श्रमण—संस्कृति की अनमोल विरासत : जैन—पाण्डुलिपियाँ
प्रतिभा—मूर्ति प्रो. डॉ. हीरालाल जी के साथ मुझे राजकीय प्राकृत जैन विद्या एवं अहिंसा शोध संस्थान , वैशाली (बिहार) में लगभग ५ वर्षों तक एक साथ रहने का सौभाग्य मिला था वहाँ वे डाइरेक्टर थे और मैं लाईब्रेरियन । प्रतिदिन मेरा संध्या कालीन भ्रमण उनके साथ ही होता था। एक दिन प्रसंगानुसार उन्होंने एक बड़ी मार्मिक किन्तु प्रेरक घटना सुनाई। उन्होंने बतलाया कि इन्दौर—स्टेट के चीफ—जस्टिस जे.एल. जैनी, अजमेरे स्टेट के चीफ—जस्टिस अजितप्रसाद जैन, नागपुर के सबजज जमुनाप्रसाद कलरैया अमरावती के सिंघई पन्नालाल परवार तथा विदिशा के श्रीमन्त सेठ सिताराय लक्ष्मीचन्द्र जी के विशेष अनुरोध से षट्खण्डागमसूत्र की धवला—टीका के सन् १९३६ में जब वे सम्पादन—कार्य में व्यस्त थे तभी उनकी धर्मपत्नी बीमार हो गई । वे धवला—टीका की गरिमा और महिमा समझती थीं। उनकी बीमारी बढ़ते जाने से डॉ. सा. अत्यन्त चिन्तित हो उठे। उनकी एकाग्रता भंग हो गई। यह देखकरउनकी संवेदन शील धर्मपत्नी भी दुखी हो गई। उन्होंने डॉ. सा. से प्रार्थना की कि मैं तो जेसी हूँ सो ठीक हूँ। इस समय धवला—टीका के सम्पादन—कार्य में एकाग्रता पूर्वक कार्यरत रहिये। मेरी चिन्ता छोड़ दीजिये। अन्तत: उनका दुखद निधन हो गया। शोकाकुल वातावरण में उनका अग्निदाह किया गया किन्तु प्रज्जवलित चिता के सम्मुख उन्होंने दृढ़ संकल्प किया कि धवला—टीका के समग्र सम्पादन—अनुवाद एवं समीक्षा—कार्य के बाद ही मैं सन्तोष की साँस लूँगा और सचमुच ही उन्होंने एकाग्रता पूर्वक उसका सम्पादनादि कार्य सन् १९५९ में सम्पन्न कर दिखाया जो १६ खण्डों अर्थात् फुल साईज के लगभग ८००० पृष्ठों में प्रकाशित हुआ। यह उनका ही पुरुषार्थ एवं परिश्रम था कि धवला—टीका के सभी खण्डों को अपने सम्मुख पाकर न केवल श्रमण—समाज अपितु समग्र प्राच्य भारतीय विद्या—जगत आज गौरव का अनुभव करता है। कटनी—मुड़वारा (मध्यप्रदेश) के निवासी प्राच्यविद्या—प्रेमी रायबहादुर हीरालाल जी, जो कि तत्कालीन Central Provinces $ Berar की प्रशासनिक सेवा में कार्यरत थे। उनको तत्कालीन सरकार ने प्रदेश में यत्र—तत्र बिखरी हुई पाण्डुलिपियों की खोज, उनकी सुरक्षा एवं सूचीकरण कर मूल्यांकन का कार्य सौंपा था। तब रायबहादुर सा. ने डॉ. हीरालाल जी जैन का सहयोग माँगा था और उन्होंने पूर्ण सहयोग भी दिया था। फलस्वरूप वह महत्वपूर्ण—कार्य Discriptive Catalogue of Sanskrit and Prakrit Manuscripts in Centra Provinces and Bera के नाम से सन् १९२६ में प्रकाशित हुआ जिसके ८७६ पृष्ठों में वर्गीकृत पद्धति से मूल्यांकन कर कुल उपलब्ध १३८४३ पाण्डुलिपियों को ही वर्गों में विभक्त किया—(१) वैदिक साहित्य जिसमें ६९२। संस्कृत—पाण्डुलिपियाँ हैं तथा (२) जैन—साहित्य जिसमें ६९२२ प्राकृत पाण्डुलिपियाँ कुल १३८४३ पाण्डुलिपियाँ हैं। उसमें पाण्डुलिपियों की भाषा, ग्रन्थकार—्नााम, संक्षिप्त मूल्यांकन तथा शास्त्र—भण्डार के नामोल्ललेख तथा अन्त में कुछ ग्रन्थ—प्रशस्तियाँ प्रस्तुत की कई हैं। यह निस्सन्देह ही श्रमसाध्य महत्त्वपूर्ण कार्य था जो अगले गवेषकों के लिये एक आदर्श प्रेरक ग्रन्थ बनानागपुर यूनिवर्सिटी—गवर्नमेण्ट प्रेस १९२६ डॉ. हीरालाल जी छह फुट लम्बे, स्वस्थ, सुन्दर एवं सुडौल, स्वर्णाभ—शरीर, हँसमुख, उदार—हृदय और मधुर—भाषी सज्जनोत्तम व्यक्ति थे। संस्कृत, प्रकृत, अपभ्रंश हिन्दी और अंग्रेजी पर उनका अमानादिकार था। जब वे वैशाली में डाइरेक्टर थे, तब मुजफ्फरपुर स्थित बिहार विश्वविद्यालय तथा पटना विश्वविद्यालय में एवं वहाँ के अनेक कॉलेजों तथा रोटरी क्लव आदि में उन्हें भारतीय संस्कृति, इतिहास तथा जैनधर्म—दर्शन आदि विषयों पर भाषण देने हेतु निमन्त्रित किया जाता था और श्रोतागण मन्त्रमुग्ध होकर उनके भाषण सुना करते थे। उनके आकर्षक व्यक्तित्व से प्रभावित होकर कुछ तो उन्हें Prince of Walse के रूप में स्मरण करते थे। जब वे किंग एडवर्ड कॉलेज अमरावती (विदर्भ) में प्रोफेसर थे, तब वे कारंजा (विदर्भ) के सेन— गण शास्त्र—भण्डार को देखने गये। वहाँ सुरक्षित उन्हें तीन पाण्डुलिपियाँ बहुत रोचक लगीं—करकंड—चरिउ,णायकुमार—चरिउ एवं जसहर—चरिउ। इनमेें से जसहर—चरिउ की पाण्डुलिपि तो उन्होंने अपने परममित्र प्रो.डॉ. पी. एल वैद्य (सांगली—(महाराष्ट्र) कालेज के प्रोफेसर)को सम्पादन हेतु भेंट कर दी और बाकी दोनों पाण्डुलिपि का सम्पादन—अनुवादादि कार्य उन्होंने स्वयं किया। उक्त पाण्डुलिपियों का प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ (दिल्ली) से हुआभारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, डॉ. सा. अक्सर कहा करते थे कि आप जब भी कभी बाहर जावें तो वहाँ के मन्दिर के दर्शन अवश्य ही किया करें, साथ ही उसकी परिक्रमा भी लगाया करें क्योंकि वहाँ एक कोने में एक बोरे (थैले) में फटे—पुराने ग्रन्थ जीर्ण—शीर्ण पोथियाँ (पाण्डुलिपियाँ) भरकर उन्हें नदी, नहर या तालाब में विसर्जित करने के निमित्त में रखी रहती हैं। डॉ. सा.स्वयं भी एक बार एक देहात में अपने किसी कार्य—वश गये थे। उन्होंने वहाँ के मन्दिर के दर्शन कर परिक्रमा लगाई तो वहाँ एक कोने में पुरानी किताबों से भरा हुआ एक बोरा देखा। उसके ऊपर के दो—तीन पन्नों को उठाकर पढ़ा तो उसमें अपभ्रंश के दोहे लिखे थे। उन्होंने पूरे बोरे को ऊलटकर देखा तो उसके अनेक पन् ने मिल गये। सभी को झाड़—पोंछकर उन्हें सिलसिलेबार व्यवस्थित किया, तो वह मुनि रामसिंह (९वीं सदी) कृत अपभ्रंश—भाषा के पाहुड—दोहा की पाण्डुलिपि थी। डॉ. सा.ने उसका सम्पादन, अनुवाद एवं मूल्यांकन किया और सिद्ध किया कि वह जैन रहस्यवाद का अद्भुत ग्रन्थ है। सन्त कबीर का रहस्यवाद उक्त ग्रन्थ के जैन रहस्यवाद से प्रेरित प्रभावित हैजैन इतिहास की पूर्व पीठिका डॉ. हीरालाल जैन बम्बई, १९३९ इस रहस्यवादी ग्रन्थ का प्रकाशन सन् १९३३ में कांरजा (विदर्भ) से किया गया। उसकी सरसता, रोचकता, गुणवत्ता तथा अध्यात्मवादी रहस्यवाद के कारण कई भाषाओं में उसका अनुंवाद किया गया और कुछ विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों में भी उसे स्वीकृत किया गया। समय सीमित होने के कारण अधिक कहने का अभी अवसर नहीं। अत: संक्षेप में यही कहा जा सकता है कि डॉ. हीरालाल जी एक आदर्श महापुरुष थे। अपभ्रंश—जगत के वे युगप्रधान साधक थे और नई पीढ़ी के मार्ग—दर्शन के लिये रत्नदीप। उनके प्रति मैं नतमस्तक हूँ और बना रहूँगा। उन्हीं के बताए मार्ग पर चलकर मैंने पाण्डुलिपियों के सम्पादनादि के विषय में जो कुछ सीखा है उसे आप सभी के सम्मुख—‘‘श्रमण—संस्कृति की अनमोल धरोहर: जैन पाण्डुलिपियाँ’’ के माध्यम से प्रस्तुत करुँगा—
पाण्डुलिपि के महत्व
पाण्डुलिपियाँ किसी भी समाज एवं राष्ट्र के मौलिक चिन्तन, मनन, साधनापूर्ण—जीवन, साहित्यक प्रतिभा, समुन्नत सांस्कृतिक परम्परा की प्रतिबिम्ब तथा अगली पीढ़ियों के लिए उनके रचनात्मक विकास करते रहने के लिये सन्देश—वाहिका होती हैं। इस दृष्टि से प्राच्य भारतीय विद्या की समृद्धि अनुपम है। उसकी पाण्डुलिपियों में समाहित ज्ञान—विज्ञान एवं मनोविज्ञान के अक्षय—भण्डार ने सहस्राब्दियों पूर्व से ही विश्व को अपनी ओर आकर्षित किया है और अपनी बहुआयामी ज्ञान—गरिमा से भारत को उसने जगद् गुरु के पद पर प्रतिष्ठित किया है। संस्कृत, प्राकृत—अपभ्रंश—भाषा और जैन—विद्या से सम्बन्धित पाण्डुलिपियाँ उक्त प्राच्य भारतीय—विद्या के अभिन्न अंग के रूप में प्रतिष्ठित हैं। अपनी मौलिकता, गुणवत्ता, लोकोपकारी समन्वयी—वृत्ति आदि उनकी विशिष्ट पहिचान हैं। जैन—पाण्डुलिपियाँ, विशेषतया संस्कृत, प्राकृत—अपभ्रंश की मध्यकालीन पाण्डुलिपियों की यह विशेषता है कि उनके आदि एवं अन्त में विस्तृत प्रशस्तियाँ (Eulogies) तथा प्रत्येक संधि (अथवा अध्याय) के अन्त में पुष्पिकाए (Colophones) लिखने की परम्परा रही है, जिनमें कवियों का आत्म—परिचय तथा प्रेरक गुरुजनों,भट्टारकों, आश्रयदाताओं, नगर—श्रेष्ठियों की उदारता की चर्चाओं के साथ—साथ समकालीन राजाओं एवं सामन्तों का परिचय, विविध राजनैतिक सामाजिक एवं धार्मिक परिस्थितियों के संकेत—संदर्भ, पूर्ववर्ती एवं समकालीन साहित्यकारों तथा उनके साहित्य आदि के उल्लेखों के कारण वे राष्ट्र एवं समाज के विविध पक्षीय इतिहास—लेखन तथा राष्ट्रीय—अखण्डता एवं भावात्मक—एकता (National Unity and Emotional Integration) की प्रतीक भी बन गई हैं। इस प्रकार राष्ट्रीय इतिहास, संस्कृति एवं समाज के इतिहास को सर्वांगीण बनाने में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही है। इसके अतिरिक्त भी, उनमें—लेखन सामग्री में प्रयुक्त विविध लेखनोपकरण—(यथा—पत्र, कम्बिका, डोरा, लिप्यासन, छन्दण, मसी, लेखनी आदि) सामग्री एवं लिपि (Scripts) की विविध शैलियाँ, सचित्र पाण्डुलिपियों में प्रयुक्त चित्रणकला के विविध रंग एवं पात्रों की भाव—भंगिमाएॅ, चित्रकारों की कलात्मक अभिरुचि की अभिव्यक्ति, उनके विकास—क्रम की दृष्टि से भी उनका विशेष ऐतिहासिक महत्व है। सन् १९६० के दशक में मैंने पांडुलिपियों की खोज करने के निमित्त गुजरात की यात्रा की थी। वहाँ मुझे आचार्य सर्वानन्दसूरि (विक्रम संवत् की १४वीं सदी का प्रारम्भ) कृत एक पाण्डुलिपी मिली। जिसका नाम था जगडूचरित।वह एक ऐतिहासिक कृति है और इसके अनुसार वि.सं.१३१३ में गुजरात में भीषण अकाल पड़ा था।जगडूचरित—सर्वानन्द सूरि (१३ वीं सदी का पूर्वाद्र्ध,) इस चरित्र ग्रन्थ का नायक जगडूशाह गुजरात के भद्रेश्वर—ग्राम का निवासी था। एक दिन उसने घूमते समय एक बकरे के गले में रस्सी में बँधा हुआ एक पत्थर देखा, जिसे देखकर उसे कोई विशेष पत्थर के होने का आभास हुआ। अत: उसने उस बकरे के मालिक—गडरिये को मुँह माँगा मूल्य देकर उस पत्थर को खरीद लिया। उसे धो—धाकर उसने साफ किया और उसे बेचन के लिये जौहरी के यहाँ जा पहुँचा। जौंहरी बड़ा ईमानदार था। अत: उसने मूल्यांकन कर तथा सबसे बड़ा ओर कीमती हीरा समझकर जगडू से उसे एक लाख स्वर्णमद्राओं में खरीद लिया। अब तो जगडू का भाग्य ही जाग उठा। उसने प्रोेत्साहित होकर हीरा—मोती, माणिक्य आदि का व्यापार प्रारम्भ कर दिया। उसने विदेशों से भी आयात—निर्यात का कार्य प्रारम्भ कर दिया और शीध्र ही वह अपरिमित चल—अचल सम्पत्ति का स्वामी बन गया। इतना सब होने पर भी वह सरल—स्वभावी, निरहंकारी, सात्विक—जीवी और धर्मानुरागी बना रहा। जैनधर्मानुयायी होते हुए भी अनेक जीर्ण—शीर्ण मस्जिदों का जीर्णो द्वार कराया। अनेक हिन्दू—मन्दिरों का भी जीर्णोद्वार कराया। आवश्यकतानुसार जैन मन्दिरों का निर्माण कराया, जगह—जगह कुएँ, बाबड़ी और सरोवर भी बनवा दियें। इन सत्कार्यों के कारण वह सर्वत्र दानवीर जगडू—शाह के रूप में प्रसिद्ध हो गया। एक बार वहाँ एक जैन साधु पधारे। उन्होंने अपने एक प्रवचन में भविष्यवाणी की कि गुजरात में अगले वर्ष से तीन वर्षों तक अनावृष्टि के कारण भीषण अकाल पड़ेगा। यह घटना वि. सं. १३१३ (अर्थात् ईसवी सन् १२५६ अर्थात् १३वीं सदी) की है। संवेदनशील जगडू—शाह सावधान हो गया। उसने जनहित एवं राष्ट्र हिम में ७०० अनाज—भंडार सुरक्षित कर लिये और उनके मुख्य प्रवेश द्वार पर लिख दिया—
जगडू कल्प्यामास रंकार्थ कणान् अमून्।
अर्थात् गरीबों को नि:शुल्क—वितरण हेतु जगडू द्वारा ये अन्न—भण्डार सुरक्षित किये गये। और सचमुच ही वि.सं. १३१३ (ईस्वी सन् १२५६) में गुजरात भीषण अकालग्रस्त हो गया। भीषणता इसी से समझी जा सकती है कि एक दिरम (अर्थात् २५ पैसे) में चने के गिनकर १३ दाने मिलने लगे। जगडू ने पीड़ित जनता के लिये बिना किसी भेद—भाव के मुफ्त अनाज बाँटना प्रारम्भ कर दिया दूरवत् ती गरीब आदिवासियों के लिये ११२ नि:शुल्क भोजनालय चला दिये और करोड़ों लज्जापिण्डों (—लज्जाशील बहुबेटियों जो घर के बाहर निकलकर दान नहीं माँग सकती, उनके लिये बुँदियों के बड़े—बड़े लड्डुओं में कुछ—कुछ स्वर्णमुद्राएॅ भरकर) का वितरण करा दिया। इस प्रकार जगडू ने निस्वार्थ—भाव से लगभग ३,९९,६०,००० मन अनाज तथा लगभग १८ करोड़ स्वर्णमुद्राओं का वितरण कर प्रसन्न्ता का अनुभव किय। यह एक ऐतिहासिक घटना है किन्तु आधुनिक इतिहास—ग्रन्थों में इसका उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता। धन्य है महातपस्वी साधक—लेखक सर्वानन्दसूरि, जिन्होंने उक्त जगडू चरित निखकर उक्त प्रामाणिक ऐतिहासिक तथ्य को सुरक्षित कर दिया। ऐसी जैन —पाण्डुलिपि का तत्काल प्रकाशन आवश्यक है। १३वीं सदी के ही हरियाणा के महाकवि विबुध—श्रीधर में अपूर्व कवित्व शक्ति तो थी ही, वह कुछ घुमक्कड़ प्रकृति का भी था किन्तुं उसकी वह घुमक्कड़ प्रकृति रचनात्मक एवं सुक्ष्मेक्षिका—दृष्टि सम्पन्न थी। एक दिन जब अपनी एक अपभ्रंश—भाषात्मक चंदप्पहचरिउ (चन्द्रप्रभ—चरित) को लिखते—लिखते कुछ थकावट का अनुभव करने लगा, तो उसकी कुछ घूमने की इच्छा हुई। अत: वह पैदल ही युमनानगर होता हुआ ढिल्ली (तेरहवीं सदी में यही नाम प्रसिद्ध था) आ गया। ढिल्ली (दिल्ली) में सुन्दर—सुन्दर चिकनी चुपड़ी चौड़ी—चौड़ी सड़को पर चलते—चलते तथा विशाल ऊँची—ऊँची अट्टालिकाओं को देखकर प्रमुदित मन जब वह आगे बढ़ा जा रहा था तभी मार्ग में एक व्यक्ति ने उसके हाव—भाव देखकर उसे परदेशी और (अजनवी) समझा अत: जिज्ञासावश उससे पूछा कि तुम कौन हो और कहाँ जा रहे हो? तब उसने (अजनवी) यही कहा मैं हरयाणा—निवासी विबुध श्रीधर नाम का कवि हूँ। एक ग्रन्थ लिखते—लिखते कुछ थक गया था, अत: मन को ऊर्जास्वित करने हेतु यहाँ घूमने आया हूँ। यह प्रश्नकर्ता था अल्हण साहू, जो समकालीन दिल्ली के शासक अनंगपाल तोमर (तृतीय) की राज्यसभा का सम्मानित सदस्य था। उसने कवि को सलाह दी कि वह ढिल्ली के नगरसेठ नट्टल से अवश्य भेंट करे। साहू नट्ठल की ‘‘नगरसेठ’’ की उपाधि सुनते ही कवि अपने मन में रुष्ट हो गया। उसने अल्हण साहू से स्पष्ट कहा कि धनवान् सेठ लोग कवियों को सम्मान नहीं देते। वे कुद्ध होकर नाक—भौंह सिकोड़ कर धक्का—मुक्की कर उसे घर से निकाल बाहर करते हैं। यथा-………अमरिस—धरणीधर—सिर विलग्ग णर सरूव तिक्खमुह कण्ण लग्ग। असहिय—पर—णर—गुण—गुरूअ—रिद्धि दुव्वयण हणिय पर—कज्ज सिद्धि। कय णासा—मोडण मत्थरिल्ल भू—भिउडि—भंडि णिंदिय गुणिल्ल।।पासणाहचरिउ १/७आदि कहकर महाकवि ने नट्टल—साहू के यहाँ जाना अस्वीकार कर दिया। फिर भी अल्हण—साहू के बार—बार समझानपे पर वह नट्टल के घर पहुँचा तो नट्टल की सज्जनता और उदारता से वह अत्यन्त प्रभावित हुआ। भोजनादि कराकर नट्टल ने महाकवि से कहा— —मैंने यहाँ एक विशाल नाभेय (आदिनाथ का) मन्दिर बनवाकर उसके विशाल प्रांगण में मानस्तंम्भ बनवाया है। मन्दिर—शिखर के ऊपर पंचरंगी झण्डा भी फहराया है। यह कहने के बाद नट्टल साहू ने महाकवि से निवेदन कियाकि मेरे दैनिक स्वाघ्याय के लिये पासणाहचरिउ (पार्श्वनाथ—चरित) की रचना करने की कृपा करें। कवि ने उक्त नाभेय—मन्दिर में बैठकर उक्त ग्रन्थ की रचना कर दी जिसके लिये नट्टल ने कवि का आभार मानकर उसे सम्मानित किया। यह सब कुछ तो राजा अनंगपाल तोमर (तृतीय) के शासन—काल में हो गया था। किन्तु बाद में मुहम्मद—गोरी का शासन हुआ और उसकी मृत्यु के बाद उसका परम विश्वस्त गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक (वि. स. १२५०) जब ढिल्ली का शासक बना तब उसने नाभेय मन्दिर तथा अन्य मंदिरों को ध्वस्त करा कर उनकी सामग्री से कुतुबमीनार का निर्माण करा दिया तथा नाभेय—मंदिर के प्रांगण मे कुछ परिवर्तन कराकर उसे कुतुब्बुल—इस्लाम—मस्जिद का निर्माण करा दिया।पासणाहचरिउ की भूमिका, पृ. ३५ आधुनिक भारतीय इतिहास के ग्रन्थों में इस तथ्य का उल्लेख दृष्टि—गोचर नहीं हुआ। इतना अवश्य है कि ग्वालियर निवासी पं. हरिहरनिवास द्विवेदी ने मेरे उक्त ग्रन्थ की प्रस्तावना पढ़कर प्रसन्नता ही व्यक्त नहीं कि बल्कि अपने द्वारा लिखित शोध ग्रन्थ—‘‘कीर्तिस्तम्भ बनाम कुतुबमीनार’’(ग्वालियर—१९८०) में मेरी उक्त पाण्डुलिपि के उक्त तथ्य को स्वीकार करते हुए उसका अपने उक्त ग्रन्थ में सादर उपयोग भी किया। महाकवि अमरकीर्ति (वि.स.१२४४ के लगभग) कृत ‘‘णेमिणाह—चरिउ’’ भी कम महत्त्वपूर्ण पाण्डूलिपि नहीं जिसकी २५ सन्धियों के लगभग ४०० कडवकों में महाभारत—कथा, विशेष रूप से नेमिनाथ—चरित का सुन्दर सरस काव्य—शैली में वर्णन किया गया है। इसके अनुसार नेमिनाथ के चचेरे भाई श्रीकृष्ण के चरित्र का भी सरस और रोचक वर्णन किया गया है। महाकवि अमरकीर्ति ने अपनी ग्रन्थ—प्रशस्ति में अपना परिचय देते हुए बतलाया है कि उसके प्रेरक गुरु का नाम मुनिचन्द्रकीर्ति है, जो काष्ठासंघ माथुरागच्छ परम्परा के भट्टारक—विद्धान थे। उक्त पाण्डुलिपि की वि.स. १५१२ की प्रतिलिपि सोनागिर (दतिया, म.प्र.) के भट्टारकीय शास्त्र—भण्डार में सुरक्षित है। महाकवि लाखू अथवा लक्ष्मण कृत जिणदत्तचरिउ का आदर्श प्रेम—सम्बन्धी कथानक बड़ा ही रोचक है। उसके अनुसार जिनदत्त जुआ खेलने का व्यसनी था। वह जुए में ग्यारह करोड़ मुद्राएँ हार गया। फिर भी जुआ खेलना न छोड़ा और धीरे—धीरे अपनी धर्मपत्नी के नौ करोड़ मुद्राओं के मूल्य वाले हीरा माणिक आदि जवाहरातों से जड़ित गहनों को दॉव पर लगाकर हार गया। अत: वह अपनी धर्मपत्नी को घर में ही छोड़कर धनार्जन के बहाने दशपुर (मन्दसौर) आ गया और वहाँ के एक वणिक् सागरदत्त के साथ धनार्जन हेतु सिंहलदेश चला गया। वहाँ उसका विवाह सिंहल—नरेश की राज कुमारी के साथ हो जाता है। वहाँ से प्रचुर मात्रा धन—सम्पत्ति लेकर जब लौटने लगता है तभी उसका साथी सागरदत्त इर्ष्यावश उसे धोखे से समुद्र में गिरा देता हे और स्वयं उसकी पत्नी धन—सम्पत्ति लेकर अपने देश लौटता है। वह उसकी नव—विवाहित पत्नी से प्रेम करना चाहता है। किन्तु दृढ़—शीलवती होने के कारण उसे निराश होना पड़ता है और उधर जिनदत्त समुद्र पारकर सुरक्षित रूप में मणिद्वीप में पँहुचता है और वहाँ के राजा अशोक की राजकुमारी शृंगारमती के साथ विवाह कर लेता है और प्रचुर मात्रा में धनार्जन कर नवपत्नी शृंगारमी के साथ चम्पापुर लौट आता है जहाँ उसकी पूर्व पत्नियाँ श्रीमति एवं विमलमति से भेंट हो जाती हैं और उनके साथ सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करने लगता है। प्रस्तुत पाण्डुलिपि की विशेषता यह है कि इसमें पूर्ववर्ती जैनेतर ग्यारह कवियों के उल्लेख किये गये हैं। उक्त ग्रन्थ का महाकवि लाखू या लक्ष्मण एक छन्द—विशेषज्ञ कवि था क्योंकि उसने जंभेटिया, सोमराजी, पोमणी, मोणय, पंचामर आदि २५ प्रकार के छन्द्रों के प्रयोग किये हैं। उसकी कवित्व शक्ति का एक सुन्दर उदाहरण दृष्टव्य है उसका यमकालंकार युक्त आदि—मंगल पद्य देखिये जो इस इस प्रकार है—सप्पय—सर कलहंसहो हियकलहंसहो कलहंसहो सेयंसवहा। भणमि भुवण कलहंसहो णविवि जिणहो जिणयत्त—कहा।।अर्थात् मोक्षरूपी सरोवर के मनोज्ञ हंस, कलह के अंश को हरने वाले, करि—शावक (हाथी के बच्चे) के समान उन्नत कंधे और भुवन में मनोज्ञ हंस और आदित्य के समान जिनदेव की वन्दना कर मैं जिनदत्त की कथा कहता हूँ।देखें, आद्य प्रशस्ति प्रस्तुत पाण्डुलिपी का रचनाकाल उसकी प्रशस्ति के अनुसार वि.स.१२७५ की पौष कृष्णा षष्ठी रविवार स्पष्ट है। ग्रन्थ—प्रशस्ति के अनुसार ही महाकवि लाखू (लक्ष्मण) जायव (जादव या जायस) कुल में उत्पन्न हुआ था। उसके पिता का नाम साहुल श्रेष्ठी था जिसके सात भाई थे—अल्हण, गहल, सोहण, मइल्ल, रतन एवं मदन। ये सातों भाई और महाकवि लाख (लक्ष्मण) अपने परिवार के साथ पहले तो त्रिभुवनगिरि या तहनगढ़ के निवासी थे। उस समय उक्त नगर सुसमृद्ध और सर्वसाधन सम्पन्न था। किन्तु कुछ समय के बाद म्लेच्छाधिप मुहम्मदगोरी ने नगर को चारोें ओर से घेरा डालकर नृशंसता पूर्वक उसे तहस—नाहस कर डाला। उसके आतंक से आंतकित होकर वहाँ केसभी निवासी जन भाग गये। उसके साथ महाकवि लाखू को भी भागना पड़ा और वह सभी के साथ बिलरामपुर (एट, उत्तरप्रदेश) आकर बस गया। वहाँ के पौरपाट (पुरवार या परवार—) कुलोत्पन्न बिल्हण के पौत्र एवं जिनधर के पुत्र श्रीधर से कवि (लाखू) की मित्रता हो गई। श्रीधर की प्रेरणा एवं सहायता से कवि (लाखू) ने वि. सं.१३१३ में अपनी अन्य रचना—‘‘अणवयरयणपईव’’ की रचना की थी। अपभ्रंश—पाण्डुलिपियों का अध्ययन करने से विदित होता है कि कवियों को त्रेषठशलाका महापुरुषों में से तीर्थंकर चन्द्रप्रभ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ एवं तीर्थंकर महावीर के चरित अधिक प्रिय रहे हैं। बाकी पर इने—गिने चरित ग्रन्थ मिलते हैं। नेमिनाथ का चरित इसलिये विशेष प्रिय रहे हैं। बाकी पर इने—गिने चरित ग्रन्थ मिलते हैं। नेमिनाथ का चरित इसलिए विशेष प्रिय रहा है कि उसका सम्बन्ध महाभारत—कथा से रहा है। कौरवोें एवं पाण्डवों तथा कृष्ण एवं कंस के संघर्षों के कारण कवियों को वीर—रस के वर्णन के अवसर मिल जाते हैं, साथ ही प्रसंगानुसार शृंगार, करुण, रौद्र, वीभत्स और सर्वान्त में शान्तरस की अभिव्यंजना के अवसर मिल जाते हैं। इस दृष्टि से महाकवि धवल (ग्यारहवीं सदी) कृत हरिवंश पुराणु विशेष महत्त्वपूर्ण है। इसकी १२२ सन्धियों में महाभारत के पात्रों—यथा—कौरवों एवं पाण्डवों तथा श्रीकृष्ण एवं तीर्थंकर नेमिनाथ का सरस एवं रोचक वर्णन किया गया है। इसमें अपभ्रंश के पज्झटिका एवं अलिल्लह छन्दों का विशेष रूप से प्रयोग किया गया है। यद्यपि प्रसंगानुसार इसमें पद्धड़िया, सोरठा, घत्ता, जाति, विलासिनी और सोमराजि जैसे छन्दों के भी प्रयोग किए गए है। श्री कृष्ण एवं कंस के युद्ध का वर्णन देखिए कितना सजीव बन पड़ा है। इसमें बताया गया है कि प्रचण्ड चित्त वाले योद्धाओं के गात्र छिन्न—भिन्न होकर बिखर रहे हैं और धुनष—वाण हाथ में धारण किये हुए भाला चलाने में सक्षम शूरवीर प्रहार कर रहे हैं। फिर भी रोष, सन्तोष, हास्य—व्यंग्य और आशा से युक्त धीर—वीर योद्धा विचलित नहीं हो रहे हैं। यथा—महाचंड चित्ता भडा छिण्णा गत्ता धणुवाण हत्था सकुंता समत्था। पहारंति सूराण भज्जंति धीरा सरोसा सतोसा सहासा सआसा।हरिवंश पुराण, ९०/४और भी—……….. हणु—हणु मारु—मारु पभणंहि। दलिय धरत्ति रेणु णहि धायउ लहु पिसलुद्धउलुद्धउ आयउ। रहवउ रहहु गयहु गउ धाविउ धाणुक्कु परायउ। तुरउ तुरंगु कुरवग्ग विहत्थउ असि वक्खरहु लग्गुभय चत्तउ। वज्जहिं गहिर तूर हयहिंसहि गुलगुलंत गयवर बहु दीसहिं।।वही, ८९/१० अर्थात् युद्ध की भीषणता से युद्ध—स्थल विषम से विषमतर हो रहा है।सैनिकों की ‘‘मारो—मारो’’ की ध्वनियों से आकाश गूँज रहा है। रथवाले—रथवाले की ओर, घुडसवार घुडसवारोें की ओर तथा गजवाले गजवालों की ओर दौड़ जा रहे हैं। धनुर्धारी धनुर्धारियाँ की ओर झपटे जा रहे हैं। रणभेरी जोरों से बजाई जा रही है, घोड़े हिनहिना रहे हैं और गजराज चिंघाड मार रहे हैं। प्रस्तुत पाण्डुलिपि की प्रशस्ति ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि उसमें दो दर्जन के लगभग पूर्ववर्ती कवियों एवं उनकी रचनाओं के उल्लेख किये गये हैं जो साहित्यिक—इतिहास के लेखन की दृष्टि से विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। कुछ नाम तो ऐसे हैं, जो आज विस्मृत के गर्भ में जा चुके हैं। ग्रन्थ एवं ग्रन्थकार—सूची निम्नप्रकार है—
कविचक्रवर्ती धीरसेन कृत सम्यक्त्व युक्त प्रमाण ग्रन्थ
देवनन्दि कृत — जैनेन्द्र व्याकरण वङ्कासूरि कृत — प्रमाण—ग्रन्थ महासेन कृत — सुलोचना—चरित रविषेण कृत — पद्म—चरित जिनसेन कृत — हरिवंश पुराण जटिलमुनिकृत — वरांगचरित दिनकरसेन कृत — अनंग चरित पद्मसेन कृत — पार्श्वनाथ चरित अम्बसेन कृत — धर्माराधना—ग्रन्थ धनदत्त — चन्द्रप्रभचरित विष्णुसेन — अनेक ग्रन्थों के रचियता सिंहनन्दि कृत — अनुप्रेक्षाग्रन्थ नरदेव कृत — णवकार—मंत्र सिद्धसेन कृत — भविकविनोद—ग्रन्थ रामनन्दि कृत — अनेक कथानक जिनरक्षित (जिनपालित) — धवलादि ग्रन्थ प्रख्यापक असग कृत — वीरचरित गोविन्द कवि कृत — सनत्कुमार चरित शालिभद्र कृत — जीवोद्योत—ग्रन्थ चतुर्मख कवि — ग्रन्थ का उल्लेख नहीं द्रोण कवि — ग्रन्थ का उल्लेख नहीं सेढु महाकवि कृत — पउमचरिउ (दे. हिरवंश—आद्य प्रशस्ति) महाकवि धवल कासमय वि. सं. की ११वीं शती माना गया है। इस प्रकार पाण्डुलिपि की प्रतियाँ कारंजा (विदर्भ) जयपुर एवं दिल्ली के पंचायती जैन मन्दिर में उपलब्ध हैं। दिल्ली की पाण्डु लिपि त्रुटित बतलाई जाती है।
अपभ्रंश— पाण्डुलिपियों में कुछ उपेक्षित तोमरवंशी एवं चौहान—वंशी राजाओं की चर्चाए
महाकवि रइधू ने समकालीन प्राकृत, अपभ्रंश एवं हिन्दी में लगभग तीस ग्रन्थों की रचनाऐं की हैं, उनमें से अद्यावधि २२ पाण्डुलिपियाँ उपलब्ध हैं। उनकी आदि एवं अन्त की प्रशस्तियाँ ऐतिहासिक महत्व की हैं। उन्होने गोपाचल—शाखा ग्वालियर—शाखा) के ७ तोमरवंशी राजाओं का परिचय तथा उनके कार्य—कलापों का संक्षिप्त उल्लेख कर आधुनिक इतिहासकारों द्वारा विस्मृत तथा उपेक्षित उक्त गौरवशाली राजवंश के महत्व को मुखर किया है। रइधू के समकालीन गोपाचल (वर्तमान—ग्वालियर) के तोमरवंशी राजा डॅूगरसिंह तथा उनके पुत्र राजा कीर्तिसिंह, प्रशस्तियों के अनुसार वीर—पराक्रमी नरेश थे। उन्होंने गोपाचल के उत्तर में सैयदवंश, दक्षिण में मॉडों के सुल्तान, जौनपुर के शर्कियों एवं दिलावरखॉ—गोरी तथा हुशंगशाह—गोरी के छक्के छुड़ाकर गोपाचल—राज्य को निरापद बनाया था। राजा डूॅगरसिंह ने अपने को अजेय समझने वाले सुल्तान हुशंगाशाह को बुरी तरह पराजित कर उससे उसके खजाने के हीरे—मोती एवं माणिक्यों का अपरिमित्त कोष भी छीन लिया था। यहाँ तक कि उसके पास सुरक्षित जगप्रसिद्ध ‘‘कोहिनूर—हीरा’’ जो कि बाद में महारानी विक्टोरिया के राजमुकट में जड़ा गया, उसे भी राजा डॅूगरसिंह ने उससे छीन कर एक कीर्तिमान् स्थापित किया था। आधुनिक इतिहास—ग्रन्थों में इस नरेश की चर्चा नहीं मिलती। चौहान—वंश केवल दिल्ली तक ही सीमित न था, बल्कि उसके कुछ वंशजों ने चन्द्रवाडपत्तन (वर्तमान चंदवार, फिरोजबाद, उत्तर प्रदेश) पर भी शासन किया था। यह चौहान—परम्परा, राजा भरतपाल से प्रारम्भ होती है तथा उसकी ९वीं पीढ़ी में रामचन्द्र तथा उसका पुत्र रुद्रप्रतापसिंह चौहान (वि.स.१४६८—१५१०) हुआ। महाकवि रइधू की ग्रंथ—प्रशस्तियों के आधार पर इन चौहानवंशी नरेशों का अच्छा इतिहास तैयार किया जा सकता है। आधुनिक इतिहासकारों ने चन्द्रवाडपत्तन के इन चौहान—वंशी शासकों को सम्भवत: विस्मृत कर दिया है। १५वीं सदी में ग्वालियर—दुर्ग में जो अगणित जैन—मूर्तियों का निर्माण हुआ, वह महाकवि रइधू की प्रेरणा से, उनके भक्त नगर—सेठों के दान तथा तोमरवंशी राजा डूॅगरसिंह एवं उनके पुत्र राजा कीर्तिसिंह के आर्थिक सहयोग से लगभग ३३ वर्षो तक लगातार निर्माण—कार्य चलता रहा था। उनके समय में वहाँ इतनी अधिक—जैन—मूर्तियों का निर्माण कराया गया, कि रइधू को स्वयं ही उन्हें अगणित, असंख्य (गणण को सक्कई) कहना पड़ा था। ग्वालियर—दुर्ग मेें ही लगभग ८० फीट ऊँची कायोत्सर्ग—मुद्रा में एक पहाड़ी पर उकेरी हुई आदिनाथ की मूर्ति है, जिसका निर्माता राजा डूॅगरसिंह का प्रधान मंत्री कमलसिंह संघवी था तथा जिसका प्रतिष्ठा—कार्य महाकवि रइधू ने स्वयं किया था। उस पर अंकित मूर्ति—लेख के अध्ययन में सुप्रसिद्ध पुरातत्वविद् डॉ. राजेन्द्रलाल मित्रा ने अनेक भ्रमों को उत्पन्न किया है। किन्तु महाकवि रइधू कृत ‘‘सम्मत्तगुणणिहाण—काव्वं’’ नाम की पाण्डुलिपी की प्रशस्ति के आधार पर उन भ्रमों को भलीभाँति संशोधित किया जा सकता है।देखे, रहधू साहित्य परिशीलन भारतीय इतिहास का पूर्व—मध्यकाल विदेशियों के आक्रमणों का दु:खद काल था। इस समय विधि—व्यवस्था अत्यन्त शोचनीय थी। उस समय भारतीयता, भारतीय प्राच्य—विद्या के गौरव—ग्रन्थों तथा भारतीय गौरव की पुरातात्विक वास्तुओं की सुरक्षा तथा प्रतिष्ठा को बचा पाना भी कभी—कभी कठिन लगता था। उस समय का जन—जीवन अस्त—व्यस्त होने के कारण संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश एवं भारतीय—दर्शन के ऐतिहासिक मूल्य की अनेक प्राचीन महत्वपूर्ण पाण्डुलिपियाँ नष्ट—भ्रष्ट, लुप्त—विलुप्त एवं अनुपलब्ध हो गई।
जैन ग्रंथ—प्रशस्तियों में सन्दर्भित कुछ विस्मृत ग्रंथ एवं ग्रंथकार
फिर भी, उपलब्ध जैन—पाण्डुलिपियों की प्रशस्तियों में उल्लिखित संदर्भों के आधार पर संस्कृत एवं प्राकृत के विस्मृत, उपेक्षित एवं अज्ञात अनेक साहित्यकारों एवं उनके साहित्य की खोज की जा सकती है। उनकी सूची बहुत विस्मृत है। किन्तु उसे समग्र रूप में प्रस्तुत कर पाना तो यहाँ सम्भव नहीं, किन्तु उदाहरणार्थ कुछ विशेष संदर्भ यहाँ प्रस्तुत किये जा रहे हैं—
भट्टारकों के ऐतिहासिक योगदान
श्रवण—परम्परा के संरक्षण एवं विकास में श्रद्धेय भट्टारकों के योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता। यद्यपि इनका इतिहास बड़ा—ही प्रेरणादायक एवं रोचक है। किन्तु उसके विस्तृत कथा— कथन का यहाँ अवसर नहीं। दक्षिण—भारत में ताड़पत्रीय पाण्डुलिपियों तथा उत् तर—भारत में कर्गलीय पाण्डुलिपियों के रूप में विविध विषयक जैन साहित्य सुरक्षित रह सका तथा नये—्नाये ग्रंथो का जो लेखन—कार्य चलता रहा, उसका अधिकांश श्रेय उन महामहिम भट्टारकों को ही है, जिन्होंने अपने दिशा—निर्देशक एवं उत्साहवर्धक कार्य—कलापों से समाज एवं साहित्यकारों को निरन्तर जागरूक बनाये रखने के अथक प्रयत्न किये। मध्यकाल में विदेशी आक्रान्ताओं तथा स्थानीय विद्धेषियों नेजैन—साहित्य, मूर्तियों एवं मन्दिरों का जो विध्वंस किया, उसका इतिहास भयावह है, किन्तु इन भट् टारकों ने उसकी क्षतिर्पूित करने के प्रयत्न कर जो नव—निर्माण किया तथा करवाया, उसका शानदार इतिहास कभी भी विस्मृत नहीं किया जा सकता। महाकवि रइधू ने समकालीन १३ भट्टारकों के नामोल्लेख एवं उनके कार्यकलापों की संक्षिप्त चर्चा की है, जो सभी काष्ठासंघ, माथुरगच्छ एवं पुष्पकरगण—शाखा के थे। रइधू के अनुसार ये सभी भट्टारक परम तपस्वी, प्रतिभा—सम्पन्न विद्धान् थे। इन भट्टारकों में से दो के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। एक तो भट्टारक यश: कीत्र्ति, जिन्होंने रइधू को प्रेरित और उत्साहित कर उनके कविरूप को जागृत किया जो आगे चलकर अपभ्रंश—साहित्य के महाकवि के रूप में प्रतिष्ठित हुये और जिनकी ३० रचनाओं में से अद्यावधि २२ रचनाएॅ उपलब्ध हैं किन्तु उनमें से अधिकांश अद्यावधि अप्रकाशित ही हैं। उक्त भट्टारक (यश:कीर्ति) ने गोपाल—दुर्ग के समीपवर्ती पनियार के जिन—मन्दिर में बैठकर स्वयं तो अपभ्रंश में पाण्डव—पुराण (३५ संधियों), हरिवंश—पुराण (१३ संधियों), जिणरत्ति—कहा एवं रविवय—कहा नाम की रचनाएँ लिखीं हीं, उन्होेंने अत्यन्त—जीर्ण—शीर्ण एवं जर्जर हुये महाकवि स्वयम्भू कृत रिटठणेमिचरिउ तथा पउमचरिउ,संस्कृत भाषा का भविष्यदत्त—काव्य एवं विबुध श्रीधरकृत अपभ्रंश—भाषा के सुकुमालचरिउ,का उद्धार भी किया। यदि यश:कीर्ति ने इनका उद्धार न किया होता, तो साहित्यिक इतिहास से ये सभी गौरव—ग्रन्थ सदा—सदा के लिये लुप्त हो गये होते। दूसरे भट्टारक हैं, शुभचन्द्र, जो भट्टारक कमलकीर्ति के शिष्य थे। कवि रइधू के अनुसार कमलकीर्ति ने सिद्ध—क्षेत्र सोनागिरि में एक भट्टारकीय—पट्ट की स्थापना की थी, जिस पर भट्टारक—शुभचन्द्र को पद—स्थापित किया गया था। पट्टाधीश होने के बाद उन्होेंने पाण्डुलिपियों की सुरक्षा, साहित्य—प्रणयन एवं श्रमण—संस्कृति के विकास में महत्वपूर्ण योगदान किया। आश्चर्य है कि वर्तमान में काष्ठासंघ, माथुरगच्छ एवं पुष्पकरगण का वह पट्ट सोनगिरि में उपलब्ध नहीं है। वह कहाँ स्थानान्तरित कर दिया गया, इसकी खोज करने की आवश्यकता है।
जैन पाण्डुलिपियों की प्रशस्तियों में उल्लिखित समकालीन शासकों के तिथिक्रम आदि
भारतीय इतिहास के ग्रंथों में उल्लिखित मध्यकाल के अनेक हिन्दू एवं मुस्लिम—शासकों के नाम एवं उनके शासन—काल की तिथियों, कुछ प्रशस्तियों एवं पुष्पिकाओं के आधार पर उनका भलीभाँति संशोधन किया जा सकता है। उनमें से कुछ के नाम, उनके प्रशासन—स्थल एवं उनके प्रशासन—वर्षों की सूचनाएॅ निम्न प्रकार उपलब्ध होती हैं—
कुछ महत्त्वपूर्ण उपलब्ध जैन—पाण्डुलिपियाँ
हमारी जो सहस्रों पाण्डुलिपियाँ नष्ट—भ्रष्ट हो चुकी हैं अथवा जो सात समुद्र—पार विदेशों अथवा हिमालय को लाँघ कर चीन, मंगोलिया और तिब्बत आदि देशों में ले जाई जा चुकी हैं, वे तो अब अपने—अपने भाग्य पर जीवित रहने या मृत हो जाने के लिये विवश हैं। किन्तु अभी हजारों —हजार की संख्या में जो पाण्डुलिपियाँ भारत में उपलब्ध हैं, उनमेें से अधिकांश का वैज्ञानिक सूचीकरण तक नहीं हो पाया है, उनके मूल्यांकन एवं प्रकाशन की बात तो अभी दूर ही है। इस कारण इतिहास के कुछ पक्ष अभी तक प्रच्छन्न, अविकसित या भ्रमित ही पड़े हुये हैं। इधर, कुछ स्थानों में सूचीकरण के प्रसंगों में कुछ ऐसी पाण्डुलिपियाँ भी प्रकाश में आई हैं, जो शोधार्थियों के लिये नया—प्रकाश देने में समर्थ हैं। इनमें से एक पाण्डुलिपि है— श्रावक निर्मलदास कृत ‘‘भाषा—पंचाध्यान’’ जिसमें २००० पद्य हैं। उसकी आद्य—प्रशस्ति में उसे पंचतंत्र तथा अन्त्य—प्रशस्ति में पंचाख्यान—भाषा कहा गया है और यह बतलाया गया है कि जो व्यक्ति इस पंचाख्यान—ग्रन्थ का अध्ययन करेगा, वह राजनीति में निपुण हो जायेगा। यथा—सुनो—सुनो हे श्रावक सकल नर सहाय मिल भविक सब। तुम्हरे प्रसाद यह उच्चरों पंचतंत्र की कथा इवं। पंचाख्यान कहें प्रकट ज्यों जाने नर कोय राजनीतिमें निपुण हुवै पृथ्वीपति सौं होय (अन्त्य—प्रशस्ति का अंश) इसका प्रतिलिपिकाल वि.सं. १७५४ (१६९७ ईसवी) है। अत: श्रावक निर्मलदास का रचनाकाल इसके पूर्व का सिद्ध होता है।देखे, साहित्य संदेश, आगरा, अगरचन्द नाहटा का लेख दिस. १९५६, पृ. २५२—२५३ उक्त प्रशस्ति में उल्लिखित पंचतंत्र का अपरनाम पंचाख्यान का यह उल्लेख हमारा ध्यान जर्मनी के प्राच्यविद्याविद् प्रो. जॉन हर्टेल के उस कथन की ओर आकर्षित करता है, जो उन्होंने लगभग नौ दशक पूर्व पं. विष्णु शर्मा कृत पंचतंत्र का सम्पादन करते समय कहा था। उनके कथनानुसार—‘‘वर्तमान में उपलब्ध ‘‘संस्कृत—पंचतंत्र’’ के पूर्व किसी जैन—लेखक द्वारा लिखित पंचक्खाण नामक प्राकृत का जैन कथा—ग्रंथ लोकप्रिय था। उनके अनुसार वर्तमान संस्कृत—पंचतंत्र उसी के आधार पर लिखित प्रतीत होता है।’’ प्रो. हर्टेल द्वारा उल्लिखित प्राकृत—पंचक्खाण या तो नष्ट हो गया है या देश—विदेश के किसी प्राच्य शास्त्र—भण्डार में अंधेरे में पड़ा हुआ प्रकाशन की व्यग्रता पूर्वक राह देख रहा है। ‘‘संस्कृत—पंचतंत्र’’ की लोकप्रियता भारत में ही नहीं बल्कि संसार के सांस्कृतिक दृष्टि से विकसित प्रमुख देशों में भी रही। उत्तर—मध्यकाल में उसके राजस्थानी, गुजराती एवं हिन्दी—अनुवाद तो हुये ही, विदेशी भाषाओं यथा—अरबी, फारसी, इटालियन, फ्रेंच, जर्मन, रूसी तथा अंग्रेजी में भी उसके अनुवाद प्रकाशित हुए हैं। इससे यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि उसने विश् व कथा—साहित्य को भी कितना प्रभावित किया होगा। जर्मनी में अनेक भारतीय पाण्डुलिपियाँ ले जाई गई हैं जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है, डॉ.वी. राघवन् के सर्वेक्षण के अनुसार विदेशों के विभिन्न ग्रंथोगारों में भारत की लगभग ५०००० पाण्डुलिपियां सुरक्षित हैं, जिनमें से अकेले बर्लिन में ही ३५००० भारतीय जैन एवं जैनेतर पाण्डुलिपियाँ सुरक्षित हैं और यह असम्भव नहीं कि प्राकृत पंचक्खाण भी बर्लिन में सुरक्षित हैं और सम्भवत: वह प्रो. हर्टेल के दृष्टिपथ से भी गुजर चुका हो? बहुत सम्भव है कि उक्त श्रावक निर्मलदास ने पूर्वोक्त प्राकृत—पंचक्खाण का ही हिन्दी—पद्यानुवाद किया हो? उसकी मूल प्रति की खोज आवश्यक है, क्योंकि उसकी उपलब्धि से जैन—कथा—साहित्य के इतिहास पर कुछ विशेष प्रकाश पड़ने की सम्भावना है।
जैन पाण्डुलिपि का प्राच्य फारसी भाषा में अनुवाद
जैन—साहित्य केवल प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, कन्नड़ आदि भाषाओं में ही नहीं लिखा गया, बल्कि उसकी लोकप्रियता गुणवत्ता एवं सार्वजनीनता के कारण प्राच्य विदेशी भाषाओं में भी उनका अनुवाद किया गया। प्राच्य—विद्याविद् प्रो. हर्टेल, डॉ. कालिदास नाग, डॉ.कालिपद मित्रा एवं डॉ. मोरिस विंटरनीज आदि के अनुसार यह तो सर्वविदित ही है कि जैनदर्शन एवं जैनकथाओं ने प्राय: समस्त सुबुद्ध देशों को आकर्षित एवं प्रभावित किया है। यहाँ हम अपने जिज्ञासु पाठकों के लिये फारसी—भाषा में अनूदित एवं विरचित कुछ उपलब्ध साहित्य की जानकारी दे रहे हैं, जो निम्न प्रकार है— १.आचार्य कुन्दकुन्द कृत—पंचास्तिकाय—पाहुड। २.सि.च.आचार्य नेमिचन्द्र कृत गोम्मटसार—कर्मकाण्ड (अनुवाद—मुंशी दिलाराम (समय—अज्ञात) ३.जिनप्रभसूरिकृत—ऋषभ—स्तोत्र (१४वीं सदी) ४.भानुचन्द्र—सिद्धिचन्द्रगणि कृत—आदित्यसहस्रनाम—स्तोत्र। एवं, ५.भानुचन्द्र—सिसद्धिचन्द्रगणि—भक्तामर—स्तोत्र—वृत्ति।
मुग़ल शासको द्वारा जैन साधको के सम्मान
यह तो सर्वविदित ही है कि जैनियों ने अपनी व्यावहारिक सूझ—बूझ वाणिज्य—कौशल, सार्वजनिक कार्यों के लिये दान में उदारता, लेखन—चातुर्य, सत्य निष्ठा, विश्वनीयता तथा शुद्धाचरण से अनेक हिन्दू तथा मुस्लिम—शासकों को प्रभावित किया है। उसकी सूचनाऐं मध्यकालीन जैन—पाण्डुलिपियाँ की प्रशस्तियों तथा आइने—अकबरी, शाहजहॉनामा तथा अन्य अनेक शाही—फरमानों से मिलती है। उनके अनुसार अनेक श्रावकों तथा श् वेताम्बर—जैन साधुओं के लिये उनकी ओर से श्रद्धा—समन्वित—सम्मान प्राप्त होता रहता था। समय—समय पर मुस्लिम—बादशाहों की ओर से उन्हें खुशफहम, नादिरज्जमा जहॉगीरपसंद, महोपाध्याय जैसी श्रेष्ठ उपाधियों से विभूषित किया गया। इस प्रकार के सम्मान—प्राप्त साधकों में आचार्य हीरविजयसूरि, भानुचन्द्र—सिधीचन्द्र—गणि, विजयसेनसूरी, उपाध्याय—जयसोम, साधुकीर्ति , दयाकुशल एवं महाकवि बनारसीदास आदि के नाम अग्रगण्य हैं। भानुचन्द्र—सिद्धिचन्द्र—गणि ने अकबर एवं जहॉगीर के विनम्र निवेदन पर फारसी—भाषा भी सीखी थी तथा बाणभट्ट कृत कादम्बरी के सारांश के अतिरिक्त कुछ जैन—कृतियों का फारसी में अनुवाद भी किया था, जिनमें भक्तामर—स्तोत्र वृत्ति, आदित्यसहस्रनाम—स्तोत्र एवं कुछ जैन—कथाओं का सम्राट अकबर समय—समय पर उनसे सस्वर पाठ सुना करता था। जैन—साधुओं के अनुरोध पर इन मुस्लिम—शासकों ने जैन—मन्दिरों को ध्वस्त न करने, पर्युषण—पर्व में प्राणि—हत्या तथा माँसाहार न करने तथा जजिया—कर माफ कर देने के लिए शाही—फरमान भी जारी किये थे।विशेष के लिए देखें, भानुचन्द्र—सिद्धिचन्द्र—गणि चरित (सिंधी सीरिज) कुछ समय पूर्व गुजरात के एक शास्त्र—भण्डार में पाण्डुलिपि ऐसी भी मिली है, जिसमें फारसी—लिपि में तीर्थंकर ऋषभदेव का स्तवन किया गया है, उसके लेखक पं. उदयसमुद्रगणि हैं। इस पाण्डुलिपि पर लेखन—काल अंकित नहीं है, किन्तु लिपि—शैली तथा कागज आदि देखनेसे यह १७वीं सदी की प्रतीत होती है। उसमें फारसी के साथ—साथ कुछ अरबी एवं देशी—अपभ्रंश—शब्दों का मिश्रण भी मिलता है।उसके ५वें पद्य का मूल—पाठ इस प्रकार है—महमद मालिक मंतरा ईब्राहित रहमाणु। ईह तुरा कुतावीआ में दिहि मुक्यल्पफरमाणु।।५।।तुलना कीजिए—बुद्धस्त्मेव विवुधार्चित—बुद्धिबोधात्। त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रय शंकरात्वात्। धातासि धीर…….उक्त पाण्डुलिपि में उसकी संस्कृत—टीका भी दी गई है, जिससे उक्त पद्य का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। वह निम्न प्रकार है— त्वं मदमदो विष्णु: ईब्रोहिमो ब्रह्मा रहमानो महेश्वर त्वमेव। अथ रहत्यागे इति चौरादिको विकल्पेनंतो धातु: रहित: रागद्वेषो त्यजतीत्येवं शक्त: शक्तिवरुसताच्छील्ये इत शासनङ् । आन्मोना आने मोन्त: णत्वे: कृते रहमाण इति रूपं। सर्वेऽपि देवास्त्वमेव मालिम: पण्डितों मम त्वं। इहं एषोऽहं, तुरा तव कुतावीआ लेखमालिक:। मे मे दिहि मम फरमाणु आदेशं देही, कि करवाणि अहं। पण्डितो हि शिष्यस्यादेश ददाति इति भाव: इस पद्य हिन्दी अनुवाद निम्न प्रकार होगा— —हे प्रभु, तुम्हीं महमूद अर्थात् संसार के प्राणि—रक्षक—विष्णु हो, तुम्हीं ईब्राहिम अर्थात् परमात्मा—गुणों के घर—ब्रहमा हो और तुम्हीं रहमान अर्थात् अष्टकर्मों के जाल से मुक्त करने वाले महेश्वर हो। तुम्ही देवाधिदेव हो, तुम्ही पण्डित हो और मैं तुम्हारा लेखक—सेवक हूँ। अत: तत्काल ही मुझे आज्ञा दो कि मैं क्या करूँ?
पाण्डुलिपि प्रेमी सम्राट शाहजहाँ
शाहजहॉनामा एवं अन्य सन्दर्भों के अनुसार सम्राट शाहजहॉ के पास ५० टन चाँदी के बर्तन तथा २५ टन सोने के बर्तन और ४० हजार पाण्डुलिपियाँ थी। किन्तु वह चाँदी सोने को उतना महत्व नही देता था जितना कि पाण्डुलिपियों को। आज वे पाण्डुलिपियाँ कहॉ हैं इसकी जानकारी नहीं मिलती।
पाण्डुलिपि प्रेमी टीपू सुल्तान
मैसूर—राज्य—शासक टीपू—सुलतान टाइगर ऑफ मैसूर के रूप में विख्यात था। उसके शासन—काल में विदेशी आकान्ताओं के कारण जन—जीवन बड़ा अस्त—व्यस्त हो गया था। इन विषमताओं के कारण मैसूर और दक्षिण भारत की पाण्डुलिपियों के नष्ट अथवा आगजनी के खतरों का अनुमान कर टीपू सुलतान ने राजस्थान के पाण्डुलिपियों के भण्डारों को अत्यन्त सुरक्षित मानकर उन्हें राजस्थान में भेज दिया था। वे वहाँ कहाँ सुरक्षित हैं? इसका पता नहीं चला। बहुत सम्भव है कि वे बीकानेर की अनूप लायब्रेरी में सुरक्षित हों? इसका पता लगाया जाना चाहिये।
पैदल तीर्थ यात्रा संबंधी जैन पाण्डुलिपि
अभी कुछ समय पूर्व एक पाण्डुलिपि ऐसी भी दृष्टि गोचर हुई, जिसमें सुरेन्द्रकीर्ति नाम के एक भट्टारक की रेशन्दीगिरि से श्रवणवेलगोल तक पैदल तीर्थयात्रा का वर्णन है।उक्त दोनों तीर्थों के मध्य में जितने भी जैन—तीर्थ थे, जैसे पूर्व के उदयगिरि—खण्डगिरि, तथा कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तर—प्रदेश, मध्यप्रदेश एवं बिहार के अधिकांश तीर्थ—क्षेत्रों की वंदना कर उन्होंने उनका आँखों देखा संक्षिप्त वर्णन किया है। उक्त भट्टारक का समय १८वीं सदी के आस—पास है। जैन—तीर्थों के इतिहास की दृष्टि से उस पाण्डुलिपि का जितना महत्व है, भारतीय इतिहास की दृष्टि से भी उसका उतना ही महत्व है। अत: ऐसी पाण्डुलिपि का तत्काल प्रकाशन आवश्यक है, क्योंकि वह हमारे लिए उसी प्रकार महत्वपूर्ण दस्तावेज सिद्ध हो सकती है, जिस प्रकार कि मेगास्थनीज, फाहियान, हयूनत्सांग, अलबेरूनी, फादर— माटंसेर्राट तथा जॉन मर्रे के यात्रा—वृत्तान्त। बहुत सम्भव है कि आज दिगम्बर जैन तीर्थों को लेकर दूसरों द्वारा जो नए—नए झगड़े खड़े किए जा रहे हैं, उनके समाधान में उक्त पाण्डुलिपि उपयोगी सिद्ध हो सकें। एतद्विषयक उपलब्ध श्वेताम्बर—साहित्य का तो अधिकांश: मूल्यांकन हो चुका है किन्तु दिगम्बर जैन साहित्य अभी तक प्राय: उपेक्षित जैसा ही पड़ा हुआ है। उत्तरमध्यकालीन जैन—पाण्डुलिपियों में उपलब्ध मलिकवाहण, मम्मणवाहण, द्रोहडोट्ट, पुक्खलावइ, हरिग्रहपुर, अहंगयाल, णाद, मेघकूडपुर, पुंडकूडपुर, पुंडरीकीणी, बडपुर, सालिग्राम, जैसे नगर अभी भी अपरिचित ही हैं, प्रल्हादनपुर कंगडदुर्ग, नगरकोट्ट, एवं त्रिगर्त जैसे नगर भी अभी तक अपरिचित जैसे ही हैं। इनकी खोज आवश्यक है। कुछ उत्तर—मध्यकालीन पाण्डुलिपियों से यह भी जानकारी मिलती है कि कॉगड़ा के आस—पास दिगम्बर तथा श्वेताम्बर जैन मन्दिर निर्मित थे किन्तु बाद में श्वेताम्बर मन्दिर तो बच गए, किन्तु दिगम्बर मन्दिर कैसे और कब नष्ट हो गये ? इसकी जानकारी नहीं मिलती।
अपभ्रंश पाण्डुलिपियों में वर्णित कुछ रोचक तथ्य
समस्यापूर्ति परम्परा अपभ्रंश—साहित्य में समस्य—पूर्ति के रूप में कुछ रोचक गाथाएॅ उपलब्ध होती हैं। इन समस्या—पूर्तियों के आयोजन राजदरबारों के समान्य—कक्षों में हुआ करते थे। इनका रूप प्राय: वही था, जो आज के Interview का है। व्यक्ति के बाहय—परीक्षण के तो अनेक माध्यम थे किन्तु, काव्य—कौशल, ऋजुता मृदुता, चतुराई, प्रतिभा, आशु—कवित्त, शब्दोच्चारण—शैली प्रत्युत्पन्नमतित्व आदि के परीक्षणार्थ समस्यापूर्ति की पद्धति प्रचलित थी। समस्या—पूर्ति संबंधी पद्यों से व्यक्ति के स्वभाव, विचारधारा, उसकी कुलीनता, परिवेश एवं वातावरण का भी सहज अनुमान लगा लिया जाता था। महाकवि रइधू कृत ‘‘सिरिवालचरिउ’’ (अपभंश, अप्रकाशित) में एक प्रसंग के अनुसार, कोंकणपट्टन—नरेश यशोराशि की १६०० राजकुमारियों में से आठ हठीली एवं गर्वीली राजकुमारियों ने प्रतिज्ञा की थी कि वे ऐसे व्यक्ति के साथ अपना विवाह करेंगी, जो उनकी समस्याओं की पूर्ति गाथा—छंद में करेगा। उनकी एक कठिन शर्त यह भी थी कि जो भी प्रतियोगी उनके सही और सार्थक उत्तर नहीं दे सकेगा, उसे शूली पर चढ़ा दिया जायेगा। फलस्वरूप, हीनबुद्धि व्यक्तियों ने तो उसमें भाग लेने का साहस ही नहीं किया और जो भी प्रतियोगी हेठी बाँधकर भाग लेने आये, उन्हें हारकर शूली का झूल जाना पड़ा। चम्पापुर—नरेश श्रीपाल अपनी यात्रा के समय जब यह समस्त वृतान्त सुनता है, तो वह भी अपना भाग्य अजमानें के लिए इस प्रतियोगिता में सम्मलित होने हेतु चल पड़ता है। राजदरबार में सर्वप्रथाम राजकुमारी सुवर्णदेवी उसके जिन समस्याओं की पूर्ति के लिए उससे अनुरोध करती है, उनमें से एक दो उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैंदेखें, सिरिवालचरिउ—८/६/१—८ (१) सुवर्ण देवी द्वारा प्रस्तुत—समस्या:—गउ पेक्खंतहु।(अर्थात् सब कुछ देखते ही देखते नष्ट हो जाता है) श्रीपाल द्वारा प्रस्तुत—पूर्ति:— जोव्वण—विज्जा—संपाहं किज्जई किंपि ण गव्वु। जम रुट् ठइणट्ठि एहु जगु गउ पेक्खंत हु सव्वु।। अर्थात् यौवन, विद्या एवं सम्पत्ति पर कभी गर्व नहीं करना चाहिए, क्योेंकि इस संसार में यमराज जब रूठ जाता है, तब सब कुछ देखते नष्ट हो जाता है। (२) समस्या :— पुण्णें लब्भई एहु। अर्थात् पुण्य से ही प्राप्त होते है। पूर्ति— विज्जा—जोव्वण—रूव—धणु—परियणु—णेह। बल्लहजण मेलावउ पुण्णें लब्भई एहु।। अर्थात् संसार में विद्या, यौवन, सौन्दर्य, धन, परिजनों का स्नेह एवं प्रियजनों का संयोग ये सब ‘‘पुण्य से ही प्राप्त होते है। इसी प्रकार अन्य हठीली राजकुमारियाँ भी श्रीपाल से कठिन से कठिन प्रश्न करती हैं किन्तु वह भी सहज स्वाभाविक एवं सटीक उत्तर देकर सभी का मन मोह लेता है। इस प्रकार की समस्यापूर्तियों में पौराणिक, आध्यात्मिक, सामाजिक एवं लौकिक सभी प्रकार के विषय रहते थे। श्रीपाल अपने शिक्षाकाल में गुरु—चरणों में बैठकर सभी विद्याओं में पारंगत हो चुका था, अत: राज—दरबार की इस जिटिल अन्तर्वीक्षा (Interviews) में वह उत्तीर्ण हो गया और उन सभी हठीली एवं गर्वीली राजकुमारियों के हृदय को जीत कर उसने उनके साथ विवाह रचा लिया। बुन्देलखण्ड में यह परम्परा आज भी कुछ परिवर्तित रूप में देखी जाती है। सात फेरे पड़ने के बाद जब वधु वर के साथ उसके जनमासे में लाई जाती है, तो दोनों पक्षों के लोग वर—वधु को अपने मध्य में बैठा लेते हैं। उसी समय वर—वधु से अनेक प्रकार के प्रश्न करता है और वधु अपनी योग्यतानुसार उनके उत्तर देती है। उसी प्रश्नोत्तरी से उपस्थित लोग वर—वधु की बौद्धिक चातुरी की परीक्षा कर उनके भविष्य को समझने का प्रयत्न करते हैं।
समाज में कवियों एवं प्रतिलिपि कारों के लिया आश्रयदन— मध्यकालीन जैन—साहित्य के निर्माण करवाने का अधिकांश श्रेय श्रावक—श्राविकाओं, श्रेष्ठियों राजाओं अथवा सामन्तों को है। उस समय श्रेष्ठिवर्ग एवं सामन्त राज्य के आर्थिक एवं राजनीतिक विकास के प्रमुख कारण होने से राज्य में सम्मानित एवं प्रभावशाली स्थान बनाये हुए थे। समय—समय पर उन्होनें साहित्यकारों को प्रेरणाएँ एवं आश्रयदान देकर साहित्य की बड़ी—बड़ी सेवाएँ की हैं। मध्यकालीन पाण्डुलिपियों की प्रशस्तियाँ इस प्रकार की सामग्री से भरी पड़ी हैं। इन आश्रयदाताओं की अभिरुचि बड़ी सात्विक एवं परिष्कृत पाई जाती है भौतिक समृद्धियों एवं भोग—विलास के ऐश्वर्यपूर्ण वातावरण में रहकर भी वे धर्म, समाज, राष्ट्र, साहित्य एवं साहित्यकारों के प्रति अपने उत्तरदायित्व को विस्मृत नहीं करते थे। राष्ट्रकूट—नरेश के महामात्य भरत, उनके पुत्र महामात्य नन्न, महासार्थवाह साहू नट्टल, साहू खेमसिंह एवं कमलसिंह संघवी प्रभृति आश्रयदाता इसी कोटि में आते हैं। ‘‘णायकुमारचरिउ’’ ‘‘जसहरचरिउ’’ तथा ‘‘तिसट्ठिमहापुराणपुरिसगुणालंकारु जैसे शीर्षस्थ अपभ्रंश—काव्यों के प्रणेता महाकवि पुष्पदन्त ‘‘अभिमानमेरू’’ ‘‘अभिमानचिन्ह तथा काव्यपिशाच जैसे गर्वीले और अद्भुत विशेषणों से विभूषित थे। उनकी ज्ञान—गरिमा की अतिशयता को देखते हुए उनके ये विशेषण सचमुच ही सार्थक प्रतीत होते हैं। उनका साहित्यिक अभिमान एवं स्वाभिमान, विश्व—वाङ्मय के इतिहास में अनुपम है। उनकी प्रशस्ति के अनुसार एक बार उन्होंने सरस्वती को भी चुनौती दे डाली थी और कहा था—हे सरस्वती, मैं ही तुम्हें आश्रय—दान दे सकता हूँ। मुझे छोड़कर तुम जाओगी कहाँ? एक राजदरबार में अपमानित हो जाने पर उस वाग्विभूति ने अपने स्वाभिमान की रक्षा करने हेतु तत्काल ही अपना राजसी निवास त्याग दिया था और उसी दिन राज्य की सीमा छोड़कर जंगल में डेरा डाल दिया था। वहाँ निर्जन—वन में उन्हें एक वृक्ष के नीचे अकेला पड़ा हुआ देखकर अम्मइय और इन्द्र नामक राहगीरों द्वारा उसका कारण पूछे जाने पर उन्होंने स्पष्ट कहा था— ‘‘गिरि—कन्दराओं में घास खाकर रह जाना अच्छा, किन्तु दुर्जनों की टेढ़ी—मेढ़ी भौंहे सहना, अच्छा नहीं। माता की कोख से जन्मते ही मर जाना अच्छा, किन्तु किसी राजा के भ्रूकुंचित नेत्र देखना और उसके कुवचन सुनना अच्छा नहीं, क्योंकि राजलक्ष्मी डुलते हुए चॅवरों की हवा से उनके सारे गुणों को उड़ा देती है अभिषेक के जल से उनके सारे गुणों को धो डालती है उन्हें विवेकहीन बना देती है और उन्हें मूर्ख बनाकर स्वयं ही दर्प से फूली रहती है। इसलिए, राज—दरबार, छोड़कर मैंनें इस बन में शरण ली है’’।महापुराण—१/३/३/५—५ राष्ट्रकूट—राजा कृष्णराज, (तृतीय) के महामंत्री भरत कवि पुष्पदन्त के आग्रेन—स्वभाव को भली—भाँति जानता था, फिर भी, उसे उस निर्जन वन से विनती करके अपने घर ले आया और सभी प्रकार का सम्मान एवं आश् वासन देकर साहित्य—रचना के लिए उसे प्रेरित किया था। ‘‘तिसट्ठिमहापुराणपुरिसगुणलंकारु’’ के प्रथम—भाग की समाप्ति के बाद कवि जब सहसा ही खिन्न हो उठा, तब भरत ने कवि से निवेदन किया ‘‘हे महाकवि, आजा आप खिन्न क्यों हैं? क्या काव्य—रचना में आपका मन नहीं लग रहा अथवा मुझसे कोई अपराध बना पड़ा या फिर अन्य कोई कारण है? आपकी जिह्वा पर तो सरस्वती का निवास है, फिर आप आप सिद्ध—वाणी—रूपी धेनु का नवरस—युक्त क्षीर हम लोगों के लिये क्यों नही वितरित कर रहे है’’।वही, ३८/३/६—१०, भरत की इस विनम्र—प्रार्थना एवं विनयशील—स्वभाव को देखकर फक्खड़ एवं अक्खड़ महाकवि पुष्पदन्त बड़ा प्रभावित हुआ और उसने बडी ही आत्मीयता के साथ भरत से कहा:— ‘‘हे भाई, मैं धन को तिनके के समान गिनता हूँ, मैं उसे नही लेता। मैं तो केवल अकारण प्रेम का भूखा हूँ और इसी कारण से तुम्हारे राजमहल में रुका हूँ।महाकवि पुष्पदन्त, पृ.८१इतना ही नहीं, कवि ने उसके विषय में पुन: लिखा है:— ‘‘भरत स्वयं सन्तजनों की तरह सात्विक जीवन—व्यतीत करता है, वह विद्या—व्यसनी है, उसका निवास—स्थान संगीत, काव्य एवं गोष्ठियों का केन्द्र बन गया है। उसके यहाँ उनके लिपिक ग्रन्थों की प्रतिलिपियाँ किया करते हैं, उसके घर में लक्षमी एवं सरस्वती का अपूर्ण समन्वय है।वही कमलसिंह संघवी गोपाचल—शाखा के तोमरवंशी राजा डॅूगरसिंह का महामात्य था। वह नगरसेठ तथा सािहत्यरसिक एवं कवियों के लिये आश्रयदाता भी। उसकी हार्दिक इच्छा थी कि वह प्रतिदिन किसी नवीन काव्य—ग्रन्थ का स्वाध्याय किया करे। अत: वह राज्य के महाकवि रइधू से निवेदन करता है:— ‘‘हे सरस्वती—निलय, शयनासन, हाथी, घोड़े, ध्वजा, छत्र, चॅवर, सुंदर रानियाँ रथ, सेना, सोना, चाँदी, धन—धान्य, भवन, सम्पत्ति, कोष, नगर, ग्राम, बन्धु—बान्धव, संतान, पुत्र, भाई आदि सभी मुझे उपलब्ध हैं। सौभाग्य से किसी भी प्रकार की भौतिक सामग्री की मुझे कमी नहीं, किन्तु इतना सब होने पर भी मुझे एक वस्तु का अभाव सदा से खटकता रहा है और वह यह कि मेरेपास काव्यरूपी एक भी सुन्दर मणि नहीं है। उसके बिना मेरा सारा अतुल—वैभव फीका लगता है। हे काव्यरत्नाकर, आप तो मेरे स्नेही बालमित्र हैं, अत: मैं अपने हृदय की गॉठ खोलकर आपसे सच—सच कहता हूँ, आप कृपाकर मेरे निमित्त एक काव्य—रचना कर मुझे अनुगृहीत कर दीजिए।सम्मत्तगुण, १/१४ महाकवि रइधू ने संघवी की प्रार्थना स्वीकार कर सम्मत्तगुण—विहाण—काव्य की रचना कर दी। उसकी प्रशस्ति में जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है कि कवि ने गोपाचल—दुर्ग की ८० फीट ऊँची आदिनाथ की मूर्ति की चर्चा भी की है जिसका निर्माण स्वयं कमलसिंह संघवी तथा प्रतिष्ठा—कार्य स्वयं महाकवि रइधू द्वारा सम्पन्न किया गया था।
कवियों के लिया सार्वजनिक सम्मान— अपभ्रंश—काव्य—प्रशस्तियों में विद्वान्—कवियों के सार्वजनिक सम्मानों की भी कुछ चर्चाएॅ उपलब्ध होती हैं।इनसे सामाजिक मानसिकता तथा उसकी अभिरुचियों का पता चलता है। पूर्वोक्त ‘‘सम्मत्तगुणणिहाणकव्य’’ की पाण्डुलिपि की प्रशस्ति से विदित होता है कि महाकवि रइधू ने जब अपने उक्त काव्य की रचना समाप्त की और अपने आश्रयदाता कमलसिंह संघवी को समर्पित किया, तब संघवी जी ने इतने आत्मविभोर हो उठे कि उसकी पाण्डुलिपिको लेकर नाचने लगे। इतना ही नहीं, उन्होंने उक्त कृति एवं कृतिकार दोनोें को ही राज्य के सर्वश्रेष्ठ शुभ्रवर्ण वाले गजराज पर विराजमान कर गाजे—बाजे के साथ नगर में सवारी निकलवाई और उनका सार्वजनिक सम्मान कर देश—विदेश के बहुमूल्य वस्त्राभूषणादि भेंट—स्वरूप प्रदान किये।वही, ६/३४ इसी प्रकार, एक अन्य वार्ता—प्रसंग से विदित होता है कि ‘‘पुण्णासवकहा’’ नामक एक अपभ्रंश—कृति की परिसमाप्ति पर उसके आश्रयदाता साधारण साहू को जब वीररस नामक द्वितीय पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई प्राप्ति हुई तब बड़ी प्रसन्नता के साथ साधारण साहू ने महाकवि रइधू एवं उनकी कृति ‘‘पुण्णासवकहा’’ को चौहानवंशी नरेश प्रतापरुद्र के राज्यकाल में चन्द्रवाडपट्टन में हाथी की सवारी देकर सम्मानित किया था।पुण्णासवव १३/१२/२ जैसा कि पूर्व में लिखा जा चुका है, महाकवि पुष्पदन्त ने महापुराण की प्रशस्ति में स्पष्ट कहा है कि भरत एवं नन्न के राजमहल में साहित्यकारों के साथ—साथ प्रतिलिपिकार भी प्रतिलिपियों का कार्य करते रहते है।महापुराण—संधि २१ की पुष्पिका महाकवि रइधू ने ग्रन्थ—प्रणेता एवं ग्रंथ के प्रतिलिपिक को समकक्ष स्थान दिया है। उन्होंने अपनी एक कृति में ग्रन्थ—प्रतिलिपि के निमित्त आर्थिक अनुदान देने की प्रवृत्ति को त्याग—धर्म एवं शास्त्रदान के अन्तर्गत माना है।धण्णकुमार—चरिउ २/७
विदेशों में भारतीय पांडुलिपियाँ— समय—समय पर विदेशों में भी पाण्डुलिपियाँ ले जाई गई है। कुछ विदेशी पर्यटक भी यहॉ से लौटते समय उन्हें यहाँ से लेते गये। बहुत कर यह भी सम्भव है कि पूर्वकालीन भारतीय उद्योगपति एवं पर्यटक यथा—चारूदत्त, श्रीपाल, भविष्यदत्त जिनेन्द्रदत्त साहू नट्टल प्रभृति श्रावक—सार्थवाह भी अपने—अपने स्वाध्याय हेतु अपने साथ कुछ पाण्डुलिपियों लेकर वहाँ के अपने साधर्मी भाईयों के स्वाघ्याय हेतु अपने साथ कुछ पाण्डुलिपियाँ लेकर वहाँ के अपने साधर्मो भाईयों के स्वाध्याय हेतु विदेशी चैत्यालयों में छोड़कर आए हों, तो कोई आश्चर्य नहीं। पूर्वोक्त डॉ.वी राघवन् के बाद महामान्य पं. हीरालाल जी दुग्गड़ (दिल्ली) ने कुछ अपने स्रोतों के आधार पर विदेशों में प्राच्य—पाण्डुलिपियाँ का विवरण प्रकाशित किया है। उसे यहाँ साभार प्रस्तुत किया जा रहा है। उनके अनुसार— १. लन्दन में अनेक ग्रन्थाकार हैं, जिनमें से अकेले एक ही ग्रंथाकार में लगभग १५०० हस्तलिखित भारतीय—ग्रन्थ हैं, जो अधिकांशतया संस्कृत एवं प्राकृत में हैं। अन्य ग्रन्थाकारों में इसी प्रकार के अनेक ग्रंथ सुरक्षित हैं। २. जर्मनी में भी शताधिक ग्रंथाकार हैं, जिनमें से अकेले बर्लिन में ही अनेक ग्रन्थागार हैं। इनमें से केवल एक ग्रन्थागार में ही १२००० भारतीय पाण्डुलिपियाँ हैं। अन्यत्र की पाण्डुलिपियों का हिसाब लगाना कठिन है। ३. अमेरिका के वािंशंगटन तथा बोस्टन नगर में ५०० से अधिक ग्रंथाकार हैं। इनमें से मात्र एक ही ग्रन्थागार में ४० लाख हस्तलिखित पाण्डुलिपियाँ है। उनमें में २० सहस्र पाण्डुलिपियाँ संस्कृत एवं प्राकृत की है, जो भारत से ले जाई गई हैं। ४. फ़्रांस में अनेक विशाल ग्रंथकार हैं, जिनमेें से पेरिस के एक विवलियोथिक ग्रंथगार में ४० ग्रंथ हैं। उनमें से १२ हजार ग्रंथ संस्कृत एवं प्राकृत के हैं, जो भारत से ले जाए गए हैं। ५. रूस में १५०० ग्रंथाकार हैं। उनमें से एक राष्ट्रीय ग्रंथाकार भी हे, जिसमें ४० लाख ग्रंथ हैं। उनमें से २२ हजार ग्रंथ संस्कृत एवं प्राकृत के हैं, जो भारत से ले जाए गए हैं। कातन्त्र—व्याकरण का प्रकाशन यद्यपि सन् १९वीं सदी के प्रथम चरण में ही हो चुका था तथा जैन पाठशालाओं में उसके अध्ययन—अध्यापन की व्यवस्था भी थी किन्तु धीरे—धीरे किन्हीं विशिष्ट कारणोें से वह परम्परा बंद हो गई और पाणिनी—व्याकरण ने उसका स्थान ले लिय। किन्तु कातंत्र—व्याकरण की अपनी विशेष गरिमा है। इसकी प्रचीनता तथा विशेषताओं का मूल्यांकन करते हुए सुप्रसिद्ध व्याकरण—शास्त्री डॉ. प्रभुदयाल अग्निहोत्री (कुलपति—जबलपुर विश्व विद्यालय) ने स्पष्ट कहा है कि ‘‘कातंत्र—व्याकरण’’ पाणिनी की परम्परा पर आश्रित न होकर उनसे पूर्ववत्र्ती—‘‘कालाप—व्याकरण’’ पर आश्रित था। पाणिनि और कात्यायन दोनों ने ही कलापी और शिष्य—परम्परा का उल्लेख किया है।’’ आगे वे पुन: कहते हैं कि ‘‘भाष्य में भी महार्वाित्तक के साथ ‘‘कालापक’’ शब्द आया है और उसके बाद तुरन्त ही पाणिनीय शास्त्र की चर्चा है। इससे अनुमान होता है कि पाणिनी के पूर्व ‘‘कलापी’’ की कोई व्याकरण— शाखा थी। कातंन्त्र—व्याकरण उसी पर आश्रित है।देखें, पंतजलि कालीन भारत (पटना १९६३), पृ. ६६—६७ कातंत्र—व्याकरण मयूरपिच्छी—धारी शर्ववर्म द्वारा विरचित है। विष्णुपुराण के अनुसार—‘‘दिगम्बरो मुण्डो बर्हिपिच्छिधरो’’ के कथन से स्पष्ट है शिर्ववर्म दिगम्बर—मुनि थे, जिसका पुरजोर समर्थन कातंत्र—व्याकरण के महारथी विद्वान् डॉ. जानकीप्रसाद द्विवेदी ने भी किया है। भारतीय व्याकरण—शास्त्र के सुप्रसिद्ध इतिहासकार पं. युधिष्ठिर मीमांसक ने उक्त शिर्ववर्र्म का काल पाणिनी से १५०० से पूर्व माना है। आचार्य भावसेन—त्रैविद्य के अनुसार—‘‘तीर्थकर ऋषभदेव की क्रमिक परम्परा से प्राप्त व्याकरणिक ज्ञान को कातंत्र अथवा कौमार या कलाप के नाम से संक्षिप्त सूत्र—शैली में सर्वप्रथम आचार्य शिर्ववर्म द्वारा ग्रंथित किया गया।’’ इस ग्रंथ की लोकप्रियता इसी से जानी जा सकती है कि युगों—युगों से अफगानिस्तान, काश्मीर, तिब्बत, भूटान, मंगोलिया, नेपाल, वर्मा, एवं श्रीलंका के विभिन्न पाठ् यक्रमों में यह ग्रन्थ निर्धारित था तथा उन—उन देशों की भाषा एवं लिपियों में इनकी विविध प्रकार की दर्जनों टीकाएॅ उपलब्ध हैं। १२वीं—१३वीं सदी से कातंत्र का अच्छा प्रसार हुआ। दुर्गसिंह एवं भावसेन—त्रैविद्य ने उस पर वृत्तियॉ लिखकर कातंत्र—व्याकरण के महत्व एवं उसके आन्तरिक—सौन्दर्य को प्रकाशित ही नहीं किया, बल्कि उन्होंने व्याकरण के क्षेत्र में एक ऐसे ‘‘कातंत्र—आन्दोलन’’ का सूत्रपात किया, जिसने कि बिना किसी आम्नायभेद के अनेक वैयाकरणों एवं साहित्यकारों को आकर्षित और समीक्षात्मक लेखन कार्य हेतु प्रेरित किया। अपभ्रंश—कवि भी उससे प्रभावित हुए बिना न रह सके। पासणाहचरिउ नामक—अपभ्रंश—महाकाव्य का लेखक बुध—श्रीधर (१३वीं सदी) जब हरयाणा से भ्रमण करने हेतु दिल्ली आया तो उसे वहाँ की सड़कें उतनी ही सुंदर लगी थीं जैसी की जिज्ञासुओं के लिये कातंत्र—व्याकरण की पंजिका—वृत्ति। उस कातंत्र—आन्दोलन का ही यह सुफल रहा कि पिछले लगभग ६—७ सौ वर्षों में देश—विदेशों में विविध टीकाएॅ भाष्य, वृत्तियॉ, टिप्पणियॉ और टीकाओं पर भी अनेक टीकाएॅ एवं वृत्तियॉ पर भी अनेक वृत्तियॉ एवं टिप्पनक आदि लिखे गये। एक प्रकार से यह काल वस्तुत: कातंत्र—व्याकरण के बहुआयामी महत्व के प्रकाशन का स्वर्णकाल ही था। इसकी सरलता, संक्षिप्तता, स्पष्टता लौकिकता तथा उदाहरणों की दृष्टि से स्थानीयता तथा स्थानीय समकालीन लोक—संस्कृति के साथ—साथ उसमें भूगोल, अर्थनीति, समाजनीति, राजनीति, आदि के समाहार के कारण वह ग्रंथ निश्चय ही विश्व—साहित्य के शिरोमणि—ग्रंथ—रत्न के रूप में उभर कर सम्मुख आया है। कातंत्र अथवा कालापक (अर्थात् कलाप—व्याकरण) के अध्येता छात्रों के समूह को देखकर उसकी लोकप्रियता का अनुभव कर महर्षि पतंजलि (ई.पू.तीसरी सदी) को अपने व्याकरण—महाभाष्य में स्पष्ट लिखना पड़ा था— ‘‘ग्रामे—ग्राम काठके कालापकं च प्रोच्यते। अर्थात् ग्राम—ग्राम नगर—नगर में कालापक अर्थात् का तंत्र—व्याकरण का अध्ययन कराया जाता है।देखें, कातन्त्र व्याकरण की शिष्य हितान्यास कृत टीका की भूमिका, पृ.१० (सं.—डॉ. रामसागर शास्त्री) प्रो. बेवर ने कातन्त्र—व्याकरण का मूल्यांकन करते हुए कहा है कि— ‘‘जो व्यक्ति प्राकृत—भाषा के माध्यम से संस्कृत—भाषा सीखना चाहते हैं, उनके लिये कातन्त्र—व्याकरण सर्वाधिक उपयोगी हैं’’ इसका सर्वप्रथम सम्पादन डॉ. सर विलियम जोन्स ने सन् १८०० ई. के आसपास किया था, जिसका प्रकाशन रायल एशियाटिक सोसाइटी बंगाल, कलकत्ता द्वारा किया गया। उक्त ग्रंथ के लेखक जैनाचार्य हैं किन्तु पंथ एवं साम्प्रदायिक संकीर्णताओं से परे रहने के कारण देश—विदेश में सर्वत्र उसकी प्रतिष्ठा हुई। उसकी लोकप्रियता का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि—उस पर देश—विदेश की विभिन्न भाषाओं एवं शैलियों में इतनी अधिक टीकाएॅ, वृत्तियॉ, भाष्य, चूर्णियॉ, अवचूरियॉ, अनुवाद तथा टीकाओं पर भी इतनी टीकाएॅ लिखी गई की विश्व—साहित्य में शायद ही उतनी टीकाएॅ एवं भाष्य आदि—साहित्य किसी अन्य ग्रंथ पर लिखा गया हो औरा इस कोटि का साहित्य अभी तक अप्रकाशित है, जो पाण्डुलिपियों के रूप में देश—विदेश के विभिन्न शास्त्र—भण्डारों में सुरक्षित है। उनमें में कुछ पाण्डुलिपियों का सूचीकरण भी हुआ है, जो निम्न प्रकार हैं— मध्यप्रदेश एवं बरार (विदर्भ में) — १८ पाण्डुलिपियाँ कारंजा (महाराष्ट्र) — ०७ पाण्डुलिपियाँ राजस्थान — ४० पाण्डुलिपियाँ गुजरात — ४५ पाण्डुलिपियाँ आरा (बिहार) — ०८ पाण्डुलिपियाँ भोट (भूटानी)—भाषा — २३ टीकाएॅ (पाण्डुलिपियाँ) तिब्बती—भाषा — १२ अनु. तथा २३ टीकाएँ (पाण्डुलिपियॉ) विद्धानों के सर्वेक्षणों के अनुसार देश—विदेश में कुल मिलाकर अभी तक उसकी लगभग २९८ पाण्डुलिपियों की सूचना मिली है।
हमारा त्रुटित तथा विस्मृत पाण्डुलिपि साहित्य— अपभ्रंश के आद्य महाकवि स्वयंभू कृत जैन महाभारत—कथा संबंधी आद्य अपभ्रंश ग्रंथ—‘‘रिट्ठणेमिचरिउ’’ दीर्ध प्रतीक्षा के बाद अब छप सका है। उसकी तथ पउमचरिउ की प्रशस्तियों में कवि ने अपने पूर्ववर्ती संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश के पूर्ववर्ती अनेक ऐसे जैन एवं जैनेतर महाकवियों के नामोल्लेख किए है, जिनमें से अधिकांश विस्मृति के गर्भ में जा चुके हैं। राजा—भोज के राज्यकाल में ११वीं सदी के कुन्द कुन्दान्वयी कवि नयनन्दी ने धारा नगरी के जिनवर—विहार में बैठकर अपने सुदंसणचरिउ के साथ ही ५८ संधि वाला अपभ्रंश—महाकाव्य ‘‘सयलविहिविहाणकव्व’’लिखा था। इसकी मध्य की १६ संधियॉ अर्थात् १५वीं से लेकर ३२वीं संधि तक का अंश नष्ट हो जाने के कारण अब वह ग्रंथ अपूर्ण ही रह गया है। उसकी प्रशस्ति में पूर्ववर्ती ३३ कवियों के नामोल्लेख हैं, किन्तु उनमें से अधिकांश के नाम एवं उनके ग्रन्थ साहित्यक इतिहास से सदा—सदा के लिए विस्मृत हो चुके है। महाकवि जयमित्र—हल्ल कृत अपभ्रंश—महावीरचरिउ की भी वही स्थिति है। उसकी बीच की ६ संधियॉ नष्ट हो जाने के कारण सन् १९७४—७५ में भ. महावीर के २५०० परिनिर्वाण समारोह—वर्ष में अपूर्ण रहने के कारण उसका प्रकाशन रोक दिया गया था। महाकवि वीर (१०वीं सदी),श्रीचन्द्र (११वीं सदी), विबुध—श्रीधर (१२वीं सदी), धवल (जिन्होंने १२२ संधियों में हरिवंशपुराण की रचना की, ११वीं सदी), गणि देवसेन (१२वीं सदी), कवि देवचन्द्र (१२वीं सदी), अमरकीर्ति (१३वीं सदी), लाखू अथवा लक्ष्मण (१३वीं सदी ), महाकवि सिद्ध (१३वीं सदी), धनपाल (१५वीं सदी), महाकवि रइधू (१५—१६वीं सदी), भट्टारक श्रुतकीर्ति (१६वीं सदी), कवि महिन्दु या महाचंद (१६वीं सदी), पण्डित भगवतीदास (१७वीं सदी), आदि सिद्धहस्त कवियों ने भी अपनी—अपनी रचनाओं में अपने पूर्ववत्ती अनेक साहित्यकारों एवं उनके साहित्य के नामोल्लेख किये है किन्तु वर्तमान में उनमें से अधिकांश की कोई जानकारी नहीं मिलती। कौन करेगा इन गौरव—ग्रंथों की खोज? भारत का सांस्कृतिक इतिहास तब तक अधूरा रहेगा, जबतक इन ग्रंथकारों एवं उनके साहित्य की खोज कर उनका मूल्यांकन नहीं कर लिया जाता।
जनाचार्यों द्वारा लिखित विषयक साहित्य— जैसा कि पूर्व में कहा जा चुका है कि हमारे महान् चिन्तक, साधक जैनाचार्य लेखकों ने ज्ञान—विज्ञान की शायद ही ऐसी कोई विधा हो, जिस पर लेखनी न चलाई हो। छन्दशास्त्र, व्याकरण, कला, संगीत, शिल्प, अलंकार, व्याकरण, आयुर्वेद, गणित, ज्योतिष, सप्त—तत्व, षड्द्रव्य, दर्शन, कर्मवाद, लोकाचार, यहाँ तक कि पाकशास्त्र, सूपशास्त्र, जीव—विज्ञान, वनस्पति—विज्ञान आदि के क्षेत्र में भी उत्कृष्ट—कोटि के ग्रंथ लिखे हैं। हंसदेव नामक एक जैनचार्य ने तो मृग—पक्षिशास्त्र नामक १९०० श्लोकों वाले ३६ सर्गों में एक ग्रंथ लिखा, जिसमें २२५ प्रकार के भारतीय पशु—पक्षियों की भाषा एवं मनोविज्ञान का विश्लेषण किया गया है। इससे जैनेतर—समाज ने भी प्रकाशित एवं प्रचारित कर प्रसन् नता का अनुभव किया है।देखें सरस्वती अक्टूबर १९४१ इसी प्रकार जैनाचार्य उग्रादित्य (१०वीं सदी) ने अपने ‘‘कल्याणकारक’’ नामक आयुर्वेद के पुष्पायुर्वेद—प्रकरण में २५००० प्रकार के भारतीय—पुष्पों की चर्चा की है, जब कि वर्तमानकालीन सर्वेक्षणों में केवल १८००० जाति के पुष्प ही मिलते हैं, बाकी की पुष्प—जातियाँ नष्ट हो चुकी हैं। एतद्विषयक अन्य अनेक पाण्डुलिपियाँ भी विभिन्न शास्त्र—भण्डारों में सम्भावित हैं।
मूलाचार के संपादन में व्यस्त अल्सोडफर परिवार— सन् १९७४—७५ में वीर—निर्वाण—भारती—पुरस्कार—सम्मान ग्रहण करने के बाद मैं पूज्य मुनि श्री विद्यानन्द जी की सेवा में जैनबालाश्रम, दरियागंज, दिल्ली दिल्ली में बैठा था, उसी समय डॉ. ए. एन. उपाध्ये जर्मनी के प्रसिद्ध विद्वान् डॉ. आल्सडोफोर्ड को अपने साथ में लेकर आये। आल्सडोफोर्ड को दिगम्बर जैन साधु के साक्षात् दर्शन करने की तीव्र इच्छा थी। डॉ. उपाध्ये ने उनका परिचय आ. विद्यानन्दजी को देते हुए बतलाया कि डॉ. आल्सफोर्ड के पितामह एवं पिता जैन—साहित्य पर कार्य करते रहे और इन्होंनें स्वयं भी सारा जीवन जैन—साहित्य की सेवा में व्यतीत कर दिया है। आचार्य बट्टकेर कृत मूलाचार की प्राचीनतम मूल पाण्डुलिपि इनके पास सुरक्षित है। ये उसी पर शोध—कार्य कर रहे हैं। मुनिश्री तथा उपाध्ये जी को इस बात का बड़ा दु:ख भी था कि मूलाचार की मूल पाण्डुलिपि हमारे बीच न रहकर सात समुद्र पार चली गई। किन्तु उन्होंने यह भी कहा कि वह हमारे पास नहीं है, उसका हमें दु:ख अवश्य है किन्तु यदि वह भारत में रहती तो शायद लोग उसे उतनी सुरक्षा प्रदान नहीं कर पाते, जितनी सुरक्षा उसे जर्मनी में मिल रही है।
सिरिवाल चरिउ कि मूल पाण्डुलिपि पेरिस (फ्रांस) में— लगभग ३ दशक पूर्व मुझे (इन पंक्तियों के लेखक को) पेरिस (फ़्रांस) से एक पार्सल मिला था मैं आश्चर्य—चकित रह गया कि पेरिस में ऐसा कौन सा सहृदय व्यक्ति है, जो मुझे जानता है और जिसने यह उपहार भेजा है? उसे खोलकर देखा, तो उसमें से निकली महाकवि रइधू कृत अपभ्रंश के ‘श्रीपालचरितकाव्य’ की पेरिस में सुरक्षित पाण्डुलिपी की सुन्दर फोटो सहित प्रति, जिसकी मैं एक लम्बे अरसे से खोज कर रहा था। उसकी प्रेषिका पेरिस की एक प्रोफेसर महिला थी। बात यह थी कि सन् १९६४—६५ में रइधू संबंधी मेरा कोई लेख जिसमें कि मैंने रइधू कृत अपभ्रंश के श्रीपाल चरित को अनुपलब्ध घोषित कर दिया था, वह तथा मेरे द्वारा सम्पादित प्रकाशित रइधू कृत अण यामिउकहा को एक प्रति किसी प्रकार उनके हाथ लग गई होगी उसी लघु—पुस्तिका तथा मेरे लेख ने उन्हें बहुत प्रभावित किया औरउसके आधार पर उन्होंने स्वयं कुछ लेख भी लिखे। इनकी सूचनाओं के साथ उन्होंने श्रीपाल—चरित की उक्त फोटो—काफी, जिसकी पाण्डुलिपि पेरिस के शास्त्र—भण्डार में सुरक्षित थी, उसे भी मुझे भेजी और भारत आकर उन्होंने मुझसे भेंट करने की अभिलाषा भी व्यक्त की थी। विस्मृत/ नष्ट घोषित जैन पाण्डुलिपियाँ विदेशों में सम्भावित— आज हम कहते हैं कि हमारा ‘गंधहस्तिमहाभाष्य’ नाम का ग्रंथ खो गया है। अपभंश—ग्रंथों की