है प्रान्त अवध भारत भू में, जिसमें शुभ तीर्थ अयोध्या है,
उस निकट प्रसिद्ध टिकैतनगर, जिसके प्रति होती श्रद्धा है।
उस नगरी के श्रेष्ठी श्री, छोटेलाल और मोहिनि देवी,
उनकी कन्या मैना बन, ज्ञानमती फैलाती जिनकीर्ती।।१।।
उन ज्ञानमती माताजी की, लघु भगिनी हैं चन्दनामती,
जो मात-पिता की बहुत लाडली, है जिनमें कुशाग्र बुद्धी।
छोड़ा कुटुम्ब परिवार सभी, जोड़ा विराग से नाता है,
संस्कारों का फल जीवन में, अद्भुत महिमा दिखलाता है।।२।।
श्री ज्ञानमती माताजी ने, देखी इतनी प्रतिभा शक्ती,
लघुवय में इनको सम्बोधा, मन में जल गई ज्ञानज्योती।
वैराग्य भाव प्रस्फुटित हुए, जीवन मानों था बदल गया,
उस छोटी-सी कन्या का अपना, मानव जीवन सफल हुआ।।३।।
वह सुगन्धदशमी तिथि पावन, जब ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया,
मानो उस तिथि में व्रत लेने से, इनका जीवन महक उठा।
माधुरी मधुरता बिखराती, जन-जन के मन को मोह रहीं,
फिर बनीं चन्दनामती मात, चन्दन सी सुरभी फैल गयी।।४।।
है ब्रह्मचर्य की कठिन साधना, अठरह वर्षों तक इनकी,
अद्भुत है तेज भरी आभा, इन माता के मुखमण्डल की।
जो पास में तेरे आता है, वह संस्कारित हो जाता है,
सानिध्य सदैव तेरा चाहे, निंह दूर कभी रह पाता है।।५।।
है हस्तिनापुर की पावन, वह पुण्यमयी वसुधा प्यारी,
जहाँ मिली आर्यिका की दीक्षा, खिल उठी ज्ञान की फुलवारी।
माँ ज्ञानमती से श्रावण शुक्ला, ग्यारस में दीक्षा पायी,
चल पड़ीं मुक्तिपथ ओर पथिक बन, जीवन बगिया महकायी।।६।।
जो कार्य गुरू द्वारा सम्पादित, तन-मन न्योछावर करतीं,
अनुशासनप्रियता है पसन्द, खुद अंगीकार उसे करतीं।
गुरू की वाणी को आगम का, उपदेश मान पूरा करतीं,
हर भक्त चरणनत होता है, लख अनुशासनप्रियता तेरी।।७।।
चाहे छोटा हो अथवा बड़ा, कोई भी इन सम्मुख आता,
लखकर उसके हर इक गुण को, इनका मन हरदम हर्षाता।
शिष्यों को निज सम्बल देकर, हर क्षेत्र में वह आगे करतीं,
गुणग्राहकता में सदा सजग, प्रगटाती माँ इक नवज्योती।।८।।
आए मन में कोई विचार, लेखनीबद्ध हो जाता है,
कई ग्रन्थों का है सृजन हुआ, स्वयमेव प्रमाण दिखाता है।
है सार भरा हर पंक्ती में, जो नूतन दिशा प्रदाता है,
हे आशुकवी माता तुमको, कविजगत नमाता माथा है।।९।।
श्री कुन्दकुन्दकृत मूलाचार में, जो चर्या है साधू की,
वह करें सर्वदा पालन माँ, निंह उसमें कभी शिथिल होतीं।
गुरू सम अपनी चर्या में दृढ़, हैं सदा मात चन्दनामती,
तुम सम कुछ गुण मुझमें आएँ, आगमयुत मेरी बने मती।।१०।।
जैसे अर्जुन का लक्ष्य एक, वैसा ही लक्ष्य तुम्हारा है,
है एक गुरू पर दृढ़ श्रद्धा, उनको ही सब कुछ माना है।
है चन्द्रगुप्त सी भक्ति तेरी, गुरुसेवा में रत रहें सदा,
उनसे मिलती शिक्षा हमको, गुरुभक्ति में दृढ़रत रहें सदा।।११।।
जैसे गणिनी माँ ज्ञानमती, जिनधर्म की अमिट धरोहर हैं,
वात्सल्यपूर्ण ममता सागर, लगती उनकी प्रतिमूरत हैं।
सागर जैसी गम्भीर तथा, गंगा सम निर्मल वाणी है,
हे ममतामूरत, दयासिंधु, माँ तेरी अमिट कहानी है।।१२।।
सम्यग्दर्शन अरु ज्ञान चरित की, सदा त्रिवेणी बहती है,
जो रत्नत्रय की करें साधना, त्याग प्रेरणा देती हैं।
इस युग में ऐसी कठिन साधना, विरले ही कर पाते हैं,
मुझमें भी माँ यह गुण आवें, हम यही भावना भाते हैं।।१३।।
जिनसंस्कृति जननी और जन्मभूमी, सम है महान जग में,
उसकी शुभ छाया में हम सब, करते हैं धर्मध्यान रुचि से।
जिनसंस्कृति की रक्षा में रत, सबको भी यह शिक्षा देतीं,
सर्वस्व न्योछावर कर देना, यह पावन पूज्य पवित्र कही।।१४।।
तुझमें है प्रज्ञागुण अद्भुत, वाणी है तेरी ओज भरी,
व्यक्तित्व अनूठा है तेरा, हर प्राणी का मन मोह रहीं।
गुरू ने लख प्रज्ञा गुण तेरा, ‘प्रज्ञाश्रमणी’ पद तुम्हें दिया,
सर्वदा बढ़े तब तक जब तक, निंह केवलज्ञान प्राप्त होता।।१५।।
षट्खण्डागम की संस्कृत टीका, ज्ञानमती माता ने की,
उसकी हिन्दी टीकाकत्र्री, कहला माँ चन्दनामती।
हे हिन्दी टीकाकत्र्री माता!, तुमको है शत बार नमन,
हे श्रुतवारिधि, हे ज्ञानमूर्ति, स्वीकार करों शत-शत वन्दन।।१६।।
हे मोक्षमार्ग की सम्प्रेरक, माता तुमको युग का वन्दन,
पथभ्रमित हुए जीवों को, मोक्षमार्ग का होता दिग्दर्शन।
तेरी वाणी है अमृतमय, भवि को दे मोक्षमार्ग उत्तम,
उपदेशामृत से अभिसिंचित कर, प्रमुदित होता है तव मन।।१७।।
जब ज्ञानमती माँ अग्रिम भव में, अर्हत पदवी प्राप्त करें,
हे मात! बनो उनकी गणधर, दिव्यध्वनि का जग पान करे।
ब्राह्मी-चन्दनबाला सम जोड़ी, सदा-सदा जयशील रहे,
मुक्तिश्री पाने तक यह जोड़ी, सदा-सदा अक्षुण्ण रहे।।१८।।
वक्तृत्व कला, लेखन आदिक, तुझमें गुण का भण्डार भरा,
पर गुरुभक्ती को जीवन में, है लक्ष्य रूप में सदा धरा।
इस युग के लिए उदाहरण है, जो ख्याति, लाभ, पूजा चाहें,
उन शिष्यों का आदर्श बनीं, कुछ गुण हम भी तुमसे पाएँ।।१९।।
अद्भुत प्रज्ञागुण लख तेरा, हर इक करते अभिनन्दन हैं,
देकर उपाधि गौरव मानें, होता पुलकित हर जन मन है।
तीर्थंकर श्री महावीर विश्वविद्यालय ने यह पुण्य लिया,
पी एच डी. की उपाधि देकर, तव चरणों में शत नमन किया।।२०।।
वात्सल्यर्मूित ममतासागर! तुमको युग का शत बार नमन,
हे दिव्यप्रभा, हे अवधरत्न! करते तेरा हम अभिनन्दन।
गुरु चरणों में चौबिस चौमास, किए हर आज्ञा कर पालन,
निंह ख्याति, लाभ की चाह कभी, गुरुचरणों में जीवन अर्पण।।२१।।
हे ज्ञानमती माँ की छाया, चंदनामती मां तुम्हें नमन,
उपकार किए जो भी मुझ पर, जन्मों तक भी निंह होउँ उऋण।
शब्दों के मोती कितने भी, तव चरणों में अर्पण कर दूं,
मुट्ठी भर रेत लिए कैसे, पर्वत की गरिमा मैं कह दूं।।२२।।
संसार में सब कुछ सुलभ किन्तु, संयम मणि पाना दुर्लभ है,
जो मोह शत्रु को मार सके, उसका संसार अल्प ही है।
उन्नत भविष्य की निर्मात्री, हम जैसों की प्रेरणास्रोत,
हैं सन्त काव्य की परम्परा में, उद्योतित आलोकपुंज।।२३।।
गुणगान तुम्हारा गाने को, मम लेखनि निंह होती सक्षम,
पर बालबुद्धि निंह कर पाई, मैं अपनी इच्छाओं का दमन।
जब तक धरती पर जन्म मिले, गुरू रूप में सन्निध पाउँ तेरा,
इस ममतामूरत से निंह सूनी, होए कभी यह वसुन्धरा।।२४।।
है रजत जयंती दीक्षा की, कैसा पावन अवसर आया,
इनके पद-कमलों में नत हो, मन में यह भाव उमड़ आया।
युग-युग तक यह जीवन्त रहें, आशीष सदैव मिले इनका,
दीक्षा की प्राप्ति हो ‘इन्दु’ मुझे, हो वरदहस्त मुझ पर माँ का।।२५।।