जिस प्रकार अचल दीपक सघन अंधकार को शीघ्र ही नष्ट कर देता है, उसी प्रकार मुनि का सुनिश्चल धर्मध्यान भी कर्मकलंक के समूह को शीघ्र ही नष्ट कर देता है। जिनके आदि का संहनन है और जो वैराग्यपदवी को प्राप्त हुए हैं, ऐसे पुरुष ही अपने चित्त को शुक्ल- ध्यान करने में समर्थ ऐसा निश्चल कर सकते हैं अर्थात् उत्तम संहनन वाला ही मुनि शरीर के छेदने, भेदने, मारने और जलाने पर भी अपनी आत्मा से उस शरीर को अत्यन्त भिन्न देखता हुआ चलायमान नहीं होता है। चित्राम की तरह मूर्तिवत् निश्चल रहता है। वही शुक्लध्यान का पात्र हो सकता है। जिसके प्रथम वङ्कावृषभनाराचसंहनन है, जो ग्यारह अंग और चौदह पूर्व का जानने वाला है, शुद्ध चारित्रवान् है, वही मुनि चारों प्रकार के शुक्लध्यानों को धारण करने के योग्य होता है। शुक्लध्यान का लक्षण-जो निष्क्रिय है, इन्द्रियातीत है और ‘मैं इसका ध्यान करूँ’ इस प्रकार के विकल्प से रहित है, जिसमें चित्त अपने स्वरूप के ही सन्मुख है, ऐसा आत्मा के शुचिगुण के संबंध से यह शुक्लध्यान कहलाता है। शुक्लध्यान के चार भेद हैं-पृथक्त्ववितर्व, एकत्ववितर्क, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरत- क्रियानिवृत्ति। इनमें से पहले के दो ध्यान तो छद्मस्थ योगी-बारहवें गुणस्थानपर्यंत श्रुतकेवलियों के होते हैं और अंत के दो ध्यान केवलज्ञानियों के ही होते हैं। पृथक्त्व वितर्क-जिसमें पृथक्-पृथक् रूप से श्रुतज्ञान बदलता रहता है अर्थात् अर्थ, व्यंजन और योगों का संक्रमण होता रहता है, वह प्रथम शुक्लध्यान है। एकत्ववितर्व-जिसमें अर्थ, व्यंजन आदि का संक्रमण न हो, जो एक रूप से ही स्थित हो, उसे एकत्व वितर्व कहते हैं। प्रथम शुक्लध्यान से मोहनीय कर्म का उपशम अथवा क्षय हो जाता है और द्वितीय शुक्लध्यान से बारहवें गुणस्थान में शेष तीन घातिया कर्मों का अभाव हो जाता है। वे योगी द्वितीय शुक्लध्यान से घातिया कर्मों का नाश करके लोकालोक प्रकाशी केवलज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं और नवकेवललब्धियों के स्वामी परमात्मा हो जाते हैं। समवसरण में विराजमान हुए वे भगवान बहुत काल तक भव्यों को धर्मोपदेश देते हुए अन्त में योग निरोध करते हैं। जो जिनदेव उत्कृष्ट आयु छह महीने की अवशेष रहते हुए केवली हुए हैं, उनके अवश्य ही समुद्घात होता है और जो छह महीने से अधिक आयु शेष रखते हुए केवली हुए हैं, उनके समुद्घात में विकल्प है अर्थात् हो या न भी हो। जब केवली भगवान की आयु अन्तर्मुहूर्तमात्र अवशेष रह जाती है, तब उनके बादर मनोवचन योग सूक्ष्म होकर बादरकाय योग भी सूक्ष्म हो जाता है तथा ‘सूक्ष्म वचन मनोयोग का निग्रह करके सूक्ष्म एक काययोग में स्थित हो जाते हैं, उनका वह ध्यान सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति कहलाता है। अनन्तर सूक्ष्म काययोग से रहित होते हुए केवली चौदहवें गुणस्थान में अयोगी कहलाते हैं। उनके उपान्त्य समय में चौथा व्युपरतक्रिया- निवृत्ति नाम का शुक्लध्यान प्रगट होता है, जिससे बहत्तर प्रकृतियों का नाश होकर अंतिम समय में शेष तेरह प्रकृतियों का विलय हो जाता है। इस चौदहवें गुणस्थान का काल लघु ह्रस्वाकार ‘अ इ उ ऋ ऌ’ के उच्चारणकाल प्रमाण है। इसके अनन्तर वे अयोगी भगवान कर्मों के बंधन से रहित होते हुए एक समय में ही ऊध्र्वगमन स्वभावी होने से लोक के अग्रभाग में विराजमान हो जाते हैं। लोकाग्र भाग से आगे धर्मास्तिकाय का अभाव होने से इनका आगे गमन नहीं होता है अत: वहीं सदा-सदा के लिए विराजमान हो जाते हैं। योगीश्वरों के पति श्री सिद्ध भगवान के ज्ञानरूपी सूर्य में भूत, भविष्यत्, वर्तमान तीनों कालसंबंधी समस्त द्रव्य पर्यायों से व्याप्त जो यह जगत है, सो एक ही समय में स्पष्ट प्रतिभाषित होता है, ऐसे सिद्ध भगवान हम लोगों को भी सिद्धिसुख प्रदान करें। इस अनुयोग में श्रावकधर्म और मुनिधर्म का किञ्चित् वर्णन किया है। विशेष जिज्ञासुओं को रत्नकरण्डश्रावकाचार, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, सागारधर्मामृत, मूलाचार, भगवती आराधना, चारित्रसार, आचारसार, अनगारधर्मामृत आदि ग्रंथों का स्वाध्याय करना चाहिए।