हिन्दी अनुवादक
अनादिनिधने नाथ ! संसारे दु:खसागरे।
चश्ले विषम भीमे, अगाधे पारवर्जिते।।१।।
अर्थात्— हे नाथ ! अनादिनिधन, चंचल, विषम, भीम, अगाध, पाररहित संसार के दु:खसागर में…१।।
जन्ममृत्युजरातोये, तृष्णामकरसज्र्ले।
अज्ञानसिकताकीर्णे, मायादोषतरङ्गके।।२।।
अर्थात्— जन्म, जरा और मृत्यु का जल है, तृष्णारूपी मगरमच्छ है, अज्ञानरूपी बालुका से भरा हुआ है, मायारूपी दोष की तरंगों से युक्त ……।।२।।
क्रोधमानभयावर्ते, चिन्तावातेनक्षोभिते।
कामरागासितपेने, सिक्तदोषेभयानके।।३।।
अर्थात्— क्रोध, मान और भयरूपी भँवर है, चिन्तारूपी वायु से क्षुभित हो रहा है, काम और रागरूपी झाग से युक्त है तथा भयानक दोषों से युक्त है…..।।३।।
महामोहबृहन्मीने, लाभस्ववडवानले।
दुर्गतिनाम वेलायां, वृद्धिं याति सुविस्तरम्।।४।।
अर्थात्— महामोहरूपी बड़ी मछलियाँ इसमें रहती हैं, लाभरूपी वड़वानल से युक्त है, दुर्गति नामक वेला से सम्पन्न होने से इसका विस्तार बढ़ता जाता है।।४।।
एवंभूते महाभीमे, संसारे दु:खसज्र्टे।
भ्राम्यमानो भवचव्रे, प्राप्तं दु:खं निरन्तरम्।।५।।
अर्थात्— इस प्रकार महाभयानक, दु:खों से पूर्ण, संसार के भवचक्र में भ्रमण करने वाला जीव निरन्तर दु:खों को प्राप्त करता है।।५।।
नारकाणां महादु:खं, तिर्यंचानां महद्भयम्।
देवानां मानसं दु:खं, मनुष्यानां वियोगजम्।।६।।
अर्थात्— नारकियों को महान दु:ख होता है। तिर्यंचों को महान भय होता है। देवों को मानसिक दु:ख होता है और मनुष्यों को वियोगजनित दु:ख होता है।।६।।
एतैश्च विविधाकारै:, दु:खजालै: पुन: पनु:।
आवृत्तोऽहं जगत्स्वामिन्। त्वस्मिन् च भवान्तरे।।७।।
अर्थात्— हे जगत्स्वामिन्! इस प्रकार संसाररूपी समुद्र में भवान्तर में मैं विविध प्रकार के दु:खजालों से आवृत्त हो चुका हूँ।।७।।
काममोहवशीभूतै: पुत्रदारैस्तुकारणै:।
कृतानि बहु पापानि, अज्ञानतमसावृत्तै:।।८।।
अर्थात्— स्त्री और पुत्रों के कारण से काम और मोह के वशीभूत होकर मिथ्याज्ञानरूपी अन्धकार से आवृत्त हुआ यह जीव बहुत पापों को करता है।।८।।
प्राणातिपातिता पूर्वं, मृषावचनभाषितम्।
हृतानि परद्रव्याणि, परदासीसुसेविता।।९।।
अर्थात्— पूर्व में इस जीव ने हिंसा की, झूठ बोला, परद्रव्य का हरण किया और परस्त्री का सेवन किया।।९।।
मद्यं मांसं तथान्यैश्च, बद्वारम्भपरिग्रहे।
लुब्धबुद्धया मया नाथ! कृतं पापं सुदारूणम्।।१०।।
अर्थात्— हे नाथ ! पूर्व में मेरे द्वारा मद्य और मांस का सेवन किया गया, बहुत आरम्भ किया गया तथा परिग्रह का संचय किया गया। लुब्धबुद्धि के कारण से मैंने भयंकर पाप किये हैं।।१०।।