पुष्पदंत भगवान हैं , नवमें श्री जिनराज |
भक्तिभाव से में नमूँ, आत्मिक सम्पति काज ||१||
चालीसा उनका कहूँ , मेटें सर्व अरिष्ट |
रोग,शोक,सब दूर हों ,तुम ही प्रभु मम इष्ट ||२||
जय जय पुष्पदंत सुखदाता ,भविजन को सदबुद्धि प्रदाता ||१||
त्रैलोक्याधिपती कहलाए , सुर नर मुनिजन तुमको ध्यायें ||२||
पितु सुग्रीव मात जयरामा, काकंदी नगरी जगनामा ||३||
मात गर्भ जब आए स्वामी , तिथि फाल्गुन वदि नवमी मानी ||४||
मगशिर सुदि एकम तिथि प्यारी, जन्मे पुष्पदंत हितकारी ||५||
तीन लोक में खुशियाँ छाई ,स्वर्गपुरी तब ऊमड़ी आई ||६||
इक दिन उल्कापात देखकर, प्रभू विरागी हो गए तत्क्षण ||७||
जन्म तिथी में ली थी दीक्षा , मोह अरी हन धर जिनमुद्रा ||८||
कार्तिक सुदि द्वितिया तिथि आई , तब कैवल्यरमा परणाई ||९||
समवसरण में आप विराजे , दिव्यध्वनी सुन् भवि हर्षाते ||१०||
गिरि सम्मेदशिखर पर जाकर , सर्व अघाती कर्म नशाकर ||११||
स्वात्मसुधारस पान कर लिया , सिद्धशिला को प्राप्त कर लिया ||१२||
मुक्तिवधू पाकर हरषाए , इन्द्र मोक्षकल्याण मनाएं ||१३||
चार शतक कर तुंग जिनेश्वर , चन्द्र सद्दश आभायुत सुन्दर ||१४||
आयू थी दो लाख वर्ष की , चिन्ह मगर से जानें सब ही ||१५||
बहुत सुनी है तेरी महिमा , इसीलिए आए प्रभु शरणा ||१६||
काल अनादी से इस जग में , जीव भ्रमे है चारों गति में ||१७||
नवग्रह जिनशासन में बताए , प्राणी को सुख दुःख दिलवाएं ||१८||
उनमें से ग्रह शुक्र बखाना , जिसके स्वामी आपको माना ||१९||
इस ग्रह का यदि चक्र चल गया , समझो जीवन दुखी हो गया ||२०||
रोग,शोक, दुःख सभी सताएं ,मिथ्या मति में जीव भ्रमाए ||२१||
कलह कष्ट का करे सामना ,कोई युक्ति समझ आवे ना ||२२||
जप ले जो प्रभु नाम तुम्हारा , ग्रह के चक्र से हो छुटकारा ||२३||
सभी कष्ट क्षण में नश जाते, मेट असाता साता पाते ||२४||
भक्ति करे जो सच्चे मन से , पाप ताप भय संकट नशते ||२५||
विधिवत नवग्रह पाठ करो तुम , पूजन अर्चन से सुख लो तुम ||२६||
पूर्ण विधी से जाप्य मन्त्र हो , ग्रह की बाधा तुरत नष्ट हों ||२७||
प्रभुजी हम संसारी प्राणी , मूढ और सचमुच अज्ञानी ||२८||
यहीं पे सुख दुःख हमने माना , आत्मिक सुख किंचित नहिं जाना ||२९||
तव भक्ती सब कार्य करेगी , कौन सा इच्छित वर नहिं देगी ||३०||
नाम मंत्र जो जपे आपका , सर्व मनोरथ पूरे उसका ||३१||
जो स्तवन आपका करते ,सर्व विघ्न उसके हैं हरते ||३२||
श्रद्धा से जो प्रभु को ध्याता , रोग समूल नष्ट हो जाता ||३३||
पूजन करते हों भवि प्राणी , शोक निवारें अंतर्यामी ||३४||
में बालक तुम तात हमारे , जोड़ खड़े कर तेरे द्वारे ||३५||
व्यथा मेट दो अरज यह किया , पुष्पदंत प्रभु शरण तव लिया ||३६||
ऐसी निर्मल बुद्धी कर दो, देव शास्त्र गुरु में मन रत हो ||३७||
भव के अंतक हे जिनराजा ,जीवन की सब हरो असाता ||३८||
बीच भंवर में मेरी नैय्या , नाथ आप बिन कौन खिवैया ||३९||
प्रभु विनती बस एक हमारी , जीवन में भर दो उजियारी ||४०||
प्रभु पुष्पदंत जिन चालीसा जो चालिस दिन तक करते हैं |
विधिवत जाप्यानुष्ठान क्रियाविधि कर ग्रह बाधा हरते हैं ||
अंतर में ज्ञान उदय होता , जीवन मंगलमय हो जाता |
लौकिक वैभव संग ‘इंदु‘ भव्य,प्राणी आध्यात्मिक सुख पता ||