नेमिनाथ भगवान ने, लिया जहाँ अवतार।
उस शौरीपुर तीर्थ को, वन्दन बारम्बार।।१।।
पुन: प्रभू जी ने जहाँ, पाया पद निर्वाण।
सिद्धक्षेत्र गिरनार को, नमन करूँ शत बार।।२।।
बाइसवें तीर्थेश के, चालीसा का पाठ।
पढ़ने से हो जाएगा, तुमको भी वैराग।।३।।
विद्यादेवी को नमूँ, वो ही देंगी ज्ञान।
बिना ज्ञान वैâसे करूँ, नेमिनाथ गुणगान।।४।।
नेमिनाथ भगवान हमारे, सब भक्तों के पालनहारे।।१।।
श्री समुद्रविजय महाराजा, शौरीपुर के थे अधिराजा।।२।।
उनकी रानी शिवादेवी थीं, वो साधारण जननी नहिं थीं।।३।।
वे थीं तीर्थंकर की माता, जिन्हें नमावें देव भी माथा।।४।।
तिथि कार्तिक शुक्ला षष्ठी थी, गर्भ में आए नेमिनाथ जी।।५।।
पुन: आई श्रावण शुक्ला छठ, उस दिन था शुभ चित्रा नक्षत्र।।६।।
तीन ज्ञान के धारक प्रभु श्री-नेमिनाथ तीर्थंकर जन्मे।।७।।
वर्ण आपका इतना सुन्दर, बिल्कुल नील कमल के सदृश।।८।।
आयू एक हजार वर्ष की, ऊँचाई चालिस कर१ की थी।।९।।
यौवन में परिजन ने प्रभु का, राजमती से रिश्ता जोड़ा।।१०।।
नेमिनाथ जी सज-धजकर अब, निकले दूल्हा बन करके जब।।११।।
देखे उनने मूक पशू जो, बंधे हुए थे इधर-उधर वो।।१२।।
डरे हुए चिल्लाते थे वे, भूख-प्यास से व्याकुल थे वे।।१३।।
दयासहित हो प्रभु ने पूछा, कहो सेवकों! ये सब है क्या ?।।१४।।
कहा सेवकों ने हे राजन्! ये पशु बन जाएँगे भोजन।।१५।।
ब्याह में आएंगे जो अतिथी, उनके लिए व्यवस्था है ये।।१६।।
सुनकर प्रभु को करुणा आ गई, जग-वैभव से विरक्ती हो गई।।१७।।
समझ गए वे सारी बातें, तत्क्षण अपने अवधिज्ञान से।।१८।।
अब प्रभु के सुकुमार काल के, वर्ष तीन सौ बीत चुके थे।।१९।।
तभी देव लौकान्तिक आए, प्रभु को अपना शीश झुकाएँ।।२०।।
की अनुशंसा प्रभु विराग की, सत्यपंथ निर्ग्रन्थ मार्ग की।।२१।।
देवकुरू पालकि से प्रभु को, ले गए देव सहस्राम्रवन।।२२।।
वहँ श्रावण कृष्णा षष्ठी दिन, प्रभु जी ने जिनदीक्षा ले ली।।२३।।
राजीमति भी वैरागी बन, तप करने पहुँचीं प्रभु के संग।।२४।।
वहाँ आर्यिका दीक्षा ले ली, आर्यिकाओं में गणिनी बन गईं।।२५।।
छप्पन दिन तक नेमिप्रभू ने, घोर तपस्या की थी वन में।।२६।।
पुन: नियम तेला का लेकर, तिष्ठे बांस वृक्ष के नीचे।।२७।।
दिव्यज्ञान की प्राप्ति हो गई, केवलज्ञान ज्योति तब जल गई।।२८।।
प्रभु ने कई वर्षों तक जग में, धर्मवृष्टि की समवसरण में।।२९।।
आयु अन्त में नेमिप्रभू जी, पहुँच गए श्री ऊर्जयंतगिरि।।३०।।
श्री गिरनार भी कहते उसको, हुआ वहीं से मोक्ष प्रभू को।।३१।।
तिथि आषाढ़ सुदी सप्तमि थी, मोक्ष-गमन से हुई पूज्य थी।।।३२।।
प्रभु जी बाह्य और अभ्यन्तर, अनुपम लक्ष्मी के स्वामी अब।।३३।।
हमको भी प्रभु कुछ तो दे दो, ज्यादा नहिं तो शिवपथ दे दो।।३४।।
जिससे धीरे-धीरे हम भी, पहुँचें सिद्धिसदन में इक दिन।।३५।।
वहाँ मिलेंगे सिद्ध अनन्तों, यहीं से वन्दन है उन सबको।।३६।।
करते-करते प्रभु को वन्दन, कटें ‘‘सारिका’’ भव के बंधन।।३७।।
नेमिनाथ तीर्थंकर प्रभु जी, कहलाते हैं तृतिय बालयति।।३८।।
ग्रह राहू यदि हो अरिष्ट तो, नेमिनाथ की भक्ती कर लो।।३९।।
निश्चित ही शान्ती मिल जाए, ग्रह की सब बाधा टल जाए।।४०।।
नेमिनाथ भगवान का, यह चालीसा पाठ।
राहू ग्रह की शान्ती हित, पढ़ लो चालिस बार।।१।।
इस युग में विख्यात हैं, प्रथम बालसति मात।
गणिनीप्रमुख महान हैं, ज्ञानमती जी मात।।२।।
शिष्या उनकी चन्दनामती मात हैं प्रसिद्ध।
इन्हें राष्ट्रगौरव कहें, बुन्देलखण्ड के भक्त।।३।।
पाई इनकी प्रेरणा, तभी लिखा यह पाठ।
इसको पढ़ना भक्ति से, मिलेगा सुख-साम्राज्य।।४।।