चक्रवर्तियों के द्वारा ‘‘तुम लोग क्या चाहते हो ?’’
इन्द्रध्वज— मह उपर्युक्त चारों प्रकार की पूजनों के द्वारा इन्द्रों के द्वारा की जाने वाली महान पूजा को इन्द्रध्वज मह कहते हैं, आज के युग में प्रतिमा की प्रतिष्ठा के निमित्त प्रतिष्ठाचार्यों के द्वारा जो पंचकल्याणक पूजा की जाती है, उसे इन्द्रध्वज—मह कहा जाता है।
१८ इसके अलावा भी जो पूजन किया जाता है , उन सबका समावेश इन पांच भेदों में हो जाता है।
देव रूप बताते हुए आचार्य कहते हैं कि एक तो पुष्पादि में जिनभगवान् की स्थापना करके पूजा की जाती है, दूसरे जिनबिम्बों में जिन् भगवान् की स्थापना करके पूजा की जाती है, अन्य दूसरे मतों की प्रतिमाओं में जिनेन्द्रदेव की स्थापना करके पूजा नहीं करनी चाहिए। इस प्रकार अतदाकार और तदाकार पूजन के (अतदाकार) जिनेन्द्रदेव की स्थापना करके पूजन करते हैं। उसकी पूजा विधि बताते हुए कहते हैं कि पूजा विधि के ज्ञाताओं को सदा अर्हन्त और सिद्ध को मध्य में, आचार्य को दक्षिण में, उपाध्याय को पश्चिम में, साधु को उत्तर में और पूर्व को सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को क्रम में भोजपत्र पर, लकड़ी के पाटिये पर, वस्त्र पर शिलातल पर, रेत से बनी भूमि पर , पृथ्वी , आकाश में और हृदय मतें स्थापित करना चाहिए, फिर पूजा करनी चाहिए।
२० इसके बाद प्रतिमा में स्थापना करके तदाकार पूजन करने की विधि आचार्यों ने बतायी।
संयम एक ऐसा आवश्यक है जिसमें सम्पूर्ण श्रावकाचार गर्भित हो जाता है। सभी व्रतों को अपनें में संजोने वाले संयम को श्रावक का आवश्यक कत्र्तव्य माना गया है। असंयमी का धर्म के क्षेत्र में कोई मूल्य नहीं है। आचार्यों ने संयम की परिभाषा तथा व्याख्या विस्तार से की है । चारित्रसार में पञ्चाणुव्रत का पालन करना ही संयम कहा है — ‘संयम: पञ्चाणुव्रतवत्र्तनम्’ । उमास्वामी श्रावकाचार में संयम के दो भेदों का उल्लेख करते हुए कहा है कि संयम दो प्रकार का जानना चाहिये— १. इन्द्रिय संयम, २. प्राणी संयम। पांचों इन्द्रियों के विषयों के विषयों की निवृत्ति करना इन्द्रिय संयम है और छ: काय के जीवों की रक्षा करना प्राणी संयम है।
अर्थात् संस्कृत—भावसंग्रह में गृहस्थों के एक देश संयम का लक्षण किया है | ………