तीर्थकृत्-शांतिनाथस्त्वं, भव्यानां शांतिकारक:।
शान्तिनाथमहं प्रीत्या-राधयामि भजाम्यपि।।१।।
शांतिनाथेन चक्रित्वं, मदनत्वं पदं श्रितं।
शान्तिनाथाय मे नित्यं, नमो नमोऽस्त्वनंतश:।।२।।
शान्तिनाथाद् महत्तीर्थं-विश्वशांतिप्रदायकं।
शान्तिनाथस्य तीर्थस्याविच्छिन्नाभूत् परम्परा।।३।।
शान्तिनाथे मतिं तावत्, यावन्न स्यात् शिवो मम।
भो: शांतिनाथ! मे यच्छ, शांतिमात्यन्तिकीं त्वरम्।।४।।
श्री शान्ति प्रभो! शरणागत जन, शान्ती के दाता कहें तुम्हें।
यह धन्य हुई हस्तिनापुरी, जहाँ राज्य किया शांतीश्वर ने।।
विश्वसेन पिता ऐरादेवी, माता का अतिशय पुण्य खिला।
भादों वदि सप्तमि के प्रभु को, गर्भागम का सौभाग्य मिला।।१।।
शुभ ज्येष्ठ वदी चौदस आई, शांतीश्वर ने जब जन्म लिया।
सुरगृह में बाजे बाज उठे, इन्द्रों ने मस्तक नमित किया।।
त्रिभुवन में शांति लहर दौड़ी, नरकों में कुछ क्षण शांति हुई।
गिरि मंदर पर अभिषेक हुआ, उत्सव में भू नभ एक हुई।।२।।
शांतीश प्रभू चक्रीश बने, षट्खंड मही का भोग किया।
शुभ ज्येष्ठ वदी चौदस के दिन, बस चक्ररत्न को त्याग दिया।।
इक शतक साठ कर तनु सुन्दर, आयू इक लाख वर्ष प्रभु की।
तपनीय कनक सम कांति विभो! मृग लांछन से जाने सब ही।।३।।
प्रभु ध्यान चक्र को ले करके, मोहारि नृपति को मारा था।
वर पौष सुदी दशमी के दिन, भव्यों को मिला सहारा था।।
षोडश तीर्थंकर कामदेव, पंचम चक्री त्रय पदधारी।
वर ज्येष्ठ वदी चौदस के दिन, त्रिभुवन साम्राज्य मिला भारी।।४।।
प्रभु नर्क निगोद और विकलत्रय, दु:खों को सहता आया हूँ।
तिर्यंच मनुज सुर गतियों के, दु:खों से खूब सताया हूँ।।
नौ महिने तक मैं माता के, उर में औंधे मुँह लटका था।
अति घृणित अशुचि में पड़ा-पड़ा, नहिं किंचित् हिल डुल सकता था।।५।।
वहाँ श्वांस घुटा करता प्रतिक्षण, नहिं पलभर आँखें खोल सका।
अति घोर कष्ट सहता रहता, नहिं किंचित् भी कुछ बोल सका।।
जैसे तैसे कर जन्म लिया, उस काल प्रभो! जो कष्ट हुआ।
संख्यातों जिह्वा कह न सकें, फिर वैâसे भी मैं कहूँ हहा।।६।।
बचपन में भी मैं मूक रहा, जो जो दुख भोगे हैं प्रभुवर।
मैं भूल गया बस फूल गया, कुछ क्षण तरुणाई को पाकर।।
अब इष्ट वियोग अनिष्ट योग, के दुख से भी घबराया हूँ।
तुम शांती के दाता भगवन्! अतएव शरण में आया हूँ।।७।।
सम्यग्दर्शन औ ज्ञान चरण, ये रत्नत्रय निधि मुझे मिली।
तनु से ममता भव बीज अहा! सम्यग्दृक् कलिका आज खिली।।
हे शांतिनाथ! मैं नमूं सदा, बस भक्ती का फल एक मिले।
नहिं बार बार मैं जन्म धरूं, बस मुझको सिद्धी शीघ्र मिले।।८।।