बुन्देलखण्ड अपने सांस्कृतिक गौरव के लिए सदैव कीर्तिमान रहा है। बुन्देलखण्ड शिल्प, कला, संस्कृति, शिक्षा साहस शौर्य एवं अध्यात्म का धनी, प्राकृतिक सौन्दर्यता और खनिज पदार्थों का केन्द्र रहा है। यहाँ के जनमानस में सदैव सदाचरण की गंगा प्रवाहित होती रही है। कला और संस्कृति के अद्वितीय गढ़ यहाँ की गौरव गरिमा के प्रतीक बने हैं। यहाँ का कंकर कंकर शंकर की पावन भावना से धन्य है। जहाँ विश्व में भारत अपनी आध्यात्मिक गरिमा और संस्कृतिसभ्यता में सदैव अग्रणी रहा है वहाँ बुन्देलखण्ड भारत के लिए अपनी आध्यात्मिक परम्परा और संस्कृति में इतिहास की महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करने में अग्रणी रहा है। अध्यात्म की प्रधानता हमारे देश की परम्परागत निधि रही है तथा भारतीय संस्कृति में अध्यात्म की मंगल ज्योति सदैव प्रकाशमान रही है। भारत का दर्शन साहित्य, भाषा, मूर्तियां, वास्तुकलाएँ और सामाजिक परम्पराएँ सभी में अध्यात्म की आत्मा प्रवाहित है। धार्मिक भावनाओं को शाश्वत बनाये रखने के लिए मूर्तियों और मंदिरों का निर्माण किया गया। मंदिरों की रचना और उनमें चित्रित कलाएँ उस युग की सामाजिक और धार्मिक परम्पराओं की थाती हैं।
हमें इतिहास की साक्षी और संस्कृति का स्वरूप इन्हीं वास्तुकला के प्रतिमानों से उपलब्ध हुआ है। भारत के प्राचीन ध्र्मायतन, तीर्थस्थल, मंदिर और वास्तुकला की कलाकृतियाँ आज इस तथ्य के साक्षी हैं कि जैन धर्म प्राचीनकाल से भारत में व्यापक रूप से सर्वत्र प्रचलित रहा है। बुन्देलखण्ड जिसका भूभाग वर्तमान में मध्यप्रदेश और उत्तरप्रदेश के भागों में आवंटित कर दिया गया है सदैव से जैन संस्कृति का जीता जागता प्राणवान गढ़ रहा है। बुन्देलखण्ड भारत की प्राचीन संस्कृति और वास्तुकला को आज भी अपने आप में संजोए भारतीय संस्कृति और अध्यात्म को प्राणवान बनाए है। शिल्प की दृष्टि से बुन्देलखण्ड की जैन कला अपना विशिष्ट महत्व रखती है। यहाँ की कला और स्थापत्य में युग का सामाजिक और सांस्कृतिक तथा आध्यात्मिक जीवन सदैव इतिहास की उज्ज्वल आभा लिए हुए विकसित रहा है।
कला, साहित्य, लिपि, वेशभूषा, भाषा, शिक्षा आदि की पर्याप्त जानकारी के लिए बुन्देलखण्ड का अपना महत्त्व रहा है। यदि हमें भारतीय संस्कृति की यथार्थ ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध करना है तो बुन्देलखण्ड की वास्तुकला के प्रतिमानों का बारीकी से अध्ययन करना होगा। बुन्देलखण्ड में रथपतियों, शिल्पियों, कलाकारों एवं कलाप्रेरकों ने अध्यात्म प्रधान कृतियाँ निर्मित कीं, उनका झुकाव प्राय: कला की अपेक्षा परिणामों की ओर विशेष रहा है। अत: कलागत विलक्षता इने—गिने स्थानों में ही देखने को मिलती है। आदिमयुगीन एवं प्रागैतिहासिक काल की संस्कृति का जीता जागता चित्रण यदि भारत में आज भी जीवन्त है—तो वह बुन्देलखण्ड ही में है।
उस युग की चित्राकृतियाँ एवं कलाएँ आज भी गुफाओं में विद्यमान हैं। यहाँ के मठ मन्दिर मूर्ति मठ और गुफाएँ तथा वीजक शिलालेख आदि इस बात के साक्षी हैं कि भारतीय परम्पराओं में जनजीवन सामाजिक व्यवस्था और धार्मिक परम्परा कहाँ कब और कितनी पल्लवित और फलीभूत हुई। बुन्देलखण्ड की जैन संस्कृति और उससे संबंधित आध्यात्मिक, सामाजिक, नैतिक एवं प्राकृतिक वैभव के परिप्रेक्ष्य में विपुल ऐतिहासिक तथ्यों का अध्ययन किया जा सकता है। काल विभाजन के क्रम में जैन संस्कृति और कला का निरन्तर विकास हुआ। बुन्देलखण्ड की जैन वास्तुकला का अध्ययन की दृष्टि से कोई ठोस प्रयत्न नहीं हुआ अन्यथा बुन्देलखण्ड से आज भी प्राचीन इतिहास के साथ जैन संस्कृति और वास्तुकला पर अद्वितीय जानकारी प्राप्त होती। यहाँ की कला में जैन संस्कृति की अविच्छिन्न धारा प्रवाहित होती रही है। वास्तुकला का तो यह महत्त्वपूर्ण गढ़ रहा है। भारत में मूर्तिकला की गरिमा बुन्देलखण्ड में देखने को मिलती है।
मूर्तिकला के सर्वोत्कृष्ट गढ़ और मूर्ति निर्माण के केन्द्र स्थल बुन्देलखण्ड में ही विद्यमान हैं। यहाँ की मूर्तिकला एक सी नहीं है। भिन्न—भिन्न स्थानों पर भिन्न—भिन्न प्रकार की मूर्तिकला के उत्कृष्ट नमूने हैं। अनेक प्रकार की आसनों सहित स्वतंत्र तथा विशाल शिलापट्टी पर उत्कीर्ण विशालकाय मूर्तियां बहुधा इस क्षेत्र में उपलब्ध हैं। कुछ मूर्तियां आध्यात्मिक दृष्टि से और कुछ लौकिक दृष्टि से निर्मित हुई हैं। लौकिक दृष्टि से बनी मूर्तियां कला के बेजोड़ नमूने हैं। उनमें सामाजिक रहन—सहन आचार—विचार तथा प्रवृत्तियाँ एवं भावनाओं का तलस्पर्शी परिज्ञान प्राप्त होता है। मूर्तिकला की विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए यह अनुभव होता है कि बुन्देलखण्ड में बाहरी कलाकारों ने आकर भी मूर्ति निर्माण का कार्य सम्पन्न किया और अपनी अनूठी कला का परिचय दिया है। वास्तुकला के इन प्रतिमानों को हम मुख्यत: निम्नांकित रूपों में वर्गीकृत कर सकते हैं, जो कला संस्कृति अध्यात्म एवं सामाजिक व्यवस्था के अध्ययन की दृष्टि में महत्त्वपूर्ण हैं।
(अ) तीर्थंकर की मूर्तियाँ
बुन्देलखण्ड के पुरातन तीर्थों मंदिरों गहरों में चौबीस तीर्थंकरों में प्राय: आदिनाथ, अभिनन्दननाथ, चन्द्रप्रभ, शीतलनाथ, अनन्तनाथ, धर्मनाथ, शांतिनाथ, कुन्थनाथ, अरहनाथ, नमिनाथ, नेमिनाथ पाश्र्वनाथ और महावीर तीर्थंकरों की मूर्तियाँ व्यापक रूप से विद्यमान हैं। भारत की मूर्तिकला में बुन्देलखण्ड का योगदान सर्वोत्कृष्ट है। विभिन्न देवी—देवताओं की तुलना में जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ बहुत बड़ी संख्या में उपलब्ध हैं। अनेक जगह विशालकाय शिलापट्टों पर उत्कीर्ण द्वय र्मूितकाएँ (भरत—बाहुबलि) त्रिमूर्तिकाएँ (भगवान शान्ति कुंथ—अरह) और सर्वतोभद्रकाएँ मौजूद हैं। त्रिमूर्तिकाएँ भगवान शान्ति कुन्थ—अरह जिन की हैं। क्योंकि यह तीनों चक्रवर्ती और कामदेव के साथ—साथ तीर्थंकर जैसे महापद के धारी हुए। तीर्थंकरों की मूर्तियाँ प्राय: पद्मासन एवं कायोत्सर्ग अवस्था में ही उपलब्ध हैं। कुछ ऐसी मूर्तियाँ हैं जिनकी जटाएँ लटकी हुई हैं। अनेक मूर्तियाँ भ. पाश्र्वनाथ की सहस्र फणवाली एवं सर्प कुण्डलीयुक्त हैं जो विशेष उल्लेखनीय हैं। चतुर्विंशतिपट्ट, मूर्ति अंकित स्तंभ एवं सहस्रकूट शिलापट्ट प्राय: इस क्षेत्र में अनेक जगह अवस्थित हैं।
(ब) देवदेवियों की मूर्ति
जैन परम्परा में प्रत्येक तीर्थंकर की यक्ष—यक्षिणी की जानकारी मिलती है जो शासन देवता के रूप में माने जाते हैं। यक्षों में धरणेन्द्र और यक्षिणियों में पद्मावती, चक्रेश्वरी; अम्बिका की मूर्तियाँ विशेष रूप से पाई जाती हैं। कहीं—कहीं विद्या देवियों में महाकाली, महामानसी, गौरी, सरस्वती, लक्ष्मी, नवग्रह गंगा—यमुना, इन्द्र—इन्द्राणी, द्वारपाल, क्षेत्रपाल आदि की मूर्तियाँ पर्याप्त मात्रा में अनेक जगह विद्यमान हैं। इनका संबंध मंदिर स्थापत्य से ही रहा है तथा उनके पद के अनुसार मंदिर के विभिन्न भागों में इन्हें स्थान दिया गया है।
(स) विद्याधर की मूर्तियाँ
जो अपनी विशेष साधना एवं तपस्या के फलस्वरूप विद्याएँ सिद्ध कर देते हैं, ऐसे व्यक्ति विद्याधर की कोटि में गिने गए हैं। प्राय: इन्हें आकाश गामनी विद्याएँ सिद्ध होती हैं। और आकाश मार्ग से यह अपनी प्रेयसी के साथ आमोद प्रमोद पूर्वक घूमा करते हैं। इस प्रकार के स्थापत्तीय भित्ति चित्र अनेक जगह पाए जाते हैं।
(द) साधु—साध्वियाँ
अनेक जगह आचार्यों को उपदेशरत दिखाया गया है। उनके समीप साधुवर्ग एवं हाथ में ग्रंथ लिए उपाध्याय तथा भक्तियुक्तनत श्रावकगण ऐसे संघों की वन्दना में विरत दिखाए गए हैं। बुन्देलखण्ड के बहुतीर्थों में तोरणद्वारों, शिलाफलकों, गुफाओं तथा भित्ति पर उत्कीर्ण ऐसी मूर्तियाँ अनेक रूपों में पाई जाती हैं। मूर्तियों में भावात्मक प्रधानता विशेष रूप से लक्षित होती है।
(य) श्रावक—श्राविका
श्राविकाओं में र्आियका या तीर्थंकर की माता ही विशेष रूप से पाई जाती हैं जो इन्द्राणियों द्वारा बहु प्रकार से सेवित हैं। इसके अलावा साधु संघों में उपदेशामृत सुनते हुए अथवा स्तुति करते हुए अनेक जगह श्रावक—श्राविकागण दर्शाए गए हैं। इन मूर्तियों से उनके वस्त्राभूषण, अलंकार, केस, सज्जा, भावभंगिमा एवं भक्ति वन्दना की परम्पराओं का परिज्ञान होता है।
(र) युग्म
स्थापत्य में युग्मों और मंडलियों का निर्माण सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक परम्परा को प्रस्तुत करने के उद्देश्यों की र्पूित के लिए हुआ है। इनमें अलंकरण का बाहुल्य है। काम शास्त्र को साकार र्मूितरूप में प्रयुक्त कर भोगविलास रागरंग का चित्रण मंदिर की बाह्य भित्तियों पर दर्शाकर मंदिर के अंदर शांत और पावन वातावरण में प्रवेश कराने की प्रवृत्ति का अनुकरण बुन्देलखण्ड के अनेक तीर्थों में देखने को मिला है। खजुराहों इसका जीता जागता गढ़ है। रति चित्रों के यह युग्म प्रेमासक्त और सम्भोगरत के रूप में पाए जाते हैं। शारीरिक रूप लावण्य साजसज्जा के अलावा मनोभावों की अभिव्यक्ति इन मूर्तियों से ऐसे प्रगट होती है जैसे यह जीवित रूप में अपनी अभिव्यक्ति प्रगट कर रहे हों। कलाकार के कला की अद्वितीयता इन युग्मों में देखने को मिलती है। राग रंग के प्रतीक अनेक नृत्य, वाद्य, संगीत मंडलियों का र्मूितगत बनाने की अनूठी कला भी इनमें देखने को मिलती है। इस अद्वितीय कला को देखकर ‘‘पत्थर को भी मोम बनाने वाली यहाँ कला है’’ की उक्ति चरितार्थ होती है।
(ल) प्रतीक
माननीय संस्कृति की समुन्नति में प्रतीक का अभ्युदय आरंभ से ही नाना रूपों में आगे आया। आरंभ में अतदाकार और बाद में तदाकार के रूप में यह अपने विकासक्रम में आई। जैन परंपरा में प्रतीक का अस्तित्व आरम्भ से हो रहा। धर्मचक्र, ध्वजा, चैत्य, वृक्ष, पुष्प, पात्र, स्वस्ति, स्तूप, मानस्तंभ, अष्ट मंगल, अष्ट प्रातिहार्य, सोलह स्वप्न आदि अनेक प्रकार के प्रतीक शुभ माने गए हैं। यह प्रतीक धर्म संस्कृति और उनके आधेय आधारों की एक ऐतिहासिक पृष्ठभूमि अपने आप में समाहार किए हुए हैं।
(व) पशु पक्षी
इनको र्मूितगत बनाने का कारण मात्र अलंकरण ही नहीं बल्कि तीर्थंकरों के चिह्नों के रूप में या देवी—देवताओं के आसन के रूप में इनका निर्माण किया गया। हाथी, सिंह, वृषभ, अश्व, बंदर, कुत्ता, सर्प, मत्स्य, कच्छप आदि के मूर्तिरूप अनेक जगह देखने को मिलते हैं जो भित्तियों द्वारा अथवा मूर्ति के आसनों में गढ़े गए हैं।आसन और मुद्राएँ तथा प्रकृति चित्रण तीर्थंकर की मूर्तियाँ तो मात्र कायोत्सर्गासन अथवा पद्मासन के रूप में ही प्राप्त होती हैं परन्तु देवी देवताओं के आसन अनेक प्रकार के पाए गए हैं। कमल, अशोकवृक्ष, कल्पवृक्ष, लताएँ आदि के अंकन में कलाकारों ने अद्वितीय सफलता प्राप्त की है। इन आयामों से हम वक्ता के विभिन्न विकासक्रमों का अध्ययन प्राप्त कर सकते हैं। सामाजिक और धार्मिक चेतना के इन पुरातन गढ़ों ने जैनधर्म के विकास और उसकी संस्कृति की समुन्नति में बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। बुन्देलखण्ड आज भी भारत के ही लिए नहीं अपितु विश्व के लिए अपनी अनूठी कला और संस्कृति की गरिमा का पान करा रहे हैं। बुन्देलखण्ड में ऐसे शताधिक पुरातन क्षेत्र हैं जहाँ वास्तु कला के र्विणत आयामों का स्वरूप दर्शन हमें देखने को मिलता है। मुख्य रूप से बुन्देलखण्ड के उन ऐतिहासिक पुरातन स्थलों को हम स्मरण कर सकते हैं जिनमें जैन संस्कृति और कला का अतुल भंडार भरा है।
बुन्देलखण्ड के तीर्थों की जैन वास्तुकला
बुन्देलखण्ड से स्पष्ट तात्पर्य भार के उस भू—भाग से है जो प्रमुख रूप से बुन्देले राजपूतों की निवास भूमि अथवा उनके द्वारा शासित भूमि से रहा है। बुन्देलों की निवास भूमि होने के कारण यह भूभाग बुन्देलखण्ड कहलाया। कुछ विद्वानों का मत है कि विन्ध्याचल की उपत्यका में स्थित होने के कारण यह भूभाग बुन्देलखण्ड कहलाया और इसमें बसने वाले ही बुन्देले कहलाए। उनका मत है कि विन्ध्य से विन्ध्येले शब्द की निष्पत्ति हुई और कालान्तर में विन्ध्येले से बुन्देले शब्द बना और इन बुन्देलों का इस भूभाग में शासन स्थापित होने के पश्चात् ही बुन्देलखण्ड कहा जाने लगा। यद्यपि इस भूभाग का नाम प्राचीन नहीं है। परन्तु इसका गौरवशाली इतिहास अवश्य बहुत प्राचीन है। यहाँ का मानवीय विकास, संस्कृति, सभ्यता, धर्म, कला, साहित्य के विकास में जो योगदान रहा वह निश्चित ही अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। बुन्देलखण्ड अपने गौरवशाली पुरातन के लिए प्रसिद्ध है। बुन्देलखण्ड के शिलालेख ऐतिहासिक सामग्री से भरपूर हैं। इनमें २४ तीर्थंकरों और उनके जैनधर्म की मान्यता प्राचीन काल से प्रमाणित है। खजुराहो की खुदाई से १०८५ ई. का एक अभिलेख मिला जिसमें आदिनाथ की प्रतिमा की प्रतिष्ठा का उल्लेख है। विदिशा वैभव कृति में र्विणत विवरणानुसार सुपाश्र्वनाथ के समय इस क्षेत्र में राजधर्म जैनधर्म था भगवान् चन्द्रप्रभ का विहार भी बुन्देलखण्ड में इतना अधिक हुआ कि वहाँ के निवासी उनके परम भक्त बन गए थे। एक नगर जहाँ चन्द्रप्रभ का समवसरण आया उसका नाम चन्देरी और दूसरा उनके चिह्न पर चांद्रपुर आज तक प्रसिद्ध है। बुन्देलखण्ड में मौर्य, गुप्त, हूण और चन्देलवंशीय राजाओं का अधिक राज्य रहा है। मौर्य और गुप्तवंशी राजाओं के वंशों में प्रथम महान् राजाओं ने चन्द्रपभ के नाम पर चन्द्रगुप्त कहलाए। और चंदेलवंशीय आदि पुरुष भी चन्द्र के नाम से प्रसिद्ध हुए। इसी प्रकार उदयगिरि विदिशा के ४२६ ई. के गुफालेख में पाश्र्वनाथ का उल्लेख है। इस क्षेत्र में जैन परम्परा में बने मंदिर, र्मूित, मठ, गुफा, तोरण, स्तंभ, चैत्यालय वास्तुकला के ऐसे उत्कृष्ट प्रतीक हैं। जिनकी शिल्प सौध हमारी गौरव गरिमा के लिए पर्याप्त हैं। ऐसे जैनवास्तु शिल्प के धनी स्थलों, तीर्थों, मंदिरों, मूर्तियों की संक्षिप्त जानकारी यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं जिनसे बुन्देलखण्ड की जैन संस्कृति का उजला पृष्ठ देखा जा सके।
बुन्देलखण्ड की सीमा
वर्तमान मध्य प्रदेश का बहुल भू—भाग और उत्तर प्रदेश की दक्षिणी भाग बुन्देलखण्ड सीमा में समाहार है। मध्य प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में पिछले ४० वर्षों में पुरातत्त्वीय उत्खनन से प्राप्त आधारों तथा सर्वेक्षण कार्य द्वारा पता चला है कि प्रागैतिहासिक काल से लेकर उत्तर मध्यकाल के अन्त तक इस प्रदेश के कई भागों में सभ्यता का विकास होता रहा बुन्देलखण्ड का भूभाग जिसमें बहुलता के रूप में है। ऐतिहासिक दृष्टि से चेदि, सुकौशल, जनपद, विदर्भ भाग, बुन्देलखण्ड भूभाग के अन्तर्गत आते हैं। विन्ध्य—क्षेत्र का अधिकांश भाग प्राचीनकाल में चेदि जनपद नाम से विख्यात रहा। बाद में यह जैजाक मुक्ति एवं तदनंतर बुन्देलखण्ड नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस क्षेत्र के कलात्मक अवशेषों में सबसे प्राचीन आदिम शिलाश्रयों के चित्र कहे जा सकते हैं।
समय
गुप्तकाल तथा मध्यकाल में इस प्रदेश के अनेक भागों में वास्तु कला, मूर्तिकला एवं चित्रकला का पर्याप्त विकास हुआ है। प्राचीन मंदिरों और मूर्तियों के जो बहुसंख्यक अवशेष मिले हैं उनसे इस बात की पुष्टि होती है। ईसा पूर्व चौथी से ई. पूर्व प्रथम शदी में मौर्य तथा शुंगकाल में विदिशा नगरी का वैभव बहुत बड़ा था। विदिशा नगर के समीप प्रसिद्ध गरुण स्तंभ के आसपास केन्द्रीय पुरातत्त्व विभाग द्वारा जो खुदाई कराई गई उसमें ईसा पूर्व ६०० से लेकर गुप्तकाल के अंत तक विविध अवशेष मिले हैं। उनमें शुंग कालीन मंदिर विशेष रूप से हैं। बुन्देलखण्ड सीमा के अन्तर्गत वर्तमान उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के उस भूभाग को ले सकते हैं जिसमें जैन संस्कृति, धर्म और वास्तु कला का सद्भाव गत ढाई हजार वर्षों से विद्यमान है। आज बहुत से ऐसे पुरातत्त्वीय वास्तुकला के जीवन्त प्रतिमान, मूर्तियाँ और गढ़ धार्मिक आस्था के साथ जुडे़ होने के कारण जैन समाज द्वारा रक्षित और जीवित हैं। तथा बहुत से ऐसे स्थल आज भी खण्डहरों टोलों के रूप में अपनी कला—संस्कृति की समेटे सिसकियाँ ले रहे हैं, जो या तो आतताइयों द्वारा कुलचे गए हैं अथवा आवागमन की असुविधा के कारण उपेक्षित से पड़े हैं। फिर भी कला धर्म—संस्कृति और आस्था की दृष्टि से संक्षिप्त रूप में उनका मूलभूत स्वरूप प्रस्तुत कर रहे हैं।
कला
बुन्देलखण्ड की जैन कला को चार भागों में विभक्त कर सकते हैं।
१. तीर्थंकर मूर्तियां,
२. शासन देवी देवताओं की मूर्तियां,
३. आयागपट्ट आदि,
४. विविध अलंकरण वेदिका—स्तंभ। सर्वाधिक प्राचीन जैन मूर्तियों के साथ उपरोक्त चारों प्रकार की कला के प्रतिमान बुन्देलखण्ड के देवगढ़, खजुराहों, सीरोनजी जैसे कला के अप्रतिम गढ़ों पर उपलब्ध हैं। ईसा पूर्व तीसरी चौथी शताब्दी से लेकर ईसा की पाँचवी छटवीं शताब्दी तक की मूर्तियां खड्गासन और पद्मासन अवस्था में प्राप्त है। पौराणिक आख्यान के आधार पर चेदि जनपद का बहुल भाग वर्तमान मध्य प्रदेश में और थोड़ा भाग उत्तर प्रदेश में सम्मिलित हैं। बुन्देलखण्ड में अवस्थित जैन संस्कृति के गढ़ धार्मिक आस्थाओं के कारण आज भी यथावत् प्राणवन बने हुए हैं। धार्मिक परम्परा में जैन संस्कृति के इन स्थलों को चार रूपों में स्वीकृत किया है।
१. तीर्थक्षेत्र — जहाँ तीर्थंकरों ने जन्म लेकर साधना साधकर ज्ञान और निर्वाण प्राप्त किया वे स्थल तीर्थ कहलाए।
२. सिद्धक्षेत्र — तीर्थंकर या सामान्य जनों ने महासंयम धारणकर और आत्म साधना से केवलज्ञान प्राप्त कर निर्वाण प्राप्त किया वे सिद्धक्षेत्र कहलाए।
३. अतिशय क्षेत्र — जहाँ अनेक प्रकार के दैवी चमत्कार हुए अथवा मनोकामनाएँ पूर्ण होती हैं वे क्षेत्र अतिशय क्षेत्र के रूप में परिगणित हुए।
४. कला तीर्थ — ऐसे प्राचीन धार्मिक स्थल जहाँ की वास्तुकला अपने कला सौन्दर्य को लिए इतिहास की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं—कला तीर्थ हैं। यद्यपि बुन्देलखण्ड में लगभग सभी जिलों के वनों, पर्वतों, मंदिरों, गुफाओं में जैन पुरातत्त्व की अपार सामग्री बिखरी पड़ी है जो भारत के अन्य प्रदेशों में दुर्लभ है फिर भी मूलभूत अति महत्त्वपूर्ण सर्वाधिक प्राचीन पुरा सम्पदा के स्थलों को यहाँ हम सामान्यत: प्रतिपादित करेंगे।
१. चेदि जनपद
इसका कुछ भाग उत्तर प्रदेश और बहुल भाग मध्य प्रदेश में आया है जो इस प्रकार है—
# झांसी—इस जिलें में करगुवां अतिशय क्षेत्र हैं।
# ललिपुर—इस जिले में देवगढ़, सीरोन, बानपुर, मदनपुर, सीरोनकलाँ, पावाजी, चाँदपुर जहाजपुर बालावेहट, दुधई, गिरार, कारीटोरन एवं क्षेत्रफल (ललितपुर)।
# सतना—पतियानदाई, कारीतलाई। विजयार्ध के विन्ध्यांचल की सारिणी में २५.७६ अक्षांश और देशान्तर रेखाओं के मध्य उत्तर प्रदेश का ऐतिहासिक सुप्रसिद्ध जिला झांसी है जो चेदि जनपद के अन्तर्गत है। झांसी के पास लगभग ६ किमी. पर कारगुवां नामक जैन अतिशय क्षेत्र है। यहाँ पर एक भोंयरा तलघर है जिसमें संवत् १३४३ की ७ प्रतिमाएँ हैं जो कला, सौम्यता और वीतरागता की अनूठी छवि से युक्त हैं। झांसी शहर में पुरातत्त्व के २ संग्रहालय हैं जिनमें अपार मात्रा में इस जिले की सीमा के अलावा जालौन, बांदा, हमीरपुर, जिले की यत्र—तत्र स्थलों से लाई गई मूर्तियों में जैन मूर्तियाँ, भामण्डल तोरण एवं पीठ आलेख तथा शासन देवी देवताओं की प्रतिमाएँ मुख्य रूप से हैं जो ईसा शताब्दी ९ से १३ तक की है।
२. सुकौशल जनपद —
यह पूरा मध्य प्रदेश भूभाग में समाहार है।
१. दमोह—कुण्डलपुर।
२. जबलपुर—मढ़िया, लखनादौन, त्रिपुरी, कोनी, पनागर, बहोरीबंद।
३. नरिंसहपुर—वरहटा। वर्तमान में झांसी जिला को दो खण्डों में विभाजित किया गया और एक ललितपुर नया जिला बनाया गया। इस जिले में पाषाण कला का यह कलातीर्थ मदनपुर है। इसी प्रकार के और भी अनेक जैन कला के क्षेत्र हैं जिनमें पुरातत्त्व वैभव भरा पड़ा हुआ है। उसका समूचा विधिवत् अध्ययन अभी भी शेष है। भारतीय पुरातत्त्व विभाग को इस दिशा में गंभीर प्रयत्न करना चाहिए।