गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी
सिद्धिप्रदं सकलतापहरं प्रसिद्धं, रत्नत्रयं परमसौख्यनिधिं दधान:।
निष्विंकंचनोऽपि विबुधै: खलु कथ्यमान:, श्री वीरसागर गुरुर्हृदि तिष्ठतान्मे।।१।।
सिद्धांतसारमवगम्य हितोपदेशी, गंभीर धीर मितवाक्प्रभृतेर्गुणाब्धि:।
आचार शास्त्रमवगाह्य पटु: क्रियासु, श्री वीरसागर गुरुर्हृदि तिष्ठतान्मे।।२।।
आत्मस्वभाव निरत: शिवसौख्यलिप्सु, मोक्षैक साधनविधौ कुशलो महात्मा।
आजन्मकामविजयी मुनिनायकस्त्वं, श्री वीरसागर गुरुर्हृदि तिष्ठतान्मे।।३।।
अध्यात्म शास्त्रनिपुणो निजतत्त्ववेदी, साम्यामृतस्वरसनिर्झरणी निमग्न:।
स्वात्मैकसौख्यरस तृप्तमना: नितांतं, श्री वीरसागर गुरुर्हृदि तिष्ठतान्मे।।४।।
लोवैकचित्त जलजप्रतिबोधसूर्य:, आल्हादने भुवि विधुर्भविकौमुदीनाम्।
पुण्याँकुरोज्जननसोदक मेघतुल्य:, श्री वीरसागर गुरुर्हृदि तिष्ठतान्मे।।५।।
अनुष्टुप् छंद- नंनमीमि त्रिशुद्ध्याहं, सूरिं श्री वीरसागरम् ।
ज्ञानमत्यै श्रियै नित्यं, संस्तवीमि पुन: पुन:।।६।।