सुरासुर – खगेन्द्रवंद्य – चरणाब्जयुग्मं प्रभुं।
महामहिम – मोहमल्ल – गजराज – कंठीरवं।।
महामहिम – रागभूमिरुह – मूलमुत्पाटनं।
स्तवीमि कमठोपसर्गजयि-पार्श्वनाथं जिनं।।१।।
देव असुर विद्याधर वन्दित, चरण सरोरुह पार्श्व प्रभो।
महा प्रभावी मोहमल्ल, हस्ती के लिए सिंह सम हो।।
महिमाशाली राग वृक्ष को, जड़ से कीना उन्मूलन।
कमठोपसर्गजयि पारस का, करूँ संस्तवन शुचिकर मन।।१।।
अहंकृतिधिया जिनेन्द्र! ममकारबुद्ध्या भुवि।
मया स्वपरभेदबोध-मुग्धात्मना हे प्रभो!
उपेक्षितजनं महाकटुकवृत्तिकं निंदकं।
अवैमि स्वजनं हहा! नहि विवेकलेशो मयि।।२।।
अहंकार ममकार बुद्धि को, परवस्तू में कर भगवन्।
स्वपर भेद विज्ञान शून्य मैं, बहिरात्मा मूरख हो जिन।।
महा कटुक वृत्तिकधारी, निंदक विपरीत उपेक्षित को।
मोह भाव से अपना समझा, हा! धिक् नहिं विवेक मुझको।।२।।
दुरंतघनमोह – कुंभिमद – सिंहपार्श्वो जयी।
मुनीन्द्र गणसेवितस्त्रिभुवनैकसूर्यो महान्।।
कठोरकमठारिणा भवभवे कृतं संकटं।
महार्णवमन:! क्षमाधर! विभो! त्वयासह्यत।।३।।
पापरूप घनमोह हस्तिमद, नाश करन को सिंहजयी।
हे पारस! सुर मुनिगणसेवित! त्रिभुवन के इक सूर्य तुम्हीं।।
क्रूर कमठ शत्रू ने तुमको, दश भव तक बहु कष्ट दिये।
क्षमाशील! हे महासमुद्रमन:! प्रभु तुमने सभी सहे।।३।।
पुरुश्रिय-मशिश्रियत् सकललोकचूड़ामणि:।
स्वजन्ममरणार्तिहा सकललोक-भाषापति:।।
प्रवृद्धविभवैर्जनै – र्गणधरै – र्यतीशै: सुरै:।
जिनेन्द्र! विनुतस्त्वमेव सततं स्तुतो वंदित:।।४।।
उत्तमशिवलक्ष्मी के आश्रय, सकल लोक चूड़ामणि हो।
अपने जन्म मरण दुखनाशक, सकल जगत भाषापति हो।।
वैभवशाली जन से गणधर, यतिगण से सुरनर गण से।
वंदित संस्तुत नमित सदा प्रभु, तुम ही पूजित सब जग के।।४।।
भवंतमधिगम्य नाथ! नहि कोऽपि मोहं व्रजेत्।
विशोकमुपसद्य नाथ! किमु कोपि शोकं भजेत्।।
विरागमुपलभ्य नाथ! नहि रागभावो भवेत्।
वितन्द्रमुपपद्य नाथ! सुभवे-दतंद्रालुता।।५।।
नाथ! आपको पाकर नहिं, कोई मोही होता जग में।
नाथ! शोक से रहित तुम्हें लख, नहिं जन शोक करे मन में।।
राग रहित पा नाथ! तुम्हें, नहिं रागभाव धारे कोई।
तंद्रा रहित नाथ! को पा, तंद्रा निद्रा खोते सब ही।।५।।
अपापमुपलभ्य भो जिन! भवे-दपापो जन:।
विकोपमुपलभ्य नाथ! किमु कोऽपि कोपं भजेत्।।
अदोषमुपलभ्य भो! सकलदोष-शून्योजन:।
अतो हि भगवंस्त्वमेव सकलै: श्रित: सर्वदा।।६।।
पापशून्य हे प्रभो! तुम्हें पा, पाप रहित होते सब जन।
कोप शून्य हे नाथ! तुम्हें लख, नहिं क्रोधी हों जग में जन।।
दोषशून्य प्रभु को पाकर सब, दोष रहित हो जाते हैं।
हे भगवन्! अतएव सदा सब, जन तब आश्रय लेते हैं।।६।।
स्वदोषरजसां क्षयाय शुचिशांतभावं श्रित:।
अनंतभव – संगताष्टविध – कर्मवृक्षांतक:।।
स्वमोहविजयी जितेन्द्रियमना मदेर्ष्याविजित्।
ममापि जिनपार्श्वनाथ! कुरु मोहनाशं त्वरं।।७।।
निज के दोष नाश करने को, निर्मल शांत भाव धरकर।
भव अनंत के अष्टकर्म तरु, को निर्मूल किया प्रभुवर।।
मोह द्वेष विजयी इन्द्रिय मन-विजयी ईर्ष्या मानजयी।
हे प्रभु पार्श्वनाथ! मेरा भी, मोह नाश झट करो सही।।७।।
नमोऽस्तु गतजन्मने भवसमुद्रसंशोषिणे।
नमोऽस्तु गतमृत्यवे सकलसौख्यसंपोषिणे।।
नमोऽस्तु गतकर्मणे सकलभव्यसंतोषिणे।
नमोऽस्तु जिनपार्श्व! ते सकलमोहसंहारिणे।।८।।
नमोऽस्तु तुमको जन्मरहित, भवसागर के शोषणकारी।
नमोऽस्तु तुमको मृत्युरहित, सबको सुखमयपोषणकारी।।
नमोऽस्तु तुमको कर्मरहित सब, जन को सन्तोषित करते।
नमोऽस्तु तुमको हे पारसजिन! सब जन मोह नाश करते।।८।।
हिनस्तु विधिभूभृतां मम समस्तसंतापहृत्।
पिनष्टु ममसंकटं विविधकर्मपाकोदितं।।
लुनातु भवबीजत: विविधरागदु:खांकुरान्।
पुनातु भवपंकत:जिनप! मां पवित्र: पुमान्।।९।।
जग संतापहरन मेरे सब, कर्माचल को चूर करो।
विविधकर्म के उदय जनित मम, भव संकट को चूर्ण करो।।
जन्म बीज से विविध रागमय, दु:खांकुर उन्मूल करो।
जिन! पवित्र! प्रभु भव कीचड़ से, मुझे निकाल पवित्र करो।।९।।
त्वदीयगुणरत्नराशि-जलधेर्गृहीत्वा गुणान्।
अनन्तजनता त्वदीयसदृशं पदं प्राप्नुयात्।।
तथापि गुणलेशमात्रमपि न व्ययं प्राप्तवान्।
ततो हि गुणसागर! त्रिभुवनैकनाथो महान्।।१०।।
तव गुणरत्नसिंधु से भगवन्! अनंतगुण को लेकर के।
हे प्रभु! अनंतभविजन तुम, सदृश शिवपद को पा जाते।।
फिर भी गुण का लेश मात्र भी, नहिं कम होता तव गुण में।
हे त्रिभुवनपति! आप अत:, अनुपम अनंत गुण सागर हैं।।१०।।
जिनेन्द्र! तवभक्तिभारवशत: फणी धारयन्।
फणातपनिवारणं महति कष्टकाले त्वयि।।
सुमेरुहृदयो जिनस्त्वदुपकारि नो तस्य तत्।
सुखाय भुवनैकबोधशुचिकेवलं त्वं श्रित:।।११।।
हे जिन! तेरी भक्ति भारवश, से धरणेन्द्र झटिति आकर।
तव उपसर्ग काल में शिर पर, फण को छत्र किया सुखकर।।
मेरुहृदय प्रभु! तव उपकारी, नहिं उनही को है सुखकर।
प्रभु को त्रिभुवन सूर्य ज्ञानवैâवल्य प्राप्त हो गया प्रखर।।११।।
नमोऽस्तु जिनसूर्य! विश्वनुत! विश्वतत्त्वज्ञ! ते।
नमोऽस्तु जिनपार्श्वचंद्र! कुमुदैकबंधो! प्रभो।।
विधेहि करुणांबुधे! मयि कृपां भवात् पाहि च।
पुनीहि भगवंस्त्वमेव शरणागतं मां त्वरं।।१२।।
नमोऽस्तु तुमको हे जिन भास्कर! जगनुत! विश्वतत्त्वज्ञानी।
नमोऽस्तु तुमको हे जिन पारसचंद्र! कुमुदबंधो स्वामाr।।
करुणाहृद! मुझ पर करुणा, करिये भव से रक्षा करिये।
हे भगवन्! शरणागत मुझको, आप हि झट पवित्र करिये।।१२।
पार्श्वनाथ! स्तवीमि त्वां, भक्त्या सिद्ध्यै त्रिशुद्धित:।
चतुर्ज्ञानमतिक्रांत – पंचमज्ञानलब्धये।।१३।।
हे जिन पार्श्वप्रभो! भक्ती से, मन वच तन की शुद्धी से।
सकलसिद्धि अरु मुक्ति के लिए, करूँ तुम्हारी संस्तुति मैं।।
चार ज्ञान से रहित पाँचवें, ज्ञान प्राप्ति के लिए नमूँ।
केवल ज्ञानमती दे दीजे, पंचमगति को शीघ्र गमूं।।१३।।
।। इति पार्श्व जिनस्तुति।।