श्रीमाननंतनाथस्त्वं, अंतकांतकविश्रुत:।
श्रीमदनंतनाथं त्वां, नमन्ति नृसुरासुरा:।।१।।
श्रीमतानंतनाथेना-नंतजीवदया कृता।
श्रीमतेऽनंतनाथाय, मम नमोऽस्त्वनंतश:।।२।।
श्रीमतोऽनंतनाथात् हि, तीर्थमनंतसौख्यकृत्।
श्रीमतोऽनंतनाथस्य, भक्तिर्भवान्तकारिणी।।३।।
श्रीमदनंतनाथे हि, नतिं भक्तिं सदा दधे।
श्रीमन्ननंतनाथ! त्वं, देह्यनन्तचतुष्टयम्।।४।।
हे नाथ! अनंत गुणाकर तुम, साकेतपुरी में जन्म लिया।
जयश्यामा माँ सिंहसेन पिता, ने कीर्तिध्वजा को लहराया।।
कार्तिक वदि एकम गर्भ बसे, वदि ज्येष्ठ दुवादशि जन्मे थे।
इस ही तिथि में दीक्षा लेकर, तप तपते वन वन घूमे थे।।१।।
चैत्री मावस में ज्ञानोत्सव, इस ही तिथि में प्रभु सिद्ध हुए।
दो सौ कर देह कनक कांति, प्रभु तीस लाख वत्सर१ थिति२ है।।
सेही लांछनयुत अंतकहर! हे देव अनंत! तुम्हें प्रणमूँ।
यह सब व्यवहार स्तुति भगवन्! निश्चय से गुण-गण को हि नमूँ।।२।।
यद्यपि ये कर्म अनादी से, मेरे संग बँधते आये हैं।
फिर भी अणुमात्र नहीं मुझमें, परिवर्तन करने पाये हैं।।
मैं सब प्रदेश में ज्ञानमयी, जड़कर्मों से क्या नाता है?
मैं हूँ चैतन्य अनंत गुणी, जड़ ही जड़ के निर्माता हैं।।३।।
यह निश्चयनय जब निश्चय से, ध्यानस्थ अवस्था पाता है।
तब कर्मों का कर्त्ता भोक्ता, नहिं होता बंध नशाता है।।
भगवन् ! तव चरण कमल सेवा, करते-करते यह फल पाऊँ।
अनुपम अनंत गुण के सागर, ‘कैवल्यज्ञानमति’ पा जाऊँ।।४।।
ॐ ह्रीं अर्हं णमो सव्वोसहिपत्ताणं आरोग्यलाभं कुरु कुरु स्वाहा।