( श्री ज्ञानमती माताजी के प्रवचन)
बाहुबली चरित्र में प्रतिष्ठा तिथि दी गई है-
कल्क्यब्दे षट्शताख्पे विनुत विभवसंवत्सरे मासिचैत्रे। पंचम्यां शुक्लपक्षे दिनमणिदिवसे कुंभलग्ने सुयोगे।। सौभाग्ये मस्तनाम्नि प्रकटित भगणे सुप्रशस्तां चकार। श्रीमच्चामुण्डराओ बेल्गुलनगरे गोम्मटेशप्रतिष्ठाम् ।।
अर्थात् काल्कि सं. ६०० में विभव संवत्सर में चैत्र शुक्ला पंचमी, रविवार को वुंभलग्न, सौभाग्ययोग, मृगशिरा नक्षत्र में चामुंडराय ने बेल्गुल नगर में गोम्मटेश की प्रतिष्ठा कराई। इस निर्दिष्ट तिथि के सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। फिर भी पं. नेमिचन्द्र ज्योतिषाचार्य लिखते हैं कि ‘‘भारतीय ज्योतिष गणना के आधार पर विश्वसंवत्सर चैत्र शुक्ला पंचमी, रविवार को मगशिर नक्षत्र का योग १३ मार्च सन् ९८१ में घटित होता है। अत: मूर्ति का प्रतिष्ठाकाल सन् ९८१ होना चाहिये।’’
इस बाहुबली मूर्ति की सुन्दरता अपने आप में अपूर्व ही है। दोनों चरणों के आस-पास में साँप की वामियाँ दिखाई गई है, जिनके अग्रभाग से सर्प मुख फाड़े हुए देख रहे हैं। ऊपर चलकर लतायें बड़ी ही सुन्दरता से जाँघों से निकलकर भुजाओं को वेष्टित कर रही हैं। मूर्ति के एक तरफ पाषाण में गहरे अक्षरों में खुदा हुआ है,
‘‘चावुंडराजे करवियले, गंगराजे सुत्ताले कर वियले ।’’ यह मराठी भाषा है अर्थात् इस मूर्ति का निर्माण चामुण्डराय ने करवाया है और इसके चारों तरफ की प्रदक्षिणा गंगराज ने बनवाई है। कहा जाता है कि भरतेश्वर ने पन्ने की मूर्ति बनवाई थी, वह आजकल पेशावर (पाकिस्तान) के किसी भाग में है। जो भी हो आज वह सर्वथा अनुपलब्ध है। उसे कुक्कुट सर्पों ने घेर लिया था अत: उसकी ‘कुक्कुटजिन’ के नाम से प्रसिद्धि थी। उत्तर भारत की उस मूर्ति से भिन्नता के कारण चामुण्डराय द्वारा स्थापित यह मूर्ति ‘दक्षिणकुक्कुटजिन’ कहलाई जाने लगी। श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने भी कहा है-
गोम्मटसंग्गहसुत्तं गोम्मटसिहरूवरि गोम्मटजिणो य। गोम्मटरायविणिम्मियदाक्र्खणाकुक्कुटजिणो जयउ ।।९६८।।
गोम्मटसार संग्रह रूपसूत्र, ग्रंथ, गोम्मटशिखर पर के ऊपर चामुण्डराय के द्वारा बनवाये गये जिनमंदिर में विराजमान एक हाथ प्रमाण इंद्रनीलमणिमय नेमिनाथ तीर्थंकर की प्रतिमा तथा उन्हीं चामुण्डराय द्वारा निर्मित ‘दक्षिणकुक्कुटजिन’ की मूर्ति जयशील होवे। इस गाथा से यह बात स्पष्ट है कि आचार्य नेमिचन्द्र ने गोम्मटसार आदि ग्रंथों की रचना इस मूर्ति प्रतिष्ठा के बाद में ही की है तथा चन्द्रगिरि पर्वत पर एक मंदिर है जिसका नाम है ‘चामुण्डरायवसादि’। इस मंदिर को बनवाकर चामुण्डराय ने उसमें इन्द्रनीलमणि की नेमिनाथ की प्रतिमा विराजमान करवाई थी आज वह अनुपलब्ध है। डा. ए. एन. उपाध्याय ने अपने एक लेख में लिखा था कि चामुण्डराय का घर का नाम ‘गोम्मट’ था। उनके इस नाम के कारण ही उनके द्वारा स्थापित बाहुबली मूर्ति का गोम्मटेश्वर नाम पड़ा है अर्थात् गोम्मटेश्वर का अभिप्राय है चामुण्डराय के देवता । इसी कारण इस विंध्यगिरि को भी ‘गोम्मट’ कहते हैं। इसी गोम्मट उपनामधारी चामुण्डराय के लिये श्री नेमिचन्द्राचार्य ने अपने रचित जीवकांड, कर्मकाण्ड ग्रंथों को भी ‘गोम्मटसार’ नाम दे दिया है। यही कारण है कि उपर्युक्त गाथा में आचार्य देव ने अपने ग्रंथ, विंध्यगिरि और बाहुबली मूर्ति के साथ में ‘गोम्मट’ शब्द का प्रयोग किया है। पुनरपि बाहुबली मूर्ति की प्रसंशा करते हुए आचार्य देव लिखते हैं-
जेण विणिम्पियपडिमावयणं सव्वट्ठसिद्धिदेवेहिं । सव्वपरमोहिजोगिहिं दिट्ठं सो गोम्मटो जयउ ।।९६९।।
जिस चामुण्डराय के द्वारा बनवाये गये बाहुबली जिनबिंब के मुख को सर्वार्थसिद्धि के देवों ने तथा सर्वावधि परमावधिज्ञान के धारक योगीश्वरों ने देखा है वह चामुंडराय उत्कृष्ट रीति से जयशील होवे।
‘जिसका अवनितल वज्र सदृश है, जिसका ‘ईषत्प्राग्भार’ नाम है, जिसके ऊपर स्वर्णमयी कलश है, और तीनलोक में उपमा देने योग्य ऐसा अद्वितीय है, ऐसा जिनमंदिर जिसने बनवाया है वह चामुण्डराय जयशील होवे। जिसके द्वारा चैत्यालय में खड़े किये हुए खंभे के ऊपर स्थित जो यक्ष के प्रतिबिंब है उनके मुकुट के आगे के भाग की किरणों ने रूप जल से सिद्ध परमेष्ठियों के आत्म प्रदेशों के आकार रूप शुद्ध चरण धोये हैं ऐसा चामुण्डराय जयशील होवे।’ अर्थात् चामुण्डराय ने ‘जिनमंदिर में जो स्तम्भ बनवाये है उनमें यक्षों की प्रतिमायें स्थापित की हैं उनके मुकुटों में रत्न जड़े हुए हैं जिनकी किरणें बहुत ऊँचे आकाश तक फैल रही हैं जो कि मानोंतीर्थ सिद्धों के चरणों का प्रक्षालन ही कर रही हैं। (आज इन स्तम्भों में यक्षमूर्तियाँ तो है किन्तु उनके मुकुटों में रत्न नहीं है) इस प्रकरण से जो यक्षों की मूर्तियों को भट्टारकों द्वारा बनवाई गई मानते है और आगम विरूद्ध कहते हैं उन्हें सोचना चाहिये कि आज से १००० वर्ष पूर्व आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती के समय न तो भट्टारक ही थे और न वे आचार्य देव आगमविरूद्ध विचार के पोषक ही थे। अतः यक्ष मूर्तियों की परम्परा और जिनमंदिर में शासनदेवी-देवों की परम्परा अतिप्राचीन है, पूर्वाचार्यों द्वारा मान्य है और आगमसम्मत है।
इन गोम्मटसार आदि ग्रन्थ रचना के बारे में एक जनश्रुति प्रसिद्ध है कि-श्री नेमिचंद्र सिद्धान्त चक्रवर्ती षट्खण्डागम ग्रन्थराज-धवला का स्वाध्याय कर रहे थे, उसी समय चामुण्डराय गुरू के दर्शनार्थ आये। गुरूदेव ने उस काल में स्वाध्याय बन्द करके ग्रन्थ को एक ओर रख दिया। चामुण्डराय ने आश्चर्य से पूछा- ‘भगवन्! आप किस ग्रंथ का स्वाध्याय कर रहे थे और अकस्मात् मेरे आते ही आपने अपना स्वाध्याय क्यों बन्द कर दिया?’ गुरू ने कहा- ‘चामुण्डराय! यह सिद्धान्त ग्रंथ षट्खण्डागम है। इसमें जीवस्थान आदि का बहुत ही सूक्ष्म और विस्तृत वर्णन है। उस ग्रंथराज का स्वाध्याय श्रावकों के लिये शास्त्रसम्मत नहीं है। अतः मैंने बन्द कर दिया है।’ चामुण्डराय ने जिज्ञासा व्यक्त की- ‘भगवन्! इसके रहस्य को हमें भी समझाइये।’ तब गुरूदेव ने कहा- ‘अच्छा, मैं तुम्हें इन सिद्धान्त ग्रंथों के रहस्य को समझाने के लिये इनके सार को ग्रहणकर ग्रंथ रचना करूँगा जिससे तुम और तुम्हारे सदृश कितने ही भव्यजीव सिद्धान्त ग्रंथों के सार को समझ सकेंगे।’ इसके अनंतर श्री नेमिचन्द्र आचार्य ने अपने परम शिष्य चामुण्डराय के निमित्त जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड, त्रिलोकसार, लब्धिसार और क्षपणासार ऐसे पाँच ग्रंथों में जीव, कर्म, तीनलोक, सम्यक्त्व-चारित्र लब्धि और कर्मों के नाश का उपाय इन विषयों को संगृहीत करके इन ग्रंथों का पंचसंग्रह यह नाम दिया। प्रारम्भ के दो ग्रंथों को तो अपने प्रिय शिष्य के नाम से ‘गोम्मटसार’ ही नाम रख दिया। जैसा कि ऊपर गाथा ९६८ में स्वयं ही उन्होंने कहा है-गोम्मटसार कर्मकाण्ड की अंतिम गाथा में आचार्य देव पुन: अपने शिष्य की विशेषता प्रगट करते हुए एवं उसे आशीर्वाद देते हुए कहते है-
गोम्मटसुत्तल्लिहणे गोम्मटराएण जा कया देसी। सोराओ चिरकालं णामेण य वीरमचंडी ।।९७२।।
गोम्मटसार ग्रंथ के गाथासूत्र लिखते समय गोम्मटराय ने देशी भाषा अर्थात् कर्णाटकवृत्ति बनाई है वह ‘वीरमार्तण्ड ’ नाम से प्रसिद्ध चामुण्डराय बहुत काल तक जयशील होवे।
इस मूर्ति का सौन्दर्य अपने आप में इतना विशेष है कि वर्तमान में उपलब्ध सभी मूर्तियों में यह अनुपमेय ही है। शिल्पी ने मूर्ति को सर्वांगीण सुन्दर बनाने में कोई कमी नहीं रखी है फिर भी पता नहीं क्यों उसने अनुपात में मूर्ति हाथ की एक अंगुली को कुछ छोटा रख दिया है। हो सकता है दृष्टिदोष से मूर्ति को बचाने के लिये ही उसने ऐसा किया हो। गोम्मटेश्वर द्वार के बाई तरफ एक पाषाण पर एक शिलालेख है जो कि शक् सं. ११०२ का है। उसमें कन्नड़कवि पं. वोप्पण ने मूर्ति की महिमा को प्रगट करते हुए एक काव्य कहा है जिसका अर्थ यह है- ‘जब मूर्ति आकार में बहुत ऊँची और बड़ी होती है तब उसमें प्रायः सौन्दर्य का अभाव रहता है। यदि मूर्ति बड़ी भी हुई और उसमें सौन्दर्य भी रहा तो भी उसमें दैवी चमत्कार का होना असम्भव-सा है किन्तु आश्चर्य है कि यहाँ इस गोम्मटेश्वर की मूर्ति में तीनों का मेल दिख रहा है। अर्थात् यह मूर्ति ५७ फूट ऊँची होने से बहुत बड़ी है, सौन्दर्य में बेजोड़ है और दैवी चमत्कार को प्रकट करने वाली है। अतः यह प्रतिबिम्ब सम्पूर्ण विश्व के द्वारा पूजित होने से अपूर्व ही है।’ दिगंबर जैन मूर्तियों की नग्नता को देखकर प्रायः कुछ विधर्मी लोग तो हँसी किया करते हैं लेकिन इस मूर्ति को देखकर देश क्या विदेश के लोग भी भव्य शांतमुद्रा से प्रभावित होकर अच्छे-अच्छे उद्गार व्यक्त करते रहते हैं। जिससे ऐसी प्रतीत होता है कि भगवान् बाहुबली ने प्रारंभ में ध्यानावस्था में कुर् पशु-पक्षियों को भी परम शांति प्राप्त कराई थी। उनके ध्यान के प्रभाव से जात-विरोधी जीव भी जन्मजात वैर को छोड़कर परस्पर में प्रीति करने लगे थे। यही कारण है कि आज उनकी प्रतिमा के सामने भी जैनेतर लोग दिगंबरत्व के प्रति द्वेष भाव को छोड़कर परम प्रीति को प्राप्त हो जाते हैं।
‘सांसारिक शिष्टाचार में फँसे हुए हम उस मूर्ति की ओर देखते ही सोचने लगते हैं कि यह मूर्ति नग्न है। लेकिन क्या नग्नता वास्तव में हेय है ? अत्यन्त अशोभन है? यदि ऐसा होता तो प्रकृति को भी इसके लिए लज्जा आती। फूल नंगे रहते हैं, पशु-पक्षी भी नंगे रहते है; प्रकृति के साथ जिनकी एकता बनी हुई है वे शिशु भी नंगे रहते हैं। उनको अपनी नग्नता में लज्जा नहीं लगती। उनकी ऐसी स्वाभाविकता के कारण ही हमें भी उनमें लज्जा जैसी कोई चीज नहीं दिखाई देती । लज्जा की बात जाने दीजिये। इस मूर्ति में कुछ भी अश्लील, वीभत्स, जुगुप्सित, अशोभन और अनुचित लगता है-ऐसा किसी भी मनुष्य का अनुभव नहीं। इसका कारण क्या है ? यही कि नग्नता एक प्राकृतिक स्थिति है। मनुष्य ने विकारों को आत्मसात् करते-करते अपने मन को इतना अधिक विकृत कर लिया है कि स्वभाव से सुन्दर नग्नता उससे सहन नही होती। दोष नग्नता का नहीं, अपने कृत्रिम जीवन का है। बीमार मनुष्य के आगे पके फल, पौष्टिक मेवे या सात्विक आहार स्वतन्त्रतापूर्वक रखे नहीं जा सकते। यह दोष खाद्य पदार्थ का नहीं,बीमार की बीमारी का है। यदि इस नग्नता को छिपाते हैं तो नग्नता के दोष के कारण नहीं बल्कि मनुष्य के मानसिक रोग के कारण । नग्नता छिपाने में नग्नता को लज्जा नहीं है। वरन् उसके मूल में विकारी मनुष्य के प्रति दयाभाव है, उसके प्रति संरक्षणवृत्ति है। ऐसा करने में जहाँ ऐसी श्रेष्ठ भावना नहीं होती, वहाँ कोरा दम्भ है। परन्तु जैसे बालक के सामने नराधम भी शान्त और पवित्र हो जाता है, वैसे ही पुण्यात्माओं तथा वीतरागों के सम्मुख भी मनुष्य, शांत और गम्भीर हो जाता है। जहाँ भव्यता है, दिव्यता है, वहाँ ही मनुष्य विनम्र होकर शुद्ध हो जाता है। यदि मूर्तिकार चाहते तो माधवीलता की एक शाखा को लिंग के ऊपर से कमर तक ले जाते और नग्नता को ढकना असम्भव न होता। लेकिन तब तो बाहुबली भी स्वयं अपने जीवन के प्रति विद्रोह करते प्रतीत होते। जब बालक सामने आकर नंगे खड़े हो जाते हैं, तब वे कात्यायनी व्रत करती मूर्तियो की तरह अपनी नग्नता छिपाने का प्रयत्न नहीं करते। उनकी निरावरणता ही जब उन्हें पवित्र करती है; तब दूसरा आवरण उनके लिए किस काम का ?
नग्नता के प्रति इतने अच्छे शब्द लिखे जा सकते हैं तब आज जैनों को इसके नग्नत्व का कितना गौरव है सो क्या शब्दों से कहा जा सकता है ? यहाँ तो इतना ही कहना पर्याप्त है कि भारतवर्ष में आज यही एक मूर्ति ऐसी है कि जो अनेक मूर्तिद्रोही आततायीजनों के दुर्भावों को खंडित कर नग्नता को-दिगंबरत्व को जीवित रखे हुए है और दिगंबर जैन अनुयायियों का मस्तक सारे विश्व में ऊँचा किये हुए है। इस मूर्ति की ऊँचाई ५७ फूट है, परन्तु पहले की पुस्तको में ७० या ६३ फूट की बतायी गयी है एक सिरे से दूसरे सिरे तक सीने की चौड़ाई २६ फूट, अँगूठों की लम्बाई २ फूट ९ इंच, हाथ के बीच की उँगली ५ फूट ३ इंच, पैर की लम्बाई ९ फूट, एड़ी की ऊँचाई २ फूट ९ इंच और कमर १० फूट है। पैर की लम्बाई को १८ से गुणा करने पर ७० फूट ३ इंच प्रमाण है। बायें पैर के पास के शिलालेख में ऐसा संकेत भी है। यही प्रमाण प्रायः पुरानी पुस्तकों मे है। परन्तु इसके बाद भारत के जनरल गवर्नर सर प्रार्थरबेलेस्ली ने १९९९ में दर्शन करके ६० फूट ३ इंच प्रमाण बताया। मैसूर संस्थान के चीफ कमिश्नर मि० बौंरिंग ने स्वयं मापकर ५७ फूट बताया है। आचार्य श्री वीरसागर जी महाराज कहा करते थे ‘मनुष्य पर्याय को पाकर जिसने तीन तीर्थों के दर्शन नहीं किये उसका जीवन व्यर्थ चला गया-१.सिद्ध क्षेत्रों में सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र, २.अतिशयक्षेत्रों में श्रवणबेलगोल के भगवान बाहुबली और साधुओं में चारित्रचक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज’। गुरूदेव के इन शब्दों का स्मरण आते ही दोनों ही पवित्र क्षेत्रों के प्रति मस्तक झुक जाता है, परोक्ष वंदना हो जाती है और ‘गुरूणां गुरूः’ आचार्य शांतिसागर जी के चरणों में परोक्ष वंदना हो जाती है। इस श्रवणबेलगोल तीर्थ में आमने-सामने दो पर्वत हैं। वहाँ के निवासी एक पर्वत को ‘चिक्कवेट्ट’ दूसरे को ‘दोदुबेट्ट’ कहते हैं। यह कन्नड़ भाषा है। हिन्दी में इसे छोटा पर्वत और बड़ा पर्वत कहते हैं। इन्हीं पर्वतों के दूसरे नाम है चन्द्रगिरि और विंध्यगिरि। सम्राट चंद्रगुप्त से सम्बन्ध रखने के कारण ही इस पर्वत का नाम चंद्रगिरि पड़ गया है। इसका वर्णन यहाँ के अनेक शिलालेखों में उत्कीर्ण है। यहाँ पर सल्लेखना व्रत लेकर समाधिमरण करने वाले त्यागियों की संख्या सैकड़ों-हजारों में बतलाई जाती है। ५५५ ऐसे शिलालेख मिलते हैं जिसमें इन सभी तथ्यों का उल्लेख है। इसके अतिरिक्त पता नहीं कितने शिलालेख नष्ट हो गये हैं। इस तीर्थ के आस-पास ३०-४० मील की दूरी तक प्राचीन कन्नड़ भाषा के सैकड़ों शिलालेख बिखरे पड़े हैं जिनमें अतीत युग का जैन इतिहास उत्कीर्ण पड़ा है। मैसूर विश्वविद्यालय ने प्रमुख शिलालेखों का संकलन किया है।
इस क्षेत्र के ज्ञात इतिहास से लेकर श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु से लेकर आगे तक अनेक महान आचार्य हो चुके हैं। यहीं पर श्री भद्रबाहु कुरूदेव ने सल्लेखना ग्रहण की है और यहीं पर चंद्रगुप्त मुनिराज ने अपनी गुरूभक्ति का ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत किया है। इसी पर्वत से चामुण्डराय ने बाण छोड़ा था जो कि सामने के पर्वत के शिखर से टकराया था। वही शिलाखंड १००० वर्षों से भगवान् बाहुबली के प्रतिबिंब रूप से असंख्य प्राणियों को आत्मशांति का अनुभव करा रहा है। इस चंद्रगिरि का प्राचीन नाम ‘कटवप्र’ है जिसे कन्नड़ में ‘कल्बप्पु’ कहते हैं। इसे तीर्थगिरि और ऋषिगिरि भी कहते हैं। यह पर्वत समुद्रतल से ३०५३ फूट ऊँचा है। नीचे के मैदान से मात्र ७५ फूट ऊँचा है और विंध्यगिरि की अपेक्षा यह २७५ फूट नीचा है। इस पर्वत पर ५०० फूट लम्बाई और २२५ फूट चौड़ाई के घेरे में १८ जिनमंदिर हैं। दक्षिण में मंदिर को ‘बसदि’ कहते हैं। अतः उनके नाम क्रम से
(१) पार्श्वनाथ बसदि | (२) कत्तले बसदि |
(३) आदिनाथ बसदि | (४) अनंतनाथ बसदि |
(५) चंद्रगुप्त बसदि | (६) शांतिनाथ बसदि |
(७) सुपार्श्वनाथ बसदि | (८) चंद्रप्रभ बसदि |
(९) चामुण्डराय बसदि | (१०) शासन बसदि |
(११) मज्जिगण बसदि | (१२) एरडुकट्ठे बसदि |
(१३) सवति गंधवारण बसदि | (१४) तोरिन बसदि |
(१५) शांतीश्वर बसदि आदि हैं। |
इनके अलावा ‘कूंगे ब्रह्मदेव स्तम्भ, महानवमी मण्डप, भरतेश्वर (अपूर्णमूर्ति) इरूवे ब्रह्मदेव मंदिर, कंचिन दोणे, लक्किदोणे भद्रबाहु गुफा और चामुण्डराय शिला ये विशेष दर्शनीय स्थल है एवं महत्वपूर्ण इतिहास को लिये हुए हैं। इन सबका विस्तार तो अन्य पुस्तकों से दृष्टव्य है। यहाँ पर कुछ विशेष का ही परिचय मैं बताती हूँ-
पहली है चंद्रगुप्त बसदि- कहा जाता है कि यह मंदिर चंद्रगुप्त सम्राट के द्वारा बनवाया गया है। कुछ लोग उनके पौत्र अशोक के द्वारा निर्मित भी मानते हैं। इस मंदिर में तीन कोठों में तीर्थंकर पार्श्वनाथ, पद्मावती और कूष्माण्डिनी की मूर्तियाँ हैं। सभाभवन में क्षेत्रपाल की मूर्ति है और बरामदे की दाई ओर धरणेन्द्र यक्ष तथा बाई ओर सर्वाण्ह यक्ष बने हुए हैं। इस मंदिर में ऐतिहासिक महत्वपूर्ण रचना है मंडप की दीवार पर उकेरा गया जाली का दृश्य। इस जाली में ९० फलक या चित्रखंड हैं। इन फलकों में श्रुतकेवली भद्रबाहु और चंद्रगुप्त के जीवन से सम्बन्धित दृश्य अंकित हैं।
इस मंदिर में तीर्थंकर नेमिनाथ की प्रतिमा है और गर्भग्रह के दरवाजे पर सर्वाण्ह यक्ष तथा कूष्माण्डिनी यक्षी की मूर्तियाँ हैं। यह मंदिर चामुंडराय द्वारा निर्मित है। श्री नेमिचंद्र सिद्धांत चक्रवर्ती ने गोम्मटसार में इसी मंदिर की प्रशंसा में चामुण्डराय को आशीर्वाद दिया है। बाहरी दरवाजे के दोनों बाजुओं पर नीचे की ओर लेख (क्र०१५१) है ‘श्री चामुण्डराय माडिसिदं।’ इसके अनुसार चामुण्डराय ने इसे ईश्वी सन् ९८२ के लगभग में बनवाया है। कहा जाता है कि आचार्य नेमिचंद्र सिद्धांत चक्रवर्ती ने इसी मंदिर में बैठकर गोम्मटसार ग्रंथों की रचना की है।
अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु ने यहीं पर शरीर छोड़ा था। यहाँ पर उनके चरण अंकित हैं। एक लेख (क्र०२५१)यहाँ पाया गया था किंतु अब वह यहाँ नहीं है। कहते है कि चंद्रगुप्त ने बारह वर्ष तक यहीं पर गुरू चरणों की उपासना करते हुए ध्यान किया था। आज भी लोग इन चरणों की भक्ति से मनोकामना की पूर्ति होना मानते हैं।
चंद्रगिरि के नीचे एक चट्टान है जो कि ‘चामुण्डराय शिला’ के नाम से प्रसिद्ध है। किंवदन्ती है कि चामुण्डराय ने इसी शिला पर खड़े होकर विंध्यगिरि पर बाण छोड़ा था। जिसके फलस्वरूप जगद्वंद्य गोम्मटेश्वर की मूर्ति का दर्शन हुआ था। इस शिला पर कई जैन गुरूओं के आकार और नाम उत्कीर्ण हैं।
यह विंध्यगिरि समुद्रतल से ३३४७ फूट ऊँचा है और आसपास के मैदान से ४७० फूट ऊँचा है। यह ठोस पत्थर (चिकने ग्रेनाइट) का पहाड़ है। यह नीचे घेरदार है और ऊपर क्रमशः छोटा होता चला गया है और सबसे ऊपर पहुंचकर इसका रूप गोल गुम्बद जैसा हो गया है। एक जनश्रुति यह भी है कि ‘चामुण्डराय ने चंद्रगिरि से बाण छोड़कर यहाँ का पत्थर वेधा था इसलिए इसे प्रारम्भ में ‘वेध्यागिरि’ कहते होंगे पश्चात् वही जनभाषा में वेध्यागिरि बन गया होगा। इस पर्वत के शिखर पर पहुंचने के लिए ६५० सीढ़ियाँ पत्थरों को काटकर बनाई गई हैं। ऊपर समतल चौक एक घेरे से घिरा हुआ है। चौके के ठीक बीचोंबीच भगवान् बाहुबली की विशाल मूर्ति खड़ी है।
एक लेख (क्र०३३६) में दिया है। यह लेख एक कन्नड़ काव्य है। यह ११८० ई. सन् के लगभग बोप्पण कवि द्वारा रचा गया है। गोम्मटेश्वर बाहुबली मूर्ति के दोनों बाजुओं में यक्ष-यक्षिणी की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। बाहुबली मूर्ति के चरणों के पास में सटी हुई साँपों की वामियाँ बनी हुई हैं जिनमें से सर्प मुख निकाले हुए हैं और उसी के पास से माधवी लता ऊपर चढ़ती हुई जाँघों से लिपट कर ऊपर जाकर बड़े सुन्दर ढंग से भुजाओं को वेष्टित कर रही हैं। मूर्ति के सामने मण्डप में नौ छतें हैं। इनमें आठ छतो पर आठ दिग्पालों की मूर्तियाँ हैं और बीच की छत में पूर्णकुंभ हाथ में लिये इन्द्र की मूर्ति बनी हुई है। मूर्ति के दोनों ओर प्रदक्षिणालय (कन्नड़ में सुत्तालय) है और चारों ओर परकोटे हैं। इसका निर्माण गंगराज ने सन् १११५ ई० में किया था। इस प्रदक्षिणालय के भीतर ४० मूर्तियाँ और एक शिलालेख है। मूर्तियों में एक सिद्ध परमेष्ठी, एक कूष्माण्डिनी यक्षी और एक गणधरचरण हैं। मुख्य मण्डप की दार्इं ओर से जाते ही इस क्षेत्र की शासनदेवी कूष्माण्डिनी से आगे चंद्रनाथ स्वामी हैं। इसके आगे प्रदक्षिणालय शुरू होता है। इसके भीतर क्रमश: पार्श्वनाथ को आदि लेकर बाहुबली भगवान् की पर्यंक मूर्तियाँ हैं। बड़े भगवान् बाहुबली की मूर्ति के ठीक सामने बाहर में ‘गुल्लिकायिज्जी देवी’ खड़ी हैं जिनके ऊपरी भाग में मंडप में ब्र्रह्मदेव यक्ष की मूर्ति विराजमान है।
इसी पर्वत पर एक ‘त्यागद ब्रह्मदेव स्तंभ’ है। जहाँ पर बैठकर चामुण्डराय शिल्पियों को और गरीबों को दान दिया करते थे। इस पर्वत पर सिद्धर बसदि, चेन्नाण्ण बसदि, ओदेगल बसदि, चौबीस तीर्थंकर बसदि, पंचपरमेष्ठी बसदि आदि नाम से जिनमंदिर हैं। इस पर्वत पर चढ़ते समय सीढ़ियों के पास में एक छोटा-सा मंदिर है। जिसे ‘ब्रह्मदेव मंदिर’ कहते हैं। इसे कन्नड़ में ‘जारगुप्पे’ कहते हैं। श्रवणबेलगोल में अन्य और भी जिनमंदिर हैं। भट्टारक श्री चारूकीर्ति भट्टाचार्य का जो मठ है उसमें भी जिनमंदिर है वहां पर कुछ प्रतिमायें उत्तम-उत्तम रत्नों की भी हैं जो अंदर में सुरक्षित रहती हैं। समयानुसार भट्टारकजी उनका दर्शन कराते रहते हैं। जैन मठ के सामने ‘भण्डार बसदि’ नाम से एक मंदिर है जिसमें चौबीस तीर्थंकर की प्रतिमायें, नंदीश्वर प्रतिमायें आदि विराजमान हैं। इसके अतिरिक्त और भी कई मंदिर हैं। जिनके नाम अक्कनबसदि, सिविद्धांत बसदि, ‘दानशले बसदि’ ‘नगर जिनालय’, मंगाई बसदि आदि प्रसिद्ध हैं।
इस क्षेत्र के आस-पास के छोटे-छोटे गांवों में जिनमंदिर हैं। जिननाथपुर अरगल बसदि, कम्बदल्लि, हलेबेल गोल आदि जिनके नाम हैं। क्षेत्र से कुछ दूरी पर हलेविल, वेलूर, गोम्मटगिरि आदि स्थानों पर जिन मंदिर हैं जो कि दर्शनीय हैं। इस श्रवणबेलगोल को जैनबद्री भी कहते हैं। इस क्षेत्र के दर्शन करने हेतु दक्षिण जाने वाले यात्री लोग मूड़विद्रि, कार्वल, वरांग, हुम्मच, कुंदकुदाद्रि धर्मस्थल, वेणूर आदि क्षेत्रों के भी दर्शन अवश्य करते हैं। दक्षिण में जगह-जगह भगवान बाहुबली की मूर्तियों को तीर्थंकर के समान वंद्य माना ही है। यही कारण है कि एलोरा की गुफाओं में भी कई एक जगह भगवान पार्श्वनाथ और भगवान् बाहुबली की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं
उत्तर प्रांत में भी देवगढ़, खजुराहो आदि तीर्थों पर बाहुबली की मूर्तियां देखने को मिलती हैं। ग्वालियर किले की गुफाआें में भी बाहुबली की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। वर्तमान में आरा, फिरोजाबाद, सिद्धवरकूट, हस्तिनापुर आदि स्थानों पर बाहुबली की मूर्तियां विराजमान की गई हैं। बंबई में पोदनपुर नाम से बनाये गये तीर्थ सदृश पावन स्थल पर तीन मूर्तियों में ऋषभदेव, भरत और बाहुबली की ही मूर्तियां हैं। २८ वर्ष पूर्व आचार्य- रत्न देशभूषण जी महाराज की प्रेरणा से अयोध्या के मंदिर में भी ऐसे ही तीन मूर्तियां स्थापित की गई थीं। यद्यपि भगवान् बाहुबली तीर्थंकर नहीं थे फिर भी उनकी मूर्तियों की परंपरा अतीव प्राचीन है यह उनके अप्रतिम त्याग और तपश्चरण का ही प्रभाव है जो कि आज उनकी मूर्ति की स्थापना से दिगंबरत्व के गौरव को सर्वतोमुखी कर रहा है और आगे भी करता ही रहेगा। यह गोम्मटेश्वर बाहुबली की मुर्ति भी युग युग तक असंख्य प्राणियों को मोक्षमार्ग का संदेश सुनाती ही रहेगी। ऐसे उन महामना का दर्शन-वंदन आदि करके भक्ति के द्वारा अपनी आत्मा को आप सभी समुन्नत बनावें, यही मंगल आशीर्वाद है।