(सर्व विघ्नहर स्तोत्र) षोडशं तीर्थकर्तारं, पंचमं चक्रर्वितनम्।
द्वादशं कामदेवं च, शांतिनाथं नमाम्यहम्।।१।।
शत इंद्रों से योगि वृंद से, वंदित पद पंकज हैं।
शाश्वत ज्ञान दरश सुख बीरज, धारी रवि अद्भुत हैं।।
शुक्लध्यान से घातिकर्म, वैरी को दग्ध किया है।
ऐसे श्रीअर्हंतदेव का, वंदन नित्य किया है।।१।।
आठ कर्म को नाश, आठ उज्ज्वल सद्गुण के धारी।
दुष्टभाव दुखदाह विनाशक, मिष्ट मधुर सुखकारी।।
केवलदर्शन से अवलोकित, सब जग तुलना विरहित।
कृत्यकृत्य उन सर्व सिद्ध को, वंदूं स्तवन करूँ नित।।२।।
जो स्वयमेव श्रेष्ठ, पंचाचारों का पालन करते।
अनुग्रहमति से आश्रितजन को, नित पलवाते रहते।।
काम मल्लमद मर्दन करते, उज्ज्वल गुण को धरते।
शरणभूत सुखप्रद उन, सूरीगण को हम नित नमते।।३।।
बारह अंग व अंगबाह्य, श्रुत जलधि पार पहुँचे जो।
परवादी पर्वत के लिए, वङ्कासम वचन धरें जो।।
सादि अनादि अनंत सांत, मोक्षमार्ग उपदेशें।
गुण जलनिधि उन उपाध्याय को, आदर से नित नमते।।४।।
मोक्ष हेतु जो धर्म शुक्ल दो, ध्यान उन्हें नित ध्याते।
पंचेन्द्रिय का रोधन करते, शांत दांत कहलाते।।
अक्षयमुक्तिरमा उनको नित, सत्कटाक्ष से देखे।
ऐसे साधु समूह उन्हें मैं, नमूँ सिद्धि सब देते।।५।।
शंका आदि दोष आठ मद, आठ मूढ़ता त्रय हैं।
अनायतन छह ये सब मिलकर, दोष पच्चीस कहे हैं।।
इनसे विरहित आठ अंग युत, सम्यग्दरस नमूँ मैं।
आप्त, जिनागम, नवपदार्थ की, श्रद्धा उसे भजूँ मैं।।६।।
मतिज्ञान के तीन शतक, छत्तीस भेद माने हैं।
द्वादश अंग चतुर्दश पूरब, श्रुतज्ञान जाने हैं।।
अवधि तीन विध मन पर्यय दो, केवल ज्ञान अकेला।
शीश नमाकर नित वंदूं मैं, होवे ज्ञान उजेला।।७।।
पांच महाव्रत पांच समिति, त्रयगुप्ति गुणों से उज्ज्वल।
सम्यक् चारित ध्यान सिद्धि, करने वाला परमोज्ज्वल।।
‘इसके बिना मुक्ति नहीं मिलती, अतः इसे नित वंदूँ।
सम्यक् चारित्र प्राप्त मुझे हो, भव भव दुख से छूटूँं।।८।।
ज्ञानावरणी कर्म, पञ्च प्रकृति संयुत हैं।
उस निर्मूलन हेतु, दयाकांत जिनप्रभू हैं।।
मन वच तन से नित्य, उनको शीश नमाऊँ।
पूर्णज्ञान परकाश, करके निजपद पाऊँ।।९।।
कर्मदर्शनावर्ण, नवप्रकृति युत जानो।
उस निर्मूलन हेतु, दयाकांत जिन मानो।।
मन वच तन से नित्य, उनको शीश नमाऊँ।
पूर्ण दरस गुण पाय, करके निजपद पाऊँ।।१०।।
कर्म वेदनी नाम, सात असात द्विभेदा।
उस निर्मूलन हेतु, दयाकांत जिन देखा।।
मन वच तन से नित्य, उनको शीश नमाऊँ।
अव्याबाध सुसौख्य, पाकर निज पद पाँऊ।।११।।
मोहनी कर्म प्रचण्ड, अट्ठाइस भेदों युत।
उस निर्मूलन हेतु, दयाकांत जिन हैं इक।।
मन वच तन से नित्य, उनको शीश नमाऊँ।
समकित गुण को पाय, फेर न भव में आऊँ।।१२।।
भव प्रिय आयूकर्म, चार भेद युत वर्णा।
उस निर्मूलन हेतु, दयाकांत जिन शर्णा।।
मन वच तन से नित्य, उनको शीश नमाऊँ।
अवगाहन गुण पाय, नहीं पुनर्भव पाऊँ।।१३।।
नामकर्म जग ख्यात, तिरानवे भेदों युत।
उस निर्मूलन हेतु, दयाकांत जिनवर नित।।
मन वच तन से नित्य, उनको शीश नमाऊँ।
गुण सूक्ष्मत्व सुपाय, चहुँ गति भ्रमण मिटाऊँ।।१४।।
गोत्र कर्म विख्यात, ऊँच नीच भेदों से।
उस निर्मूलन हेतु, दयाकांत जिन होते।।
मन वच तन से नित्य, उनको शीश नमाऊँ।
अगुरुलघू गुण पाय, निजपद में रम जाऊँ।।१५।।
अंतराय है कर्म, पांच प्रकृति को धरता।
उस निर्मूलन हेतु, दयाकांत जिन अर्चा।।
मन वच तन से नित्य, उनको शीश नमाऊँ।
शक्ति अनंती पाय, शाश्वत निज सुख पाऊँ।।१६।।
मन में हुए दुर्भाव उनसे, पाप बहु संचित हुए।
उनके उदय में आवते, बहु रोग मुझको दुख दिये।।
तुम पाद वंदन से सभी वे, विघ्न क्षण में शान्त हों।
श्री शान्तिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारंबार हो।।१७।।
बहु अप्रशस्त वचन उचारे, पाप बहु अर्जित किये।
वे जब उदय में आवते, बहु व्याधि मुझको दुख दिये।।
तुम पाद वंदन से सभी वे, विघ्नक्षण में शान्त हों।
श्री शान्तिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारंबार हो।।१८।।
बहु अशुभ चेष्टा काय की कर, पाप बहु संचित किये।
वे जब उदय में आवते, बहु व्याधि मुझको दुख दिये।।
तुम पाद वंदन से सभी वे, विघ्न क्षण में शान्त हों।
श्री शान्तिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।१९।।
नगरादि से औ राज्य या, गृह से व धन से च्युत हुए।
उसके निमित से कष्ट बहुविधि, दुःख मुझको दे रहे।।
तुम पाद वंदन से सभी वे, विघ्न क्षण में शान्त हों।
श्री शान्तिनाथ नमोस्तु, तुमको नित्य बारम्बार हो।।२०।।
जो पूर्व में अर्जित किये, बहु पाप उनके उदय से।
नाना तरह के विपद दारिद, कष्ट बहु देते मुझे।।
तुम पाद वंदन से सभी वे, विघ्न संकट शान्त हों।
श्री शान्तिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।२१।।
बहुविध जलोदर कुष्ट श्लेष्मा, पित्त वायू रोग हैं।
उनके हुए से वेदना, तन में उठे बहु खेद हैं।।
तुम पाद पंकज वंदते, सब व्याधि संकट शान्त हों।
श्री शान्तिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।२२।।
जब इष्ट का वीयोग और, अनिष्ट का संयोग हो।
तब मानसिक बहु वेदना, होवे असह संताप हो।।
तुम पाद वंदन से सभी दुख, शोक क्षण में शान्त हों।
श्री शान्तिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।२३।।
होवे उपद्रव स्वजन का या, परजनों का भी कभी।
उसके निमित्त से शोक संकट, कष्ट देते हैं सभी।।
तुम पादपंकेरुह नमें सब, विघ्न विपदा शान्त हों।
श्री शान्तिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।२४।।
तीनों जगत में बहु तरह के, शस्त्र आयुध बन रहें।
बहु शत्रुगण उन शस्त्र से, बहु त्रास मुझको यदि करें।।
तुम पाद सरसिज वंदते, सब विघ्न बाधा शांत हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।२५।।
जलचर मगर मच्छादि नाना, जंतु पीड़ा दें यदी।
उनके निमित्त से कष्ट होवे, प्राण भी हरते कभी।।
तुम चरण अम्बुज सेवते, सब आपदायें शान्त हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।२६।।
वन पर्वतों के चतुष्पद गज, सिंह व्याघ्रादिक सभी।
मुझको सतायें प्राणघातक, कष्टकारी हों कभी।।
तुम पादपंकज वंदते, क्षण एक में वे शांत हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।२७।।
भूपर चलें आकाश में, उड़ते पतत्री१ बहु विधे।
वे पूर्वभव के वैर से भी, कष्ट दें मुझको अबे।।
तुम पादपंकेरुह नमें वे, विघ्न संकट शांत हो।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।२८।।
सर्पादि के विष अन्य विष, या जो हलाहल विष कहें।
वे यदि स्वतनु में व्याप्त हों, फिर मृत्यु का भी भय रहे।।
तुम पाद वंदन से सभी विध, विघ्न संकट शांत हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।२९।।
नख सींग पैने औ बड़े, जिनके भयंकर दिख रहें।
वे जंतु पूरब वैर से यदि, कष्ट मुझको दे रहें।।
तुम पदकमल के वंदते सब, विघ्न आपद शांत हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हों।।३०।।
जिनके भयंकर दाढ़ हैं, या चोंच या कांटे घने।
उन क्रूर प्राणी के उपद्रव, कष्ट दें मुझको घने।।
तुम पदकमल के वंदते वे, सर्व बाधा शांंत हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।३१।।
अति उग्र दावानल अग्नि, आकाश तक ऊँची उठे।
उसके निमित से यदि मुझे, संताप संकट हो अबे।।
तुम पदकमल को वंदते सब, विघ्न आपद् शांत हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।३२।।
कल्पांत काल समान वायू प्रलयकारी जब चले।
उसके निमित से काय को, बहु कष्ट पीड़ा भी मिले।।
तुम पदसरोरुह वंदते सब, विघ्न संकट शांत हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।३३।।
सागर नदी में नाव आदिक, डूबने से यदि मुझे।
तिरना नहीं आवे वहाँ औ, प्राणसंकट में फसे।।
तुम पदसरोरुह वंदते सब, विघ्न संकट शांत हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको नित्य बारम्बार हो।।३४।।
भूपर वनों में पर्वतों पर, कष्ट भयप्रद हों कभी।
उनके निमित्त से मानसिक, कायिक व्यथा होवे तभी।।
तुम पदकमल को वंदते सब, विघ्न संकट शांत हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।३५।।
नदि कूप सरवर बावड़ी, हद में उपद्रव हो जभी।
उस काल में तनु में भयंकर, व्याधि संकट हो सभी।।
तुम पाद पंकज वंदते सब, विघ्न संकट शांत हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।३६।।
घन घोर वर्षा हो रही, बिजली पड़े अशनी१ गिरे।
उस काल में भयभीत जन, बहु संकटों से यदि घिरें।।
तुम पाद पंकज ध्यावते, सब विघ्न संकट शांत हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।३७।।
संग्राम में शत्रू निकट हो, बहुत शस्त्र प्रहार हों।
उस समय जन भयभीत कष्टों, से घिरे दुर्वार हों।।
तुम पाद पंकज वंदते सब, विघ्न संकट शान्त हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।३८।।
भूत व्यंतर शाकिनी, डाकिनि पिशाचों के किये।
उपसर्ग हों नाना तरह तब, जन व्यथित होंवे हिये।।
तुम पाद पंकज वंदते, उपसर्ग सब विध शांत हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।३९।।
मोहन व स्तंभन व उच्चाटन प्रयोग अनेक हैं।
ये दुष्ट विद्यायें कदाचित्, पर निमित दुःख देत हैं।।
तुम पाद पंकज वंदते सब, विघ्न बाधा शांत हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।४०।।
यदि दुष्ट ग्रह होवें कुपित, अति तीव्र पीड़ा दे रहें।
उस काल में दुःख से व्यथित, जन अन्य की शरणा गहें।।
तुम पाद पंकज यदि नमें, जब विघ्न बाधा शांत हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।४१।।
मजबूत सांकल आदि से, चारों तरफ से बांध के।
पीड़ित करें यदि दुष्ट जन, तब कष्ट कैसे सह सके।।
तुम पाद पंकज वंदते सब, दुःख उपद्रव शांत हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।४२।।
यदि आयु थोड़ी हो तभी, दुःख शोक होवे चित्त में।
अथवा मरण संभावना होवे, कभी भि अकाल में।।
तुम पद नमें अल्पायु औ, अपमृत्यु संकट शांत हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।४३।।
अतिवृष्टि या नहिं वृष्टि हो, दुर्भिक्ष से जन हों दुःखी।
खेती न हो नहिं जल मिले, तब कष्ट हो सबको अती।।
तुम पाद पंकज वंदते, यह सब उपद्रव शांत हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।४४।।
उद्यम करें भी लाभ नहिं, अथवा न उद्यम हो सके।
व्यापार या आजीविका, कैसे चले यह दुख बसे।।
तुम पाद पंकज वंदते सब, विघ्न संकट शान्त हों।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।४५।।
निज बंधु ही यदि शत्रुसम, अपकार नितप्रति कर रहे।
उसके निमित से मानसिक, बहुताप तन मन को दहे।।
तुम पाद पंकज वंदते सब, कुछ उपद्रव शान्त हो।
श्री शांतिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।४६।।
भार्या न हो या पुत्र पौत्रादिक, न हों कुलदीपसम।
निंह वंश चल सकता तभी, चिंता सतावे रात दिन।।
तुम पाद पंकज वंदते ये, सब उपद्रव शान्त हों।
श्री शान्तिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।४७।।
कुछ पूर्व संचित पाप का, जब हो उदय तब सत्य ही।
रहते हुए गुण भी कोई, अपयश उचारें व्यर्थ ही।।
तुम पाद पंकज वंदते, अपयश उपद्रव शान्त हों।
श्री शान्तिनाथ नमोस्तु तुमको, नित्य बारम्बार हो।।४८।।
जो अखिल विश्व का हित करने में, कुशल मुक्ति के हेतू हैं।
‘अर्हन्’ यह नाम धरे सुंदर, सोलहवें तीर्थंकर प्रभु हैं।।
जो पंचम चक्रवर्ति मानें, बारहवें कामदेव सुंदर।
ऐसे श्री शांतिनाथ जिन की मैं, संस्तुति करता हूँ चितधर।।४९।।
जो सुखसमुद्र वैवल्य बोध, युत सब जग को युगपत जानें।
चिंतित वस्तू सब देने में, चिंतामणि उत्तम जग मानें।।
तीर्थंकर चक्री कामदेव, इन तीनों पद से शोभित हैं।
उन शांतीश्वर को वंदन कर, हम मन में अतिशय प्रमुदित हैं।।५०।।
जो अनुपम कल्पवृक्ष जग में, बिन मांगे उत्तम फल देते।
आश्रितजन के सब ताप हरें, बहुविध के उनको सुख देते।।
तीर्थंकर, चक्रवर्ति, मनसिज१, तीनों पद के धारी मानें।
हम उनकी भक्ती कर करके, दुख दारिद शोक सभी हाने।।५१।।
जिनका बस नाम स्मरण किये, सम्पूर्ण मनोरथ फलते हैं।
इसलिए जिन्हें विद्वान् सभी बस, ‘कामधेनु’ शुभ कहते हैं।।
तीर्थंकर पद चक्रीपद औ, मनसिज पद के पाने वाले।
उनकी हम भक्ती करते हैं, जिससे सम्यक्त्व निधी पालें।।५२।।
जो श्रेष्ठ महात्मा धर्म धुरा, धरते हैं धर्मधुरंधर हैं।
योगीश्वर भी जिनकी इच्छा, करने में संतत तत्पर हैं।।
तीर्थंकर चक्रवर्ति वैभव, औ सुन्दरता में कामदेव।
उन शांतिनाथ की संस्तुति से, फलते सब वांछित फल स्वमेव।।५३।।
तीनों लोकों के सर्व जीव, के नेत्रों को आनन्द करें।
ऐसा सुन्दर अनुपम शरीर, जिस सम नहिं कोई देह धरें।।
जिनका प्राकृतिक रूप सुन्दर, सब जग में विस्मयकारी हैं।
उन शांतिनाथ को नित वंदूँ, वे सर्वोत्तम गुणधारी हैं।।५४।
जिनके तन की सौगंध एक, जिसके समान नहिं सुरभि कहीं।
नहिं चंदन में नहिं कमलों में, वैसी सुगंधि नहिं हुई कहीं।।
इंद्रादि देव जिनका संतत, स्मरण किया ही करते हैं।
उन शांति जिनेश्वर की हम भी, बहु बार वंदना करते हैं।।५५।।
भविजन कमलों को आल्हादित, करके पवित्र करने वाला।
भामंडल भास्करवत् सबके, भव सात दिखा देने वाला।।
त्रिभुवन के प्राणी के नेत्रों को, हर्षित बहु करने वाला।
ऐसे जिनपद को वंदूं मैं, जिससे हो अंतर उजियाला।।५६।।
क्षीरोदधि या शशि किरणों सम, उज्ज्वल गुण अमृत पिंडसदृश।
तीनों लोकों को पूर्ण करें, जो कहें अनंतानंत अवधि।।
सुरगण मिलकर बहुभक्ति युक्त, प्रभु के गुणमणि को गाते हैं।
जो वंदन करते वे भविजन, निज की गुण संपत्ति पाते हैं।।५७।।
बुद्धि में ऐसी हो विशुद्धि, जिससे सब तत्वों को जाने।
उसके प्रतिपादन करने में, सब गुरुओं के गुरु सरधाने।।
वाचस्पति को भी लज्जित कर, वृद्धिंगत बुद्धी के स्वामी।
श्री शांतिनाथ मेरी रक्षा, करिये मैं वंदूं सुखदानी।।५८।।
नवनिधियाँ चौदह रत्न मिलें, ऐसा चक्री का पद जग में।
सुर नर खग चरणों में प्रणमें, जिन पूजा का यह फल सच में।।
जो भक्ती से जिनराज भजें, वे छह खंडाधिप होते हैं।
हम भी शांतीश्वर को वंदें सब ईप्सित पूरे होते हैं।।५९।।
लक्ष्मी भी जिसके चरण कमल, की दासी बनकर रहती है।
जो सुन्दरता में रति समान, गुण से कुल भूषित करती है।।
जो जिनवर की स्तुति करते, उनको ऐसी भार्या मिलती।
हम भी शांतीश्वर को वंदे, जिससे शिवतिय भी मिल सकती।।६०।।
जिन पूजन संस्तव वंदन औ, शुभ दान चार विध होते हैं।
श्रावक के सद्व्रत जो माने, वे विरले को ही होते हैं।।
गृह में रहकर व्रत पालन की, बुद्धि जिन भक्ती से मिलती।
इससे मैं भी वंदन करता, जिससे शिव पथ में रुचि बढ़ती।।६१।।
जब शरद काल में चन्द्रकला, सोलह भी पूर्ण हुई दिखती।
सबको आल्हादित करती है, चाँदनी सभी जग में छिटकी।।
इस सम उज्ज्वल कीर्ती फैले, जो शांतिनाथ अर्चन करते।
हम भी जिनपद को वंदन कर निज कर्म कलंक सभी हरते।।६२।।
श्रेयांस सदृश हों दानवीर, अधिकारी राजा बनते हैं।
धनपति के सदृश कोश को पा, बहु पुण्य संपदा लभते हैं।।
देवाधिदेव के पूजन का, यह फल कुबेरपद मिलता है।
हम भी वंदे नित शीश नमा, निजवैभव की बस इच्छा है।।६३।।
तिर्यंचगती औ नरकगती, इनमें नहिं गमन स्वप्न में भी।
जो जिनपद की पूजा करते, नरगति सुरगति को लभते ही।।
फिर परंपरा से पंचम गति, यह ही जिन वंदन का फल है।
हम भी वंदे श्री शांतिचरण, मिल जावे नरभव का फल है।।६४।।
पृथ्वी पर दुर्लभ से दुर्लभ, तीर्थंकर पद श्रेष्ठ महान् ।
जिससे तीन लोक के ऊपर, तिलक रूप होते अमलान।
उस पद हेतु सोलह कारण, पुण्य भावनाएं जगमान।
श्री जिन वंदन के प्रसाद से, उन्हें मनुज पाते सुखदान।।६५।।
भूपर दुर्लभ तीर्थंकर पद, जिससे उनकी जननी मान्य।
अति प्रशस्त सोलह स्वप्नों को, देखें पुत्र पुण्य अमलान।।
जिन वंदन से जिनजननी पद, प्राप्त करें इन्द्रों से पूज्य।
त्रिभुवन के गुरु को प्रसवित कर, परम्परा शिव लहें अपूर्व।।६६।।
तीर्थंकर पद दुर्लभ जग में, जन्मोत्सव शत इन्द्र करें।
मेरु सुदर्शन पर ले जाकर, पयघट से अभिषेक करें।।
संख्यातीत देव देवी मिल, जन्म महोत्सव करते हैं।
जिन वंदन के फल से ही नर, तीर्थंकर पद लभते हैं।।६७।।
सुख अनंत को देने वाली, सिद्धों की साक्षी पूर्वक।
ऐसी दीक्षा तीर्थंकर ही, लेने के अधिकारी एक।।
अर्हंतों के वंदन से ही, भव्यों को ऐसा सौभाग्य।
मिल जाता है अतः भक्ति से, मैं भी वंदूं मन में धार्य।।६८।।
वङ्कावृषभ नाराच संहनन, उत्तम मोक्ष प्रदायक जान।
जिनशासन के आश्रित जो जन, उनको ऐसा तनु सुख दान।।
जिनपद पंकेरुह वंदन से, मुक्ति हेतु जो साधन मान्य।
वे सब स्वयं भव्य को मिलते, जिससे शीघ्र मिले निर्वाण।।६९।।
जिन आगम में सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र प्रधान।
पंचम यथाख्यात चारितमय, ये ही परिणमते मुनिमान्य।।
जिन पद वंदन करने वाले, ऐसी शक्ति पाते नव्य।
जिससे रत्नत्रय पूर्ती कर, वर लेते मुक्तिश्री सत्य।।७०।।
स्वात्मध्यान पीयूष स्वाद बिन, चिदानंद नहिं होता प्राप्त।
जिनवर कथित धर्म आश्रय से, होता अद्भुत आत्म विकास।।
चिच्चैतन्य तत्त्व का ही जो, ज्ञान प्राप्त कर लेते भव्य।
वे ही स्वात्म सुधारस पीते, जो जिन चरण कमल के भक्त।।७१।।
समवसरण जिनवर का अनुपम, वहाँ पहुँच जाते हैं भव्य।
धर्मामृत को कर्ण पुटों से, पीते हैं जो अतिशय नव्य।।
जिन वंदन के ही प्रसाद से, समवसरण का दर्शन शक्य।
अतः भक्ति से शांतिनाथ के, चरणकमल को पूजो भव्य।।७२।।
दिव्यध्वनि अहर्निशा में, खिरती है चार दफा१ में।
जिन वंदन से यह शक्ती, अतएव करो नित भक्ती।।७३।।
आठों कर्मों से विरहित, गुण आठों से ही समन्वित।
इस रूप निरंजन पद है, जिन भक्तिक लहे तुरत हैं।।७४।।
जिन चरण कमल का दर्शन, आनंदित कर देता मन।
वैसे आनंद प्रदायक, गुण निधि को मैं वंदूं नत।।७५।।
वचनों को आनन्द कर हैं, जिनगुण का पठन श्रवण ये।
वैसे ही आनन्द दायक, जिनपद वंदूं गुणनायक।।७६।।
तुम जातरूप के धारी, देखत तन को सुखकारी।
वैसे ही आनन्ददाता, जिनराज नमूँ हो साता।।७७।।
मन से स्मरण करें जो, उसका फल अर्थ लहें वो।
शान्तिप्रभु वंदन फल से, धन हो विस्मय क्या इससे।।७८।।
वचनों से संस्तव करते, हो कामवर्ग फल उससे।
जो करें शांति प्रभु भक्ती, हो काम सिद्धि विस्मय निंह।।७९।।
जो तन से पूजन करते, उसका फल शिवपद लभते।
श्री शान्तिनाथ वंदन से, विस्मय क्या मुक्ति मिले से।।८०।।
श्री जिनेन्द्र बिन जीव को, शरण नहीं है अन्य।
भवदधि डूबे के लिए, भक्ती नाव समान।।।८१।।
शांतिनाथ स्तोत्र यह, सर्व विघ्नहर सिद्ध।
ज्ञानमती केवल बने, पढ़ो मिले नवनिद्ध।।८२।।
प्रशस्ति श्रीवीरप्रभू के सन्निध में, जिनने स्वधर्म को प्राप्त किया।
ऐसे श्रीगौतम गणधर को, प्रणमूं जिनने श्रुतज्ञान दिया।।
इस वीर प्रभू के शासन में, श्रीगौतम आदि गणेश हुये।
श्रीकुन्दकुन्द आचार्यदेव, इस युग में श्रेष्ठ मुनीश हुये।।१।।
इस कुन्दकुन्द आम्नाय में शारद, गच्छ बलात्कारगण उत्तम।
चारित्र चक्रवर्ती गुरुवर, श्री शांतिसागराचार्य प्रथम।।
श्रीवीरसागराचार्यवर्य, इनके ही पट्टाधीश मान्य।
ये मुझे आर्यिकाव्रत देकर, अन्वर्थ ‘ज्ञानमती’ दिया नाम।।२।।
श्री सरस्वती माँ का प्रसाद, मुझको जो सम्यग्बुद्धि मिली।
श्रुतदेवी की सेवा करते, मन में भक्ती की कली खिली।।
वीराब्द पचीस शतक चालीस, हस्तिनापुर पौषशुक्ल दशमी।
गणिनी मैंने यह पूर्ण किया, श्रीशांतिनाथ स्तोत्र प्रशस्त।।३।।
भाक्तिक जन इस उत्तम स्तोत्र, को पढ़कर विघ्न शोक नाशें।
धन धान्य वृद्धि उत्तम कीर्ती, पा निज में ज्ञानज्योति भासें।।
जब तक जग में जिनवर शासन, जिनधर्म अहिंसामय जब तक।
तब तक श्री शांतिनाथ स्तोत्र, भव्यों को होवे शांतीप्रद।।४।।
।।इति श्रीशांतिनाथस्तोत्रप्रशस्ति:।।