्पा मुनि का सानिध्य 18 वर्ष की आयु में मिला तो इन्होने आजीवन ब्रम्हचर्य धारण कर लिया, फिर आचार्य शांति सागर जी बालक सात डोगा ने बताया की श्री सिद्धप्पा मुनिराज कुछ ऐसे महामुनिराज को भी जानते थे जो उस समय निद्रा-विजय नाम का तप करते थे और जो एक उत्तर गुण में आने वाला महान तप है 18-18 दिन तक सोना ही नहीं है, बिलकुल जाग्रत रहना है, ऐसी कठिन तपस्या करने वाले साधु भी उस ज़माने में थे, आज कल कुछ लोग कुछ ज्यादा अनुमान लगा कर ज्यादा कह जाते है की साधुओ का उस समय अभाव होगया था, कोई सच्चा साधु नहीं रह गया था, ये कुछ अधिक बोल जाते है वास्तव में तपस्या करने वाले महान साधु उस काल में भी इतनी महान तपस्या करते थे !
चूँकि: कुंद कुंद स्वामी ने कहा है की साधुओ का अभाव पंचम काल के अंत तक नहीं होना है तो इसलिए हम कल्पना भी नहीं कर सकते की मुगलों के शाशन में या भटारको के समय में देश में एक भी साधु नहीं था ये कहना अनुचित है, कही कही साधु थे ये अलग बात है की नाम न मिला हो किसी को प्रसिद्धी ना मिली हो, ये जरुरी नहीं की प्रसिद्धी का चारित्र से सम्बन्ध हो ! कभी कभी बहुत ऊँचा चारित्र होता है लेकिन प्रसिद्धी नहीं होती और कभी कभी उतनी निर्मलता नहीं होती फिर भी जीवन में ख्याति ज्यादा प्राप्त हो जाती है, ख्याति का चारित्र या गुणों से कोई सम्बन्ध नहीं है वो सब पुण्य का उदय होने से ऐसा हो जाता है, और ऐसे कितने की महान निर्मल साधु होते है जिनका नाम कोई जानते भी नहीं है और ऐसे कितने ही मूक केवली हो गए है इस संसार में जिनने कभी उपदेश नहीं दिया लेकिन 13th गुणस्थान में विराजमान होकर लोकालोक को प्रकाशित किया केवलज्ञान से, उनका नाम भी कोई नि जानता क्योकि जैन धर्मं व्यक्तिवादी नहीं अपितु जैन धर्मं गुणों पर टिका हुआ है इसी प्रकार णमोकार मन्त्र में किसी व्यक्ति का नाम नहीं है ना महावीर भगवान का नाम, ना आदिनाथ भगवान् का नाम, गौतम स्वामी तक का नाम नहीं है, बस उस पद के गुण जिनके पास हो उनको नमस्कार है ! देखो जैन धर्मं कितना निष्पक्ष है ! सातगोड़ा जी ने ब्रम्हचर्य तो ले लिया लेकिन पिता का आग्रह था की तुम अभी संन्यास का मत सोचना, इस तरह बहुत ज्यादा समय व्यतीत हो गया उनका गृहस्थ में ही, आचार्य जिनसेन स्वामी ने तो प्रवचनसार में लिखा है की अगर ऐसे जिद्दी हो माता पिता तो फिर वो भी जिद्दी बन सकता है जिसको दीक्षा लेनी है क्योकि अगर लोग अपने स्वार्थ के लिए अपना इस्तमाल करना चाहते है तो फिर अपना अहित मत करो, इस तरह उन्होंने घर पर रहकर भी एकासन, रस परित्याग आदि कुछ साधनाए कर ही ली थी क्योकि अगर ये साधनाये शुरू से ना की जाये तो फिर शरीर सुखो का आदि बन जाता है ये स्थिति बहुत खतरनाक है, जो लोग सोचते है की मै एक क्षण में मन को वश में कर लूँगा वो अंधकार में है, ये शुरुआत से ही भोजन से रूचि कम रखना, स्वाध्ये करते थे और साथ में घर के कर्त्तव्य को पूरा करते थे ! जैसे खेती करना, घर का काम करना, माता पिता की सेवा करना ,साथ में धर्मं भी करना ! इस तरह समय व्यतीत हुआ और इनके माता पिता का समय पूरा हो गया तो इनका उम्र 40 वर्ष से अधिक हो चुकी थी, फिर 41 वर्ष की उम्र में आचार्य देवेन्द्र कीर्ति जी आये वहा पर उनसे निवेदन किया की मुझे क्षुल्लक दीक्षा दीजिये वैसे मै मुनि दीक्षा चाहता हु , लेकिन आप सब का ऐसा आग्रह है की सीधा मुनि नहीं बनो, इस प्रकार आचार्य देवेन्द्र कीर्ति जी महाराज ने उनको क्षुल्लक दीक्षा प्रदान की तथा सारी जनता से उनकी अनुमोदना की तथा उनका नाम क्षुल्लक शान्तिसागर जी रखा गया ! उस समय महाराष्ट्र तथा कर्णाटक में स्थिति बहुत खराब थी !
उस समय वह पर उपाध्याय जाति का राज चलता था ये पंडित होते थे, उस समय पूरी व्यवस्था मंदिर तथा साधुओ की उनके हाथ में रहती थी, तो जब क्षुल्लक शान्तिसागर जी जब वो कटोरा लेकर आहार चर्या को निकले, तो फिर उनने देखा की वहा पर कोई भी पढ्गाहन के लिए नहीं खड़ा हुआ, उपाध्याय के यहाँ उनका आहार निर्धारित था, तो ये वापस लोट कर आगये, उपवास कर लिया उस दिन उन्होंने, दुसरे दिन फिर वैसा ही हुआ, तीसरे दिन भी उपवास हुआ फिर जब चोथे दिन भी उपवास होगया तो जनता भड़क गयी, जनता ने उपाध्याय से कहा की क्या विधि है इनके आहार की, फिर उपाध्याय ने ग्रन्थ खोले फिर उन्होंने पढ़ा की साधु अनुदिस्ट आहार करने वाले होते है, तथा अपने नाम से बना हुआ भोजन क्षुल्लक जी नहीं कर सकते, और फिर बोलते है इसलिए ही महाराज जी 4 दिन से आहार नहीं कर रहे है, फिर बहुत से लोगो की भावना हुई की हम भी शुद्ध भोजन बनायेंगे तथा फिर उसमे से ही क्षुल्लक जी को आहार करा देंगे, अब देखिये क्रांति यही से प्रारंभ होगेयी, इस तरह उन्होंने धीरे धीरे जागृति पैदा करदी, और सब जगह सही आहार विधि हो गयी, फिर समय निकला तो उन्होंने गिरनार पर्वत की और विहार किया तथा गिरनार पर्वत पर पहुच कर वह पर उन्होंने जिनेन्द्र देव की साक्षी में दुपटे का भी त्याग कर दिया और केशलोंच करके ऐल्लक हो गए !
फिर जब उनकी उम्र 45 वर्ष की हुई तो उन्होंने मुनि दशा को प्राप्त किया, यरनाल ग्राम नामक स्थान पर पञ्च कल्याणक चल रहे थे, पञ्च कल्याणक में दीक्षा कल्याणक के दिन उन्होंने दीक्षा के लिए प्रार्थना की और सारी जनता ने भी अनुमोदना की, दीक्षा गुरु देवेन्द्रकीर्ति जी ने दीक्षा दी थी, देवेन्द्रकीर्ति जी महाराज को देवअप्पा स्वामी बोलते थे वो 16-17 वर्ष की उम्र में घर का त्याग कर तपस्वी बन गए थे ! चूँकि काल का ऐसा प्रभाव था वह पर उस समय शरीर को ढक कर आहार चर्या के लिए आना पड़ता था, फिर चोंके के अन्दर उस आवरण को हटा कर दिगम्बर मुद्रा में वो आहार लेते थे खड़े होकर, उसके बाद फिर आवरण स्वीकार करके चटाई वगैरह कुछ लेकर अपने स्थान पर चले जाते थे, क्योकि उस समय अंग्रेजो का शासन था तथा मुगलों के कानून चलते थे, तो ऐसी प्रतिकूलता थी, लेकिन शान्तिसागर जी महाराज बोले मैं तो मूलाचार वाली चर्या का पालन करूँगा चाहे कुछ भी होजाये मेरा पूर्ण आत्म विश्वास है, इस तरह उन्होंने अपनी चर्या मूलाचार वाली राखी अब ये निर-आवरण, दिगम्बर मुद्रा में ही चर्या के लिए जाते थे, वही से एक क्रांति को हवा मिली और लोग जाने लगे की दिगम्बर साधु भी होते है, धीरे धीरे प्रभावना बढती गयी, इनका प्रथम चातुर्मास सन 1920 में हुआ था, तथा सम्मेद शिखर जी की यात्रा पूर्वक 9वा चातुर्मास 1928 में कटनी में हुआ और उस चातुर्मास की भी बहुत विचित्र धटना है, महाराज श्री श्रुत पंचमी के दिन इलाहाबाद में थे तथा वो श्रुत पंचमी के दिन चातुमास कहा करना है निश्चित कर देते थे, तो बहुत दूर दूर से लोग आये थे श्री फल लेकर के, तो कटनी का कोई श्रावक भी वह पर पहुच गया की महाराज जी को सब लोग नारियल अर्पित कर रहे है, तो हम भी अर्पित कर देते है, तो उसने भी चढ़ा दिया नारियल तो महाराज जी पूछा की तुम कहा के हो तो वो बोले कटनी के फिर महाराज जी के मन में क्या सुझा की उन्होंने बोला की तुम्हारे यहाँ मेरा चोमासा स्वीकार है, अब ये सुनते ही वो कटनी का व्यक्ति टेंशन में आगया की मैंने समाज से भी नहीं पूछा और महाराज जी ने चतुर्मास स्वीकार भी कर लिया, यह उपस्थित लोगो ने उस व्यक्ति को बोलने लगे आपका तो भाग्य ही खुल गया, फिर वो जल्दी जल्दी कटनी गए तथा समाज तथा पंचायत के लोगो को बड़ा खुश होकर बताया की ऐसा ऐसा हुआ तो लोग खुश होने के बजाये बोलने लगे पंचायत के लोग गुस्सा हो गए बोले की हमसे पूछे बिना कैसे नारियल अर्पण कर दिया, वो बो बोले की सब नारियल चढ़ा रहे थे तो मैंने भी चढ़ा दिया मुझे तो ये भी नहीं मालूम था की ये नारियल क्यों चढ़ा रहे है तो फिर समाज की मीटिंग हुए तथा निर्णय लिया की अब साधु आरहे है तो हम चातुर्मास कराएँगे, इसके बाद क्या हुआ कटनी के एक बहुत बड़े विद्वान हुए है पंडित जगतमोहन लाल शास्त्री, और उनका सम्बन्ध कांजीस्वामी से भी बहुत घनिष्ठ रहा है और वो आसानी से किसी को साधु स्वीकार भी नहीं करते थे ऐसे परीक्षा प्रधानी थे, लेकिन साधुओ के प्रति घ्रणा नहीं थी उनके मन में, वर्तमान में कुछ लोग ऐसे है जो साधु का नाम सुनते ही कुछ अलग सा भाव या विचार ले आते है, तुम साधुओ को नहीं मानना मत मनो लेकिन द्वेष ना करो, क्योकि साधु की मुद्रा का अनादर नहीं करना चाहिए, वो दिगम्बर मुद्रा उस साधु की अपनी निजी मुद्रा नहीं है वो तीर्थंकर मुद्रा तथा जिससे मुक्ति होने वाली है वो मुद्रा है ! तो जगतमोहन लाल शास्त्री जी जो थे वो अचानक कटनी से गायब हो गए, तो गाँव वालो ने सोचा कही आया होगा पंडित जी को बुलावा तो वो चले गए, क्योकि वो बहुत सुन्दर व्याख्यान करते थे, किसी भी किसी भी विषय पर बोलते सकते थे वो एक बार वो अजमेर में मुसलमानों की दरगाह पर गए, और वह जाकर ऐसा व्याख्यान दिया तथा पांच हजार मुस्लिम लोगो ने सुना वो, अगले दिन सारे अख़बार उस प्रभावना से भर गए थे की जैन विद्वान् ने क्या सुन्दर व्याख्यान दिया !
फिर लोगो ने सोचा की महाराज जी इलाहाबाद से कटनी विहार कर रहे है तो और लोग भी चलते है महाराज जी को लेने तो उन्होंने देखा की जगनमोहन पंडित जी तो यही पर है, तो लोग बोले अरे पंडित जी आप यहाँ उसी समय पंडित जी महाराज जी को नमोस्तु कर रहे थे, तो तुम पंडित हो कभी बताया नहीं तुमने, ये तो काफी दिनों से हमारे साथ है, तभी एक व्यक्ति बोले महाराज जी ये पंडित जगनमोहन लाल शास्त्री है, तो महाराज जी बोले अरे तुम जगनमोहन कटनी वाले, तो पंडित जी बोले हा लेकिन मैं यहाँ कुछ और इरादे से आया था की जिनका चोमासा हमारे यहाँ हो रहा है वो ठीक है या नहीं, क्योकि अखबारों में तो मैंने बहुत कुछ पढ़ा आपके बारे में की आप इतना बड़ा परिग्रह लेकर शिखर जी की यात्रा के लिए निकले है, इतने सारे गाडी, घोडा, तम्बू बगैरह, सब साथ चलते है आपके, तो मैं देखना चाहता था की ऐसे परिग्राही साधु का चोमासा करा कर तो श्रावक भी डूबेंगे, फिर महाराज जी बोले की फिर तुमने नमोस्तु क्यों किया, इतने परिग्राही साधु को, फिर पंडित जी बोले मैं आठ दिन से आपकी चर्या देख रहा हू, की ये सब आपके पीछे चल रहे है जैसे तीर्थंकर के समवशरण के पीछे सारा ठाठ चलता है, लेकिन तीर्थंकर को उनके प्रति कोई राग नहीं होता, मैएँ बहुत बारीकी देखा है आपका इससे कोई लेना देना नहीं है, और मैंने ये देखा है की आप नमोस्तु के पात्र है तथा मैं आपको हृदय से नमोस्तु करता हू, तब शान्तिसागर जी महाराज बोले अच्छा किया तुमने जो परीक्षा करके गुरु बनाया ! भारत में एक कानून बनने जा रहा था की जैन मंदिर में किसी का भी प्रवेश निषेध नहीं होगा तथा सब लोग अधिकार से प्रवेश कर सकेंगे, इसके विरोध में आचार्य शान्तिसागर जी महाराज ने अन्नशन आन्दोलन यानि 1106 दिन का अन्न त्याग कर दिया था, फिर आखिरी फैसला होने वाला था मुंबई कोर्ट में तो पहले ज़ज़ ने ये प्रश्न रखा कि वो क्यों प्रवेश करना चाहते है क्योकि कुछ लोग अधिकार पूर्वक प्रवेश चाहते थे मंदिर में , तो उन्होंने पूछा कि वो जैन धर्मं को मानने वाले है क्या, या किस धर्म को मानते है, तो जबाब मिला कि वो जैन धर्मं को नहीं मानते अपने धर्म को ही मानते है तो फिर ज़ज़ ने पूछा कि फिर जैन मंदिर में प्रवेश का अधिकार क्यों मांगते हो और ज़ज़ ने बोला कि नहीं मिलेगा अधिकार !
और ये फैसला सुनाने वाले वो ज़ज़ जैनेत्तर थे, तो ज़ज़ ने बोला की जिसको जैन धर्मं के प्रति श्रद्धा नहीं है उसको हम जैन मंदिर में प्रवेश करने का अधिकार नहीं दे सकते ! फिर इसके विपक्ष ने एक आन्दोलन और चल रहा था की सबको प्रवेश मिलना चाहिए, श्री जिनेन्द्र वर्णी जी चाहते थे की सबको अधिकार मिलना चाहिए उनका भाव आचार्य शान्तिसागर जी के भाव से अलग था “जब तिर्यंच भी जिनेन्द्र भगवान के दर्शन से सम्यक द्रष्टि बन जाता है ” तो फिर किसी को रोका क्यों जाये, लेकिन इस मामले में पंडित जगतमोहन लाल शाष्त्री जी शान्तिसागर जी के पक्ष में थे, और जब मुख्य मंत्री रविशंकर शुक्ल जी जो उस समय के मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री थे, वो पंडित जगतमोहन लाल शाष्त्री के मित्र थे तो उन्होंने बोला की ये तुम्हारे जैन समाज में ये कैसा झगडा चल रहा है , उन्होंने पूछा की प्रवेश करने क्यों नहीं देते तब पंडित जी ने बोला की हमारे मंदिर में माताये बेधड़क आकर धर्म ध्यान करती है, हमारे मंदिर में कभी भी अश्लील वातावरण नहीं होता, हमारे मंदिर की एक अनोखी अलोकिक पवित्रता है, आप किसी भी जैन मंदिर देखिये, हम उस पवित्रता को खंडित नहीं होने देना चाहते, हमारा विरोध नहीं है की कोई हमारे मंदिर में प्रवेश न करे, हम ये चाहते है की प्रवेश करना हो तो व्यसनों का त्याग करके प्रवेश करो, श्रद्धालु बनकर प्रवेश करो, भगवान् का भक्त बनकर प्रवेश करो, लेकिन वो ऐसा नहीं करना चाहते, इसलिए हम ये आन्दोलन कर रहे है, फिर मंत्री जी ने कहा ठीक है तुम्हारा आन्दोलन ! जब शान्तिसागर जी महाराज का कटनी में प्रवेश हो रहा था तो कुछ लोग चिंतित थे, उनके साथ जो यात्रा संघपति चल रहे थे उनके सामने वो बात राखी गयी की एक समस्या है की कटनी में हर वर्ष चूहों के कारण प्लेग [महामारी] पड़ता है, तो ये सुनकर संघपति मुस्कुराने लगे और बोले की आप अभी महाराज जी की महिमा को जानते नहीं हो जब महाराज जी कटनी में प्रवेश करेंगे तो यहाँ पर प्लेग नहीं पड़ेगा ! प्रोफेसर लक्ष्मी चंद जैन आज के हिन्दुस्तान के बहुत बड़े गणितज्ञ है, उनकी किताबे जापान के लोग भी पढ़ते है The Tao of Jain Sciences, उन्होंने बताया की उस समय मैं बालक था और हम सब बच्चे वह खेलरहे थे जब आचार्य शान्तिसागर जी हमारे कटनी गाँव में आये, और आचार्य श्री कुए के पाट पर बैठे तो असमान से चन्दन की वर्षा हुई थी, और उस चदन को उन्होंने हाथ में लेकर सूंघा था जो मंदिर वाला चन्दन होता है वही चन्दन था और फिर उसको हमने चखा भी था वही जैसे चन्दन थोडा सा कड़वा होता है वैसा ही स्वाद उसका था ! कटनी में 1994 में एक चन्द्र भान कवि थे उन्होंने बताया की जिस दिन शान्तिसागर जी महाराज आये और सबसे पहले उन्होंने उसी कुए के पाट पर प्रतिक्रमण किया था, तो वहा पर एक आम का पेड़ था उस पेड़ के नीचे उन्होंने प्रतिक्रमण किया, तो जिस डाल के नीचे बैठ कर उन्होंने प्रतिक्रमण किया था, चोमस स्थापित होने के बाद उस डाल पर आम के फल लगे थे, जो आम ग्रीष्म काल में लगते है वो महाराज जी की पवित्रता के कारण उस समय लग गए थे, और सही में दुबारा प्लेग की बीमारी कटनी में नहीं आई, उसके बाद कटनी में अब तक प्लेग नहीं पड़ा !
चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर महाराज का जीवन चरित्र तथा संस्मरण सन 1955 में कुन्थलगिरी सिद्ध क्षेत्र से आचार्य शांतिसागर जी ने समाधी मरण को प्राप्त किया था, 36 दिन की सल्लेखना चली, 36 दिन की सल्लेखना में आचार्य श्री की साधना तथा बल बहुत विशिष्ट था, और उन्होंने लगभग 20 उपवास हो जाने के बाद एक अन्तिम उपदेश दिया था जो मराठी भाषा में था, वैसे तो आचार्य श्री मुक्तागिरी सिद्ध क्षेत्र में सल्लेखना करने का भाव रखते थे, लेकिन फिर कुन्थलगिरी सिद्ध क्षेत्र की तरफ उनका लक्ष्य परिवर्तित हो गया, महाराष्ट्र में 3 सिद्ध क्षेत्र है- गजपंथ, मांगी-तुंगी, कुन्थलगिरी ! इनका जन्म कर्नाटक राज्य के अन्दर बिलकुल महाराष्ट्र की जो सीमा रेखा है उसके पास Yelagula, कोल्हापुर, महाराष्ट्र में हुआ था जो भोजग्राम से करीब 4km अन्दर आता है! इनके पिता का नाम भीमगोड़ा पाटिल तथा माँ का नाम सत्यवती था, ये पाटिल थे, गाँव के प्रमुख मुखिया जैसे माने जाते थे, जैन धर्मं की परंपरा थी इनके वंश में, और माता पिता भी संस्कारित थे, जब ये गर्भ में आए थे तो इनकी माँ को बहुत शुभ दोहला उत्पन्न हुआ था इनकी माँ की तमन्ना हुई थी की मैं 1000 पंखडी वाले 108 कमलो से मैं जिनेन्द्र देव की पूजा करू, ये भावना उत्पन्न हुई थी, फिर कमल पुष्प कोल्हापुर के राजा के सरोवर के यहाँ से मनवाए गए थे, फिर उन्होंने पूजा की थी, 9 वर्ष की उम्र में वहा बाल विवाह की प्रथा होने की कारण बालक सातगोड़ा का विवाह होगया था, लेकिन कर्म योग ऐसा था की उस कन्या जो 6 वर्ष की थी उसका अवसान होगा गया, अब ये अकेले रह गए फिर समय से साथ ये बड़े होते गए, इनका शरीर बहुत बलवान था, सामान्य व्यक्ति से अधिक शक्ति इनके शरीर में थी, बोरे उठा लेना, जब बैल थक जाते था तो ये अपने कंधो पर ही वो रस्सिया लेकर पानी कुँए से खीच लेते थे क्योकि जब कुँए से पानी लेने के लिए बैल का इस्तमाल किया जाता था, जब सातगोड़ा शिखर जी के यात्रा के लिए गए तो इन्होने देखा की एक बूढी माता जो शिथिल शरीर होने के कारण बहुत धीरे धीरे यात्रा कर रही थी तो इनको ऐसा भाव आया की इनको मैं वंदना कर देता हूँ, और इन्होने उनको अपने कंधे पर लेकर पूरी यात्रा करा दी ! सातगोड़ा जी के गाँव के पास बहुत सी नदिया बहती थी, तो जब कोई मुनिराज आते थे तो नदी पार करके आना पड़ता था, क्योकि अगर घुटने से उपर पानी में मुनिराज को अगर नदी पार करना पड़े तो उस प्रयाशिचित करना पढता है और वो प्रायश्चित पानी जितना ज्यादा होता था उतना जी ज्यादा होता था इसलिए ! तो ये नदी के पार चले जाते थे तथा आदिसागर जी महाराज जी को अपने कंधे पर बिठा कर नदी पार करा देंते थे, और फिर वापस छोड़ कर भी आते थे , फिर महाराज से निवेदन करते थे की “मैं तो आपको नदी पार करा रहा हूँ, आप मुझे संसार सागर पार करा देना” तो इस प्रकार उनका बाल्यकाल बहुत अच्छे संस्कार के साथ निकला !
फिर 18 वर्ष की उम्र में इन्हें बडे तपस्वी साधु का समागम मिला वो दक्षिण भारत में सिद्धप्पा मुनि के नाम से जाने जाते थे, और सिद्धप्पा बचपन में अपंग थे ! उन सिद्धप्पा का शरीर बचपन में कोई काम का नहीं था, 10 वर्ष तक की उम्र में उनकी माँ उनको अपनी गोदी में उठाकर चलती थी तो उनका परिवार व् माँ तो दुःख के समुद्र में डूबा हुआ था की ये बचा बड़ा होकर क्या करेगा, अभी तो ये छोटा है मैं इनको उठा लेती हूँ, लेकिन जब बड़ा हो जायेगा फिर क्या होगा , तो किसी ने बोला पास के गाँव में बहुत बडे डॉक्टर है उनका इलाज हो नहीं कराती यहाँ रोने-धोने से क्या लाभ है तो फिर वो पास के गाँव में जा रही थी तो रास्ते में जंगल पड़ता था, तो उस जंगल मैं जैसे ही उस बच्चे को उतारा तो तो उनको लगा की आस पास में कोई है तो फिर एक मुनिमहाराज थे वह पर उनका नाम श्री सिद्ध था, उन मुनि राज के पास जाकर उनको नमस्कार किया और हाथ जोड़ कर उदास बैठ गयी और बच्चा भी साथ में, तब मुनिराज ने मराठी भाषा मैं पूछा “तू रोती क्यों है” तो माँ बोले की ये मेरा बच्चा अपंग है इसको कोई ऐसी बीमारी है जिससे ये चल फिर नहीं सकता तो मैं इसके भविष्य का चिंतन करके रोती हूँ, अभी तो मैं हूँ लेकिन आगे इसका कौन ध्यान रखेगा, तब मुनिराज ने 1 नजर डाली ऑर बोले “ये तो जैन-शासन के लिए एक रत्न है – जिन धर्मं की महान प्रभावना इसके निमित्त से होने वाली है” तब माँ बोली की जब ये चल-फिर नहीं सकता तो ये कैसे प्रभावना करेगा, तब मुनिराज बोले ये महान साधु बनेगा, ऑर ये चलता फिरता नहीं देखो अभी चलेगा, तब महाराज जी ने उस बालक को बोला की तू बोल तो लेता है चल णमोकार मन्त्र सुना, उस बालक ने फिर णमोकार मन्त्र सुना दिया फिर उन मुनिराज ने अपनी पिंछी से उस बालक के शरीर पर 2-3 बार स्पर्श किया, फिर उस बच्चे से कहते है चल खड़ा होजा, माँ ऐसे आश्चर्य चकित होकर देख रही है की ये महाराज जी क्या करने वाले है, सचमुच वो बच्चा खड़ा होगया, माँ की आँखों में ख़ुशी के आंसु आगये, फिर उस बालक से बोले की अब तू वह से चल कर वापस आजा, ऑर वो वापस आगया फिर मुनिराज बोले देख तेरा बालक चलने लगा ना !
अब देख ये बड़ा होकर बहुत बड़ा साधु बनने वाला है , जा लेजा, फिर जब ये बात गाँव वालो को पता चली तो पहले तो उस बालक को किसी ऑर नाम से पुकारा करते थे, लेकिन ये उन श्री सिद्ध मुनिराज से ठीक हुआ था इसलिए उस बालक का नाम सिद्धप्पा हो गया था, “अप्पा” एक शब्द चलता है दक्षिण भारत में, कर्णाटक में विशेष रूप से जैसे मलप्पा. फिर आगे चलकर इन्होने गृहस्थ जीवन को भी स्वीकार किया ऑर 4 संतान हुए तथा इतना ईमानदार जीवन था, इनका जीवन चरित्र शिवलाल शाह जी ने मराठी भाषा में लिखा हुआ है जिसका हिंदी अनुवाद नई दुनिया प्रिंटर, इंदौर से छपा हुआ है, ये बहुत छोटा सा ग्रन्थ है, उसमे बहुत सुन्दर जींवन चरित्र दिया हुआ है जो किसी को भी भाव-विभोर कर सकता है ! सिद्धप्पा मुनि के जीवन में ऐसी ऐसी अदभुत घटनाये घटित हुई है की एक बार मंदिर जी में कुछ लोग आकर उनको परेशान करने लगे तो देवताओ में उपसर्गों से इनकी रक्षा की है यहाँ तक की स्थिति बनी है, और ब्रम्हचर्य की इनको सिद्धि प्राप्त हो गयी थी, जब साधु का ब्रम्हचर्य बहुत अधिक निर्मल हो जाता है तब ऐसे सिद्ध ब्रम्हचारी साधु से शरीर से खुशबु आने लगती है बहुत दुर्लभ है ये, इन मुनि के शरीर से खुशबु आती थी तो भ्रमर बार बार आते थी एक बार तो भ्रमर ने इनके शरीर में छेद कर दिया और रक्त निकल गया फिर जब मुनि आहार के लिए आये तो लोगो ने देखा की इनके शरीर पर इतने घाव है क्या बात है ! फिर उन्होंने बताया की वह बहुत से भ्रमर थे जिनके कारण से ऐसा हुआ ! फिर इस तरह सातगोड़ा पाटिल का पुनः विवाह करने के लिए घर वाले सोच रहे थे लेकिन इन्होने बोला की मेरी रूचि नहीं है मै अभी विवाह नहीं करना चाहता फिर इनको जब सिद्धप्पा मुनि का सानिध्य 18 वर्ष की आयु में मिला तो इन्होने आजीवन ब्रम्हचर्य धारण कर लिया, फिर आचार्य शांति सागर जी [बालक सातडोगा] ने बताया की श्री सिद्धप्पा मुनिराज कुछ ऐसे महामुनिराज को भी जानते थे जो उस समय निद्रा-विजय नाम का तप करते थे और जो एक उत्तर गुण में आने वाला महान तप है 18-18 दिन तक सोना ही नहीं है, बिलकुल जाग्रत रहना है, ऐसी कठिन तपस्या करने वाले साधु भी उस ज़माने में थे, आज कल कुछ लोग कुछ ज्यादा अनुमान लगा कर ज्यादा कह जाते है की साधुओ का उस समय अभाव होगया था, कोई सच्चा साधु नहीं रह गया था, ये कुछ अधिक बोल जाते है वास्तव में तपस्या करने वाले महान साधु उस काल में भी इतनी महान तपस्या करते थे ! चूँकि: कुंद कुंद स्वामी ने कहा है की साधुओ का अभाव पंचम काल के अंत तक नहीं होना है तो इसलिए हम कल्पना भी नहीं कर सकते की मुगलों के शाशन में या भटारको के समय में देश में एक भी साधु नहीं था ये कहना अनुचित है, कही कही साधु थे ये अलग बात है की नाम न मिला हो किसी को प्रसिद्धी ना मिली हो, ये जरुरी नहीं की प्रसिद्धी का चारित्र से सम्बन्ध हो ! कभी कभी बहुत ऊँचा चारित्र होता है लेकिन प्रसिद्धी नहीं होती और कभी कभी उतनी निर्मलता नहीं होती फिर भी जीवन में ख्याति ज्यादा प्राप्त हो जाती है, ख्याति का चारित्र या गुणों से कोई सम्बन्ध नहीं है वो सब पुण्य का उदय होने से ऐसा हो जाता है, और ऐसे कितने की महान निर्मल साधु होते है जिनका नाम कोई जानते भी नहीं है और ऐसे कितने ही मूक केवली हो गए है इस संसार में जिनने कभी उपदेश नहीं दिया लेकिन 13th गुणस्थान में विराजमान होकर लोकालोक को प्रकाशित किया केवलज्ञान से, उनका नाम भी कोई नि जानता क्योकि जैन धर्मं व्यक्तिवादी नहीं अपितु जैन धर्मं गुणों पर टिका हुआ है इसी प्रकार णमोकार मन्त्र में किसी व्यक्ति का नाम नहीं है ना महावीर भगवान का नाम, ना आदिनाथ भगवान् का नाम, गौतम स्वामी तक का नाम नहीं है, बस उस पद के गुण जिनके पास हो उनको नमस्कार है ! देखो जैन धर्मं कितना निष्पक्ष है !
सातगोड़ा जी ने ब्रम्हचर्य तो ले लिया लेकिन पिता का आग्रह था की तुम अभी संन्यास का मत सोचना, इस तरह बहुत ज्यादा समय व्यतीत हो गया उनका गृहस्थ में ही, आचार्य जिनसेन स्वामी ने तो प्रवचनसार में लिखा है की अगर ऐसे जिद्दी हो माता पिता तो फिर वो भी जिद्दी बन सकता है जिसको दीक्षा लेनी है क्योकि अगर लोग अपने स्वार्थ के लिए अपना इस्तमाल करना चाहते है तो फिर अपना अहित मत करो, इस तरह उन्होंने घर पर रहकर भी एकासन, रस परित्याग आदि कुछ साधनाए कर ही ली थी क्योकि अगर ये साधनाये शुरू से ना की जाये तो फिर शरीर सुखो का आदि बन जाता है ये स्थिति बहुत खतरनाक है, जो लोग सोचते है की मै एक क्षण में मन को वश में कर लूँगा वो अंधकार में है, ये शुरुआत से ही भोजन से रूचि कम रखना, स्वाध्ये करते थे और साथ में घर के कर्त्तव्य को पूरा करते थे ! जैसे खेती करना, घर का काम करना, माता पिता की सेवा करना ,साथ में धर्मं भी करना ! इस तरह समय व्यतीत हुआ और इनके माता पिता का समय पूरा हो गया तो इनका उम्र 40 वर्ष से अधिक हो चुकी थी, फिर 41 वर्ष की उम्र में आचार्य देवेन्द्र कीर्ति जी आये वहा पर उनसे निवेदन किया की मुझे क्षुल्लक दीक्षा दीजिये वैसे मै मुनि दीक्षा चाहता हु , लेकिन आप सब का ऐसा आग्रह है की सीधा मुनि नहीं बनो, इस प्रकार आचार्य देवेन्द्र कीर्ति जी महाराज ने उनको क्षुल्लक दीक्षा प्रदान की तथा सारी जनता से उनकी अनुमोदना की तथा उनका नाम क्षुल्लक शान्तिसागर जी रखा गया ! उस समय महाराष्ट्र तथा कर्णाटक में स्थिति बहुत खराब थी ! उस समय वह पर उपाध्याय जाति का राज चलता था ये पंडित होते थे, उस समय पूरी व्यवस्था मंदिर तथा साधुओ की उनके हाथ में रहती थी, तो जब क्षुल्लक शान्तिसागर जी जब वो कटोरा लेकर आहार चर्या को निकले, तो फिर उनने देखा की वहा पर कोई भी पढ्गाहन के लिए नहीं खड़ा हुआ, उपाध्याय के यहाँ उनका आहार निर्धारित था, तो ये वापस लोट कर आगये, उपवास कर लिया उस दिन उन्होंने, दुसरे दिन फिर वैसा ही हुआ, तीसरे दिन भी उपवास हुआ फिर जब चोथे दिन भी उपवास होगया तो जनता भड़क गयी, जनता ने उपाध्याय से कहा की क्या विधि है इनके आहार की, फिर उपाध्याय ने ग्रन्थ खोले फिर उन्होंने पढ़ा की साधु अनुदिस्ट आहार करने वाले होते है, तथा अपने नाम से बना हुआ भोजन क्षुल्लक जी नहीं कर सकते, और फिर बोलते है इसलिए ही महाराज जी 4 दिन से आहार नहीं कर रहे है, फिर बहुत से लोगो की भावना हुई की हम भी शुद्ध भोजन बनायेंगे तथा फिर उसमे से ही क्षुल्लक जी को आहार करा देंगे, अब देखिये क्रांति यही से प्रारंभ होगेयी, इस तरह उन्होंने धीरे धीरे जागृति पैदा करदी, और सब जगह सही आहार विधि हो गयी, फिर समय निकला तो उन्होंने गिरनार पर्वत की और विहार किया तथा गिरनार पर्वत पर पहुच कर वह पर उन्होंने जिनेन्द्र देव की साक्षी में दुपटे का भी त्याग कर दिया और केशलोंच करके ऐल्लक हो गए ! फिर जब उनकी उम्र 45 वर्ष की हुई तो उन्होंने मुनि दशा को प्राप्त किया, यरनाल ग्राम नामक स्थान पर पञ्च कल्याणक चल रहे थे, पञ्च कल्याणक में दीक्षा कल्याणक के दिन उन्होंने दीक्षा के लिए प्रार्थना की और साडी जनता ने भी अनुमोदना की, दीक्षा गुरु के लिए थोडा विवाद है कुछ बोलते है आदिसागर जी ने दीक्षा दी व् कुछ बोलते है देवनंदी जी ने दीक्षा दी थी, देवनंदी जी महाराज को देवअप्पा स्वामी बोलते थे वो 16-17 वर्ष की उम्र में घर का त्याग कर तपस्वी बन गए थे !
चूँकि काल का ऐसा प्रभाव था वह पर उस समय शरीर को ढक कर आहार चर्या के लिए आना पड़ता था, फिर चोंके के अन्दर उस आवरण को हटा कर दिगम्बर मुद्रा में वो आहार लेते थे खड़े होकर, उसके बाद फिर आवरण स्वीकार करके चटाई वगैरह कुछ लेकर अपने स्थान पर चले जाते थे, क्योकि उस समय अंग्रेजो का शासन था तथा मुगलों के कानून चलते थे, तो ऐसी प्रतिकूलता थी, लेकिन शान्तिसागर जी महाराज बोले मैं तो मूलाचार वाली चर्या का पालन करूँगा चाहे कुछ भी होजाये मेरा पूर्ण आत्म विश्वास है, इस तरह उन्होंने अपनी चर्या मूलाचार वाली राखी अब ये निर-आवरण, दिगम्बर मुद्रा में ही चर्या के लिए जाते थे, वही से एक क्रांति को हवा मिली और लोग जाने लगे की दिगम्बर साधु भी होते है, धीरे धीरे प्रभावना बढती गयी, इनका प्रथम चातुर्मास सन 1920 में हुआ था, तथा सम्मेद शिखर जी की यात्रा पूर्वक 9वा चातुर्मास 1928 में कटनी में हुआ और उस चातुर्मास की भी बहुत विचित्र धटना है, महाराज श्री श्रुत पंचमी के दिन इलाहाबाद में थे तथा वो श्रुत पंचमी के दिन चातुमास कहा करना है निश्चित कर देते थे, तो बहुत दूर दूर से लोग आये थे श्री फल लेकर के, तो कटनी का कोई श्रावक भी वह पर पहुच गया की महाराज जी को सब लोग नारियल अर्पित कर रहे है, तो हम भी अर्पित कर देते है, तो उसने भी चढ़ा दिया नारियल तो महाराज जी पूछा की तुम कहा के हो तो वो बोले कटनी के फिर महाराज जी के मन में क्या सुझा की उन्होंने बोला की तुम्हारे यहाँ मेरा चोमासा स्वीकार है, अब ये सुनते ही वो कटनी का व्यक्ति टेंशन में आगया की मैंने समाज से भी नहीं पूछा और महाराज जी ने चतुर्मास स्वीकार भी कर लिया, यह उपस्थित लोगो ने उस व्यक्ति को बोलने लगे आपका तो भाग्य ही खुल गया, फिर वो जल्दी जल्दी कटनी गए तथा समाज तथा पंचायत के लोगो को बड़ा खुश होकर बताया की ऐसा ऐसा हुआ तो लोग खुश होने के बजाये बोलने लगे पंचायत के लोग गुस्सा हो गए बोले की हमसे पूछे बिना कैसे नारियल अर्पण कर दिया, वो बो बोले की सब नारियल चढ़ा रहे थे तो मैंने भी चढ़ा दिया मुझे तो ये भी नहीं मालूम था की ये नारियल क्यों चढ़ा रहे है तो फिर समाज की मीटिंग हुए तथा निर्णय लिया की अब साधु आरहे है तो हम चातुर्मास कराएँगे, इसके बाद क्या हुआ कटनी के एक बहुत बड़े विद्वान हुए है पंडित जगतमोहन लाल शास्त्री, और उनका सम्बन्ध कांजीस्वामी से भी बहुत घनिष्ठ रहा है और वो आसानी से किसी को साधु स्वीकार भी नहीं करते थे ऐसे परीक्षा प्रधानी थे, लेकिन साधुओ के प्रति घ्रणा नहीं थी उनके मन में, वर्तमान में कुछ लोग ऐसे है जो साधु का नाम सुनते ही कुछ अलग सा भाव या विचार ले आते है, तुम साधुओ को नहीं मानना मत मनो लेकिन द्वेष ना करो, क्योकि साधु की मुद्रा का अनादर नहीं करना चाहिए, वो दिगम्बर मुद्रा उस साधु की अपनी निजी मुद्रा नहीं है वो तीर्थंकर मुद्रा तथा जिससे मुक्ति होने वाली है वो मुद्रा है !
तो जगतमोहन लाल शास्त्री जी जो थे वो अचानक कटनी से गायब हो गए, तो गाँव वालो ने सोचा कही आया होगा पंडित जी को बुलावा तो वो चले गए, क्योकि वो बहुत सुन्दर व्याख्यान करते थे, किसी भी किसी भी विषय पर बोलते सकते थे वो एक बार वो अजमेर में मुसलमानों की दरगाह पर गए, और वह जाकर ऐसा व्याख्यान दिया तथा पांच हजार मुस्लिम लोगो ने सुना वो, अगले दिन सारे अख़बार उस प्रभावना से भर गए थे की जैन विद्वान् ने क्या सुन्दर व्याख्यान दिया ! फिर लोगो ने सोचा की महाराज जी इलाहाबाद से कटनी विहार कर रहे है तो और लोग भी चलते है महाराज जी को लेने तो उन्होंने देखा की जगनमोहन पंडित जी तो यही पर है, तो लोग बोले अरे पंडित जी आप यहाँ उसी समय पंडित जी महाराज जी को नमोस्तु कर रहे थे, तो तुम पंडित हो कभी बताया नहीं तुमने, ये तो काफी दिनों से हमारे साथ है, तभी एक व्यक्ति बोले महाराज जी ये पंडित जगनमोहन लाल शास्त्री है, तो महाराज जी बोले अरे तुम जगनमोहन कटनी वाले, तो पंडित जी बोले हा लेकिन मैं यहाँ कुछ और इरादे से आया था की जिनका चोमासा हमारे यहाँ हो रहा है वो ठीक है या नहीं, क्योकि अखबारों में तो मैंने बहुत कुछ पढ़ा आपके बारे में की आप इतना बड़ा परिग्रह लेकर शिखर जी की यात्रा के लिए निकले है, इतने सारे गाडी, घोडा, तम्बू बगैरह, सब साथ चलते है आपके, तो मैं देखना चाहता था की ऐसे परिग्राही साधु का चोमासा करा कर तो श्रावक भी डूबेंगे, फिर महाराज जी बोले की फिर तुमने नमोस्तु क्यों किया, इतने परिग्राही साधु को, फिर पंडित जी बोले मैं आठ दिन से आपकी चर्या देख रहा हू, की ये सब आपके पीछे चल रहे है जैसे तीर्थंकर के समवशरण के पीछे सारा ठाठ चलता है, लेकिन तीर्थंकर को उनके प्रति कोई राग नहीं होता, मैएँ बहुत बारीकी देखा है आपका इससे कोई लेना देना नहीं है, और मैंने ये देखा है की आप नमोस्तु के पात्र है तथा मैं आपको हृदय से नमोस्तु करता हू, तब शान्तिसागर जी महाराज बोले अच्छा किया तुमने जो परीक्षा करके गुरु बनाया ! भारत में एक कानून बनने जा रहा था की जैन मंदिर में किसी का भी प्रवेश निषेध नहीं होगा तथा सब लोग अधिकार से प्रवेश कर सकेंगे, इसके विरोध में आचार्य शान्तिसागर जी महाराज ने अन्नशन आन्दोलन यानि 1106 दिन का अन्न त्याग कर दिया था, फिर आखिरी फैसला होने वाला था मुंबई कोर्ट में तो पहले ज़ज़ ने ये प्रश्न रखा कि वो क्यों प्रवेश करना चाहते है क्योकि कुछ लोग अधिकार पूर्वक प्रवेश चाहते थे मंदिर में , तो उन्होंने पूछा कि वो जैन धर्मं को मानने वाले है क्या, या किस धर्म को मानते है, तो जबाब मिला कि वो जैन धर्मं को नहीं मानते अपने धर्म को ही मानते है तो फिर ज़ज़ ने पूछा कि फिर जैन मंदिर में प्रवेश का अधिकार क्यों मांगते हो और ज़ज़ ने बोला कि नहीं मिलेगा अधिकार !
और ये फैसला सुनाने वाले वो ज़ज़ जैनेत्तर थे, तो ज़ज़ ने बोला की जिसको जैन धर्मं के प्रति श्रद्धा नहीं है उसको हम जैन मंदिर में प्रवेश करने का अधिकार नहीं दे सकते ! फिर इसके विपक्ष ने एक आन्दोलन और चल रहा था की सबको प्रवेश मिलना चाहिए, श्री जिनेन्द्र वर्णी जी चाहते थे की सबको अधिकार मिलना चाहिए उनका भाव आचार्य शान्तिसागर जी के भाव से अलग था “जब तिर्यंच भी जिनेन्द्र भगवान के दर्शन से सम्यक द्रष्टि बन जाता है ” तो फिर किसी को रोका क्यों जाये, लेकिन इस मामले में पंडित जगतमोहन लाल शाष्त्री जी शान्तिसागर जी के पक्ष में थे, और जब मुख्य मंत्री रविशंकर शुक्ल जी जो उस समय के मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री थे, वो पंडित जगतमोहन लाल शाष्त्री के मित्र थे तो उन्होंने बोला की ये तुम्हारे जैन समाज में ये कैसा झगडा चल रहा है , उन्होंने पूछा की प्रवेश करने क्यों नहीं देते तब पंडित जी ने बोला की हमारे मंदिर में माताये बेधड़क आकर धर्म ध्यान करती है, हमारे मंदिर में कभी भी अश्लील वातावरण नहीं होता, हमारे मंदिर की एक अनोखी अलोकिक पवित्रता है, आप किसी भी जैन मंदिर देखिये, हम उस पवित्रता को खंडित नहीं होने देना चाहते, हमारा विरोध नहीं है की कोई हमारे मंदिर में प्रवेश न करे, हम ये चाहते है की प्रवेश करना हो तो व्यसनों का त्याग करके प्रवेश करो, श्रद्धालु बनकर प्रवेश करो, भगवान् का भक्त बनकर प्रवेश करो, लेकिन वो ऐसा नहीं करना चाहते, इसलिए हम ये आन्दोलन कर रहे है, फिर मंत्री जी ने कहा ठीक है तुम्हारा आन्दोलन ! जब शान्तिसागर जी महाराज का कटनी में प्रवेश हो रहा था तो कुछ लोग चिंतित थे, उनके साथ जो यात्रा संघपति चल रहे थे उनके सामने वो बात राखी गयी की एक समस्या है की कटनी में हर वर्ष चूहों के कारण प्लेग [महामारी] पड़ता है, तो ये सुनकर संघपति मुस्कुराने लगे और बोले की आप अभी महाराज जी की महिमा को जानते नहीं हो जब महाराज जी कटनी में प्रवेश करेंगे तो यहाँ पर प्लेग नहीं पड़ेगा ! प्रोफेसर लक्ष्मी चंद जैन आज के हिन्दुस्तान के बहुत बड़े गणितज्ञ है, उनकी किताबे जापान के लोग भी पढ़ते है The Tao of Jain Sciences, उन्होंने बताया की उस समय मैं बालक था और हम सब बच्चे वह खेलरहे थे जब आचार्य शान्तिसागर जी हमारे कटनी गाँव में आये, और आचार्य श्री कुए के पाट पर बैठे तो असमान से चन्दन की वर्षा हुई थी, और उस चदन को उन्होंने हाथ में लेकर सूंघा था जो मंदिर वाला चन्दन होता है वही चन्दन था और फिर उसको हमने चखा भी था वही जैसे चन्दन थोडा सा कड़वा होता है वैसा ही स्वाद उसका था ! कटनी में 1994 में एक चन्द्र भान कवि थे उन्होंने बताया की जिस दिन शान्तिसागर जी महाराज आये और सबसे पहले उन्होंने उसी कुए के पाट पर प्रतिक्रमण किया था, तो वहा पर एक आम का पेड़ था उस पेड़ के नीचे उन्होंने प्रतिक्रमण किया, तो जिस डाल के नीचे बैठ कर उन्होंने प्रतिक्रमण किया था, चोमस स्थापित होने के बाद उस डाल पर आम के फल लगे थे, जो आम ग्रीष्म काल में लगते है वो महाराज जी की पवित्रता के कारण उस समय लग गए थे, और सही में दुबारा प्लेग की बीमारी कटनी में नहीं आई, उसके बाद कटनी में अब तक प्लेग नहीं पड़ा !
उनका मुनि जीवन 35 वर्ष का था जिसमे से आचार्य श्री ने 9338 निर्जल उपवास किये है जो की लगभग 27 वर्षो में होते है, और लगभग 3 बार सिंह-निष्क्रिडित नाम का तप किया: 1 आहार 1 उपवास, 1 आहार 2 उपवास, 1 आहार 3 उपवास और ये क्रम 9 उपवास तक चलता फिर 1 आहार 9 उपवास, 1 आहार 8 उपवास ऐसे पूरा क्रम होता है, आचार्य विद्यासागर जी जब विद्याधर थे तब उन्होंने वो आहार देखा था, आचार्य विद्यासागर जी बताते है की “लगता नहीं था की शान्तिसागर जी इतने उपवास के बाद आहार कर रहे है” पहली बार जो आचार्य श्री का नाम विख्यात हुआ वो जब आचार्य श्री कुन्नूर की गुफा में बैठे हुए थे, लोगो का ज्यादा ध्यान भी नहीं था, और अंग्रेजो का शासन था, तो उस समय महाराज जी उस गुफा में तपस्या कर रहे थे, तो एक भयंकर सांप आगया, और सांप धंटो तक पूरे शरीर पर क्रीडा कर रहा तभी पैरो में कभी गर्दन पर इस तरह, तो ये बात किसी तरह अखबार वालो को मालूम होगई की की ”आज के इस आधुनिक वैज्ञानिक युग में भी दक्षिण भारत में कोई नग्न बाबा दिगम्बर मुद्रा में ध्यान मुद्रा में मग्न रहते है और उनके शांत रूप वाले शरीर पर सांप अटखेलिया करते है” जब ये समाचार अखबार में प्रकाशित हुआ तो जैन समाज में तहलका मच गया, भुधरदास जी और बड़े बड़े कवियों ने “ऐसे गुरु कब मिली है” ऐसे भजन लिखे है, फिर पूरी भीड़ उमड़ पड़ी उनके दर्शन करने के लिए ! एक बार महाराज को एक ब्रह्मण मारने आगया तो भाग्य से कुछ लोगो ने पकड़ किया उसे तो पुलिस भी आगई, और उसे पकड़ कर पुलिस बोली अब बताओ बाबा इस दुष्ट का क्या करना है, तो महाराज जी बोले “जब तक आप इसको नहीं छोड़ोगे, तब तक मेरा अन्न जल का त्याग है” तो पुलिस वाला तो पानी-पानी हो ही गया तथा जो तलवार लेकर आया था उसके आँखों में आंसू आगये, और उसने महाराज के चरण पकड़ लिए और महाराज का परम भक्त बन गया !
एक बार द्रोणगिरी में आहार के लिए देर से उतरे तो लोगो ने पूछा “महाराज जी क्या आज आपका ध्यान ज्यादा लग गया था”, तो महाराज जी बोले “नहीं, एक प्राणी मेरे पास अगया था” , तो बोले कौन सा प्राणी तो महाराज जी बोले “हा एक शेर आगया था, “, आचार्य शांतिसागर जी महाराज की ऊँचाई 6 फुट 2 इंच थी, दिल्ली में एक घटना हुई थी, महाराज जी सुबह जंगल में जाते थे, तो फिर दस लोग उनके साथ चलते थे, एक दिन पंडित जगनमोहन लाल शास्त्री वह पहुच गए, और उन्होंने कुछ ऐसी बात देख ली, तो जाकर महाराज जी से शिकायत करदी, महाराज जी ये लोग आपके साथ भक्ति से नहीं चलते, इसके पीछे बहुत बड़ा रहस्य है, तो महाराज जी ने पूछा “क्या बात है क्यों चलते है” तो पंडित जी बोलते है की ये लोग आपको छुपा कर चलते है, तो महाराज जी बोले “मेरे को छुपा कर चलते है क्यों” तो पंडित जी बोले यहाँ पर अंग्रेजी ब्रिटिश शासन है तो यहाँ पर कोई भी नग्न अवस्था में निकल नहीं सकता, इसलिए ये लोग आपको छुपा कर चलते है, तो महाराज जी बोले “जब तीर्थंकरो के काल में दिगम्बर साधुओ का विचरण होता था तो ये अंग्रेजो के काल में क्यों नहीं हो सकता, कानून बदला जासकता है, धर्म में वो प्रभाव है” एक बात मुनि सुधासागर जी महाराज ने चारित्र चक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागर जी के स्मृति दिवस पर कहा था “ये गुप्त स्वतंत्रता सेनानी था हमारा शान्तिसागर गुरु” तो फिर जब महाराज जी को मालूम पड़ा की ये मेरी नग्नता को छुपाने के लिए मुझे घेर कर चलते है, तो फिर इन्होने अगले दिन कड़क आदेश दिया की अगले दिन मेरे साथ सिर्फ एक व्यक्ति चलेगा कमण्डलु लेकर, अब गुरु का आदेश था तो लोग कुछ भी नहीं कर सके और चुप रह गए, तो जब महाराज जी अगले दिन निकले एक व्यक्ति से साथ तो जब महाराज जी चोराहे पर पहुचे तो पुलिस अधिकारी के रोका, तो उन्होंने बताया की मैं दिगम्बर जैन साधू हूँ, लेकिन उस अधिकारी ने बोला नहीं जा सकते, तो महाराज जी ने पूछा क्या मैं वापस जा सकता हूँ तो उसने बोला नहीं जा सकते तो फिर महाराज जी ने बोला फिर मैं ध्यान में बैठता हूँ, तो महाराज जी वही चोराहे पर ध्यान में बैठ गए तो वह ट्राफिक जाम होगया, तो ये बात एकदम से बड़े बड़े पुलिस अधिकारी और सरकार तक पहुच गई तो फिर सरकार ने एक नया कानून पास किया, “दिगम्बर साधू को कोई रोकेगा नहीं, इस तरह भारत के एक एक प्रान्त में ये कानून पास होगया की दिगम्बर साधू को कोई रोक नहीं सकता ! शान्तिसागर जी महाराज पर सर्प ने दो बार उपसर्ग किया तथा इनके सामने शेर कई आया था मुक्तागिरी में, श्रवणबेलगोला में, सोनागिरी सिद्ध क्षेत्र में, द्रोणगिरी में इत्यादी ! आचार्य श्री प्रतिदिन आगम के 50 पन्नो का स्वाध्याये करते थे, आचार्य पद सम्डोली, महाराष्ट्र में प्राप्त हुआ था, गजपंथ सिद्ध क्षेत्र में आचार्य श्री को “चारित्र चक्रवर्ती” पद से विभूषित किया गया था, अपने गुरु आचार्य देवेन्द्र कीर्ति जी महाराज को पुनः दीक्षा देकर ये शान्तिसागर जी गुरु के गुरु कहलाये थे, पुनः दीक्षा का कारण ये था की जब आहार के लिए चटाई इत्यादि ओढ़ कर आते थे तो उनको इस बात का एहसास हुआ की ये जो कार्य दिगम्बर मुद्रा में किया है ये अनुचित है इसलिए हमें वापस दीक्षा लेना होगा, आचार्य शान्तिसागर जी महाराज ने णमोकार मंत्र के अठारह करोड़ जाप किये थे, धवल, महाधवल, जयधवल ग्रंथो को ताम्र पात्र पर खुदवा कर आचार्य श्री ने सिद्धांत ग्रंथो की रक्षा की थी, आज वो ताम्र पात्र फलटन में सुरक्षित है ! ”भगवान की वाणी पर पूर्ण विश्वास करो, इसके एक-एक शब्द से मोक्ष पा जाओगे। इस पर विश्वास करो। सत्य वाणी यही है कि एक आत्म-चिन्तन से सब साध्य है और कुछ नहीं है।