‘उक्कस्सएण भत्तपइण्णकालो जिणेहिं णिद्दिठ्ठो । कालम्मि संपहुत्ते बारसवरिसाणि पुण्णाणि।।’
अर्थात् यदि आयु का काल अधिक शेष हो तो जिनेन्द्र भगवान ने उत्कृष्टरूप से भक्तप्रत्याख्यान का काल बारह वर्ष का कहा है। बारह वर्ष प्रमाण कायसल्लेखना के क्रम का विवेचन करते हुए कहा गया है कि वह नाना प्रकार के कायकलेशों के द्वारा चार वर्ष बिताता है। दूध आदि रसों को त्यागकर फिर भी चार वर्ष तक शरीर को सुखाता है। आचाम्ल निर्विकृति द्वारा दो वर्ष बिताता है। फिर आचाम्ल के द्वारा एक वर्ष बिताता है। शेष एक वर्ष के छ: माह मध्यम तप के द्वारा तथा छ: माह उत्कृष्ट तप के द्वारा बिताता है। आहार, क्षेत्र, काल और अपनी शारिरिक प्रकृति को विचार कर इस प्रकार तप करना चाहिए, जिस प्रकार वात, पित्त एवं कफ क्षोम को प्राप्त न हों। धवला में भक्तप्रत्याख्यान का जघन्यकाल अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट काल बारह वर्ष तथा मध्यम काल इन दोनों का अन्तरालवर्ती कहा गया। चारित्रसार में भी सल्लेखना के काल का इसी प्रकार कथन है।‘पायोपगमणमरणं भत्तपइण्णाय इंगिणी चेव । तिविहं पंडितमरणं साहुस्स जहुत्तचारिस्स ।।
अर्थात् पादोपगमन मरण, भक्त प्रतिज्ञा मरण और इंगिनीमरण ये तीनों पण्डितमरण हैं। ये तीनों शास्त्रोक्त चारित्र पालन करने वाले साधु के होते हैं। तत्त्वार्थ सूत्र में पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रतों के धारण श्रावक को मारणान्तिकी सल्लेखना का आराधक कहा गया हैं। जब कोई अव्रती श्रावक व्रती होकर जीवन बिताना चाहता है तो उसे जिस प्रकार बारह व्रतों का पालन करना आवश्यक होता है उसी प्रकार जब व्रती श्रावक मरण के समय धर्मध्यान में लीन रहना चाहता है तो उसे सल्लेखना की आराधना आवश्यक हो जाती है। यद्यपि तत्त्वार्थ सूत्र में सल्लेखना का कथन श्रावक धर्म के प्रसंग में हुआ है, किन्तु यह मुनि और श्रावक दोनों के लिए नि:श्रेयस् का साधन है। राजवार्तिक में तो स्पष्ट रूप से कह दिया गया है – ‘अयं सल्लेखना विधि: न श्रावकस्यैव दिग्विरत्यादिशीलवत:। किं तर्हि संयतस्यापीति अविशेष ज्ञापनार्थत्वाद् वा पृथगुपदेश: कृत:। अर्थात् यह सल्लेखना विधि शीलव्रत धारी श्रावक की ही नहीं है, किन्तु महाव्रती साधु के भी होती है।इस नियम की सूचना पृथक सूत्र बनाने से मिल जाती है। पुरुषार्थ सिद्ध्युपाय में कहा गया है कि ‘मैं मरणकाल में अवश्य समाधिमरण करूंगा’ श्रावक को ऐसी भावना नित्य भाना चाहिए। पं. गोविन्दकृत पुरुषार्थानुशासन में तो अव्रती श्रावक को भी सल्लेखना का पात्र माना गया है। वे लिखित हैं कि यदि अव्रती पुरुष भी समाधिमरण करता है तो उसे सुगति की प्राप्ति होती है तथा यदि व्रती श्रावक भी असमाधि में मरण करता है तो उसे दुर्गति की प्राप्ति होती है। न केवल मनुष्य ही अपितु पशु भी समाधिमरण के द्वारा आत्मकल्याण कर सकता है। उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि अत्यन्त व्रूर स्वभाव वाला सिंह भी मुनि के वचनों से उपशान्त चित्त होकर और संन्यास विधि से मरकर महान् ऋद्धिवान देव हुआ। तत्पश्चात् मनुष्य एवं देव होता हुआ अंत में राजा सिद्धार्थ और रानी प्रियकारिणी के वर्धमान नामक पुत्र हुआ। स्पष्ट है कि सल्लेखना सबके लिए कल्याणकारी है तथा प्रीतिपूर्वक सल्लेखना की आराधना करने वाले मुनि, व्रती श्रावक, अव्रती श्रावक तथा तिर्यंच भी सल्लेखना की साधना करते हैं। किन्तु सिद्धान्त: तो तत्वार्थराजवर्तिक का यह कथन सर्वथा ध्येय है– ‘‘ सप्तशीलव्रत: कदाचित् कस्यचित् गृहिण: सल्लेखनाभिमुख्यं न सर्वस्येति।’’ अर्थात् सात शीलव्रतों को धारण करने वाला कोई एकाध गृहस्थ के ही सललेखना की अभिमुखता होती है, सबके नहीं। अत: मुख्यता साधुओें के ही समझना चाहिए।‘‘एवं वासारत्ते फासेदूण विविधं तवोकम्मं । संथारं पडिवज्जदि हेमंते सुहविहारम्मि ।।
अर्थात् वर्षाकाल में नाना प्रकार के तप करके सुख विहार वाले हेमन्त ऋतु में सल्लेखना का आश्रय लेता है। हेमन्त ऋतु में अनशन आदि करने पर महान् परिश्रम नहीं होता, सुख पूर्वक भक्तप्रत्याख्यान हो जाता है। इसी कारण हेमन्त ऋतु को सुखविहार कहा गया है।‘‘मृत्युराज उपकरी जिय को, तन से तोहि छुड़ावै । नातर या तन बन्दीगृह में, पर्यो पर्यो विललावै ।।’’
हम सबको समाधिमरण प्राप्त हो, इसी पवित्र भावना के साथ विराम।