सुकौशल–माताजी! शून्यवाद किसे कहते हैं?
माताजी-एक सम्प्रदाय वाले हैं, वे कहते हैं कि जो कुछ भी चेतन-अचेतन पदार्थ दिख रहे हैं, वे कुछ नहीं, केवल कल्पना मात्र हैं। यह सारा जगत् ‘‘शून्यरूप’’ है कुछ है ही नहीं, केवल स्वप्न या इन्द्रजाल के समान सब प्रतिभासित हो रहा है। यहाँ तक कि इस शून्यवाद को सिद्ध करने में वह अनुमान का प्रयोग करता है, आगम से जोर देता है और कहता है कि आगम अनुमान आदि प्रमाण भी कल्पनामात्र हैं, ये वास्तविक नहीं हैं।
सुकौशल-वह अपने अस्तित्व को मानता है या नहीं?
माताजी-नहीं, वह कहता है कि हमारा अस्तित्व भी कल्पित ही है।
सुकौशल-ऐसा शून्यवाद तो बड़ा ही विचित्र है, जो कि अपने ही पैर पर अपने हाथ से कुठाराघात कर रहा है।
माताजी-आचार्य ने उससे प्रश्न किये हैं कि तुम्हारा शून्यवाद सिद्धान्त भी कल्पित है या अकल्पित? यदि कल्पित कहो, तब तो शून्यवाद कल्पित हो जाने से अस्तित्ववाद का अस्तित्व अपने आप सिद्ध हो जाता है और यदि कहो कि शून्यवाद अकल्पित सही है, तब तो एक चीज का अस्तित्व मान लेने से आप सर्वथा शून्यवाद नहीं रहते हैं।
सुकौशल–यह कौन सम्प्रदाय है?
माताजी-यह बौद्धों में एक भेद है जो कि बाह्य और अन्तरंग किसी भी वस्तु के अस्तित्व को नहीं मानकर सर्वथा शून्यवाद को कहता है।
सुकौशल–किन्तु वास्तव में तो यह शून्यवाद शून्य जैसा ही शून्य रह जाता है और आस्तिक्यवाद का अस्तित्व चमक उठता है क्योंकि जिस मत को सिद्ध करने वाले प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम आदि प्रमाण स्वयं शून्यरूप हों और अपने शून्यवाद के पक्ष को रखने वाला भी स्वयं शून्यरूप हो तथा शिष्यवर्ग सुनने वाले भी शून्यरूप होवें और तो क्या कहने वाले के वचन भी शून्यरूप होवें, पुन: शून्य से शून्य की सिद्धि भी कैसे होगी?
यदि झूठों की गवाही देने वाला भी झूठा ही हो और न्यायाधीश भी झूठे हों, तब यह झूठा है, इस बात की सिद्धि भी कैसे हो सकेगी?
माताजी-हाँ सुकौशल, तुमने सही समझा है, वास्तव में चेतन-अचेतन सभी पदार्थ विद्यमानरूप हैं। हाँ! जो संसार में संसारी जीवों के अनेक संबंध दिखते हैं और इनमें ये जीव राग-द्वेष-मोह करते हुए अपने आत्महित से च्युत हो रहे हैं, उनके लिए आचार्यों ने समझाया है कि ये धन, यौवन, प्रभुता आदि क्षणिक हैं, नियम से छूटने वाले हैं और ये पुत्र-मित्रादि के संबंध भी स्वप्न के सदृश असत्य हैं, काल्पनिक हैं, वास्तव में कोई किसी का नहीं है, जब एक जीव मरता है तो वहाँ जाकर नये कुटुम्बियों में आत्मीयता स्थापित कर लेता है और पिछले रोते-विलपते पुत्र-पौत्रों को याद भी नहीं करता है इत्यादि।
इसलिए इस संसार के सुख-दु:खों को कल्पनामात्र समझकर अपनी आत्मा की तरफ उन्मुख होना चाहिए।
यह आत्मा देहरूपी देवालय में विराजमान परमात्मा है अर्थात् शक्तिरूप में परमात्मा है। शुद्ध निश्चयनय से सिद्ध परमात्मा में और संसारी आत्मा में कोई भेद नहीं है, ऐसा समझकर उस आत्मस्वरूप को प्राप्त करने का पुरुषार्थ करना चाहिए।
सुकौशल-ठीक ही है। आत्मा के अस्तित्व को माने बिना कोई भी अपने आपको सुखी नहीं बना सकता है और अपनी आत्मा के समान दूसरों की आत्मा का अस्तित्व भी स्वीकार करना होगा, तदनुसार अचेतन द्रव्यों का अस्तित्व भी है ही है। हाँ, वैराग्य के लिए इनकी क्षणभंगुरता को समझकर इनसे ममत्व घटाकर पुन: इनसे हटकर अपने में ही सच्ची ममता करना चाहिए।
माताजी-हाँ बेटी! तुमने बहुत ही ठीक समझा है।