समणोत्ति संजदीत्ति य रिसि मुणि साधुत्ति वीतरागीति।
णामाणि सुविहिदाणं अणगार भदंत दंतोत्ति।
मूलाचार ८८८
अर्थात् श्रमण, ऋषि, मुनि साधु वीतराग, अनगार, भदन्त, दान्त और यति ये सम्यक् आचरण करने वाले साधुओं के नाम हैं। श्रमण का व्यापक विवेचन मूलाचार में है उसी के आश्रय से यहाँ संक्षिप्त रूप से प्रस्तुत किया जा रहा है। निश्चयनय की विवक्षा से प्रतिपादित श्रमण स्वरूप के साथ श्रमण की क्रियाओं को र्गिभत किया गया है—णिस्संगो णिरारंभो भिक्खाचरियाए सुद्धभावो य।
एगागी झाणरदो सव्व गुणड्ढो हवे समणो।।
मूलाचार १००२
जो निसंग अन्तरंग बहिरंग परिग्रह के अभाव से मूच्र्छा रहित, निरम्भ पापक्रियाओं से निवृत्त आहार की चर्या में शुद्धभाव सहित एकाकी ध्यान में लीन होते हैं, वे श्रमण सर्वगुण संपन्न कहलाते हैं। वे कषायरहित होने के कारण ही संयत हैं जैसे कि कहा भी है— अकषायपने को चारित्र कहते हैं। कषाय के वश होने वाला असंयत है जिस काल में कषाय नहीं करता उसी काल में संयत है। श्रमण जिनेन्द्राज्ञा का सतत पालन करता हुआ अपने को क्रोधादि कषायों से बचाये रखता है।पंचमहव्वयधारी पंचसु समिदीसु संजदा धीरा।
पंचिदियत्थ विरदा पंचम गई मग्गगया सवणा।।९/८८३
जो पंचमहाव्रतधारी पंचसमितियों से संयत, धीर, पंचेन्द्रिय विषयों से विरक्त तथा पंचम गति के अन्वेषक होते हैं। तप—चारित्र आदि क्रियाओं में अनुरक्त पापों का शमन करने वाले होते हैं। संयम, समिति, ध्यान एवं योगों में नित्य ही प्रमाद रहित होते हैं वे श्रमण कहलाते हैं।मूलाचार ८८४ प्रवचनसार में श्रमण के स्वरूप का निरूपण करते हुए कहा गया है—समसत्तु बंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसिंणद समो।
समलोट्ठकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो।
जिसे शत्रु और बन्धु वर्ग समान है, सुख—दु:ख समान है, प्रशंसा और निन्दा में समभाव रखता है, जिसे लोष्ठ और सुवर्ण समान है तथा जीवन मरण के प्रति समता है, वह श्रमण है। इसी प्रकार अन्य आचार्य ने भी लिखा है—सुख—दु:ख में जो समान है और ध्यान में लीन है, वह श्रमण है।नयचक्र ३३० आचार्य वट्टकेर श्रमण को सामायिक रूप में चित्रित करते हैं ‘जिस कारण से अपने और पर में माता और सर्वमहिलाओं में, अप्रिय और प्रिय तथा मान—अपमान आदि में समान भाव होता है।’’ इसी कारण श्रमण हैं और इसी से वे सामायिक हैं।जं च समो अप्पाणं परे य मादूय सव्व महिलासु। अप्पियपिय माणादिसु तो समणो तो यह सामइयं।।मूलाचार ५२१ यहाँ आचार्य श्रमण का स्वरूप भाव की प्रधानता से प्रतिपादित करते हैं वे श्रमणों को सावधान करते हुए कहते भी हैं—भावसमणा हु समणा ण सेस समणाण सुग्गई जम्हा।
जहिऊण दुविहभुविंह भावेण सुसंजदो होई।।
मूलाचार १००४
भावश्रमण ही श्रमण हैं क्योंकि श्रमणों को मोक्ष नहीं होता। इसलिए हे श्रमण ! दो प्रकार (अन्तरंग—बहिरंग) परिग्रह को छोड़कर भाव से सुसंयत होओ। आचार्यों ने श्रमणों के रत्नत्रय की ही प्रशंसा की है क्योंकि श्रमण का द्रव्यिंलग ही मोक्षमार्ग नहीं है अपितु उस लिग/शरीर के आधार से रहने वाला जो रत्नत्रय है, उसी से मोक्ष प्राप्त होता है। अत: श्रमण भावसहित उस द्रव्यिंलग को स्वीकार कर उसके माध्यम से अभेद रत्नत्रय को प्राप्त कर उसमें स्थिरता प्राप्ति के लिए सतत प्रयासरत रहते हैं।ण य होकद मोक्खमग्गो िंलगं जं देहणिम्ममा अरिहा। लिगं मुइत्तु दंसणणाणचरित्ताणि सेवंते।। प्रवचनसार साथ में अर्हदादि की भक्ति, ज्ञानियों में वात्सल्य, अन्य श्रमणों को वन्दन, अभ्युत्थान, अनुगमन व वैयावृत्य करना प्रासुक आहार एवं विहार उत्सर्ग समिति पूर्वक निहार आदि क्रिया, तत्त्वविचार, धर्मोपदेश, पर्व के दिनों में विशेष उपवास चातुर्मासयोग शिरोनति व आवर्त आदि कृत्रिकर्म सहित प्रतिदिन देव वन्दना, आचार्यवन्दना, स्वाध्याय, रात्रियोगधारण, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान आदि शुभोपयोगी क्रियायें व्यवहार मोक्षमार्ग को प्रशस्त करते हुए श्रमण करते हैं। निश्चय—व्यवहार रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग पर चलने वाले ही परिपूर्ण श्रमण होते हैं परिपूर्ण श्रमण के स्वरूप को बतलाते हुए आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं—चरदि णिबद्धो णिच्चं समणो णाम्मि दंसणमुहम्मि।
पयदो मूलगुणेसु य जो सा पडिपण्णं सामण्णो।।
प्रवचनसार २१४
जो श्रमण सदा ज्ञान और दर्शनादि में प्रतिबद्ध तथा मूलगुणों में प्रयन्तशील विचरण करता है, वह परिपूर्ण श्रामण्यवान् है। श्रमण का लिंग जिनिंलग कहा जाता है वह दोष रहित होता है। उसमें पूर्णतया अचानक वृत्ति होती है। भावों की शुद्धि की प्रधानता होती है जैसा कि भावप्राभृत में भी कहा है ‘‘जिसमें पांच प्रकार के वस्त्रों का त्याग किया जाता है, पृथ्वी पर शयन किया जाता है, दो प्रकार का संयम धारण किया जाता है, भिक्षा भोजन किया जाता है, भाव की पहले भावना की जाती है तथा शुद्ध निर्दोष प्रवृत्ति की जाती है, वही जिनिंलग निर्मल कहा जाता है।’’पंचविह चेलचायं ख्दििसयणं दुविहसंजमं भिक्खू। भावं भाविय पुव्वं जिणिंलग णिम्मलं सुद्धं।। भावप्राभृत ९७ मूलाचार में दीक्षा योग्य पात्र तथा उसकी दीक्षा विधि आदि का वर्णन नहीं किया गया है किन्त कहा गया है कि यदि श्रमण की चर्या यत्नाचारपूर्वक होती है, तो वह निर्दोष मानी गयी है। इसीलिए मूलाचार में साधु की प्रवृत्ति के संदर्भ में आचार्य ने प्रश्न किया है और स्वयं समाधान भी किया है।कधं चरे कधं चिट्ठे कधमासे कधं सये।
कधं भुंजेज्ज भासिज्ज कधं पावं ण बज्झदि।।
मूलाचार १०१४
श्रमण को जिस प्रकार से प्रवृत्ति करना चाहिए ? कैसे खड़े होना चाहिए ? कैसे बैठना चाहिए ? कैसा सोना चाहिए ? कैसे भोजन करना चाहिए ? कैसे बोलना चाहिए ? जिससे पाप का बंध न हो। इसी प्रश्न के उत्तर में आगे कहा है—जदं चरे जदं चिट्ठे जदमासे जदं सये। जदं भुंजेज्ज भासेज्ज जदो पावं ण वज्झई।।
मूलाचार १०१५
जदं तु चरमाणस्स दयापेक्खिस्स भिक्खुणो। णवं ण बज्झदे कम्मं पोराणं च विधूयदि।।
मूलाचार १०१६
यत्न से ईर्यापथ शुद्धिपूर्वक गमन करना चाहिए। यत्न से खड़े होना चाहिए। यत्न से सावधानी पूर्वक जीवों को बाधा न देते हुए उन्हें पिच्छिका से हटाकर पद्मासन से बैठना चाहिए। सोते समय भी यत्न से संस्तर का संशोधन करके अर्थात् चटाई फलक आदि को उलट—पलट कर देखकर रात्रि में गात्र संकुचित करके सोना चाहिए। यत्न से भाषा समिति से बोलना चाहिए। इस प्रकार की प्रवृत्ति से पाप बन्ध नहीं होता है क्योंकि जो श्रमण यत्नाचार से प्रवृत्ति करता है, दया भाव से सतत प्राणियों का अवलोकन करता है, उसके नवीन कर्मों का बंध नहीं होता है और पुराने कर्म भी नष्ट हो जाते हैं। इसी प्रसंग में और भी बताया गया है कि जो ‘‘जो मुनि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और संहनन की अपेक्षा करके चारित्र में प्रवृत्त होता है”वह क्रम से वध—हिसा से रहित हो जाता है।
दव्वंखेत्तं कालं भावं च पडुच्च तह य संघहणं।
चरणाम्हि जो पवटठइ कमेण सो णिरवहो होई।।
मूलाचार
श्रमण समितियों का पालन करते हुए विहार करते हैं जो जीवों से भरे हुए संसार में भी िंहसादि पापों से लिप्त नहीं होता है वह जीव जन्तु भरे रहने पर भी अपने देववंदना, आहार आदि कार्य समिति सहित ही करते हैं। यही कारण है श्रमण हिसादि पापों से बंधते नहीं हैं। कारण यह है कि पत्र के स्नेह गुणसहित होने पर भी उसमें पानी नहीं रुकता है उसी प्रकार श्रमण भी देववन्दनादि कार्य करते हुए जीवों में विहरने पर भी समिति सहित होने के कारण पापों से अल्पित रहते हैं। जिसने लोहे का दृढ़ कवच पहना है, ऐसा योद्धा बाण—तोमन आदि तीक्ष्ण शस्त्रों से सिद्ध नहीं होता है। उसी प्रकार आहार, गुरुवंदना आदि कार्यों में तत्पर मुनि समिति सहित विहार करने के कारण पाप लिप्त नहीं होते हैं। श्रमण की प्रवृत्ति में यत्नाचार की प्रधानता उनके सतत सावधानता को निरूपित करती है। वर्तमान में कुछ साधुओं द्वारा उक्त कथन का भी उल्लंघन किया जा रहा है। वे प्रमाद के वशीभूत होकर अपनी क्रियाओं के प्रति उपेक्षा करते हैं, जिसके कारण पाप बंध को भी प्राप्त होते हैं, जो क्रियाओं में सावधान हैं। वे भाविंलगी श्रमण मोक्षमार्ग को प्रशस्त कर रहे हैं। भाविंलग शून्य द्रव्यिंलग मात्र से कल्याण होने वाला नहीं है क्योंकि मोक्षमार्ग में सभी को स्वीकार न करके जिन्हें स्वीकार किया गया है, उनके विषय में कहा गया है कि—णग्गंथ मोहमुक्का वावाहपरिसहा जियकसाया।
पावारंभ विमुक्का ते गहीया मोक्खमग्गम्मि।।८०।।
मोक्षपाहुड़
जो परिग्रह से रहित हैं, पुत्र—मित्र—स्त्री आदि के स्नेह से रहित हैं। २२ परीषकों को सहन करने वाले हैं। कषायों को जीतने वाले हैं तथा पाप और आरंभ से दूर हैं। वे मोक्षमार्ग में अंगीकृत हैं। श्रमण जीवन लौकिक व्यवहारों से परे होता है किन्तु उनकी आहार चर्या, वैयावृत्य आदि कार्य गृहस्थों के बिना नहीं सधते। अत: श्रमणों को गृहस्थों के साथ अपनी मर्यादाओं के अन्तर्गत संपर्क आवश्यक होता किन्तु इसका यह अर्थ बिल्कुल नहीं है कि गृहस्थों के साथ उनके आवासों पर रात्रि विश्राम किया जाय या उनसे धन आदि लेने के लिए उन्हें मंत्र आदि देकर संतुष्ट किया जाय। श्रमण को गृहस्थों से अधिक परिचय नहीं बढ़ाना चाहिए और उनकी विनय आदि भी नहीं करना चाहिए। आचार्य वट्टकेर ने कहा भी है—णो वंदिज्ज अविरदं मादा पिदु गुरु णिंरद अण्णतित्थं व।
देसविरदं देवं वा विरदो पासत्थपणगं वा।।५१४।।
मूलाचार
असंयतजन, माता—पिता, असंयतगुरु, राजा, अन्यतीर्थ या देशविरत श्रावक, यक्षादि देव तथा पाश्र्वस्थादि पांच प्रकार के पापश्रमणों को विरक्त साधु को वन्दना नहीं करने का विधान है।श्रमण गृहस्थ का अभिनंदन, वन्दन, वैयावृत्य आदि कभी नहीं करते हैं। इस कलिकाल ने ऐसा देखने पर मजबूर कर दिया है कि कोई साधु नेताओं या धनवानों के गले में मोतियों की माला स्वयं पहना रहे हैं। तिलक लगा रहे हैं, कलावा आदि बांधकर सत्कार कर रहे हैं, स्वयं पद्मावती क्षेत्रपाल आदि की आराधना कर रहे हैं, करा रहे हैं जो श्रमणचर्या के विरुद्ध है। आगम में लौकिक जनों की संगति छोड़ने का उपदेश है क्योंकि उनकी संगति से वाचालता आती है दुर्भावना उत्पन्न होती है। श्रमण श्रावक के धर आहारार्थ अवश्य जाते हैं किन्तु आहार के बाद पारिवारिक चर्चा में नहीं बैठते हैं। इनके द्वारा इस काल में एकलविहार र्विजत है। अधिक शुभ क्रियाएं वर्तना योग्य नहीं, मंत्र सिद्धि, शास्त्र, अंजन, सर्प आदि की सिद्धि करना तथा इन्हीं कार्यों से अपनी आजीविका चलाना दुर्जन, लौकिक जन, तरुणजन, स्त्री, पुंश्चली, नपुसंक, पशु आदि की संगति करना निषिद्ध है। मूलाचार में श्रमण के दस स्थितिकल्पों का विवेचन प्राप्त होता है—अच्चेलक्कुदेसियसेज्ल्जाहररार्यापेंड किदियम्म।
वद जेट्ठ पडिक्कमणं मासं पज्जो समणकप्पो।।९।।
आचेलक्य, उद्देशिक, श्यातर (शैयागृह) पिंडत्याग, राजिंपडत्याग, कृतिकर्म व्रतज्येष्ठं, प्रतिक्रमण मास तथा पर्या (पर्यूषण) ये दस कल्प हैं। श्रमणों को इनका पालन करते हुए संयम मार्ग में प्रवृत्त रहना चाहिए तथा जिस संघ में आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर और गणधर ये पांच न हों उसमें श्रमण को नहीं रहना चाहिए९। मूलाचार में श्रमण द्वारा श्रमणों के वैयावृत्य का भी विधान है। मूलाचार में शरीर संस्कार का पूर्ण निषेध है। पुत्र, स्त्री आदि में जिन्होंने प्रेमरूपी बन्ध न काट दिया है और जो अपने भी शरीर में ममता रहित हैं, ऐसे साधु शरीर में कुछ भी संस्कार नहीं करते हैं। मुख, नेत्र और दांतों का धोना, शोधना, पखारना, उबटन करना, पैर धोना, अंगमर्दन करना, मुट्ठी से शरीर का ताड़न करना, काठ के यन्त्र से शरीर का पीड़ना। ये सब शरीर के संस्कार हैं। धूप से शरीर का संस्कार करना, कण्ठ शुद्धि के लिए वमन करना, औषध आदि से दस्त लेना, अंजन लगाना, सुगंध तेल मर्दन करना, चन्दन कस्तूरी का लेप करना, सलाई बत्ती आदि से नासिकाकर्म व वस्तिकर्म (श्लेष्म) करना। नसों से लोही का निकालना ये सब संस्कार अपने शरीर में साधुजन नहीं करते। (८३६ से ८३८ तक)श्रमण के ठहरने योग्य स्थान पर विचार करते हुए कहा गया है—जिन स्थानों या क्षेत्रों में कषाय की उत्पत्ति, आदर का अभाव, इन्द्रिय विषयों की अधिकता, स्त्रियों का बाहुल्य, दु:खों और उपसर्गों का बाहुल्य हो ऐसे क्षेत्रों का श्रमण त्याग करें अर्थात् ऐसे स्थानों में नहीं ठहरना चाहिएजत्थं कसायुपप्तिभत्तिं दियदार इत्थि जणबहुलं। दुक्चामुवसग्गबहुलं भिक्खु खेत्तं विवज्जेऊ।।मूलाचार २०/१५८ गाय आदि तिर्यंचनी, कुशील स्त्री, भवनवासी व्यन्तर आदि सविकारिणी देवियां, असंयमी गृहस्थ इन सब के निवासों पर अप्रमत्त श्रमण शयन करने, ठहरने या खड़े होने आदि के निमित्त सर्वथा त्याज्य समझते हैं। जो क्षेत्र राजा विहीन हो या जहाँ का राजा दुष्ट हो, जहाँ कोई प्रव्रज्या न लेता हो जहाँ सदा संयम घात की संभावना बनी रहती हो ऐसे क्षेत्रों का श्रमण हमेशा परित्याग करते हैं। किन्तु धीर वैराग्य संयुक्त साधु पर्वत का गुफा, श्मशान, शून्य मकान, वृक्ष का मूल, जिनमन्दिर, धर्मशाला आदि क्षेत्रों का आश्रय लेते हैं इस तरह के वैराग्य वर्धक क्षेत्रों में रहने से साधुओं के चारित्र की अभिवृद्धि होती है। मूलगुणों का पालन करते हैं। मूलगुणों के प्रकाश में श्रमण की आवश्यकताएँ सीमित होती हैं। वे जीवरक्षा के निमित्त एक पिच्छिका रखते हैं। शौच के निमित्त कमण्डलु रखते हैं। मूलाचार में श्रमण की तीन उपाधियाँ बताई गई हैं—ज्ञानोपधि (पुस्तकादि), संयमोपधि (पिच्छकादि), शौचोपधि (कमण्डलु)। वर्षावास के चार माह छोड़कर निरंतर भ्रमण करते रहते हैं। समस्त परिग्रह से रहित साधु वायु की तरह नि:संग होकर कुछ भी चाह न रखकर पृथ्वी पर विहार करते हैं। छयालीस दोष बचाकर भोजन ग्रहण करते हैं। पिण्डशुद्धि अधिकार में बताया गया है कि भक्ति पूर्वक दिये गये, शरीर योग्य प्रासुक, नवकोटि विशुद्ध एषणा समिति से शुद्ध, दस दोषों, चौदह मलों से रहित भोजन का द्रव्य क्षेत्र काल, भाव को जानकर ग्रहण करते हैं। श्रमणों के दैनिक जीवन में सामायिक, चतुा\वशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान कायोत्सर्ग इन षडावश्यकों का विशेष स्थान होता है।ण हवदि समणोत्ति मदो संजम तवसुत्त संपजुत्तो वि।
जदि सद्दहदि ण अत्थे आदपधाणे जिणक्खादे।।
प्रवचनसार २६४
जो जिनेन्द्र कथित जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान नहीं करता है, वह संयम, तप तथा आगम रूप संपत्ति से युक्त होने पर भी श्रमण नहीं माना गया है। वह श्रमणाभास है। श्रमण आहार आदि की शुद्धि हमेशा रखते हैं। परिमार्जन पूर्वक ही शास्त्र कमण्डलु आदि को ग्रहण करते हैं और रखते हैं क्योंकि ठहरने में, चलने में ग्रहण करने में, सोने में, बैठने में साधु प्रतिलेखन से प्रयत्न पूर्वक परिमार्जन करते हैं। यह उनके अपने पक्ष का चिह्न हैठाणे चंकमणादाणे णिक्खेवे सयण आसण पयत्ते। पडिलेहणेण पडिलेहिज्जइ िंलगं च होइ सपक्खे।।मूलाचार ९१६। जो अपने पक्ष के चिह्नों या कार्यों के प्रति निरंतर सावधान हैं, वही श्रमण कहे जाते हैं किन्तु जो श्रमण के द्वारा कार्य करने योग्य न हों उन कार्यों को करता है वह श्रमणाभास है।