‘रागादि विकारान जयति इति जिन:’—जसने रागद्वेषादि विकारों को जीत लिया वह जिन है। शुद्धचिदानन्द स्वरूप में नित निमग्न रहने वाले तीर्थंकर भगवंतों की पूजा—उपासना, उन जैसा बन जाने के लिये, जैन परम्परा में र्मूित पूजा के रूप में अनादिकाल से की जाती है। स्थापतय और मूर्तिकला के इतिहास में जैन धर्म का विशिष्ट योगदान है। जैन संस्कृति और कला की प्राचीनता, उत्कृष्टता, एकरूपता और ऐतिहासिक संदर्भों में शिलालेख, र्मूित लेख, दान पत्र, ग्रंथ प्रशस्तियों आदि का महत्वपूर्ण स्थान है। तीर्थंकर—अरहन्त भगवानों के दश जन्म के अतिशय, दश के केवलज्ञान संबंधी अतिशय और चौदह देवकृत अतिशय होते हैं। चौदहवें अतिशय में अष्ट मंगल—द्रव्य प्रकट होते हैं। वे हैं—छत्र, ध्वजा, दर्पण, कलश, चामर, झारी, स्वास्तिक (सांथिया) और पंखा। इनके अलावा अष्ट प्रातिहार्य, यथा—अशोक वृक्ष, पुष्प वृष्टि, दिव्य ध्वनि, चामर, सिंहासन, भामण्डल, दुन्दुभिवाजा और छत्रत्रय भी प्रकट होते हैं जो समवसरण—सभा की शोभा में वृद्धि करते हैं। चौबीस तीर्थंकरों के वृषभ, हाथी, स्वस्तिक, वङ्कादण्ड, मीन, शंख आदि चौबीस चिह्न हैं। जैन परम्परा में र्मूितयों के अतिरिक्त ईसापूर्व तथा ईस्वी पश्चात् मांगलिक चिह्न, प्रातिहार्य आदि को श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता रहा। इनका अंकन आयाग—पट्टों में मिलता है।
प्राक्—कुषाण और कुषाण काल के आयागपट्ट मथुरा, शौरीपुर से प्राप्त हुए हैं। इसके अलावा इन चिह्नों/प्रतीकों का अंकन शिलालेखों के साथ भी स्वतंत्र रूप से हुआ है। इसका एक उदाहरण खंदार जी (चंदेरी) का २१०० वर्ष पूर्व का शिलालेख और मांगलिक प्रतीकों का अंकन है। बुंदेलखण्ड की यह बहुमूल्य विरासत है। चेदी राज्य अति प्राचीन राज्य है। इसका उल्लेख आदि पुराण में हुआ है। चेदी (चन्देरी) शिशुपाल की राजधानी के रूप में विख्यात रहा। चंदेरी श्रमण संस्कृति का प्राचीन प्रमुख केन्द्र रहा। भ्रमणशील श्रमण कन्दराओं—गिरियों में साधना करते थे। इनका निर्माण प्राकृतिक रूप से या आग्नेय शिलाओं में तक्षण विधि से किया जाता था। ऐसी शिला की खोज श्री चन्द्रभूषण तिवारी, भा. पुरा. सर्वेक्षण ने चंदेरी के निकट खन्दार जी के शीर्ष में की, जिसे पठघटिया के नाम से जाना जाता था। सम्पूर्ण शिला को सात मीटर चौड़ा तथा तीन मीटर गहरा उकेरा गया है। पश्चिमामुखी देवाल पर दो शिलालेख उत्कीर्ण हैं—एक, विक्रम सं. १५७१ का तथा दूसरा लेख ब्राह्मी लिपि में है। अक्षर रचना के अनुसार यह लेख लगभग दूसरी—पहली शती ई. पूर्व का है।
उपर्युक्त लेख के साथ निम्न मांगलिक चिह्न उत्कीर्ण हैं।
(१) नन्दीपद
(२) स्वास्तिक
(३) विहग (चकवा)
(४) मीन—मिथुन
(५) पद्य
(६) शंख
(७) त्रिरत्न
(८) वङ्का
(९) श्रीवत्स
(१०) ध्वज
(११) तालवृत्त (दर्पण)
मीन—मिथुन एक से अधिक बार दर्शाया गया है। इनमें स्वास्तिक शीतलनाथ जी, विहग (चकवा) सुमतिनाथ जी, मत्स्य अरहनाथ जी, पद्य पद्यनाथजी, शंख नेमिनाथजी, वङ्का धर्मनाथजी के लांछन (चिह्न) हैं। शेष विशिष्ट मांगलिक चिह्न हैं जिनमें श्रीवत्स प्रत्येक तीर्थंकर के वक्ष पर विद्यमान रहता है। त्रिरत्न सम्यग्दर्शन ज्ञान—चारित्र का सूचक है, जो मोक्ष मार्ग है। स्वास्तिक मंगल द्रव्य और तीर्थंकर चिह्न दोनों हैं। उक्त शुभ प्रतीकों के अतिरिक्त पठार के ऊपर वृत्ताकार द्रोणियाँ बनी हुई हैं जिनमें मार्जन हेतु संभवत: जल संग्रहीत किया जाता था। अभिलेख के बायीं ओर तालवृत्त अथवा व्यंजन तथा दाहिनी ओर स्वास्तिक है। अभिलेख का अभिप्राय अस्पष्ट है। इसके आधार पर, सर्वेक्षणकर्ता ने, इन मांगलिक चिह्नों की तिथि दूसरी—पहली शती ई. पूर्व निर्धारित की है। अत: स्पष्ट है कि चंदेरी और बुंदेलखण्ड में जैन धर्म का प्रचलन प्राचीन है यह संभव है कि यहाँ जैन धर्म के स्तूप तथा प्राकृतिक गुफाओं में और भी अवशेष मिल सवेंâ (आ. पुरा. पत्रिका पृ. क्र. ३—७४, १९७१—७२)। इस दिशा में गहन—शोध—खोज अपेक्षित है। दशमी शती के आसपास खंदार जी (चंदेरी) का पुनर्रुद्धार हुआ। जैन धर्म का व्यापक प्रचार—प्रसार हुआ। इसके परिणाम स्वरूप चंदेरी, बूढ़ी—चंदेरी, सैरोन जी, थुबौनजी, देवगढ़, गुरीलागिरि, गोलाकोट, पचराई, मियादॉन्त, पपौरा जी, आहार जी मदनपुर, बानपुर आदि स्थानों में अनेकानेक जिनालयों एवं जिनप्रतिमाओं का निर्माण हुआ। पाडाशाह ने भ. शांतिनाथ की विशाल प्रतिमाएँ स्थापित की। थुबौनजी का जीर्णोद्धार त्रिशताब्दिदर्शी स्व. श्री पं. चुन्नीलाल जी द्वारा कराया गया। बूढ़ी—चंदेरी के भव्य जिनालय और सहस्रों प्रतिमाओं की खोज उनके एक स्वप्न के आधार पर हुई। दुर्भाग्य।
बूढ़ी—चंदेरी की सहस्रों विशाल जैन—र्मूितयों का शिरच्छेदन तस्करी की भेंट चढ़ गया। जब पुरातत्व विभाग जागरूक हुआ, तब जैन वैभव लुट चुका था। मूर्ति तस्करी अभी भी हो रही है। सन् १४३६ ई. के पहले भट्टारक देवेन्द्रर्कीित ने चंदेरी में भट्टारक पट्ट की स्थापना की जो पौरपाट या परवारपट्ट के नाम से प्रसिद्ध हुआ। श्री तारण स्वामी भी बाल्यकाल में चंदेरी रहे और भ. देवेन्द्रर्कीित के संपर्वâ में आये। सिरोंज पट्ट भी परवार पट्ट था। ‘परवार जैन समाज के इतिहास’ के अनुसार भट्टारक देवेन्द्र र्कीित के बाद चंदेरी पट्ट पर क्रमश: भट्टारक त्रिभुवनर्कीित, सहस्रर्कीित, पद्मनंदी, यश:र्कीित ललित र्कीित, धर्मर्कीित, पद्मर्कीित, सकलर्कीित और सुरेन्द्रर्कीित प्रतिष्ठित हुए। भ. सुरेन्द्रर्कीित के शिष्य चन्द्रर्कीित और उनके शिष्य ब्र. नमिसागर ने वि. सं. १७५७ में कुण्डलपुर—दमोह में बड़े बाबा के मंदिर का जीर्णोद्धार कराकर उनके समक्ष अंतिम श्रुतकेवली श्रीधर के चरण चिह्न स्थापित कराये। खंदार जी में भट्टारक की पाँच छतरियाँ बनी थी। विक्रम सं. १८३९ (ई. १८३६) में संघाधिपति श्री सवाई सिंह जी ने चंदेरी में भारत विख्यात चौबीसी का निर्माण कराया, जिसमें चौबीस शिखरयुक्त कोठरियों में २४ तीर्थंकरों की शास्त्रोक्त वर्ण की मनोहारी पद्मासन र्मूितयाँ विराजमान हैं। ऐसी चौबीसी भारत में कहीं भी नहीं हैं।
सुरक्षा और अहं—विसर्जन हेतु दरवाजे छोटे हैं। झुककर दर्शन करने होते हैं। चौबीसी की प्राचीनता, भव्यता और सुरक्षा बोध को यथावत बनाए रखना सभी का कर्तव्य है। प्राचीनता नष्ट करना कानून की दृष्टि से अपराध है। निर्माता की पावन—पुनीत भावना का सम्मान करना अपेक्षित है। श्री दिगम्बर जैन चौबीसी मंदिर ट्रस्ट के अन्तर्गत खंदारजी का विकास हो रहा है। इसके अध्यक्ष चौधरी श्री महावीर जैन एवं महामंत्री डॉ. अविनाश सराफ हैं। विश्व—विरासत के रूप में पठघटिया के शिलालेख एवं मंगल—प्रतीकों को सुरक्षित करना आवश्यक है। इस दिशा में उनके सर्व प्रयासों को लेखक का सहयोग और समर्थन है। इससे चंदेरी के गौरव में वृद्धि होगी। जिनशासन जयवन्त हो।