जो प्रमाद से हुये बहुत से, दोष जीव में आते हैं।
इस प्रतिक्रमण के करने से, वे सभी नष्ट हो जाते हैं।।
इसलिये गृही बोधन हेतु, मलविरहित प्रतिक्रमण विधि को।
मैं कहूं विविध जो कर्म हुये, उन सबके ही प्रक्षालन को।।१।।
मुझ पापिष्ठ दुरात्मा जड़—बुद्धी मायावी लोभी ने।
राग व द्वेष मलिनमन से, जो भी दुष्कर्म निर्मिते हैं।।
हे त्रिभुवन के स्वामिन् ! जिनवर! अब तुम पाद निकट में मैं।
निंदा करके त्याग रहा हूँ, नित सत्पथ का इच्छुक मैं।।२।।
सभी जीव पर क्षमा करू मैं, सब मुझ पर भी क्षमा करो।
सभी प्राणियों से मैत्री हो, बैर किसी से कभी न हो ।।३।।
राग बंध अरु प्रदोष हर्ष, दीन भाव उत्सुकता को।
भय अरु शोक रती अरती को, त्याग करूं दुर्भावों को ।।४।।
हा! दुष्कृत किये हा! दुश्ंचिते, हा ! दुर्वचन कहे मैंने।
कर—कर पश्चाताप हृदय में, झुलस रहा हूँ मैं मन में ।।५।।
द्रव्य क्षेत्र अरु काल भाव से, कृत अपराध विशोधन को।
निन्दा गर्हा से युत हो, प्रतिक्रमण करूं मन वच तन सों।।६।।
एकेन्द्री द्वीन्द्री त्रयइंद्री, चउ इंद्रिय पंचेन्द्री जो।
भू जल अग्नि वायु वनस्पति, त्रसकायिक इन जीवों को।।
मारा ताप दिया पीड़ा दी, घात किया व कराया हो,
करते को अनुमोदा वह सब, दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।७।।
दर्शन व्रत सामायिक प्रोषध, सचित्त त्याग निशभक्त त्यजी।
ब्रह्मचर्य व आरंभ परिग्रह अनुमति—उद्दिष्ट त्यागि ये देशव्रती।।
इन पूर्वकथित ग्यारह प्रतिमा में, दिन भर (रात्रि) में जो दोष हुये।
जो प्रमादादिकृत अतीचार उन सबके शोधन के ही लिये छेदोपस्थान मेरा हो।।८।।
दैवसिक (पाक्षिक) प्रतिक्रमणक्रियायां सर्वातिचारविशुद्धि—निमित्तं पूर्वाचार्यानुक्रमेण आलोचनासिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं। पंचांग प्रणाम कर तीन आवर्त एक शिरोनति करके सामायिक दण्डक पढ़ें।
ढाई द्वीप अरु दो समुद्र गत पन्द्रह कर्म भूमियों में।
जो अर्हंत् भगवंत आदिकर तीर्थंकर जिन जितने हैं।।१।।
तथा जिनोत्तम केवलज्ञानी सिद्ध शुद्धपरि निर्वृत देव ।
पूज्य अंतकृत, भव पारंगत धर्माचार्य धर्म देशक।।२।।
धर्म के नायक धर्मश्रेष्ठ चतुरंग चक्रवर्ती श्रीमान्।
श्री देवाधिदेव अरु दर्शन ज्ञान चरित गुण श्रेष्ठ महान्।।३।।
करूं वंदना मैं कृतिकर्म विधि से ढाई द्वीप के देव।
सिद्ध चैत्य गुरुभक्ति पठन कर नमूं सदा बहुभक्ति समेत।।४।।
भगवन् सामायिक करता हूँ सब सावद्य योग तज कर।
यावज्जीवन वचन कायमन, त्रिकरण से न करूं दु:खकर।।५।।
नहीं कराऊं नहिं अनुमोदूं, हे भगवन् ! अतिचारों को ।
त्याग करूं निंदूं गर्हूं , अपने को मम आत्मा शुचि हो।।६।।
जब तक भगवत् अर्हंदेव की, करु उपासना हे जिनदेव।
तब तक पापकर्म दुष्चारित, का मैं त्याग करूं स्वयमेव।।७।।
(तीन आवर्त एक शिरोनति करके ९ बार महामन्त्र का जाप्य, पुन: पंचांग नमस्कार, तीन आवर्त एक शिरोनति करके मुक्ताशक्ति मुद्रा द्वारा थोस्सामिस्तव पढ़ें।)
स्तवन करूँ जिनवर तीर्थंकर केवलि अनंत जिन प्रभु का।
मनुज लोक से पूज्य कर्मरज मल से रहित महात्मन् का ।।१।।
लोकोद्योतक धर्म तीर्थंकर श्री जिन का मैं नमन करूं।
जिन चउवीस अर्हंत तथा केवलि गण का गुणगान करूं।।२।।
ऋषभ, अजित संभव, अभिनन्दन, सुमतिनाथ का कर वंदन।
पद्मप्रभु जिन श्री सुपार्श्र्व प्रभु चन्द्रप्रभु का कुरूं नमन।।३।।
सुविधि नामधर पुष्पदंत शीतल श्रेयांस जिन सदा नमूं।
वासुपूज्य जिन विमल अनंत धर्म प्रभु शान्तिनाथ प्रणमूं।।४।।
जिनवर कुन्थु अरह मल्लि प्रभु मुनिसुव्रत नमि को ध्याऊं।
अरिष्ट नेमि प्रभु श्री पारस वर्धमान पद शिर नाऊं।।५।।
इस विध संस्तुत विधुत रजोमल जरा मरण से रहित जिनेश।
चौबीसों तीर्थंकर जिनवर मुझ पर हों प्रसन्न परमेश।।६।।
कीर्तित वंदित महित हुए ये लोकोत्तम जिन सिद्ध महान्।
मुझको दे आरोग्यज्ञान अरु बोधि समाधि सदा गुणखान।।७।।
चन्द्र किरण से भी निर्मलतर रवि से अधिक प्रभाभास्वर।
सागर सम गंभीर सिद्धगण मुझको सिद्धि दें सुखकर।।८।।
(तीन आवर्त एक शिरोनति करके वंदना मुद्रा से लघु सिद्ध भक्ति पढ़ें)
श्रीमन् वर्धमान को प्रणमूँ जिनने अरि को नमित किया।
जिनके पूर्ण ज्ञान में त्रिभुवन, गोखुर सम दिखलाई दिया।।१।।
तप से सिद्ध नयों से सिद्ध सुसंयमसिद्ध चारित सिद्धा।
ज्ञान सिद्ध दर्शन से सिद्ध नमूं सब सिद्धों को शिरसा।।२।।
हे भगवन् ! श्री सिद्धभक्ति का कायोत्सर्ग किया उसका।
आलोचन करना चाहूं जो सम्यग्रत्नत्रय युक्ता।।१।।
अठविधि कर्म रहित प्रभु ऊध्र्वलोक मस्तक पर संस्थित जो।
तप से सिद्ध नयों से सिद्ध सुसंयमसिद्ध चरित सिध जो।।२।।
भूत भविष्यत वर्तमान कालत्रय सिद्ध सभी सिद्धा।
नित्यकाल मैं अर्चूं पूजूं, वंदूं नमूं भक्ति युक्ता ।।३।।
दु:खों का क्षय कर्मों का क्षय हो मम बोधि लाभ होवे।
सुगतिगमन हो समाधिमरणं मम जिनगुण संपत् होवे।।४।।
जो पंच उदुंबर फल तजता, अरु सप्त व्यसन को तजता है ।
सम्यक्त्त्व शुद्धाति वह श्रावक, दर्शनप्रतिमायुत होता है।।१।।
अणुव्रत सुपांच गुणव्रत त्रय अरु शिक्षाव्रत चार कहे जाते।
इन बारहव्रत को व्रतप्रतिमा—धारी श्रावक धारण करते।।२।।
जिनवचन धर्म प्रतिमा जिनगृह परमेष्ठी पाँच इनको नित ही।
जो त्रय कालिक वंदन करते उनके सामायिक प्रतिमा ही।।३।।
उत्तम मध्यम जघन्य त्रयविध भाषित प्रोषध निजशक्ति से।
प्रतिमहिने चारों पर्वों में करते वे प्रोषध व्रत धरते।।४।।
जो हरित छाल पत्ते कोंपल फल कंद बीज को हैं तजते।
प्रासुक कर हरित व जल लेते वे सचित्त त्याग प्रतिमा धरते।।५।।
मन वचन काय कृत कारित अनुमति नवविध से जो मैथुन को।
दिन में तजते वे भव्य दिवा—मैथुन विरती प्रतिमाधर हों।।६।।
इन नवविध भी मैथुन को जो, तजकर ब्रह्मचर्य पूर्ण धरते ।
स्त्री विकथादिरहित होकर, वे सप्तम प्रतिमाधारी बनते।।७।।
जो अल्प बहुत या कुछ भी गृह, आरम्भ सदा है तज देते।
आरंभ त्याग अष्टमप्रतिमाधारी वे ही श्रावक होते।।८।।
जो वस्त्रमात्र परिग्रह रखकर अवशेष परिग्रह तजते हैं।
जो है उसमें नहिं ममत करें, वे नवमी प्रतिमा धरते हैं।।९।।
जो स्वपर जनों द्वारा पूछे या नहिं पूछे गृह कार्यों में।
अनुमति नहिं दे वे अनुमतित्यागी प्रतिमाधारी श्रुत में।।१०।।
नवकोटिशुद्ध याचनारहित आहार योग्य परघर में जो ।
भिक्षावृत्ति से ग्रहण करें ग्यारहवीं प्रतिमाधारी वो।।११।।
उद्दिष्टत्यागप्रतिमाधारी उत्तम श्रावक दो विध जानो।
कौपीन दुपट्टाधर क्षुल्लक कौपीनमात्र ऐलक मानो।।१२।।
तव व्रत नियमावश्यक व लोच करते ऐलक पिच्छी धरते ।
करपात्रहारी एक बार अनुप्रेक्षा धर्मध्यान करते ।।१३।।
इनमें जो कुछ भी दिनभर में अतिचार अनाचार दोष हुये ।
(इनमें जो कुछ पन्द्रह दिन में अतिचार अनाचार दोष हुये)
हे भगवन् ! उसका प्रतिक्रमण करता हूँ शोधन हेतु लिये।।
प्रतिक्रम करते हुए मेरा प्रभु! सम्यक्त्व मरण व समाधिमरण।
हो पंडितमरण व वीर्यमरण जिससे नहिं होवे पुनर्जनम।।
दु:खों का क्षय कर्मों का क्षय होवे मम बोधिलाभ होवे।
हो सुगतिगमन व समाधिमरण, मम जिनगुण संपत्ती होवे।।८।।
दर्शन व्रत सामायिक प्रोषध, सचित्तत्याग निशिभुक्ति त्यजी।
ब्रह्मचर्य व आरम्भ परिग्रह अनुमति उद्दिष्टत्यागि ये देशव्रती।।
इन पूर्वकथित ग्यारह प्रतिमा में दिन भर में (रात्रि में) जो दोष हुये।
जो प्रमादादिकृत अतीचार उन सबके शोधन के हि लिये।।१।।
छेदोपस्थान मेरा हो। श्री प्रतिक्रमणभक्ति कायोत्सर्गं करोम्यहं— (पुनः णमो अरिहंताणं इत्यादि सामायिक दण्डक पढ़कर ९ जाप्य करें और थोस्सामिस्तवन पढ़कर प्रतिक्रमण भक्ति पढ़ें।)
नमो जिनेभ्य: ३, नमो निषीधिकायै ३, नमोऽस्तु ते ३।
हे अर्हंत सिद्ध बुद्धा नीरज निर्मल, सममन सुमना।
हे सुसमर्थं परमशभयोग रु शमभावी हे भवशमना।।
शल्य दुखित के शल्यविनाशन, हे निर्भय निराग निर्दोष।
हे निर्मोह विगतममता नि:संग तथा नि:शल्य विरोष।।१।।
मद माया असत्य के मर्दक तप: प्रभावी हे परमेश ।
गुण शीलादिरत्नत्रयसागर! हे अनंत अप्रमेय महेश।।
महति पूज्य महावीर वीर हे वर्धमान हे बुद्धि ऋषीश।
नमस्कार हो नमस्कार हो नमस्कार हो तुम्हें हमेशा।।२।।
मेरा मंगल करें सर्व अर्हंत सिद्ध बुद्धा जिनराज।
केवलि जिन अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी ऋषिराज।।
चौदश पूर्व अंग पारंगत अंग बाह्य श्रुत संपन्ना।
बारह तप तपसी गुण और गुणों युत महाऋद्धि शरणा ।।३।।
तीर्थ और तीर्थंकर प्रवचन प्रवचनयुत व ज्ञान ज्ञानी।
सद्दर्शन सम्यग्दृष्टि संयम व संयमी मुनिध्यानी।।
विनय तथा सुविनययुत साधु ब्रह्मचर्यव्रत ब्रह्मचारी।
गुप्ति गुप्तिधर मुक्ति मुक्तियुत, समिति और समितिधारी।।४।।
स्वमत और परमत के ज्ञाता क्षमाशील अरु क्षपक मुनी।
क्षीणमोह यति बोधितबुद्ध बुद्धि ऋद्धीयुत परममुनी।।
चैत्यवृक्ष जिनबिंब अकृत्रिम कृत्रिम जितने त्रिभुवन में।
मेरा मंगल करें सभी ये, ये मंगलप्रद तिहुंजग में।।५।।
ऊर्ध्व अधो अरु मध्यलोक में सिद्धायतन नमूं उनको।
सिद्ध क्षेत्र अष्टापद सम्मेदाचल ऊर्जयंतगिरि को।।
चंपा पावा नगरि मध्यमा हस्तिबालिका मंडप में।
और अन्य भी मनुज लोक में तीर्थक्षेत्र सबको प्रणमें।।६।।
मोक्षशिला को प्राप्त सिद्ध जिन बुद्ध कर्म से मुक्त महान।
विगत कर्मरज नीरज विरहित भावकर्ममल से अमलान।।
पांच भरत पांच ऐरावत पांचों महाविदेहों में।
सूरि उपाध्याय गुरू प्रवर्तक स्थविर और कुलकर जितने।।७।।
चतुर्वर्णयुत श्रमण संघ के साधु जितने इस जग में।
संयम तपसी ये सब मेरे पावन मंगल हेतु बने ।।
भाव सहित मैं त्रिविधशुद्धियुत अंजलि मस्तक पर धरके।
त्रिविधक्रिया में शीश झुकाकर सबको बंदूं रुचि धरके।।८।।
हे भगवन् ! प्रमिक्रमण करता दर्शनप्रतिमा में शंका से
कांक्षा विचिकित्सा परपाखंड प्रशंसा संस्तव करने से ।।
जो मैंने दिनभर में (पाक्षिक में) मन से वच से तनु से अतिचार किया।
करवाये करते को अनुमति दी दुष्कृत मेरा मिथ्या ही हो।।१।।
हे भगवन् ! प्रतिक्रमण करता व्रत प्रतिमा में पहले व्रत में ।
स्थूलकृत हिंसाविरती में बध बंधन छेदन करने में ।।
अतिभार लादने अन्नपान नहिं देने से जो दिनभर में (पाक्षिक में)
करते करवाये अनुमति दी वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।२-१।।
हे भगवन् ! प्रतिक्रमण करता व्रतप्रतिमा के दूजे व्रत में ।
स्थूलकृत असत्यविरती में मिथ्योपदेश के देने में।।
एकांत बात प्रकटित करने अरु कूटलेख के करने से।
न्यासापहार करने अभिप्राय गुप्त के प्रगटन करने से ।।
जो मैंने दिनभर में (पाक्षिक में) मनवच तनु से अतिचार किये भी हों।
करवाये करते को अनुमति दी दुष्कृत मेरा मिथ्या हो ।।२-२।।
हे भगवन् ! प्रतिक्रमण करता व्रत प्रतिमा के तीजे व्रत में।
स्थूलकृत चौर्यविरती में चोरी के प्रयोग बताने में ।।
चोरी से लाई वस्तु लिया या राज्य सुनीति उल्लंघन की।
हीनाधिक मान उन्मान रखे वस्तू में कुछ भी मिलावट की ।।
मैंने जो दिनभर में (पाक्षिक में) मन वच तनु से अतिचार किये कुछ हों।
करवाये करते को अनुमति दी दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।२-३।।
हे भगवन् ! प्रतिक्रमण करता व्रतप्रतिमा के चौथे व्रत में।
स्थूलकृत अब्रह्मविरती में पर का विवाह करवाने में।।
अनंगक्रीड़ा कामतीव्रता अभिलाषा के करने में मैंने दिनभर में (पाक्षिक में)
मन वच तन से जो कुछ भी अतिचार किया। करवाये
या अनुमति दी हो वह दुष्कृत मेरा हो मिथ्या।।२-४।।
हे भगवन् ! प्रतिक्रमण करता व्रत प्रतिमा के पंचमव्रत में।
स्थूल परिग्रह प्रमाण में जो क्षेत्र वास्तु परिमाण में।।
धनधान्य व दासी दास व चांदी सोना कूप्य भांड इनका।
परिमाण किया उनका अतिक्रम करने से हुये अतिचारों का ।।
मैंने दिनभर में (पाक्षिक में) मन वच तन से जो कुछ भी अतिचार किया।
करवाये या अनुमति दी हो वह दुष्कृत मेरा हो मिथ्या।।२-५।।
हे भगवन् ! प्रतिक्रमण करता व्रत प्रतिमा के पहला गुणव्रत ।
इसमें जो ऊध्र्व अतिक्रम अधोअतिक्रम तिर्यक् अतिक्रमकृत।।
जो क्षेत्रवृद्धि अरु विस्मृति से अतिचार दिवस भर में किये हों।
(पक्षभर में) मन वच तन से करवाये अनुमति दी वह दुष्कृत मिथ्या हो।२-६-१
हे भगवन् ! प्रतिक्रमण करता व्रतप्रतिमा का दूजा गुणव्रत।
मर्यादा बाहर कुछ भी वस्तु मंगायी या भेजी हो कुछ ।।
शब्दों से कुछ संकेत रूपसंकेत व पुद्गल क्षेपण से।
जो मैंने ये अतिचार किये हों मन वच तनु से दिनभर में।
(पाक्षिक में) करवाये या अनुमति दी हो वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।२-७-२।।
हे भगवन् ! प्रतिक्रमण करता व्रतप्रतिमा में तीजा गुणव्रत।
उसमें कन्दर्प व कौत्कुच्य मौखर्य तथा असमीक्षित कृत।।
भोगोपभोग आनर्थक ये दिनभर में (पाक्षिक में) जो अतिचार किया।
मन वच तन से करवाये अनुमति दी वह दुष्कृत, हो मिथ्या।।२-८-३।।
हे भगवन् ! प्रतिक्रमण करता व्रतप्रतिमा में जो शिक्षाव्रत।
पहले में स्पर्शनेंद्रिय भोगपरिमाण तथा अतिक्रमण से जो कृत।।
रसनेंद्रिय भोग परिमाण तथा घ्राणेंद्रिय भोग परिमाण कहा।
नेत्रेंद्रिय भोग परिमाण और श्रोत्रेंद्रिय भोग परिमाण कहा।।
जो दिनभर में (पाक्षिक में) मन वच तन से परिमाणों का अतिक्रमण किया।
करवाया हो अनुमति दी हो वह दुष्कृत मिथ्या हो ।।२-९-१।।
हे भगवन् ! प्रतिक्रमण करता व्रत प्रतिमा में जो शिक्षाव्रत ।
दूजा परिभोगपरिमाणं इसमें पंचेद्रिय विषयों कृत।।
स्पर्शेंद्रिय परिभोग व श्रोत्रेंद्रिय परिभोग विषय ।।
इनके परिणामों का मैंने अतिक्रमण किया दिनभर में (पाक्षिक में) जो।
मन वच तन से करवाया अनुमति दी वह दुष्कृत मिथ्या हो ।।२-१०-२।।
हे भगवन् ! प्रतिक्रमण करता व्रत प्रतिमा में शिक्षाव्रत जो ।
तीजा है अतिथीसंविभाग उसमें सचित्त में रखना जो।।
सचित्त से ढकना पर के या उपदेश से या कालातिक्रम।
मत्सरता कर आहार दिया जो मैंने दिनभर में (पाक्षिक में) अतिक्रम।।
मन वच तनु से यदि किया दोष या अन्यों से करवाया हो ।
या करते को अनुमति दी हो वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।२-११-३।।
हे भगवन् ! प्रतिक्रमण करता व्रतप्रतिक्रमण में जो है चौथा।
शिक्षाव्रतद सल्लेखन इसमें जीवित आशा मरणाकांक्षा।।
मित्रानुराग सुख अभिलाषा व निदान भाव दिनभर में जो।
त्रिकरण से किया कराया अनुमति दी वह दुष्कृत मिथ्या हो।।२-१२-४।।
हे भगवन् ! प्रतिक्रमण करता तीजी सामायिक प्रतिमा में।
मनदुष्परिणति वच दुष्परिणति तनुदुष्परिणति के करने में ।।
या किया अनादर विस्मृति करके पढ़ा पाठ सामायिक में।
दिनसंबंधी अतिचार किये जो मन वच काया में मैंने ।।
करवाया या अनुमति दी हो वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।३।।
हे भगवान् ! प्रतिक्रमण करता हूँ चौथी प्रोषधप्रतिमा में।
बिन देखे शोधे कुछ भी रखा बिन देखे शोधे लेने में।।
बिन देखे शोधे संस्तर आदि बिछाया या आवश्यक में ।
यदि किया अनादर या विस्मृति से भूल किया आवश्यक में ।।
दिनसंबंधी मन वच तनु से जो मैंने अतिचार किया।
जो करवाया या अनुमति दी वह दुष्कृत मेरा हो मिथ्या ।।४।।
हे भगवन् ! प्रतिक्रमण करता हूँ सचित्तविरती प्रतिमा में ।
भूकायिक जीव असंख्यातासंख्यात व जलकायिक इतने।।
अग्नीकायिक वायुकायिक भि असंख्यातसंख्यात कहे।
जो वनस्पतिकायिक प्राणी ये सभी अनंतानंत रहें।।
ये हरित बीज अंकुरे छिन्न भिन्नादि इन्हों को त्रास दिया।
परिताप विराधन कर उपघात किया या पर से करवाया।।
या करते को अनुमति दी हो वह दुष्कृत मेरा हो मिथ्या ।।५।।
हे भगवन् ! प्रतिक्रमण करता हूँ रात्रिभक्त१ की प्रतिभा में।
नवविध ब्रह्मचर्य में दिन में अतिचार अनाचार मैंने ।।
मन वच तनु से दैवसिक (पाक्षिक) में जोदोष किये व कराये हों।
करते को भी अनुमति दी हो वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।६।।
हे भगवन् ! प्रतिक्रमण करता हूँ ब्रह्मचर्यव्रत प्रतिभा में।
स्त्रीकथा से स्त्रीमनोहर अंग निरीक्षण से मैंने ।।
पूर्वभोगस्मरण कामवर्धनरससेवन तनु संस्कार ।
इनसे जो मन वच तन से दैवसिक (पाक्षिक) हुये अतिचार अनाचार ।।
मैंने जो किये कराये हों या करते को अनुमति दी हो ।
जो ब्रह्मचर्यव्रत संबंधी वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।७।।
हे भगवन् ! प्रतिक्रमण करता हूँ आरंभविरति प्रतिमा में ।
कषाय के वश हो आरंभ मन वच तन से दिनभर में (पाक्षिक में)।।
जो मैंने किया कराया हो या करते को अनुमति दी हो ।
यह गृहारंभ संबंधी मेरा वह सब दुष्कृत मिथ्या हो ।।८।।
हे भगवन् ! प्रतिक्रमण करता हूँ परिग्रहविरती प्रतिमा में।
बस वस्त्रमात्रपरिग्रह से जो अवशेष परिग्रह हो उसमें।।
मैं किया ममतपरिणाम दिवस में अतिचार अनाचार किया।
करवाया या अनुमति दी हो वह दुष्कृत मेरा हो मिथ्या।।९।।
हे भगवन् ! प्रतिक्रमण करता हूँ अनुमतिविरति प्रतिमा में।
पूछे या बिन पूछे जो कुछ, भी अनुमति दी होवे मैंने।
दिलवायी या अनुमति देते का अनुमोदन में कीया हो।
दिनभर संबंधी (पाक्षिक) इसका वह सब दुष्कृत मेरा मिथ्या हो ।।१०।।
हे भगवन् ! प्रतिक्रमण करता हूँ उद्दिष्टविरति प्रतिमा में ।
निशदिन में उद्दिष्टदोषयुत जो आहार किया मैंने ।।
पर से यह आहार कराया करते को अनुमति दी हो ।
ग्यारहवीं प्रतिमा का यह सब ही दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।।११।।
हे भगवन् ! इच्छा करता हूँ , ऐसे निर्गंथरूप की ही
जिनआगमकथित अनुत्तर यह केवलिसंबंधी पूर्ण यही।।
रत्नत्रयमय नैकायिक सम—एकत्वरूप सामायिक है।
संशुद्ध शल्ययुतजन का शल्यविघातक और सिद्धिपथ है।।१।।
यह श्रेणिमार्ग अरु क्षमामार्ग, मुक्तीपथ तथा प्रमुक्तिपथ है।
यह मोक्षमार्ग व प्रमोक्षमार्ग , निर्यानपथ रु निर्वाणपथ है।।
यह सर्वदु:खपरिच्युतीमार्ग, सुचरित्र परि निर्वाणमार्ग ।
अविसंवादक प्रवचन उत्तम, आश्रयते इसको मुनीनाथ ।।२।।
इसकी मैं श्रद्धा करता हूँ , इसकी ही प्राप्ती करता हूँ ।
इसमें ही मैं रुचि रखता हूँ, इसका ही स्पर्श करता हूँ ।।
इससे बढ़कर नहिं अन्य कोई, नहिं हुआ न होगा आगे भी ।
सुज्ञान से दर्शन से चरित्र से, सूत्र से मुनि धरते यह भी।।३।।
इससे ही जीव सिद्ध होते बुद्ध, होते ऋद्धि पाते।
मुक्ती पाते निर्वाण प्राप्त—कृतकृत्य निजात्मसौख्य पाते।।
शारीरिक मानस आगंतुक, सब दु:खों का क्षय कर देते ।
संपूर्ण चराचर त्रिभुवन को , वे ही साक्षात् जान लेते।।४।।
मैं श्रमण—मुनी हूँ संयत हूँ , मैं उपरत हूँ उपशांत भि हूं।
परिग्रह वंचन व मान माया , अरु असत्य से अतिविरक्त हूँ।।
मिथ्या अज्ञान मिथ्यादर्शन, मिथ्याचरित्र से विरक्त हूँ।
सम्यग्ज्ञान सम्यग्दर्शन सम्यक्चारित्र में रूचि रखता हूं।।५।।
जो जिनवर भाषित हैं इनमें, मुझसे दिनभर में (रात्रि में) कुछ भी जो।
अतिचार अनाचार दोष हुये, वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो ।।६।।
हे भगवन् ! मैं इच्छा करता हूँ वीर भक्ति के व्युत्सर्ग की।
जो मुझसे दिनभर में अतिचार अनाचार आभोग यदी।।
हुये अनाभोग कायिक वाचिक, मानस तथैव दुष्परिणामों से ।।१।।
सुज्ञान में दर्शन में चरित्र में, जिनसूत्रों में सामायिक में ।
ग्यारह प्रतिमा के विराधन में, अरु अष्टकर्म निर्घातन में।।
बहु अन्य प्रकारों से उच्छ्वास तथा निश्वास के लेने से।
अरु आँख खोलने पलक झपकने, खांसी छींक जंभाई से ।।२।।
बहु सूक्ष्म अंग के हिलने डुलने, नेत्र चलाकर करने से ।
जो दोष किये इन सब असमाधी कारक बहु आचरणों से ।।
मैं जब तक अर्हंत् भगवंतों की पर्युपासना करता हूं।
तब तक तो पापकर्म दुश्चारित इन सबको मैं तजता हूँ।।३।।
दर्शन व्रत सामायिक प्रोषध सचित्त त्याग निशभुक्ति त्यजी।
ब्रह्मचर्य व आरंभ परिग्रह अनुमति उद्दिष्टत्यागि ये देशव्रती।।
( इन पूर्व कथित ग्यारह प्रतिमा में दिनभर में (पाक्षिक में) जो दोष हुये।
जो प्रमादादिकृत अतीचार उन सबके शोधन के हि लिये ।।
छेदोपस्थापन मेरा हो।) वीरभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं— (पुनः सामायिक दण्डक पढ़कर दैवसिक प्रतिक्रमण में १०८ उच्छ्वासों में ३६ बार णमोकार मंत्र, पश्चात् थोस्सामिस्तव पढ़ें। रात्रिक प्रतिक्रमण में १८ बार णमोकार मंत्र पढ़ें।)
जो विधिवत् सब लोक चराचर , द्रव्यों को उनके गुण को ।
भूत भविष्यत् वर्तमान पर्यायों को भी नित सबको।।
युगपत समय—समय प्रति जाने अत: हुए सर्वज्ञ प्रथित।
उन सर्वज्ञ जिनेश्वर महित वीर प्रभू को नमूं सतत।।१।।
वीर सभी सुर असुर इन्द्र से पूज्य वीर को बुध सेवें ।
निज कर्मों को हता वीर ने, नम: वीर प्रभु को मुद से ।।
अतुल प्रवर्ता तीर्थ वीर से घोर वीर प्रभु का तप है।
वीर में श्री द्युति कांति कीर्ति धृति हैं हे वीर ! भद्र तुममें।।२।।
जो नित वीर प्रभू के चरणों, में प्रणमन करते रुचि से ।
संयम योग समाधीयुत हो, ध्यान लीन होते मुद से ।।
इस जग में वे शोक रहित हो, जाते हैं निश्चित भगवन् ।
यह संसार दुर्ग विषमाटवि इसको पार करें तत्क्षण।।३।।
व्रत समुदाय मूल है जिसका, संयममय स्कंध महान् ।
यम अरु नियम नीर से सिंचित, बढ़ी सुशाखाशील प्रधान।
समिति कली से भरित गुप्तिभय, कोंपल से सुन्दर तरु हैं।।
गुण कुसुमों से सुरभित सत्तप, चित्रमयी पत्तों युत हैं।।४।।
शिवसुख फलदायी यह तरुवर, दयामयी छाया से युत।
शुभतन पथिक जनों के खेद, दूर करने में समरथ नित ।।
दुरित सूर्य के हुए ताप का, अन्त करे यह श्रेष्ठ महान् ।
वर चारित्र वृक्ष कल्पद्रुम, करे हमारे भव की हान।।५।।
सभी जिनेश्वर ने भवदु:खहर, चारित को पाला रुचि से।
सब शिष्यों को भी उपदेशा, विधिवत् सम्यक् चारित ये।।
पांच भेद युत सम्यक् चारित की, प्रणमूं मैं भक्ती से।
पंचम यथाख्यात चारित की, प्राप्ति हेतु बंदूं मुद से।।६।।
धर्म सर्वसुख खानि हितंकर , बुधजन करें धर्म संचय।
शिवसुखप्राप्त धर्म से होता उसी धर्म के लिए नमन ।।
धर्म से अन्य मित्र नहिं जग में, दयाधर्म का मूल कहा ।
मन को धरूं धर्म में नित है धर्म! करो मेरी रक्षा।।७।।
धर्म महा मंगललय है यह, कहा वीर प्रभु ने जग में ।
प्रमुख अहिंसा संयम तपमय, धर्म सदा उत्तम सब में।।
जिसके मन में सदा धर्म है, सुरगण भी उसको प्रणमें।
मैं भी नमूं धर्म को संतत, धर्म बसो मेरे मन में।।८।।
हे भगवन् ! इच्छा करता प्रतिक्रमण अतिचार आलोचन की ।
इसमें जो देश के आश्रित आसन आश्रित स्थान के आश्रित भी।।
अरु काल के आश्रित मुद्रा आश्रित कायोत्सर्ग के आश्रित जो।
प्राणों के आश्रित आवर्ताश्रित प्रतिक्रमण के आश्रित जो।।
छह आवश्यकों में हानी की जो मैंने अत्यासादन की।
मनवचतन से जो मैंने किया कराया या अनुमति भी दी।।
वह दुष्कृत मेरा मिथ्या हो।
दर्शनव्रत सामायिक प्रोषध सचित्य त्याग निशभक्त त्यजी।
ब्रह्मचर्य व आरंभ परिग्रह अनुमति उद्दिष्टत्यागि ये देशव्रती।।
सर्वातिचारविशुद्ध्यर्थं प्रतिक्रमणक्रियायां चतुर्विंशतितीर्थंकरभक्ति कायोत्सर्गं करोम्यहं ।
ऐसा प्रतिज्ञा वाक्य बोलकर सामायिक दण्डक , थोस्सामिस्तव आदि पढ़कर चतुर्विंशतितीर्थंकरभक्ति पढ़ें ।
वृषभदेव से वीर प्रभू तक, चौबीस तीर्थंकर वन्दूं ।
गणयुत सब गणधर देवों को, सिद्धों को शिर से प्रणमूं।।१।।
जो इस जग में सहस आठ, लक्षणधर ज्ञेयसिंधु के पार।
जो सम्यक् भवजाल हेतु, नाशक रवि शशिप्रभ अधिक अपार।।
जो मुनि इंद्र देवियों शत से, गीत नमित अर्चित कीर्तित।
उन वृषभादि वीर प्रभु तक, को भक्ती से मैं नमूं सतत।।२।।
देव पूज्य वृषभेश अजित, जिनवर त्रैलोक्य प्रदीप महान् ।
संभव जिन सर्वज्ञ मुनीगण—पुंगव अभिनंदन भगवान।।
कर्म शत्रुहन सुमति नाथ, वरकमल सदृश सुरभित पद्मेश।
श्री सुपाश्र्व शमदमयुत शशिवत, पूर्णचन्द्र जिन नमूं हमेश।।३।।
भव भय नाशक पुष्पदंतजिन, प्रथित सु शीतल त्रिभुवन ईश।
शील कोश श्रेयांस सुपूजित, वासुपूज्य गणधर के ईश ।।
इंद्रिय अश्व दमनकृत ऋषिपति, विमल अनंत मुनीश नमूं।
सद्धर्मध्वज धर्मशरणपटु, शमदमगृह शांतीश नमूं ।।४।।
सिद्धगृहस्थित कुंथु अरहप्रभु, श्रमणपती साम्राज्य त्यजित।
प्रथितगोत्र मल्लिप्रभ खेचरनुत, सुखराशि सु मुनिसुव्रत।।
सुरपति अर्चित नमिजिन हरिकुल, तिलक नेमि भव अंत किया।
फणपति वंद्य पार्श्व , भक्तीवश वर्धमान तव शरण लिया।।५।।
हे भगवन् ! चौबीस भक्ति का , कायोत्सर्ग किया रुचि से।
उसके आलोचन करने की, इच्छा करता हूँ मुद से।।
अष्ट महा प्रातिहार्य सहित जो, पंच, महाकल्याणक युत।
चौतीस अतिशय विशेषयुत, बत्तिस देवेन्द्र मुकुट चर्चित।।
हलधर वासुदेव प्रतिचक्री, ऋषि मुनि यति अनगार सहित।
लाखों स्तुति के निलय वृषभ से, वीरप्रभू तक महापुरुष ।।
मंगल महापुरुष तीर्थंकर, उन सबको शुभ भक्ति से !
नित्यकाल में अर्चूं पूजूं, वंदूं नमूं महा रूचि से।।
दु:खों का क्षय कर्मों का क्षय, हो मम बोधि लाभ होवे।।
दर्शनव्रत—सामायिक—प्रोषध—सचित्तत्याग—निशभक्तत्यजी।
ब्रह्मचर्य व आरम्भ परिग्रह अनुमति उद्दिष्टत्यागि ये देशव्रती।।
सर्वातिचार विशुद्ध्यर्थं दैवसिक(रात्रिक) प्रतिक्रमणक्रियायां श्रीसिध्दभक्ति – प्रतिक्रमणभक्ति-निष्ठितकरणवीरभक्ति-चतुर्विंशतितीर्थंकरभक्ती; क्रत्वा तध्दीनाधिकदोषविशुध्दयर्थं आत्मपवित्रीकरणार्थं समाधि भक्ति कायोत्सर्गं करोम्यहं ।
प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग को नमस्कार हो।
शास्त्रों का अभ्यास, जिनेश्वर नमन सदा सज्जन संगति।
चरितवान् के गुण गाऊँ और दोष कथन में मौन सतत।।
सब से प्रियहित वचन कहूँ निज आत्मतत्त्व को नित भाऊँ।
जब तक मुक्ति मिले तब तक भव भव में इन सबको पाऊँ।।१।।
तव चरणांबुज मुझ मन में, मुझ मन तब लीन चरणयुग में।
तब तक रहे जिनेश्वर जब तक मोक्ष प्राप्ति नहीं हो जग में।।२।।
अक्षर पद से हीन अर्थ मात्रा से हीन कहा मैंने। हे श्रुतमात:।
क्षमा करो सब, मम दु:खों का क्षय होवे।।३।।
दु:खों का क्षय कर्मों का क्षय, होवे बोधि लाभ होवे।
सुगतिगमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुण संपति होवे।।४।।
वीर अब्द पच्चीस सौ—सत्रह कृष्णा पौष।
छठ को श्रावक प्रतिक्रमण, किया पद्य सुखकोष।।१।।
गणिनी आर्या ज्ञानमति, रचित पद्य अनुवाद।
अर्थ समझकर जो पढ़ें, पावें सुख आल्हाद।।२।।
इस प्रकार पद्यानुवादरूप श्रावक प्रतिक्रमण पूर्ण हुआ।