वात्सल्य की अविरल धारा, जिनमें बहती नित है, गुरुभक्ति की प्रबल भावना, जिनमें सदा निहित है। सामंजस्य प्रेम मैत्री जो, सिखलाती नित-प्रति हैं, ऐसी माँ ‘‘चंदनामती’ जी, नित ही अभिवंदित हैं।।
अनंतानंत जीवों से परिपूरित संसार सागर में जो विरले जीव जन्म-मरण के कुचक्र से छूटने हेतु शाश्वत सुख की प्राप्ति के प्रयास में संलग्न होते हैं, वे ही अपने जीवन को भी सफल करते हैं और अन्य जीवन रूपी दीपकों को प्रकाशित करने में भी निमित्त बनते हैं। ऐसा ही एक मधुरिम व्यक्तित्व है-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी का, जो जैन समाज की सर्वोच्च साध्वी पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की अनन्य समर्पित शिष्या होने के साथ-साथ अपने वात्सल्यमयी व्यवहार से सभी पर अपनी अमिट छाप छोड़ने में सक्षम हैं। किसी भव्य जीव को जिनेन्द्र भगवान प्रणीत शाश्वत मोक्षमार्ग के प्रति आसक्त करने में जो प्रयासरत रहे, वास्तव में वह स्तुत्य है, क्योंकि अनादिकाल से जीव ने न जाने किन-किन भौतिकताओं में बंधकर स्वयं को कल्याण के पथ से वंचित रखा है।
जन्म, शिक्षा एवं वैराग्य पथ पर बढ़े बाल कदम-बाराबंकी जिले के टिकैतनगर ग्राम में १८ मई सन् १९५८, ज्येष्ठ कृष्णा अमावस्या को गणिनी ज्ञानमती माताजी जैसे महान रत्न को प्रसूत करने वाली माता मोहिनी की कोख से १२वीं संतान के रूप में जन्म लेने वाली ‘‘कु. माधुरी’’ बालपन से ही पिता श्री छोटेलाल जी सहित समस्त परिवार एवं परिजनों की लाडली बिटिया के रूप में सर्वप्रिय थीं। माँ ने दूध पिलाने से लेकर पालन-पोषण करने तक प्रत्येक संतान पर अभिन्न र्धािमक संस्कार तो डाले ही थे, जिससे कु. माधुरी भी अछूती नहीं रहीं। तीक्ष्ण बुद्धि वाली इस बालिका ने लौकिक शिक्षा की ओर कदम बढ़ाये तो सदैव अपनी सहपाठियों सहित समस्त शिक्षक वर्ग को भी विशेष प्रभावित करते हुए क्रमश: मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण कर ली।
अकादमिक उपलब्धियाँ कु. माधुरी की प्रतिभा से कहीं भी परे नहीं थीं, तथापि शाश्वत उन्नति का मार्ग इस कन्यारत्न के भविष्य का निर्माता बनकर समक्ष खड़ा था अत: उसी होनहार के अनुरूप सन् १९६९ में सर्वप्रथम जयपुर-राज. में अपनी बड़ी बहन कु. मैना के ‘‘आर्यिका ज्ञानमती माताजी’’ के रूप में दर्शन प्राप्त कर वैराग्य को प्राप्त इस बालिका ने मात्र ११ वर्ष की अल्प आयु में २५ अक्टूबर-शरदपूर्णिमा को दो वर्ष का ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर पुन: १३ वर्ष की आयु में सन् १९७१ मे सुगंधदशमी के दिन अजमेर में उनसे आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत धारण कर लिया। जिस आयु में बालक-बालिकाएँ खाने-खेलने में ही संलग्न रहते हैं, उस अल्पवय में बालब्रह्मचर्य व्रत को धारण करना कु. माधुरी के स्वर्णिम भविष्य का ही परिचायक था।
माता मोहिनी की सन्तानों ने ये विशिष्ट धार्मिक संस्कार मानों विरासत में ही पाये थे। धार्मिक अध्ययन एवं गुरुसेवा बना जीवन का प्रमुख ध्येय-वैराग्यपथ पर बढ़चली इस बाला ने अब धार्मिक अध्ययन एवं गुरु सेवा को ही अपना प्रमुख लक्ष्य बना लिया। शास्त्री, विद्यावाचस्पति इत्यादि र्धािमक शिक्षा को प्राप्त करते हुए आपने जैनागम संबंधी हजारों गाथाएँ, श्लोक इत्यादि कंठाग्र करके अपनी मेधा शक्ति का परिचय प्रदान किया। वस्तुत: इस क्षयोपशम विशेष के अतिरिक्त अविरल सेवा भावना, पूर्ण अनुकूलता, वैयावृत्ति, परिपूर्ण समर्पण, संघ में सभी के प्रति वात्सल्यमयी सौहार्दभाव इत्यादि गुणों से आपने पूज्य माताजी को विशेष प्रभावित किया था।
‘गुरु यदि दिन को रात कहें तो रात, यदि रात को दिन कहें तो दिन’ इस भावना का परिपालन करने वाली कु. माधुरी शास्त्री ने क्रमश: १८ वर्षों तक ब्रह्मचारिणी अवस्था में रहकर पूज्य माताजी की भरपूर सेवा की। विशेष बात यह थी कि अध्ययन के साथ-साथ भजन, पूजन, चालीसा, लेख इत्यादि लिखने का प्रवाह भी निरंतर चलता रहा। आर्यिका दीक्षा धारण कर बनी ‘चंदनामती’-चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज की गुरु परम्परा में प्रविष्ट भव्य जीव संयम धारण करना अपना आभूषण समझते हैं, तद्नुसार राजधानी दिल्ली में पूज्य ज्ञानमती माताजी से सन् १९८२ में दो प्रतिमा के व्रत एवं हस्तिनापुर में सन् १९८७ में सप्तम प्रतिमा के व्रतों को क्रमश: धारण करते हुए आपने नारी जीवन के सर्वोत्कृष्ट पद की प्राप्ति के क्रम में जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में श्रावण शुक्ला ग्यारस, १३ अगस्त १९८९ को पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के करकमलों से आर्यिका दीक्षा प्राप्त कर ‘‘आर्यिका चन्दनामती’’ नाम प्राप्त किया।
आर्यिका श्री रत्नमती माताजी (पूर्व में माता मोहिनी) एवं आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी रूप शिल्पियों से सुसंस्कारित, व्यवहार में माधुर्य गुण की धनी ‘माधुरी’ जी को अपने शिष्ट आचरण के अनुरूप ही नाम प्राप्त हुआ था। प्रभावी लेखनी से सुसज्जित व्यक्तित्व-आपकी लेखनी बाल्यकाल से ही अत्यंत प्रभावी, ओजपूर्ण एवं सारगर्भित रही है, पद्य लेखन आपके लिए क्षणों का काम रहता है अत: अब तक आप सैकड़ों भजन, आरती, चालीसा, पूजन, स्तुति, मुक्तक इत्यादि का लेखन कर चुकी हैं।
समयसार की गाथाओं एवं कलश काव्यों का पद्यानुवाद, भक्तामर विधान, नवग्रहशांति विधान, मनोकामना सिद्धि महावीर विधान, तीर्थंकर जन्मभूमि विधान, महावीर स्तोत्र की संस्कृत-हिन्दी टीका, ज्ञानज्योति की भारत यात्रा, अवध की अनमोल मणि, भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर, ज्ञान रश्मि, ज्ञानमती माताजी के अमूल्य प्रवचन इत्यादि कितनी ही कृतियाँ आपके ज्ञानगुण को प्रदर्शित करने में सक्षम हैं।
आर्यिका रत्नमती अभिनंदन ग्रंथ, आचार्यश्री वीरसागर स्मृति ग्रंथ, गणिनी आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती अभिनंदन ग्रंथ, कुण्डलपुर अभिनंदन ग्रंथ, भगवान महावीर हिन्दी-अंग्रेजी जैन शब्दकोश, गणिनी ज्ञानमती गौरव ग्रंथ, भगवान पाश्र्वनाथ तृतीय सहस्राब्दि ग्रंथ इत्यादि शताधिक ग्रंथों का लेखन, सम्पादन एवं समायोजन आपके कठोर परिश्रम का ही सुफल है। आपका सृजनात्मक मस्तिष्क धर्मप्रभावना के नये-नये आयामों को साकार धरातल देते हुए सदैव उत्साहपूर्ण होकर पठन-पाठन-लेखन में ही दत्तचित्त रहता है, यह गुण आपने अपनी महान गुरु पूज्य ज्ञानमती माताजी से विरासत में ही प्राप्त किया है। आप मात्र वार्तालाप के स्थान पर सदैव कार्यरत रहने की नीति में ही विश्वास रखती हैं, जो विशेष अनुकरणीय है।
दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर के मुखपत्र ‘सम्यग्ज्ञान’ का समायोजन भी प्रतिमाह आपके द्वारा किया जाता है। वर्तमान में आप महान सिद्धांत ग्रंथ ‘षट्खण्डागम’ की पूज्य ज्ञानमती माताजी द्वारा लिखित सिद्धांतचिंतामणि टीका के हिंदी अनुवाद के कार्य में संलग्न हैं, हिन्दी टीका सहित दश पुस्तकों का प्रकाशन पूर्व में हो चुका है। आगे ग्रंथों का अनुवाद कार्य निरन्तर चल रहा है। संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी इत्यादि भाषाओं की विद्वान पूज्य माताजी द्वारा जिनवाणी की जो विशिष्ट सेवा की जा रही है, वह नि:संदेह ही सभी के लिए पथ प्रदर्शन का कार्य करेगी। वर्तमान में इंटरनेट पर आपके द्वारा ‘इन्साइक्लोपीडिया ऑफ जैनिज्म डॉट कॉम’ (ऑनलाईन जैन विश्वकोश) के सम्पादन का कार्य अत्यन्त परिश्रमपूर्वक किया जा रहा है।
आगामी वर्षों में दिगम्बर जैनधर्म की अनादिधिन परम्परा को आज के आधुनिकतम साधन ‘इंटरनेट’ के माध्यम से हृदयंगम करने हेतु यह कार्य नि:संदेह ही मील का पत्थर सिद्ध होगा। वक्तृत्व कला की धनी पूज्य माताजी-पूज्य चंदनामती माताजी के विशिष्ट गुण के रूप में अवस्थित है उनकी वत्तृत्व क्षमता। आपकी ओजपूर्ण एवं प्रभावक प्रवचन शैली से श्रोता प्रभावित हुए बिना रह नहीं पाता है और जिन संस्कृति तथा गुरु परम्परा के प्रति अनुरक्त होकर ही प्रवचनसभा से उठता है। पूज्य ज्ञानमती माताजी द्वारा रचित भक्ति विधानों की पूजा को जब आप अपनी मधुर आवाज में सम्पन्न कराती हैं तो सभी भक्तगण जिनेन्द्र भगवान की भक्ति के रस का वास्तविक आस्वादन कर हर्ष विभोर हो उठते हैं।
गुरुभक्ति की विशिष्ट भावना-पूज्य चंदनामती माताजी छाया की भाँति पूज्य ज्ञानमती माताजी के साथ रहते हुए उनकी प्रत्येक कार्ययोजना में सहभागी बनकर अपना सौभाग्य समझती हैं, अयोध्या–मांगीतुंगी–प्रयाग–कुण्डलपुर (नालंदा) इत्यादि तीर्थों के विकास एवं सभी राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रमों को अपनी गुरु की भावना के अनुरूप सफलता के उच्च शिखर तक पहुँचाने हेतु आप हर क्षण प्रयत्नशील रही हैं, वस्तुत: ऐसे शिष्यरत्न ही अपने भविष्य को भी उज्ज्वल बना लेते हैं।
स्वयं में प्रतिभा की परिपूर्णता होते हुए भी ख्याति-पूजा-लाभ की कामना से अपना अलग व्यक्तित्व बनाने की किसी आकांक्षा ने आपको स्पर्श नहीं किया है, यह विशेष अनुकरणीय बात है। वरन् जैसे-जैसे आपकी प्रतिभा में निखार आया है, वैसे-वैसे पूज्य माताजी के प्रति आपके समर्पण की भावना में अभिवृद्धि ही हुई है। संघस्थ सभी शिष्य-शिष्याओं को पूज्य ज्ञानमती माताजी की ज्ञान एवं चारित्र रश्मियों के प्रति अधिकाधिक समर्पित होने की शिक्षा ही आपसे सर्वदा प्राप्त हुआ करती है, जो उनकी अनन्य गुरुभक्ति का ही परिचायक है।
सभी के बीच सामंजस्य कैसे स्थापित हो, सभी लोग प्रसन्नचित्त होकर गुरुआज्ञा के पालन में कैसे निरत रह सके, यही प्रयास वह सदैव किया करती हैं। यही कारण है कि हृदय के समस्त मनोभावों को आपके समक्ष व्यक्त करके सभी को विशेष संतुष्टि की अनुभूति होती है।
गुरु परम्परा की कट्टर पोषक-पूज्य ज्ञानमती माताजी के साथ हजारों कि.मी. की पदयात्रा करके आपने जनमानस में अहिंसा, शाकाहार, सदाचार की भावनाओं को आरोपित करने का विशेष पुरुषार्थ किया है, जो कि आज के समाज की प्रमुख आवश्यकता है। जैन युवावर्ग को मांसाहार से सर्वदा दूर रहने एवं रात्रि भोजन के त्याग की विशेष प्रेरणाएँ आपसे सदैव प्राप्त हुआ करती हैं। चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज की गुरु परम्परा के प्रति आपका विशेष समर्पण सदा से रहा है, अत: अपने सानिध्य में आने वाले प्रत्येक बालक-बालिका पर इस गुरु परम्परा के संस्कार डालने में आपको विशेष आनंद की प्राप्ति होती है।
वास्तव में भौतिकता की होड़ में नेत्र बंद कर दौड़ रहे युवावर्ग को यदि कोई वात्सल्यपूर्ण भव्य जीव शाश्वत धर्म के मार्ग के प्रति अनुरक्त करता है, तो इसे विशेष सौभाग्य ही मानना चाहिए। प्रज्ञाश्रमणी पद एवं पीएच.डी. की मानद उपाधि से अलंकरण-आपकी प्रखर मेधा एवं इस गुण-विभूषित व्यक्तित्व के सम्मानार्थ पूज्य ज्ञानमती माताजी ने सन् १९९७ में राजधानी दिल्ली में आयोजित विशाल कल्पद्रुम महामण्डल विधान के समापन अवसर पर आपको ‘प्रज्ञाश्रमणी’ की उपाधि से अलंकृत किया। उपाधि अलंकरण की इस शृँखला में ८ अप्रैल २०१२ को तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय-मुरादाबाद के परिसर में आयोजित विशेष प्रथम दीक्षांत समारोह में षट्खण्डागम जैसे महान सिद्धांत ग्रंथराज की हिन्दी टीका रूप आपकी विद्वत्ता का मूल्याकंन करते हुए विश्वविद्यालय द्वारा आपको पीएच.डी. की मानद उपाधि से भी अलंकृत किया गया।
पुनश्च आप सदा यही कहा करती हैं कि पूज्य ज्ञानमती माताजी का वात्सल्यमयी वरदहस्त ही मेरे जीवन की सबसे बड़ी सौगात है और इन्हीं गुरु द्वारा प्रदत्त ज्ञानामृत ने ही मेरा शृँगार किया है अत: इस महान जिन संस्कृति, तीर्थ संरक्षण एवं गुरुसेवा में मेरे शरीर का रोम-रोम भी समर्पित होकर काम आ जाये, तो वह ही मेरे लिए सर्वाधिक आनंददायी अनुभूति है। ऐसे आदर्श व्यक्तित्व को धारण करने वाली पूज्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी प्रतिक्षण साधना के उच्च सोपानों पर आरोहण करते हुए कतिपय ही भवों में रत्नत्रय की पूर्ण विशुद्धि के साथ मोक्षलक्ष्मी का वरण करें, यही मंगलभावना है।
साथ ही जिनेन्द्र प्रभु से यह प्रार्थना भी है कि जिन परमपूज्य प्रात:स्मरणीय राष्ट्रगौरव गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी एवं परमपूज्य श्री चंदनामती माताजी की जो महान उपकारी छत्रछाया मुझे प्राप्त हुई है, वह मोक्षप्राप्ति तक रक्षाकवच की भाँति मुझे पूर्णतया रक्षित करते हुए जिनशासन में अवगाहन के योग्य बनाएँ, ताकि एक दिन ऐसा आ सके कि अपने अनंत चतुष्टय में निमग्न होकर सदैव के लिए मेरे चतुर्गति परिभ्रमण की भी निवृत्ति हो सके।
वस्तुत: गुणों की सुरभि से ही मानव जीवन का शृंगार होता है। पूज्य प्रज्ञाश्रमणीआर्यिकाश्री चंदनामती माताजी के प्रभावी व्यक्तित्व के इन्हीं सुरभित पहलूओं से आइये िंकचित् परिचित होने का प्रयास करें—
अत्यन्त उदार हृदय की धनी पूज्य चंदनामती माताजी की विशिष्टता है कि जब भी किसी को कोई आवश्यकता होती है, वह अत्यन्त तत्परता से अपनी शक्ति के अनुसार नि:स्वार्थ भाव से उसे पूर्ण करने में विशेष आल्हाद का अनुभव करती हैं। एक दिन एक संघस्थ महिला ने मुझे बताया—‘‘जब वह माधुरी बहनजी (दीक्षा से पूर्व) थीं और संघ संचालन की समस्त व्यवस्थाओं का संयोजन करती थीं, तब एक दिन सर्दियों की ठण्डी सुबह में मैं चौके के कार्य में हाथ बँटाने के लिए बाल धोकर आयी, ठण्ड से मेरा शरीर थोड़ा—थोड़ा काँपने लगा था। बहन जी ने जैसे ही मुझे देखा, वह शीघ्रता से अपने कमरे में गयीं और अपना सफेद शॉल लाकर अपने हाथों से मुझे ओढ़ा दिया, मुझे अत्यन्त संकोच लग रहा था पर बहनजी के चेहरे पर मात्र मुस्कान थी, एक ऐसी मुस्कान जिसने सदैव के लिए मेरा दिल जीत लिया।
‘‘वास्तव में, उदारता व्यक्ति को सबका प्रिय बना देती है।’’
आलस एवं सुस्ती शब्द पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी एवं उनकी सुशिष्या पूज्य चंदनामती माताजी के शब्दकोश में सम्मिलित ही नहीं किये गये हैं। प्रतिदिन की दिनचर्या हो अथवा कोई राष्ट्रीय कार्यक्रम, तत्परतापूर्ण कार्य आपकी उल्लेखनीय विशिष्टता रहती है। अप्रैल—मई २००७ की बात है जब जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर में तेरहद्वीप जिनालय के पंचकल्याणक का अवसर था।
गर्भकल्याणक का पहला दिन था, मंच को पाँच सौधर्म इन्द्र—इन्द्राणी एवं उनकी सुधर्मा सभाओं के लिए व्यवस्थित करना था। मंच—व्यवस्थापक शायद समायोजन नहीं करा पा रहे थे और मुझे आज भी स्मरण हो आता है कि पूज्य छोटी माताजी वहाँ पहुँची और वहाँ उपस्थित सभी युवाओं को उचित दिशा—निर्देश देकर मात्र १—२ घण्टे में ही परदों इत्यादि के द्वारा मंच को पूर्णतया व्यवस्थित करा दिया, पुन: पाँच दिन तक पंचकल्याणक की सभी क्रियाएँ अत्यन्त समायोजित रूप में सम्पन्न हुर्इं। हम सभी के हृदय पर पूज्य माताजी की तत्परतापूर्ण कार्यशैली की अमिट छाप अंकित हो गई।
‘‘वास्तव में, समय—सीमा में विचारपूर्ण तत्परता ही कार्य कुशलता की सूचक है।’’
अपनी गुरु पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की भाँति घण्टों तक कार्य में तन्मय रहना पूज्य माताजी की विशेषता है। पूज्य गणिनी माताजी कीआर्यिकादीक्षा की स्वर्ण जयंती का अवसर था जब सन् २००६ में ‘गणिनी ज्ञानमती गौरवग्रंथ’ का प्रकाशन होना था। अपनी आर्यिकाचर्या की क्रियाओं के यथासमय निर्वहन के साथ दो माह तक पूज्य चंदनामती माताजी द्वारा रात—दिन ग्रंथ सम्बन्धी लेखन, संपादन, समायोजन, विविध महानुभावों से प्रकाशन हेतु प्राप्त सामग्री का आलोढन इत्यादि कार्यों की जिस तन्मयता के साथ पूर्णता की गयी, वह आज भी स्मृति पटल पर अंकित है। लगभग ११०० पृष्ठों का यह ग्रंथ एक अद्वितीय कृति के रूप में प्रतिष्ठापित हो गया।
इसी प्रकार सन् २०११ में पूज्य माताजी ने षट्खण्डागम ग्रंथ ९, १० एवं ११ की हिन्दी टीका, समयसार विधान, सोलहकारण विधान इत्यादि का लेखन भी पूर्ण तन्मयता के साथ सम्पन्न किया। वर्तमान में इंटरनेट पर www.encyclopediaofjainism.com के सम्पादन कार्य में अपनी युवा टीम के साथ आप पूर्ण दत्तचित्त रहती हैं।
‘‘वास्तव में, कार्य में पूर्ण तन्मयता एवं समर्पण के बिना उच्चता प्राप्त नहीं की जा सकती।’’
पूज्यआर्यिकाश्री चंदनामती माताजी का नाम अपनी गुरु पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के प्रति समर्पण हेतु ‘आदर्श शिष्या’ के रूप में प्रतिष्ठित है। किसी अन्य के द्वारा भी पूज्य बड़ी माताजी की आज्ञा की किंचित् अवहेलना भी उन्हें स्वीकार्य नहीं हो पाती । सन् २००५ की बात है, जब दिल्ली, इलाहाबाद, कुण्डलपुर, अयोध्या आदि के लम्बे विहार के पश्चात् आर्यिका संघ हस्तिनापुर पहुँचा था।
सूर्य के प्रखर ताप से चारों ओर तीक्ष्ण गर्मी का साम्राज्य था और इस गर्मी ने पूज्य ज्ञानमती माताजी के स्वास्थ्य पर काफी विपरीत प्रभाव डाला था। मई २००५ के मध्य जब तक संघ हस्तिनापुर पहुँचा, तब तक पूज्य माताजी अत्यन्त अस्वस्थ हो गयीं। मुझे आज तक स्मरण है किस प्रकार रात—दिन का भेद विस्मृत कर पूज्य चंदनामती माताजी ने पूर्ण समर्पण एवं निष्ठा से बड़ी माताजी के आहार—नीहार—वैय्यावृत्ति आदि में स्वयं को तन्मय कर लिया था, उनका कहना रहता था कि ये मात्र हमारी गुरु ही नहीं हैं, वरन् सम्पूर्ण जैन जगत की दुर्लभ निधि हैं, इसलिए इनकी सेवा जैनशासन की ही सेवा है।
३ जून २००५ की रात्रि में पूज्य बड़ी माताजी ने एक बार भी आँखें नहीं खोली, कमजोरी अत्यधिक हो गयी थी; भाई जी (कर्मयोगी ब्र. रवीन्द्र कुमार जी) पूरी रात माताजी को विविध स्तोत्रों का पाठ सुनाते रहे, देश के विविध स्थानों से पूज्य माताजी के भक्तगण आकर एकत्रित हो गये थे, इसी गंभीर स्थिति में सारी रात्रि व्यतीत हो गयी। प्रात: ४ बजे पूज्य चंदनामती माताजी ने बड़ी माताजी को आवाज दी—‘‘माताजी ! अब कृपया उठिये, रात्रि बीत गयी है, आँखे खोलिये।’’ सभी के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब पूज्य माताजी ने आँखें खोली और पुन: कुछ चेतनता का अनुभव किया।
भगवान शांतिनाथ के जन्म—दीक्षा और निर्वाण कल्याणक दिवस की यह मंगलमयी बेला हम सबको अमृत से अभिसचित कर गयी, पूज्य माताजी को उठकर बैठते हुए देखकर।
‘‘वास्तव में, गुरु—सेवा की र्हािदक भावनाएँ चमत्कार भी कर सकती हैं।’’
यद्यपि किसी भावुक व्यक्ति से कठोरता की अपेक्षा अक्सर तर्वसंगत प्रतीत नहीं होती है, तथापि पूज्य चंदनामती माताजी के विषय में यह तथ्य स्वयमेव ही असंगत हो जाता है, जब आर्यिका संघ में अनुशासन के अनुपालन की बात हो अथवा कोई छोटा या बड़ा कार्यक्रम आयोजित किया जाना हो, तब पूज्य माताजी की समस्त भावुकता एवं कोमलता अपेक्षित कठोरता में भी परिर्वितत हो जाती है और कभी—कभी तो यह विश्वास करना कठिन प्रतीत होने लगता है कि वह इतनी कठोर भी हो सकती हैं।
परन्तु हाँ ! यह परिवर्तन मात्र कुछ समय के लिए ही होता है, मूलत: स्वभाव में कोमलता ही बनी रहती है। कुछ वर्ष पूर्व, जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर के कतिपय स्टॉफ मेम्बर्स के बीच में किसी बात पर आपस में विवाद हो गया, छोटी सी बात इतनी बढ़ गयी कि दोनों ग्रुप भाई जी (वर्तमान में स्वस्ति श्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामी जी) के पास आये। भाई जी ने सारी बातें सुनी, समझाया पर अंतत: पूज्य छोटी माताजी ने उन्हें सम्बोधित करने के लिए निवेदन किया। पूज्य माताजी ने कठोरता एवं कोमलता का उचित समन्वय करते हुए इस प्रकार उन्हें सम्बोधन दिया कि दोनों पक्षों ने अपनी—अपनी गलती स्वीकार की, एक—दूसरे से क्षमा याचना की और परस्पर में पूर्ववत सौहार्द की स्थापना हो गयी।
‘‘वास्तव में, जीवन में सदैव कोमलता ही कार्यकारी नहीं होती, कभी—कभी उचित अनुशासन का अनुपालन कराने के लिए व्यक्ति को कठोर भी बनना पड़ता है।’’
पूज्य चंदनामती माताजी अपने समीप आने वाले प्रत्येक व्यक्ति को नि:स्वार्थ स्नेह प्रदान करती हैं। अक्सर हम स्वभाव से कठोर, असभ्य, कटु व्यवहार करने वाले से दूर—दूर रहना चाहते हैं; परन्तु जो स्नेहिल व्यवहार करे, हमारे आत्म—सम्मान और संवेदनाओं का ध्यान रखते हुए हमारी उन्नति एवं हित का मार्ग प्रशस्त करे, ऐसे व्यक्ति से हम बार—बार बात करना चाहते हैं।
हाँ! पूज्य माताजी में ये सभी गुण विद्यमान हैं और इसीलिए चाहे संघस्थ लोग हों अथवा बाहर से पधारे महानुभाव, सब उनसे बैठकर बात करने हेतु लालायित रहते हैं। जब उनका यह स्नेहिल व्यवहार किसी संसारी प्राणी को शाश्वत धर्म के अर्थात् सच्चे मार्ग के प्रति आसक्त कराने में निमित्त बन जाता है तब यह व्यवहार वास्तव में सार्थक हो जाता है।
पूज्य माताजी के मातृत्व युक्त वात्सल्य ने ही मेरे हृदय पर ऐसा आधिपत्य कर लिया कि सुन्दर अकादमिक वैरियर एवं अन्य भौतिक आकर्षण भी मुझ पर अपना प्रभाव नहीं डाल पाये और अंतत: पिच्छी—कमण्डलु धारण करने का साहस मुझमें जागृत हो पाया।
‘‘वास्तव में, सच्चा प्रेम वही है जो व्यक्ति को शाश्वत उन्नति का मार्ग प्राप्त कराने हेतु प्रोत्साहित करे।’’
सबका ध्यान रखने का पूज्य माताजी का अत्यन्त विशिष्ट स्वभाव है और इसीलिए वह सबकी प्रिय रहती हैं। संघस्थ ब्रह्मचारिणी बहनों सहित संघ से सम्बन्धित प्रत्येक जन को जब भी कोई स्वास्थ्य सम्बन्धी अथवा अन्य कोई भी मानसिक या शारीरिक कठिनाई होती है, वह अत्यन्त तत्परता से उसकी व्यवस्था सुनिश्चित करके उसका निदान कर देती हैं।
संघस्थ साधुओं अथवा बाहर से पधारे साधुओं की व्यवस्था उनके अनुरूप हो जाये, उसका पूज्य माताजी सदैव ध्यान रखती हैं। मुझे अक्सर प्रतीत होता है कि कोई आवश्यकता उत्पन्न हो और उसके लिए कहा जाये, उससे पहले ही पूज्य माताजी उसकी र्पूित करा देती हैं। इसके अतिरिक्त समय एवं परिस्थिति के अनुसार अपनी शिक्षाओं एवं प्रेरणाओं द्वारा सबके आध्यात्मिक एवं नैतिक उत्थान हेतु भी वह सदैव सतर्व रहती हैं क्योंकि वर्तमान युग में नैतिक सबलता का सर्वाधिक ध्यान रखने की ही आवश्यकता है।
‘‘वास्तव में, सबका ध्यान रखने वाला स्वत: ही सबका प्रिय हो जाता है।’’
अक्सर हमें ऐसे व्यक्ति मिल जाते हैं जो अपनी—अपनी बात कहना चाहते हैं, अन्य की कुछ भी सुनना नहीं चाहते। परन्तु पूज्य चंदनामती माताजी का स्वभाव इससे विपरीत है। दूसरे व्यक्ति की बात सुनने का धैर्य उनमें पूर्णतया विद्यमान रहता है, जिससे बात करने वाला व्यक्ति मानसिक रूप से संतुष्ट हो जाता है कि मैंने खुले मन से अपनी सारी कठिनाई माताजी को बता दी हैं, अब वह बिना किसी को बताये मुझे उस कठिनाई पर विजय प्राप्त करने का मार्ग अवश्य बता देंगी। कई बार किसी इच्छित व्यक्ति के द्वारा धैर्य एवं एकाग्रता पूर्वक हमारी बात सुन लेने से ही आधी कठिनाई दूर हो जाती है।
‘‘वास्तव में, अपनी—अपनी बात कहने के स्थान पर व्यक्ति में धैर्यपूर्वक दूसरे की बात सुनने की क्षमता भी होनी चाहिए।’’
पूज्य चंदनामती माताजी चारित्र चक्रवर्ती प्रथमाचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज, प्रथम पट्टाचार्य श्री वीरसागर जी महाराज एवं गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की आगमोक्त धर्म परम्परा की कट्टर एवं सबल पोषक हैं।पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी सदैव कहती हैं—‘‘भले ही हमारे पास भक्तों की भीड़ न हो, पंचामृत अभिषेक—स्त्री अभिषेक— आर्यिकाओं की नवधाभक्ति—सज्जाति की सुरक्षा हेतु लोग हमारी निंदा भी करने लग जायें तो भी तीर्थंकर भगवान की दिव्यध्वनि के आधार पर पूर्वाचायों द्वारा प्रणीत/मान्य इन परम्पराओं को हमें कदापि तिलांजलि नहीं देना है।’’
पूज्य चंदनामती माताजी को ये शिक्षाएँ शैशव काल से ही प्राप्त हुई हैं और इसीलिए इनके संवाहन में वह सर्वदा जागृत एवं दृढ़ रहती हैं। वह सदैव कहती हैं—
‘‘जिस देश—जाति में जन्म लिया, बलिदान उसी पर हो जावें।’ ‘‘वास्तव में, धर्म के सच्चे पथ के संरक्षण—संवर्धन में व्यक्ति को अत्यंत दृढ़ रहना चाहिए क्योंकि अंतत: यही पथ मोक्ष—लक्ष्मी की प्राप्ति में आधारभूत बनता है।’’
परिस्थिति के अनुसार त्वरित निर्णय लेने की अनूठी क्षमता की धनी है—पूज्य चंदनामती माताजी। बिना विचारे लिये गये निर्णय अथवा सोच—विचार में ही उपयुक्त समय—सीमा बिता कर लिये गये निर्णय दोनों ही अर्थहीन होते हैं, इन दोनों ही स्थितियों से विपरीत उचित समय पर उचित निर्णय लेने की क्षमता आपने अपनी गुरु पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी से विरासत में प्राप्त की है।
एक बार निर्णय ले लेने के पश्चात् प्राण—प्रण से उसके क्रियान्वयन में प्रयासरत होना भी माताजी द्वय का विशेष गुण है। फरवरी २००२ में आर्यिका संघ राजा बाजार—दिल्ली में विराजमान था। उस समय भगवान महावीर स्वामी का २६००वाँ जन्म कल्याणक वर्ष राष्ट्रीय स्तर पर मनाया जा रहा था।
एक दिन पूज्य चंदनामती माताजी ने पूज्य गणिनी माताजी से कहा—‘‘माताजी ! इस वर्ष की सबसे बड़ी उपलब्धि होगी—भगवान महावीर की जन्मभूमि का विकास पर यह तभी संभव है जब आप स्वयं वहाँ जायें।’’ ‘‘क्या तुम्हारा मस्तिष्क ठीक है, चंदनामती! इतनी दूर जाना क्या आसान है’’—पू. माताजी ने कहा। ‘‘माताजी ! आपके लिए कुछ भी असंभव नहीं है’’—छोटी माताजी बोलीं और कुछ ही घण्टों में हम सबको सूचित किया गया कि एक सप्ताह बाद संघ भगवान महावीर की जन्मभूमि—कुण्डलपुर (नालंदा) बिहार के लिए विहार करेगा।
‘‘वास्तव में, सही समय पर लिया गया सही निर्णय सम्पूर्ण परिवेश/समाज के लिए भी फलदायी हो जाता है।’’
धर्म—प्रभावना सम्यग्दर्शन का एक विशिष्ट अंग है और आज के कम्प्यूटर युग में जबकि मनोरंजन एवं मौज—मस्ती के साधनों की सीमा ही निश्चित नहीं है, ऐसे समय में पारम्परिक साधनों से युवावर्ग को इन्द्रिय सुखों के परित्याग रूप तप धर्म की ओर आकृष्ट करना कठिनतर हो गया है। कम्प्यूटर, लैपटॉप, आईपैड, इंटरनेट आदि वर्तमान साधनों को यदि धर्मप्रभावना में प्रयुक्त किया जाये तो संभवत: आज का युवा भी कम से कम धर्म से परिचित तो हो ही सकता है।
सन् २००९—२०१० से पूज्य चंदनामती माताजी के प्रयासों द्वारा इंटरनेट का प्रयोग करके अमेरिका के विविध शहरों—वैलीर्फोिनया, न्यूयार्व, न्यूजर्सी, टेक्सास आदि के जैन महानुभावों हेतु पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी एवं पूज्य चंदनामती माताजी के प्रवचन उपलब्ध कराये गये। इंटरनेट पर जैन इन्साइक्लोपीडिया के निर्माण का अति महत्त्वपूर्ण प्रोजेक्ट पूज्य गणिनी माताजी की प्रेरणा पर पूज्य चंदनामती माताजी एवं उनकी सर्मिपत टीम द्वारा दिगम्बर जैन परम्परा के विश्वव्यापी प्रचार—प्रसार हेतु क्रियान्वित किया जा रहा है, जो आगामी भविष्य में निश्चित ही सम्पूर्ण जैन संस्कृति के लिए मील का पत्थर सिद्ध होगा। आजकल पूज्य छोटी माताजी आने वाले प्रत्येक जैन युवा को www.encyclopediaofjainism.com में सम्बन्धित जानकारियाँ / मैटर अपलोड करने हेतु प्रेरित किया करती हैं।
‘‘वास्तव में, आधुनिक वैज्ञानिक साधन एकमात्र मनोरंजन हेतु ही नहीं है, वरन् उनका उपयोग आत्मिक उत्थान हेतु भी किया जाना चाहिए।’’
कभी—कभी जीवन में सम्बन्धित लोगों के कटु एवं अहम्—पूर्ण व्यवहार से परिस्थितियाँ अत्यन्त जटिल हो जाती हैं। कोई भी अपनी गलती स्वीकार नहीं करना चाहता अपितु दूसरे की गलती पर ही ध्यान केन्द्रित रहता है। ऐसे में, यदि कोई अधिकारपूर्वक आपको अहम् के झूठे आसन से उतारकर आपकी गलती का अहसास कराये, तो स्थितियाँ सुधर जाती हैं।
पूज्य चंदनामती माताजी ऐसी ही किसी भी बात को संभालने में सिद्धहस्त हैं क्योंकि मूल में आपसी मनोमालिन्य का कारण अक्सर बहुत छोटा होता है, मात्र सोचने का ढंग एवं व्यवहार इसे बड़ा बना देता है। उस मूल कारण को पहचानकर दोनों पक्षों को अपनी—अपनी गलती का अहसास करा देना और आपस में प्रेम—सौहार्द की स्थापना करा देना पूज्य माताजी का विशेष गुण है। धर्मप्रभावना की बड़ी कार्य—योजनाओं में भी अपनी प्रज्ञापूर्ण दृष्टि से उचित मार्गदर्शन प्रदान करके वह सदैव विशेष भूमिका का निर्वहन किया करती हैं।
‘‘वास्तव में, जटिल स्थितियों को और अधिक जटिल बनाने के स्थान पर योग्य व्यक्ति को स्थितियों को सुलझाने का गुण स्वयं में विकसित करना चाहिए।’’
एक दिन एक युवा महिला अपने पति एवं दो छोटी—छोटी बेटियों को लेकर पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के दर्शनार्थ आयी। उसने संघ में रहने के लिए पूज्य माताजी से निवदेन किया। माताजी ने बात करने के लिए उसे पूज्य चंदनामती माताजी के पास भेज दिया।
उसने छोटी माताजी से कहा—‘‘माताजी ! मैं घर छोड़कर अपनी दोनों बेटियों के साथ सदा के लिए आपके पास रहना चाहती हूँ।’’ पूज्य छोटी माताजी ने उसकी बातों से स्थिति को समझने का प्रयास किया कि भला किस कारण से वह ऐसा कह रही है। यद्यपि उनके लिए यह कहना बहुत सरल था कि—‘‘ठीक है ! तुम यहाँ रहो, तुम्हारी सब व्यवस्थाएँ बन जायेंगी।’’ परन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया।
कुछ देर बात करने के बाद उस महिला से उन्होंने कहा—‘‘तुम्हारा घर तुम्हारे लिए स्वर्ग है, तुम्हें अपनी पति की अनुकूलता करनी चाहिए और ठीक प्रकार से अपनी बेटियों का पालन—पोषण करना चाहिए। जब भी तुम चाहो, तब थोड़े दिन के लिए यहाँ आकर रहो, धर्म की चर्चा सुनो इत्यादि।’’
इसके पश्चात् पूज्य माताजी ने उस महिला के पति को अपने परिवार को उचित समय देकर उनके अकेलेपन को दूर करने एवं कभी भी अपशब्द न कहने के लिए कटिबद्ध किया। थोड़ी ही देर में आपसी सामंजस्य एवं प्रेम की नयी आशा से सराबोर वह परिवार हृदय में खुशियाँ लेकर पूज्य माताजी के पास से लौटा।
‘‘वास्तव में, अपना स्वार्थ सिद्ध करने के स्थान पर दूसरों के मध्य पारस्परिक प्रेम एवं विश्वास की धारा प्रवाहित करना ही सज्जनता की पहचान है।’’
किसी भी कार्य के निष्पादन में पूज्य चंदनामती माताजी की अनुपम कार्यक्षमता सदैव दृष्टिगत होती है। चाहे किसी बड़े कार्यक्रम का आयोजन हो अथवा किसी पुस्तक का लेखन करना हो अथवा आर्यिका संघ का उचित संयोजन हो अथवा पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी की भावनानुसार प्रतिदिन के र्धािमक आयोजनों का क्रियान्वयन हो, वह प्रत्येक कार्य को इस पूर्णता से समायोजित करती हैं कि हम सब लोग सदैव आश्चर्य भी करते हैं और मन ही मन उनकी प्रशंसा भी किया करते हैं।
संघस्थ एवं अन्य लोगों में वह विभिन्न व्यवस्थाओं का विभाजन कर देती हैं और उनके अधिकारपूर्ण स्नेहिल आकर्षण से सबके द्वारा अपने—अपने कार्यों का निश्चित समय एवं उचित स्तर के साथ निष्पादन किया जाता है, संघ में आने के पश्चात् मैंने प्रारंभ से ही ऐसा देखा है। वस्तुत: ऐसा इसलिए होता है कि वह भी पूज्य गणिनी माताजी की भाँति सदा पूर्ण सजग एवं कार्यशील रहती हैं और तब ही अन्य लोगों से भी कार्य कराया जा सकता है।
किसी एक दिन में ही विविध प्रकार के कार्यों में संलग्न उनको देखा जा सकता है—कभी किसी प्रकाशित होने वाली पुस्तक का वह सम्पादन कर रही होती हैं तो कभी पेंटर को किसी जैनकथा से सम्बन्धित चित्र बनाने सम्बन्धी निर्देश दे रही होती हैं, कभी पूज्य गणिनी माताजी एवं स्वामी रवीन्द्रकीर्ति जी (अघ्यक्ष—जम्बूद्वीप, हस्तिनापुर) के साथ मंदिर निर्माण की मीिटग में संलग्न रहती हैं तो कभी आये हुए यात्रियों के मध्य प्रवचन कर रही होती हैं, कभी मंदिर जी में चल रहे भक्ति— विधान में पूजा की पंक्तियाँ पढ़ रही होती हैं तो कभी जैन इन्साइक्लोपीडिया में मैटर अपलोड करने के लिए बच्चों एवं युवाओं को प्रेरित कर रही होती हैं, कभी आये हुए यात्रियों से बात करते हुए वह दिखायी पड़ती हैं। निश्चित ही, अनुपम कार्यक्षमता की धनी हैं पूज्य चंदनामती माताजी।
‘‘वास्तव में, व्यक्ति की योग्यतापूर्ण कार्यक्षमता उसे सबके लिए महत्त्वपूर्ण एवं आकर्षण का केन्द्र बना देती है।’’
वस्तुत: पूज्य चंदनामती माताजी सबके दिलों पर शासन करती हैं। प्रत्येक सन्निकट आने वाला व्यक्ति गुणों से सुरभित उनके स्नेहमयी व्यवहार से मानों उनसे बँध ही जाता है। मैं अक्सर सोचती हूँ कि यद्यपि दोनों माताजी ने किसी प्रसिद्ध बड़े महाविद्यालय या विश्वविद्यालय से अकादमिक डिग्री प्राप्त नहीं की है, तथापि वो अपने प्रत्येक कार्य में इतनी समर्थ, इतनी क्षमतावान, इतनी पूर्ण हैं कि सोचकर आश्चर्य होने लगता है। उनका समय—संयोजन अद्भुत रहता है।
और इसीलिए हृदय कभी भी उनकी अवज्ञा करने को कहता ही नहीं है। उनकी दिव्य गुणराशि एवं सर्वाधिक उचित पथ पर निरंतर बढ़ने की उनकी मातृत्व युक्त प्रेरणाएँ किसी का भी दिल जीतने के लिए पर्याप्त हैं। हाँ ! यह आवश्यक नहीं कि उच्च अकादमिक शिक्षा ही व्यक्तित्व का पूर्ण विकास करें, वरन् तप—त्याग—सदाचार एवं नैतिकता की शक्ति व्यक्ति को कहीं अधिक समुन्नत एवं पूर्ण बनाने में समक्ष हैं।
‘‘वास्तव में, बलपूर्वक लोगों को कुछ समय के लिए जीता जा सकता है परन्तु गुणों की सुरभि से सदा के लिए उनके हृदय पर शासन किया जा सकता है।’’
पूज्य चंदनामती माताजी सदैव कहती हैं—‘‘जो कुछ मैं हूँ और जो कुछ मैं होऊँगी, वह एकमात्र मेरी सच्ची माँ गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की ही महान अनुकम्पा है, उन्होंने ही जीवन के सर्वोत्कृष्ट उपहार के रूप में मुझे यह मोक्ष का पथ प्रदान किया है, उन्होंने ही ज्ञान रूपी अमृत से मेरा सिंचन किया है और मेरे लिए सब कुछ वही हैं।’’ वास्तविकता यह है कि किसी योग्य एवं क्षमतावान शिष्य के लिए ‘गुरु’ के प्रति इतना समर्पण सदैव आवश्यक नहीं है क्योंकि जब कोई शिष्य संघ में रहता है तब पूर्ण सहनशीलता एवं धैर्य का अवलम्बन लेकर ही उसे गुरु के अनुशासन में रहना होता है।
कभी—कभी सब कुछ मनोनुकूल नहीं भी होता है, फिर भी उसे सामंजस्य की क्षमता का परिचय देना होता है। ख्याति—पूजा लाभ एवं निज की स्वतन्त्रता के लिए गुरु से अलग हो जाना तो सरल है परन्तु पूर्ण कृतज्ञता एवं समर्पण के साथ गुरु के अनुशासन में रहना ही कठिन होता है। पू. चंदनामती माताजी ने उपरोक्त सभी गुणों को स्वयं में समाहित करके चार दशकों से अधिक समय से पूज्य ज्ञानमती माताजी की आज्ञा का सदैव पालन करते हुए उनके प्रति र्हािदक कृतज्ञता एवं आदर की भावना रखकर अपनी ओर से उनके लिए पूर्ण अनुकूल वातावरण के निर्माण का ही सद्प्रयास किया है।
आज भी यदि माताजी उन्हें एक बार भी आवाज देती हैं तो कितना भी आवश्यक कार्य वह कर रहीं हो, उसे उसी क्षण छोड़कर तुरन्त उठकर वह माताजी की बात सुनती हैं। कभी किसी विषय अथवा किन्हीं व्यवस्थाओं के प्रति बड़ी माताजी को यदि असंतोष होता है तो वह तुरन्त सम्बन्धित व्यक्ति को उचित दिशा—निर्देश प्रदान कर माताजी को संतुष्ट करती हैं। सभी संघस्थ सदस्यों के लिए भी उनकी सर्वदा यही प्रेरणा रहती है कि बड़े पुण्य से पू. गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी जैसी अमूल्य निधि हम सबको प्राप्त हुई है, इसलिए सब लोग उनकी सेवा, उनकी आज्ञापालन एवं अनुकूलता करके सच्चे हृदय से उनका वात्सल्य प्राप्त कर लो। पू. चंदनामती माताजी संघ में भी शांति, पारस्परिक प्रेम एवं सामंजस्य का वातावरण निर्मित करने में सदा प्रयत्नशील रहती हैं ताकि सबका आध्यात्मिक विकास ठीक प्रकार हो सके। इस आंतरिक शांतिपूर्ण वातावरण के कारण ही जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर द्वारा क्रियान्वित की जाने वाली धर्मप्रभावनात्मक योजनाएँ सफल हो पाती हैं, ऐसा मेरा विश्वास है। अपनी इन्हीं गुण—सुरभियों से उन्होंने पूज्य ज्ञानमती माताजी का हृदय जीता है।
‘‘वास्तव में, सभी शिष्यों को अपने गुरु के प्रति प्रेम एवं स्नेह रहता ही है तथापि सर्वाधिक भाग्यशाली तो वह है, जिसके प्रति गुरु के हृदय में स्वत: ही प्रेम, सन्तुष्टि एवं सतत आशीर्वाद की भावनाएँ प्रवाहित होती रहती हैं।’’‘‘वास्तव में, रचनात्मक कार्यों के सम्पादन में नियमितता से ही जीवन सार्थक हो पाता है।’
पूज्य चंदनामती माताजी यद्यपि एक भावुक व्यक्तित्व हैं, परन्तु सदैव नहीं। व्यवहारिकता में उनका पूर्ण विश्वास रहता है। वह सदैव कहती हैं—‘‘जीवन व्यवहारिकता से चलता है, मात्र भावनाओं एवं स्वप्नों से नहीं। वही स्वप्न देखो और वही योजनाएँ बनाओ जो व्यवहारिक रूप से संभव हो, अव्यवहारिक स्वप्नों के लिए समय व्यर्थ न गँवाओं।’’ अपने जीवन में भी वह इसी सिद्धान्त का परिपालन करती हैं।
यह सत्य है कि दृढ़ परिश्रम के साथ व्यवहारिक मार्ग खोजकर निरतंर प्रयत्नशील एवं कार्यशील रहने से बड़े से बड़ी कार्ययोजना भी सफल हो जाती है जबकि इसके विपरीत ऊँचे—ऊँचे स्वप्न एवं योजनाएँ कार्यशीलता के अभाव में धाराशायी हो जाती हैं। पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी, पूज्य चंदनामती माताजी एवं पीठाधीश स्वस्ति श्री रवीन्द्रकीर्ति स्वामी जी के जीवन का यही सत्य रहा है। जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर, तीर्थंकर ऋषभदेव तपस्थली—प्रयाग, भगवान महावीर जन्मभूमि—कुण्डलपुर (नालंदा) में र्नििमत नंद्यावर्त महल तीर्थ, मांगीतुंगी (महा.) में र्नििमत हो रही १०८ फूट उत्तुंग भगवान ऋषभदेव प्रतिमा एवं अन्य निर्माण कार्य इसी सत्य के प्रतिबिम्ब हैं।
‘‘वास्तव में, प्रत्येक वास्तविकता अपनी उत्पत्ति में मात्र एक स्वप्न ही रहती है तथापि व्यवहारिकता की उचित जलवायु ही इसे फल से लदे वृक्ष में परिणत करने में सक्षम होती है।’’पूज्य प्रज्ञाश्रमणीआर्यिकाश्री चंदनामती माताजी एक आशावादी व्यक्तित्व हैं। वह सदैव किसी घटना/वस्तु का सकारात्मक पक्ष देखने का ही प्रयास करती हैं। उनका कहना रहता है—‘‘दो रातों के बीच एक दिन देखने की अपेक्षा दो दिनों के बीच एक रात देखो।’’ उन्हें किसी अन्य का निराशावादी दृष्टिकोण भी पसंद नहीं आता। उनकी विचारधारा रहती है—
जीवन एक उपहार है, इसे स्वीकार करो जीवन एक प्रेम है, इसका मजा लो जीवन एक संघर्ष है, इसे भली—भाँति लड़ो जीवन एक ट्रेजडी है, इसका सामना करो जीवन एक कत्र्तव्य है, इसे पूर्ण करो
जीवन में निरन्तर आने वाली विपरीत परिस्थितियों में लोग अक्सर धैर्य छोड़ देते हैं और जीवन उनके लिए अर्थहीन हो जाता है। ऐसा कोई व्यक्ति जब पूज्य चंदनामती माताजी के पास आता है, तब अपनी आशावादी बातों से वह उसमें नये विश्वास एवं आशा का संचार कर देती हैं। अनेक बार ऐसे उदाहरण मेरे देखने में आये हैं। किशोरवय का एक जैन बालक पूज्य माताजी के पास दर्शन के लिए आया करता था। एक दिन सड़क—दुर्घटना में उसे काफी चोट आ गयी, हॉस्पिटल में भर्ती होना पड़ा। कई बार वह साहस खो देता, रोने लगता कि मुझे ऐसा दु:ख क्यों मिला ? जब मध्य में वह जम्बूद्वीप-हस्तिनापुर स्थित अपने घर आता, तब पूज्य चंदनामती माताजी उसे कर्म—सिद्धान्त की कहानियाँ सुना—सुनाकर दृढ़ करतीं, धीरे—धीरे वह शांत होता, थोड़ा प्रसन्न भी होता।
समय बीता और वह स्वस्थ होकर घर आ गया। परन्तु विधि का विधान, अपने माता—पिता की एकमात्र संतान उस बालक की माँ का अप्रत्याशित देहावसान हो गया, निश्चित ही उसका साहस छूट जाना अवश्यंभावी था परन्तु पूज्य चंदनामती माताजी के निरंतर सम्बोधन एवं वात्सल्य से वह संभला और आज भी जीवन के लिए एक सकारात्मक चिंतन विकसित कर वह अपनी पढ़ाई कर रहा है।
‘‘वास्तव में, आशावादिता ही जीवन का सही दृष्टिकोण है। जब हम सोचते हैं कि सब कुछ खो गया है, तब भी भविष्य हमारे हाथ में रहता है।’’
जीवन में रचनात्मक एवं सृजनात्मक दृष्टिकोण रखने वाले महानुभाव ही सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते हैं, न कि विध्वंसात्मक विचारधारा में अपनी शक्ति तथा समय का दुरुपयोग करने वाले, यह ही सत्य है पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी एवं उनकी सुशिष्या पूज्य चंदनामती माताजी के जीवन का। दोनों माताजी का कहना रहता है—‘‘यदि आप एक खींची हुई रेखा को छोटा करना चाहते हैं तो इसे मिटाइये मत वरन् इसके पास में इससे लम्बी एक रेखा खींच दीजिए।’’
अर्थात्—हमें कभी भी अपने समय तथा शक्ति का उपयोग अन्य जन की उपलब्धि के विघ्वंस में अथवा उससे ईष्र्या करने में नहीं करना है, वरन् सही अर्थ में रचनात्मक कार्य करके स्वयं का सदुपयोग करना है। इससे हम स्वयं ही ऊँचे बन जायेंगे। पूज्य गणिनी माताजी अक्सर कहती हैं—‘‘भगवान जिनेन्द्र की भक्ति एवं कठिन पुरुषार्थ हाथ की रेखाओं को भी बदलने में समर्थ हैं।’’
भगवान महावीर जन्मभूमि—कुण्डलपुर (नालंदा) के विकास के समय हम सबने पूज्य छोटी माताजी को सम्बन्धित जैन आगम के निरन्तर आलोढन एवं विभिन्न विद्वानों से चर्चा में पूर्णतया निरत देखा है। मात्र १८ माह में नंद्यावर्त महल तीर्थ—कुण्डलपुर का विकास पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के सम्पूर्ण ग्रुप की रचनात्मक मानसिकता का ही परिचायक बना।
पूज्य छोटी माताजी सदैव कहा करती थीं—‘‘आगम के सत्य की स्थापना हेतु हम सारे प्रयास करेंगे।’’
‘‘वास्तव में, जो ऊर्जा विध्वंस के नकारात्मक विचारों में व्यर्थ चली जाती है, उसे यदि रचनात्मक से ओत—प्रोत सकारात्मकता की ओर प्रवाहित कर दिया जाये तो बड़ी उपलब्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं।’’पूज्य चंदनामती माताजी अत्यन्त मेधावान एवं कुशल व्यक्तित्व हैं। उनका मस्तिष्क विशेष प्रज्ञा से समन्वित है। उनके लेखन, उनके अध्ययन कराने की शैली, उनकी कार्य—क्षमता, किसी र्धािमक प्रोजेक्ट हेतु उनके विचार एवं संयोजन क्षमता सभी से यह परिलक्षित होता है। मात्र ११ वर्ष की उम्र में, उन्होंने गोम्मटसार जीवकाण्ड की ३४ गाथाएँ याद करके सभा के मध्य सुना दिया, जिससे पूज्य ज्ञानमती माताजी को इस बालिका के विशेष क्षयोपशम का भान हो गया।
धीरे—धीरे भजन—आरती—चालीसा इत्यादि के लेखन से उनकी काव्य—प्रतिभा दृष्टिगोचर होने लगी। पूर्वाचार्यों द्वारा लिखित शास्त्रों के अध्ययन के साथ—साथ जम्बूद्वीप संस्थान की मासिक प्रतिका ‘सम्यग्ज्ञान’ के लिए भी उन्होंने विविध आलेख लिखना प्रारम्भ कर दिया। साथ—साथ सैकड़ों श्लोक एवं गाथाएँ भी उन्होंने कंठस्थ कर लीं। वर्षो से पूज्य गणिनी माताजी के निर्देशानुसार वह संस्कृत व्याकरण, छंद, न्याय, सिद्धान्त, मण्डल विधान विधि, प्रतिष्ठा विधि, जैन भूगोल एवं अनेकानेक विषय संघस्थ ब्रह्मचारिणी बहनों एवं बाहर से अध्ययन हेतु पधारे विद्यार्थियों एवं महानुभावों को पढ़ाती आ रही हैं। जब उन्होंने हमें ‘आप्त—मीमांसा’ का अध्ययन कराया, तब मुझे कई बार अहसास हुआ कि पहली बार में कुछ भी समझ नहीं आता था परन्तु जब वह अपने शब्दों में व्याख्या करती थीं, तो विषय पूरी तरह हृद्यंगम हो जाता था।
संस्कृत एवं प्राकृत का उनका उच्चारण इतना स्पष्ट, शुद्ध एवं अस्खलित रहता है कि यह सभी को आर्किषत करता है। संस्कृत भाषा एवं व्याकरण में उन्होंने शनै: शनै: विशेष दक्षता र्अिजत कर ली है। जहाँ एक अंग्रेजी भाषा का प्रश्न है, उन्होंने अपनी विशेष अभिरुचि एवं अभ्यास के द्वारा इस भाषा को भी हृदयंगम कर लिया है।
कई बार अंग्रेजी साहित्य में मास्टर्स डिग्री प्राप्त कर लेने वाले लोग भी अंग्रेजी बोलने एवं अंग्रेजी में काव्य लिखने में असमर्थता अनुभव करते हैं, परन्तु पूज्य चंदनामती माताजी न केवल अंग्रेजी में पूजन—भजन इत्यादि लिख लेती हैं अपितु विदेशों से ‘इंटरनेशनल समर स्कूल फॉर जैन स्टडीज’ में पधारने वाले छात्र—छात्राओं के लिए जैन विषय पर अंग्रेजी में व्याख्यान भी प्रस्तुत करती हैं। प्रथम जैन सिद्धान्त ग्रंथ ‘षट्खण्डागम’ की १६ पुस्तकों की पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी द्वारा लिखित ‘सिद्धान्त िचतामणि संस्कृत टीका’ का हिन्दी अनुवाद, समयसार ग्रंथराज की प्राकृत गाथाओं का हिन्दी पद्यानुवाद, समयसार—सोलहकारण—दशलक्षण—भक्तामर— नवग्रह आदि के विधान एवं सैकड़ों भजन—पूजन—आरती—चालीसा इत्यादि का लेखन सभी उनके मेधापूर्ण व्यक्तित्व के ही परिचायक हैं।
उनकी प्रज्ञा के सम्मानार्थ सन् १९९७ में ‘प्रज्ञाश्रमणी’ की उपाधि एवं सन् २०१२ में तीर्थंकर महावीर विश्वविद्यालय—मुरादाबाद द्वारा पी एच. डी. की मानद् उपाधि स्वयं ही उनकी बौद्धिक कुशलता को व्याख्यायित कर रही हैं। जम्बूद्वीप, जैन ज्योतिर्लोक, चारित्र—निर्माण, जैनधर्म की प्राचीनता आदि अनेक विषयों पर विविध वर्षों में आयोजित राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय सेमिनारों के आयोजन में उनकी सदा महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है।
सन् २००६ में राष्ट्रीय स्तर पर पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी की आर्यिका दीक्षा की स्वर्ण जयंती के आयोजन में उनका ही प्रमुख योगदान रहा। यह कार्यक्रम अत्यन्त सफल रहा था। दिगम्बर जैन संस्कृति की प्रभावना में अपना अद्वितीय योगदान प्रदान करने वाले जैन विद्वान अथवा महानुभाव को सम्मानित करने हेतु सन् १९९५ में ‘‘गणिनी ज्ञानमती पुरस्कार’’ की स्थापना का श्रेय भी आपको ही जाता है।
इस पुरस्कार में १ लाख रुपये की नगद राशि एवं प्रशस्ति पत्र इत्यादि भेंट किये जाते हैं। पूज्य चंदनामती माताजी की ही प्रेरणा से माधोराजपुरा (राज.) में ‘गणिनी ज्ञानमती दीक्षातीर्थ’ का विकास किया गया। ज्ञातव्य है कि सन् १९५६ में माधोराजपुरा में ही प्रथमाचार्य चारित्र चक्रवर्ती श्री शांतिसागर जी महाराज के प्रथम पट्टाचार्य श्री वीरसागर जी महाराज के करकमलों से पूज्य ज्ञानमती माताजी को ‘आर्यिका दीक्षा’ प्राप्त हुई थी। इन सबके अतिरिक्त, मैं व्यक्तिगत रूप से भी विपरीत परिस्थितियों में सजग मस्तिष्क के साथ अनुकूलता स्थापित कर लेने की पूज्य चंदनामती माताजी की कुशलता की हा”िदक प्रशंसक हूँ।
‘‘वास्तव में, मेधावान मस्तिष्क सही अर्थों में तभी सार्थक होता है, जबकि यह स्व एवं पर के शाश्वत उत्थान में प्रयुक्त हो।’’
पूज्य चंदनामती माताजी का एक अनुकरणीय गुण है—अपने नाम एवं प्रसिद्धि के प्रति अनासक्त भाव। वस्तुत: जिस शिष्य को अपनी प्रसिद्धि की चाह रहती है, वह दीर्घ काल तक गुरु के अनुशासन में नहीं रह सकता। पूज्य माताजी का तो कहना रहता है—‘‘यदि मेरी गुरु का हृदय मुझसे प्रसन्न एवं सन्तुष्ट रहता है तो लोगों की प्रशंसा की अपेक्षा मेरे लिए यह कहीं अधिक मूल्यवान है।’’ यद्यपि उनकी योग्यता में कहीं कोई कमी नहीं है तथापि उन्होंने कभी भी अपने स्वतन्त्र अस्तित्व की इच्छा नहीं की और यही उनकी अनुकरणीय विशेषता है। संघ में आने वाले प्रत्येक सदस्य को वह सर्वदा पूज्य गणिनी माताजी के प्रति भक्तिमान एवं सर्मिपत होने की ही प्रेरणा दिया करती हैं।
दीक्षा मुख्यत: आत्मकल्याण के लिए ली जाती है, प्रसिद्धि के लिए नहीं। आगम एवं चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज की परम्परा में सुस्थापित रहकर जो प्रसिद्धि स्वत: प्राप्त हो जाये बस वही स्वीकार्य है। यदि आगमोक्त मान्यताओं का हनन करके लोगों की प्रशंसा प्राप्त हो रही हो तो उसका अपने लिए कोई मूल्य नहीं है, यही कहना रहता है पूज्य दोनों माताजी का।
अच्छा व्यक्ति बनने हेतु निष्पक्ष एवं न्यायोचित चिंतन अतीव आवश्यक है। अर्थात् हम संतुलित मस्तिष्क से बिना किसी का पक्ष लिये यह विचार कर सवेंâ कि क्या सही है और क्या गलत। राग अथवा द्वेष के वशीभूत होकर लिये गये निर्णय सम्यक् नहीं रह पाते। कभी—कभी कुछ लोग अपने अहम् के वशीभूत हो स्थितियों को जटिल बना देते हैं एवं अपनी गलती को स्वीकार भी नहीं करना चाहते। ऐसे किसी भी अवसर पर पूज्य चंदनामती माताजी निष्पक्षता का परिचय देते हुए दोनों पक्षों की बात पूर्ण धैर्य से सुनती हैं तथा कोई कितना भी प्रिय क्यों न हो, यदि उसकी कोई गलती है तो उस पर पूरा अनुशासन भी करती हैं। व्यक्तिगत रूप में भी वह स्वयं न्यायोचित सीमाओं के अन्तर्गत ही पूर्ण संतुष्ट रहती हैं, ऊँची—ऊँची अपेक्षाएँ रखकर दु:खी बने रहना, इससे वह सदा बचकर ही रहती हैं।
‘‘वास्तव में, जीवन में प्रसन्नता प्राप्ति एवं दूसरों के लिए मूल्यवान बनने हेतु व्यक्ति को मस्तिष्क की जड़ता को त्याग कर निष्पक्ष एवं न्यायोचित बनने का साहस करना चाहिए और यदि स्वयं से कोई गलती हो गयी हो तो उसकी स्वीकारोक्ति से विमुख नहीं होना भी सीखना चाहिए।’’पूज्य चंदनामती माताजी अधिकांशत: शांत स्वभावी ही रहती हैं और तनाव के क्षणों में भी धैर्य से ही काम लेती हैं। आपके मुस्कराहट युक्त चेहरे को देखकर अपने सुख—दु:ख खुलकर कहने का मन किसी का भी हो जाता है, परन्तु गृहस्थी सम्बन्धी लम्बी एवं जटिल चर्चाओं को सुनने का धैर्य माताजी नहीं रख पाती हैं। वह कहती हैं—‘‘यदि इन्हीं सब विषयों में ही अपने को आनंद आता तो भला हम त्याग मार्ग में क्यों आते?’’ जैन मान्यताओं के अनुसार ही वह किसी को समस्या का समाधान बताती हैं।
पूज्य माताजी मानसिक रूप से अत्यन्त सबल एवं विश्वस्त रहती हैं, परन्तु इस सब के बावजूद कभी कोई गर्व की अभिव्यक्ति मैंने आज तक उनमें नहीं देखी है। यद्यपि एक महान गुरु की सर्वाधिक अग्रणी एवं योग्य शिष्या वह हैं, तथापि किसी भी प्रकार के मान से सदा दूर एवं विनम्र प्रवृत्ति ही उनमें दृष्टिगत होती है। उनकी स्पष्ट वक्तृत्व शैली एवं व्यवहार भी उनके प्रभावी व्यक्तित्व का महत्त्वपूर्ण अंग हैं।
वह घुमा—फिराकर बात करने की अपेक्षा स्पष्टवादिता का ही प्रश्रय लेती हैं, जिससे अन्य के मन में कोई संशय नहीं रहता। किसी अन्य के द्वारा यदि घुमा—फिराकर बात की जाती है, तो उसे वह स्वीकार भी नहीं करती। हाँ, स्पष्ट कहने में वह इस बात का ध्यान रखती हैं कि अन्य के स्वाभिमान एवं आत्मसम्मान को कोई ठेस न पहुँचे। यद्यपि पूज्य माताजी अक्सर शांत ही रहती हैं, फिर भी अनुशासन करने हेतु क्रोध करना भी उन्हें आता है ताकि पुन: उस गलती की पुनरावृत्ति शिष्यगण न कर सवें।
‘‘वास्तव में, प्रभावी व्यक्तित्व के विकास हेतु व्यक्ति शांतिप्रिय हो, विनम्र हो, स्पष्टवादी हो पर साथ ही अनुशासन करने हेतु किंचित् कठोर होना भी जानता हो।’’पूज्य चंदनामती माताजी में नेतृत्व करने की पूर्ण क्षमता विद्यमान है। इसे उनका आकर्षण मानें अथवा उनका श्रेष्ठ पुण्य कि चाहें संघस्थ शिष्यगण हों अथवा समाज के प्रभावशाली व्यक्तित्व हों, परिवारीजन हों अथवा अन्य परिचित जन हों, सब उनको प्रेम करते हैं, उनको आदर देते हैं एवं उनके निर्देश का पालन करने हेतु तत्पर भी रहते हैं। पूज्य माताजी भली—भाँति जानती हैं कि किस प्रकार सबका सहयोग लेकर किसी कार्य को अनुशासित रूप में सम्पन्न किया जाये। व्यवस्थित कार्य ही उन्हें पसंद आता है और स्वयं भी व्यवस्थित रूप में ही किसी कार्य को वह सम्पन्न करती हैं। सबके लिए उनकी यही शिक्षा रहती हैं—‘‘कभी भी धर्म, धैर्य और गुरु को मत छोड़ो।’’ उनके अपने जीवन का भी यही सत्य है।
वास्तव में, नेतृत्व करने हेतु व्यक्ति को पहले स्वयं परिश्रमी, व्यवस्थित, सजग, न्यायोचित एवं अनुशासित होना चाहिए।यद्यपि पूज्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी ‘छोटी माताजी’ के नाम से प्रसिद्ध हैं, परन्तु उनके गुण बड़े—बड़े हैं जो किसी को भी ऊँचाईयों पर ले जाने में समर्थ हैं। अपनी गुरु के प्रति पूर्ण समर्पण से उन्होंने ज्ञान, चारित्र, कार्यक्षमता, सामाजिक पहचान सभी में उन्नति प्राप्त की है और इस तथ्य को वह अंतरंग से स्वीकार करती हैं। हम सबके लिए भी यह अत्यन्त अनुकरणीय है।
पूज्य माताजी के चरण—सानिध्य में रहकर उनके व्यक्तित्व की जो भीनी सुगंध मुझे प्राप्त हुई है, उसका कुछ अंश लेखनीबद्ध करने का क्षुद्र प्रयास मैंने किया है। यद्यपि यह सत्य है कि आत्मा के अनंत गुणों को उपलब्ध करने हेतु ही तो मोक्षमार्ग का आश्रय लिया गया है तथापि यह भी उतना ही सत्य है कि एक गुणवान एवं योग्य व्यक्तित्व ही इस मार्ग का सच्चा पथिक बन सकता है।
अंत में, अद्भुत सृजनकर्ता परम पूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी एवं उनकी बेमिसाल कृति परम पूज्य प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका श्री चंदनामती माताजी के चरणारिंवद में असंख्य र्हािदक वंदन र्अिपत करते हुए मैं अपने शब्दों को विराम देती हूँ तथा जिनेन्द्र प्रभु से यही कामना करती हूँ कि ऐसे गुणवान व्यक्तित्वों की छत्रछाया में ही हम सभी का जीवन भी पल्लवित—पुष्पित हो सके एवं अग्रिम प्रत्येक भव में ऐसे ही गुरुचरणों का आश्रय प्राप्त होता रहे।