स्वगुणरुचिरै: रत्नै:, रत्नाकरो व्रतशीलभृत्।
समरसभरै: नीरै:, पूर्ण: महानिधिमान् पुमान्।।
त्रिभुवनगुरुर्विष्णु-र्ब्रह्मा शिवो जिनपुंगव:।
विगलितमहामोहोऽदोषो जिनो मुनिसुव्रत:।।१।।
कर्तुस्तीर्थस्य, प्रणतदिविज: ते सुमित्र: पितासौ।
धन्या सोमा सा, त्रिभुवनगुरोर्जन्मदात्री प्रसिद्धा।।
गर्भे संयातो, द्वितयदिवसे, श्रावणे कृष्णपक्षे।
जातो वैशाखे, विगलिततमा: कृष्णपक्षे दशम्यां।।२।।
व्रतगुणनिधिभृत् स वैशाखकृष्णे दशम्यां मुनि:।
सकलविमलबोधभास्वान् नवम्यां च तन्मासि वै।।
सुरनरमुनिभिर्नुता द्वादशी फाल्गुने तामसे।
शिवसुखसदनं श्रितस्त्वं सदा पाहि भो नाथ! मां।।३।।
त्रिंशत्सहस्रवर्षायुश्-चापविंशतिसम्मित:।
वैडूर्यमणिसच्छाय:, जिन: कच्छपलाञ्छन:।।४।।
जगति जने: पुरी, तव सुराजगृही प्रथिता।
बहुधनधारया, वसुमतीति मता भुवने।।
तव वचनामृतं, मम मन: सुपिबेत् नितरां।
जिन! चरणाम्बुजे खलु रमेत च ते सततं।।५।।