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भव भर भय दुरं, भावितानन्दसारं,
धृत विमल शरीरम् दिव्यवाणी विचारम्।
मदन मद विहारम् मज्जू कारुण्यपुरं,
श्वयत जिनपधीरं शान्तिनाथं गभीरम्।।१।।
अर्थ-हे भव्यजीवों! तुम सब शान्तिनाथ भगवान् का आश्रय ग्रहण करो। जो कि संसार का भय दूर करने वाले हैं, श्रेष्ठ आनंद के अनुभवी हैं। निर्मल शरीर को धारण करने वाले हैं दिव्यध्वनि का सही विचार करने वाले हैं। काम के मद को विदिर्ण करने वाले हैं। दया के मनोहर प्रवाह हैं। जिनेन्द्रो मे धीर वीर है तथा अत्यन्त गंभीर हैं।
अशोकवन, पुष्पवृष्टि:-
यस्या शोक तरुर्विभाति शिशरच्छाय: श्वितानां शुचं धुन्दन्
सार्थकनामधेय गरिमा माहात्म्य संवादक:।
यं देवा: परितो ववर्षुरमितै: फुललै: प्रसुनौच्चै:
कलयाणाचलमन्तत: कुसुमिता मन्दार वृक्षा यथा।।२।।
अर्थ-जिनका अशोक वृक्ष शीतल छायावाला, आश्रित मनुष्यों के शोक को नष्ट करने वाला, सार्थक नाम का धारी एवं माहात्म्य को पुष्ट करने वाला है और देवलोग जिनके चारों ओर फूले हुए अपरिमित फूलों के समूह से ठीक उस तरह वर्षा करते हैं जिस तरह की फूलों से लदे कल्पवृक्ष सुमेरु पर्वत के समीप वर्षा करते हैं।
दिव्यध्वनि, चौंसठ चँवर का वर्णन-
सकल वचन भेदाकारिणी दिव्यभाषा,
शयमति भवतापम् प्राणिनां भड़्शु यस्य।
अमर कर विधुतश् चामराणां समुणे,
विलसति खलु मुक्ति श्री कटाक्षानुकारी।।३।।
अर्थ-समस्त वचन के भेदों का संग्रह करने वाली जिनकी दिव्यध्वनि प्राणियों के संसार संबंधी संताप को शीघ्र ही दूर करती है और देवों के हाथों द्वारा कम्पित जिनके चंवरों का समूह मुक्तिरूपी लक्ष्मी के कथाओं का अनुकरण करता हुआ सुशोभित होता है।
सिंहासन और भामण्डल-
कनक शिखरि शृडुा स्पर्धते यस्य
सिंहासनमिदम खिन्नेशम् द्वेष्टि धैयादितीव।
वलयमवि च भासां षडाबन्धुं विरुद्धे,
ममपतिरिति सोऽयं ख्यातिमापेति शेषात्।।४।।
अर्थ-जिनका सिंहासन सुमेरु पर्वत के शिखर के साथ मानो इसलिए ईर्ष्या करता है कि वह धैर्य से सबके स्वामी श्री शान्तिनाथ भगवान् से द्वेष करता है और भामण्डल सूर्य के साथ उस क्रोध से ही मानों विरोध करता है कि यह मेरा पति है इस तरह प्रसिद्धि को पा चुका है।
छत्रत्रय त्रिभूवन गति भावं, घोषमन्यस्य तारो,
मुखरयति दशाशा दुन्दुभि ध्वानपुर:।
शमयितुमिह रागद्वेषमोहान्धकार-
त्रित्रयमिव विधुनां याति य् छत्रत्रयं तत्।।५।।
अर्थ-यह तीनों लोकों की गति है शरण है, इस भाव को सूचित करता हूँ जिनकी दुन्दुभि का गंभीर शब्द दशो दिशाओं को शब्दायमान करता है और जिनका छत्रत्रय ऐसा सुशोभित होता है मानो रागद्वेष और मोहरूपी अंधकार को नष्ट करने के लिए प्रकट हुए तीन चन्द्रमा ही हो।
अक्षयाय नमस्तस्मै यक्षाधीश नताङ्ध्रयै
दक्षाय शान्तिनाथाय सहस्राक्षनुतश्रियै।।६।।
अर्थ-इस तरह जो अक्षय है, यक्षाधीश है, जिनके चरणों में नम्रीभूत है और इन्द्र जिन लक्ष्मी की स्तुति किया करता है, उन अतिशय समर्थ श्री शान्तिनाथ भगवान के लिए मेरा नमस्कार हो।