शुद्ध धर्म का अवकाश न होने से धर्म में दान की प्रधानता है। दान देना मंगल माना जाता था। याचक को दान देकर दाता विभिन्न प्रकार के सुखों की अनुभूति करता था। अभिलेखों के वण्र्य—विषय को देखते हुए यह माना जा सकता है कि दान देने के कई प्रयोजन होते थे। कभी मुनि राजा या साधारण व्यक्ति को समाज के कल्याण हेतु दान देने के लिए कहते थे तथा कभी लोग अपने पूर्वजों की स्मृति में वसदि या निषद्या का निर्माण करवाते थे। किन्तु प्रसन्न मन से दान देना विशेष महत्त्वपूर्ण माना जाता है। साधारण रूप में स्वयं अपने और दूसरे के उपकार के लिए अपनी वस्तु का त्याग करना दान है। राजर्वाितक में भी इसी बात को कहा गया है। परानुग्रहबद्धया स्वस्यातिसर्जनं दानम्। (राजर्वितक ६/१२/४/५२२) किन्तु धवला के अनुसार रत्नत्रय से युक्त जीवों के लिए अपने वित्त का त्याग करने का रत्नत्रय के योग्य साधनों को प्रदत्त करने की इच्छा का नाम दान है।धवला १३/५, ५-१३७/३८९/१२१ आचार्यों ने अपनी कृतियों में दान के विभिन्न भेदों की चर्चा की है। सर्वार्थसिद्धि सवार्थसिद्धि ६/१२/३३८/११। में आहारदान, अभयदान तथा ज्ञानदान नामक तीन दानों की चर्चा की है। जबकि सागारधर्मामृत सागारधर्मामृत ५/४७। के अनुसार सात्त्विक, राजस, तामस आदि तीन प्रकार के दान होते हैं। किन्तु मुख्य रूप से दान को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है—अलौकिक व लौकिक। अलौकिक दान साधुओं को दिया जाता है, जो चार प्रकार का है—आहार, औषध, ज्ञान व अभय तथा लौकिक दान साधारण व्यक्तियों को दिया जाता है। जैसे—समदत्ति, करुणदत्ति, औषधालय, स्कूल, प्याऊ आदि खुलवाना। श्रवणबेलगोला के लगभग दो सौ अभिलेखों में दान परम्परा के उल्लेख मिलते हैं। इनमें मुख्य रूप से ग्रामदान, भूमिदान, द्रव्यदान, वसदि (मन्दिरों) का निर्माण व जीर्णोद्धार, मूर्ति दान, निषद्या निर्माण, आहार दान, तालाब, उद्यान, पट्टशाला (वाचनालय) चैत्यालय स्तम्भ तथा परकोटा आदि का निर्माण जैसे दान र्विणत हैं। इन दानों का अलौकिक व लौकिक नामक दो भागों में विभक्त किया जाता है—
अलौकिक दान
जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि अलौकिक दान साधुओं को दिया जाता है क्योंकि लौकिक दान में जिन वस्तुओं की गणना की गई है, जैनाचार में उन वस्तुओं को मुनियों के ग्रहण करने योग्य नहीं बतलाया गया है। श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में अलौकिक दान में केवल आहार दानजैन शिलालेख संग्रह, भाग एक, लेख संख्या ९९-१०१, ४९७। का उल्लेख मिलता है।
आहार दान
आहार दान का अत्यन्त महत्त्व है। इसके महत्त्व का उल्लेख करते हुए पंचिंवशतिकापंचिंवशतिका ७/१३। में बतलाया गया है कि जैसे जल निश्चय करके रुधिर को धो देता है, वैसे ही गृहरहित अतिथियों का प्रतिपूजन करना अर्थात् नवधाभक्तिपूर्वक आहारदान करना भी निश्चय करके गृहकार्यों से संचित हुए पाप को नष्ट करता है। श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में भूमि रहन से मुक्त करने पर तथा कष्टों के परिहार होने पर आहारदान की घोषणा की है कि चुवडि सेट्टि ने मेरी भूमि रहन से मुक्त कर दी, इसलिए मैं सदैव एक संघ को आहार दूंगा। अष्टादिक्पालक मण्डप के एक स्तम्भ पर उत्कीर्ण लेख में कहा है कि चौडी सेट्टि ने हमारे कष्ट का परिहार किया है, इस उपलक्ष्य में मैं सदैव एक संघ को आहार दूंगा। जबकि इसी स्तम्भ पर उत्कीर्ण दूसरे अभिलेख में९ आपद् परिहार करने पर वर्ष में छह मास तक एक संघ को आहार देने की घोषणा की है। इस प्रकार आलोच्य अभिलेखों के समय में आहार दान की परम्परा विद्यमान थी।
लौकिक दान
जो दान साधारण व्यक्ति के उपकार के लिए दिया जाता है, उसे लौकिक दान कहते हैं। इसके अन्तर्गत औषधालय स्कूल, प्याऊ, वसदि, मन्दिर, मूर्ति आदि का निर्माण व जीर्णोद्धार तथा ग्राम, भूमि, द्रव्य आदि के दान सम्मिलित किए जाते हैं। आलोच्य अभिलेखों में इस दान के उल्लेख पर्याप्त मात्रा में विद्यमान हैं, जिनका वर्णन इस प्रकार है—
(१) ग्राम दान
श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में ग्राम दान सम्बन्धी उल्लेख प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। ग्रामों का दान—मन्दिरों में पूजा, आहारदान या जीर्णोद्धार के लिए किया जाता था। इन ग्रामों की आय से ये सभी कार्य किए जाते थे। शान्तला देवी द्वार बनवाये गए मन्दिर के लिए प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव को एक ग्राम का दान दिया गया।१० मैसूर नरेश कृष्णराज ओडेयर ने भी जैन धर्म के प्रभावनार्थ बेल्गुल सहित अनेक ग्रामों को दान में दिया।११ कभी—कभी राजा अपनी दिग्विजयों में लौटते हुए मूर्ति के दर्शन करने के उपरान्त ग्राम दान की घोषणा करते थे। गोम्मटेश्वर मूर्ति के पास ही पाषाण खण्ड पर उत्कीर्ण एक अभिलेख१२ के अनुसार राजा नरिंसह जब बल्लाल नृप, ओडेय राजाओं तथा उच्चङ्गि का किला जीतकर वापिस लौट रहे थे तो मार्ग में उन्होंने गोम्मटेश्वर के दर्शन किए तथा पूजनार्थ तीन ग्रामों का दान दिया। चन्द्रमौलि मन्त्री की पत्नी आचल देवी द्वारा र्नििमत अक्कन वसदि में स्थित जिन मन्दिर को चन्द्रमौलि की प्रार्थना से होय्सल नरेश वीर बल्लाल में बम्मेयनहल्लि नामक ग्राम का दान दिया।१३ मन्त्री हुल्लराज ने भी नयर्कीित सिद्धान्तदेव१४ और भानुर्कीित१५ को सवणेरु ग्राम का दान दिया। बम्मेयहल्लि नामक ग्राम के सम्मुख एक पाषाण पर उत्कीर्ण एक लेख के अनुसार१६ आचल देवी ने बम्मेयहल्लि नामक ग्राम का दान दिया। इसी प्रकार कई अभिलेखों में आजीविका, आहार पूजनादि के लिए ग्राम दान के भी उल्लेख मिलते हैं। शासन वसदि के सामने एक शिलाखण्ड पर उत्कीर्ण अभिलेख के अनुसार१७, विष्णुवर्धन नरेश से पारितोषिक स्वरूप प्राप्त हुए, ‘परम’ नामक ग्राम को गङ्गराज ने अपनी माता पोचलदेवी तथा भार्या लक्ष्मी देवी द्वारा निर्मापित जिन मन्दिरों की आजीविका के लिए अर्पण किया। महा—प्रधान हुल्लमय ने भी अपने स्वामी होय्सल नरेश मारिंसहदेव से पारितोषिक में प्राप्त सवणेरु ग्राम का गोम्मट स्वामी की अष्टविध पूजा तथा मुनियों के आहार के लिए दान दिया।१८ वीर बल्लाल राजा ने भी ‘बेक्क’ नामक ग्राम का दान गोम्मटेश्वर की पूजा के लिए ही किया था।१९ कण्ठीरायपुर ग्राम के लेखानुसार२० गङ्गराज ने पाश्र्वदेव और कुक्कुटेश्वर की पूजा के लिए गोविन्दपाडि नामक ग्राम का दान दिया। चतुा\वशति तीर्थंकर पूजा के लिए बल्लाल देव ने मारुहल्लि तथा बेक्क ग्राम का दान दिया।२१ शल्य नामक ग्राम का दान वसदियों के जीर्णोद्धार तथा मुनियों की आहार व्यवस्था के लिए किया गया था।२२ किन्तु आलोच्य अभिलेख में दो अभिलेख२३ ऐसे हैं जिनके अनुसार ग्राम दान, दानशाला, कुण्ड, उपवन तथा मण्डप आदि की रक्षा के लिए किया गया। इस प्रकार हम अभिलेखों से यह जान पाते हैं कि र्धािमक कार्यों की सिद्धि के लिए ग्राम दान की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही थी।
(२) भूमि दान
आलोच्य काल में ग्राम दान के साथ—साथ भूमि दान की भी परम्परा थी। श्रेवणबेलगोला के अभिलेखों में ऐसे अनेक उल्लेख मिलते हैं जिनमें भूमि दान के प्रयोजन का वर्णन मिलता है। मुख्यत: भूमि दान का प्रयोजन अष्टविध पूजन, आहार दान, मन्दिरों का खर्च चलाना होता था। कुम्बेनहल्लि ग्राम के एक अभिलेख के अनुसार वादिराज देव ने अष्टविध पूजन तथा आहार दान के लिए कुछ भूमि का दान किया।२४ इसी प्रकार के उल्लेख अन्य अभिलेखों में२५ भी मिलते हैं। श्रवणबेलगोला के ही कुछ अभिलेखों में ऐसे उल्लेख मिलते हैं जिनमें दान की हुई भूमि के बदले प्रतिदिन पूजा के लिए पुष्पमाला प्राप्त करने का वर्णन है। गोम्मटेश्वर द्वार के दायीं ओर पाषाण खण्ड पर उत्कीर्ण एक अभिलेख के अनुसार२६ बेल्गुल के व्यापारियों ने गङ्ग समुद्र और गोम्मटपुर की कुछ भूमि खरीदकर उसे गोम्मटदेव की पूजा हेतु पुष्प देने के लिए एक माली को सदा के लिए प्रदान की थी। इसी प्रकार के वर्णन अन्य अभिलेखों में२७ भी मिलते हैं। कुछ ऐसे भी अभिलेख हैं जिनमें वसदि या जिनालय के लिए भूमिदान के प्रसंग मिलते हैं। मंगायि वसदि के प्रवेश द्वार के साथ ही उत्कीर्ण एक लेख में वर्णन मिलता है कि पण्डितदेव के शिष्यों ने मंगायि वसदि के लिए दोड्डन कट्टे की कुछ भूमि दान की।२८ नागदेव मन्त्री द्वारा कपठपाश्र्वदेव वसदि के सम्मुख शिलाकुट्टम और रङ्गशाला का निर्माण करवाने तथा नगर जिनालय के लिए कुछ भूमिदान करने का उल्लेख एक अभिलेख२९ में मिलता है। उस समय में भूमि का दान रोगमुक्त होने या कष्ट मुक्त तथा इच्छा र्पूित होने पर भी किया जाता था। महासामन्ताधिपति रणावलोक श्री कम्बयन् के राज्य में मनसिज की रानी के रोगमुक्त होने के पश्चात् मौनव्रत समाप्त होने पर भूमि का दान किया।३० लेख में भूमि दान की शर्त भी लिखी है कि जो अपने द्वारा या दूसरे दान की गई भूमि का हरण करेगा, वह साठ हजार वर्ष कीट योनि में रहेगा। गन्धवारण वसदि के द्वितीय मण्डप पर उत्कीर्ण लेख में पट्टशाला (वाचनालय) चलाने के लिए भूमि दान का उल्लेख है।३१ भूमि दान से सम्बन्धित अनेक उल्लेख अन्य अभिलेखों में भी मिलते हैं।३२ इस प्रकार हम देखते हैं कि तत्कालीन दान परम्परा में भूमि दान का महत्त्वपूर्ण स्थान था, जिससे प्राय: सभी प्रयोजन सिद्ध किए जाते थे।
(३) द्रव्य (धन) दान
श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में नगद राशि के दान स्वरूप भेंट करने के उल्लेख मिलते हैं उस धन से पूजा, दुग्धाभिषेक इत्यादि का आयोजन किया जाता था। गोम्मटेश्वर द्वार के पूर्वी मुख पर उत्कीर्ण एक लेख के अनुसार कुछ धन का दान तीर्थंकरोंके अष्टविधपूजन के लिए किया गया था।३३ चन्द्रर्कीित भट्टारकदेव के शिष्य कल्लल्य ने भी कम से कम छह मालाएँ नित्य चढ़ाने के लिए कुछ धन का दान किया।३४ राजा भी धन का दान किया करते थे। उन्हें जिस ग्राम में निर्मित मन्दिर इत्यादि के लिए दान करना होता था, उस ग्राम के समस्त कर इस र्धािमक कार्य के लिए दान कर देते थे। राजा मारिंसह देव ने भी गोम्मटपुर के टैक्सों का दान चतुा\वशति तीर्थंकर वसदि के लिए किया था।३५ द्रव्य दान की एक विधि चन्दा देने की परम्परा भी होती थी। चन्दा मासिक या र्वािषक दिया जाता था। मोसले के वड्ड व्यवहारि बसववेट्टि द्वारा प्रतिष्ठापित चौबीस तीर्थंकरों के अष्टविध पूजन के लिए मोसले के महाजनों ने मासिक चन्दा देने की प्रतिज्ञा की।३६ मासिक के अतिरिक्त र्वािषक चन्दा देने के उल्लेख भी मिलते हैं। चतुा\वशति तीर्थंकरों के अष्टविध पूजार्चन के लिए मोसल के कुछ सज्जनों ने र्वािषक चन्दा देने की प्रतिज्ञा की।३७ गोम्मटेश्वर द्वारा पर उत्कीर्ण एक लेख के अनुसार३८ बेल्गुल के समस्त जौहरियों ने गोम्मटदेव और पाश्र्वदेव के पुष्प पूजन के लिए र्वािषक चन्दा देने का संकल्प किया था। प्रतिमा के दुग्धाभिषेक के लिए द्रव्य का दान करना अत्यन्त श्रेष्ठ माना जाता था। कोई भी व्यक्ति कुछ सीमित धन का दान करता था। उस धन के ब्याज से जितना दूध प्रतिदिन मिलता था, उससे दुग्धाभिषेक कराया जाता था। आदियण्ण ने गोम्मटदेव के नित्याभिषेक के लिए चार गद्याण का दान किया, जिसके ब्याज से प्रतिदिन एक ‘बल्ल’ दूध मिलता था।३९ हुलिगेरे के सोवणा ने पांच गद्याण का दान दिया, जिसके ब्याज से प्रतिदिन एक ‘बल्ल’ दूध मिलता था।४० इसी प्रकार दुग्धदान के लिए अन्य उदाहरण४१ भी आलोच्य अभिलेखों में देखे जा सकते हैं। अष्टादिक्पालक मण्डप के स्तम्भ पर खुदे एक लेख के अनुसार४२ पुट्ट देवराजै अरसु ने गोम्मट स्वामी की र्वािषक पाद पूजा के लिए एक सौ वरह का दान दिया तथा गोम्मट सेट्टि ने बारह गद्याण का दान दिया।४३ इसके अतिरिक्त श्रीमती अव्वे ने चार गद्याण का तथा एरेयङ्ग ने बारह गद्याण का दान दिया
(४) वसदि (भवन) निर्माण
आलोच्य अभिलेखों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि उस समय वसदि निर्माण भी दान परम्परा का एक अंग था। ये वसदियाँ पूर्वजों की स्मृति में जन—साधारण के कल्याणार्थ बनवाई जाती थी। आज भी पार्श्वनाथ, कत्तले, चन्द्रगुप्त, शान्तिनाथ, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रपभ, चामुण्डराय, शासन, मज्जिगण्ण, एरछुकट्टे, सवतिगन्धवारण, तोरिन, शान्तीश्वर, चेन्नण, आदेगल, चौबीस तीर्थंकर, भण्डारि, अक्कन सिद्धांत, दानशाले मङ्गरिय आदि बस्दियों को खंडित अवस्था में देखा जा सकता है। ये वसदियाँ गर्भगृह, सुखनासि, नवरङ्ग मानस्तम्भ, मुखमण्डप आदि से युक्त होती थीं। इन्हीं उपरोक्त वसदियों के निर्माण की गाथा ये अभिलेख कहते हैं। दण्डनायक मङ्गरय्य ने कत्तले बस्ति अपनी माता पोचब्बे के लिए निर्माण करवाई थी।४६ गन्धवारण वसदि में प्रतिष्ठापित शान्तीश्वर की पादपीठ पर उत्कीर्ण लेख के अनुसार४७ शान्तलदेवी ने इस बस्दि का निर्माण कराया था तथा अभिषेकार्थ एक तालाब भी बनवाया था।४८ इसी प्रकार भरतय्य ने भी एक तीर्थस्थान पर वसदि का निर्माण कराया, गोम्मटदेव की रंगशाला निर्मित कराई तथा दो सौ वसदियों का जीर्णोद्धार कराया।४९ इसके अतिरिक्त समय—समय पर दानकत्र्ताओं ने परकोटे इत्यादि का निर्माण करवाया था।
(५) मन्दिर निर्माण
भारतवर्ष में मन्दिर निर्माण की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। आलोच्य अभिलेखों में भी मन्दिर निर्माण के अनेकों उल्लेख प्राप्त होते हैं। राष्ट्रकूट नरेश मारिंसह ने अनेक राजाओं को परास्त किया तथा अनेक जिन मन्दिरों का निर्माण करवाकर अन्त में सल्लेखना व्रत का पालन कर बंकापुर में देहोत्सर्ग किया।५० अभिलेखों के अध्ययन से इतना तो ज्ञात हो ही जाता है कि मन्दिरों का निर्माण प्राय: बेल्गोल नगर में ही किया जाता था। क्योंकि यह नगर उस समय में जैनधर्म का प्रमुख केन्द्र था। शासन वसदि में पार्श्वनाथ की पादपीठ पर उत्कीर्ण लेख के अनुसार५१ चामुण्ड के पुत्र और अजितसेन मुनि के शिष्य जिनदेवण ने बेल्गोल नगर में जिन मन्दिर का निर्माण करवाया। दण्डनायक एच ने भी कोपड़, बेल्गोल आदि स्थानों पर अनेक जिन मन्दिरों का निर्माण करवाया।५२ आचलदेवी ने पार्श्वनाथ का निर्माण भी बेलगोल तीर्थ पर ही करवाया।५३ मन्दिर निर्माण में जन—साधारण के अतिरिक्त राजा भी अपना पूर्ण सहयोग देते थे। गङ्ग नरेशों ने कल्लङ्गेरे में एक विशाल जिन मन्दिर व अन्य पाँच जिन मन्दिरों का निर्माण करवाया तथा बेल्गोल नगर में परकोटा, रङ्गशाला व दो आश्रमों सहित चतुा\वशति तीर्थंकर मन्दिर का निर्माण करवाया।५४ राजाओं के अतिरिक्त उनकी पत्नियों द्वारा करवाये गए मन्दिर निर्माण के उल्लेख भी मिलते हैं।५५ मल्लकेरे (मनलकेरे) ग्राम में ईश्वर मन्दिर के सम्मुख एक पत्थर पर लिखित एक लेख५६ में वर्णन मिलता है कि सातण्ण ने मनलकेरे में शान्तिनाथ मन्दिर का पुर्निनर्माण तथा उस पर सुवर्ण कलश की स्थापना कराई।
(५) मूर्ति निर्माण
आलोच्य अभिलेखों के अध्ययन से तत्कालीन मूर्ति निर्माण की परम्परा का भी हमें ज्ञान होता है। भारतवर्ष में श्रवणबेलगोलस्थ बाहुबलि की प्रतिमा सुप्रसिद्ध है। एक अभिलेख के अनुसार५७ इस मूर्ति की प्रतिष्ठापना चामुण्डराज ने करवाई थी। अखण्डबागिलु की शिला पर उत्कीर्ण एक लेख में वर्णन आता है कि भरतमय्य ने बाहुबलि की मूर्ति का निर्माण कराया।५८ किन्तु बाहुबली की मूर्तियों के अतिरिक्त अन्य तीर्थंकरों आदि की मूर्तियों के निर्माण के उल्लेख भी अभिलेखों में उपलब्ध होते हैं। तञ्जनगर के शत्तिरम् अप्पाउ श्रावक के प्रथम चतुर्दश तीर्थंकरों की मूर्तियाँ निर्माण कराकर र्अिपत की।५९ एक अन्य अभिलेख में भी श्रावक द्वारा पञ्चपरमेष्ठी की मूर्ति निर्मित कराकर अर्पण करने का उल्लेख मिलता है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि उस समय मूर्तियों का निर्माण दानार्थ भेंट करने के लिए भी करवाया जाता था।
(६) जीर्णोद्धार
पुराने मन्दिरों या वसदियों आदि का जीर्णोद्धार करवाना भी उतना ही पुण्य का कमा समझा जाता था, जितना कि मन्दिरों को बनवाना। श्रवणबेल्गोला के अभिलेखों में भी जीर्णोद्धार सम्बन्धी उद्धरण पर्याप्त मात्रा में देख जा सकते हैं। शासन बस्दि के एक लेखक के अनुसार६१ गङ्गराज ने गङ्गवाडि परगने के समस्त जिन मन्दिरों का जीर्णोद्धार कराया। महामण्डलाचार्य देवर्कीित पण्डितदेव ने प्रतापपुर की रूपनारायण वसदि का जीर्णोद्धार व जिननाथपुर में एक दानशाला का निर्माण करवाया।६२ इसके अतिरिक्त पालेद पदुमयण्ण ने वसदि का६३ तथा मन्त्री हुल्लराज ने बंकापुर के दो भारी और प्राचीन मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाया।६४ इसके अतिरिक्त अन्य अभिलेखों६५ में भी वसदियों या मन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाने के उल्लेख मिलते हैं।
(७) निषद्या निर्माण
अर्हदादिकों व मुनियों के समाधिस्थान को निषद्या कहते हैं। श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में निषद्या निर्माण से सम्बन्धित अनेक उल्लेख प्राप्त होते हैं। इसका निर्माण प्राकशयुक्त व एकान्त स्थान पर किया जाता था। यह वसदि से न तो अधिक दूर तथा न ही अधिक समीप होता था। इसका निर्माण समतल भूमि तथा क्षपक वसदि की दक्षिण अथवा पश्चिम दिशा में होता था। अभिलेखों के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि निषद्या गुरु, पति, भ्राता, माता आदि की स्मृति में बनवाई जाती थी। चट्टिकब्बे ने अपने पति की निषद्या का निर्माण करवाया था।६६ सिरियब्बे न नागियक्क ने सिङ्गिमय के समाधिमरण करने पर निषद्या का निर्माण करवाया।६७ महानवमी मण्डप में उत्कीर्ण अभिलेख के अनुसार६८ शुभचन्द्र मुनि का स्वर्गवास होने पर उनके शिष्य पद्मनन्दि पण्डितदेव और माधवचन्द्र ने उनकी निषद्या निर्मित करवाई। लक्खनन्दि, माधवेन्द्र और त्रिभुवनमल ने भी अपने गुरु के स्मारक रूप में निषद्या की प्रतिष्ठापना करवाई थी।६९ मुनिराजों के अतिरिक्त राजा या उनके मन्त्री भी अपनु गुरु आदि की स्मृति में निषद्या का निर्माण करवाते थे। पोय्सल महाराज गंगनरेश विष्णुवद्र्धन ने अपने गुरु शभुचन्द्र देव की निषद्या निर्मित करवाई थी।७० मन्त्री नागदेव ने भी अपने गुरु श्री नयनर्कीित योगीन्द्र की निषद्या निर्मित करवाई।७१ मेघचन्द्र त्रैविद्य के प्रमुख शिष्य प्रभाचन्द्र सिद्धान्तदेव ने महाप्रधान दण्डनायक गंगराज से अपने गुरु की निषद्या का निर्माण करवाया था।७२ इनके अतिरिक्त अन्य अभिलेखों में७३ भी निषद्या निर्माण के उल्लेख मिलते हैं।
(९) अन्य दान
पूर्व वर्णित दोनों के अतिरिक्त परकोटा निर्माण, तालाब निर्माण, पट्टशाला निर्माण, चैत्यालय निर्माण तथा स्तम्भ प्रतिष्ठा जैसे अन्य दानों के उल्लेख भी आलोच्य अभिलेखों में उपलब्ण्ध होते हैं। गंगराज ने गंगवाड़ि में प्रतिष्ठापित गोम्मेटश्वर की प्रतिमा का परकोटा तथा अनेक जैन वसदियों का जीर्णोद्धार करवाया।७४ गोम्मटेश्वर द्वार की दायीं ओर एक पाषाण खण्ड पर उत्कीर्ण एक लेख७५ में वर्णन आता है कि बालचन्द्र ने अपने गुरु के स्मारक स्वरूप अनेक शासन रचे तथा तालाब आदि का निर्माण करवाया। बल्लण के संन्यास विधि से शरीर त्याग करने पर उसकी माता व बहन ने उसकी स्मृति में एक पट्टशाला (वाचनालय) स्थापित करवाई।७६ इनके अतिरिक्त चैत्यालय निर्माण७७ और स्तम्भ प्रतिष्ठापना७८ के वर्णन भी श्रवणबेलगोला के अभिलेखों में मिलते हैं। इस प्रकार निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि आलोच्यकाल में दान परम्परा का अत्यन्त महत्त्व था। दान प्राय: अपने पूर्वजों की स्मृति में तथा जन—साधारण के उपकार के लिए दिया जाता था। उस समय वसदि निर्माण, मन्दिर निर्माण तथा जीर्णोद्धार, धन दान, मूर्ति दान, निषद्या निर्माण, तालाब, पट्टशाला, चैत्यालय, परकोटा निर्माण आदि के अतिरिक्त निर्माण व जीर्णोद्धार सम्बन्धी कार्यों के लिए ग्राम व भूमि का दान दिया जाता था। ग्राम व भूमि से प्राप्त होने वाली आय से आहार आदि की व्यवस्था भी की जाती थी। सन्दर्भ : ७. जै. शि. ले. सं. भाग एक, ले. सं. ९९। ८. जै. शि. सं. भाग एक. ले. सं. १००। ९. वही ले. सं. १०१। १०. वही ले. सं. ५६। ११. वही ले. सं. ८३। १२. वही ले. सं. ९०। १३. वही ले. सं. १२४। १४. वही ले. सं. १३६। १५. वही ले. सं० १३७। १६. वही ले. सं. ४९४। १७. वही ले. सं. ५९। १८. वही ले. सं. ८०। १९. वही ले. सं. १०७। २०. वही ले. सं. ४८६। २१. वही ले. सं. ४९१। २२. वही ले. सं. ४९३। २३. वही ले. सं. ४३३ एवं ४८०। २४. जैन शि. सं. भाग एक ले. सं. ४९५। २५. वही ले. सं. ४९६ से ४९९। २६. वही ले. सं. ९२। २७. वही ले. सं. ८८-८९। २८. वही ले. सं. १३३। २९. वही ले. सं. १३०। ३०. वही ले. सं. २४। ३१. वही ले. सं. ५१। ३२. वही ले. सं. ८४, ९६, १२९, १४४, १०८, ४५४, ४७६-७७, ४८४, ४९०, ४९८, ५००। ३३. वही ले. सं. ८७। ३४. वही ले. सं. ९३। ३५. वही ले. सं. १३८। ३६. वही ले. सं. ८६। ३७. जै. शि. सं. भाग एक, ले. सं. ३६१। ३८. वही ले. सं. ९१। ३९. वही ले. सं. ९७। ४०. वही ले. सं. १३१। ४१. वही ले. सं. ९४-९५। ४२. वही ले. सं. ९८। ४३. वही ले. सं. ८१। ४४. वही ले. सं. १३५। ४५. वही ले. सं. ४९२। ४६. वही ले. सं. ६४। ४७. वही ले. सं. ६२। ४८. वही ले. सं. ५६। ४९. वही ले. सं. ११५। ५०. वही ले. सं. ३८१। ५१. वही ले. सं. ६७। ५२. जैन शि. सं. भाग एक ले. सं. १४४ ५३. वही ले. सं. ४९४। ५४. वही ले. सं. १३६। ५५. वही ले. सं. ४४-५८। ५६. वही ले. सं. ४९९। ५७. श्री चामुण्डने राजे करवियले। ’जै. शि. सं. ीाग एक ले.सं. ७५)। ५८. वही ले. सं. ११५। ५९. वही ले. सं. ४४१। ६०. वही ले. सं. ४३७। ६१. वही ले. सं. ५९। ६२. वही ले. सं. ४०। ६३. वही ले. सं. ४७०। ६४. वही ले. सं. १३७। ६५. वही ले. सं. १३४, तथा ४९९। ६६. जै. शि. सं. भाग एक, ले. सं. ६८। ६७. वही ले. सं. ५२। ६८. वही ले. सं. ४१। ६९. वही ले. सं. ३९। ७०. वही ले. सं. ४३। ७१. वही ले. सं. ४२। ७२. वही ले. सं. ४७। ७३. वही ले. सं. ४८, ४०, ४१। ७४. वही ले. सं. ५१, ७५, ९०। ७५. वही ले. सं. ९०। ७६. वही ले. सं. ५१। ७७. वही ले. सं. ४३०। ७८. वही ले. सं. ४६।