चंद्रार्क-कोटिघटितो ज्ज्वल-दिव्य-मूर्ते ! श्रीचन्द्रिका-कलित-निर्मल-शुभ्रवस्त्रे !
कामार्थ-दायि-कलहंस-समाधिरूढे वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि ! ।।१।।
करोड़ों सूर्य और चन्द्रमा के एकत्रित तेज से भी अधिक तेज धारण करने वाली, चन्द्रकिरण के समान अत्यन्त स्वच्छ एवं श्वेत वस्त्र को धारण करने वाली, सकल मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाली तथा कलहंस पक्षी पर आरूढ दिव्यमूर्ति श्री सरस्वती देवी! हमारी प्रतिदिन रक्षा करें।
देवा सुरेन्द्र नतमौलिमणि प्ररोचि, श्री मंजरी-निविड-रंजित-पादपद्मे !
नीलालके ! प्रमदहस्ति-समानयाने! वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि ! ।।२।।
जिनके चरण-कमलों में देवेन्द्र नत-मस्तक हैं, देवों के मस्तक में लगे हुए किरीटों के ऊपर बहुमूल्य रत्नों की प्रभा से जिनके चरण सुशोभित हैं, जिनके केश नीलवर्ण हैं तथा जिनकी गति मदोन्मत हाथी के समान मंद है, ऐसी सरस्वती देवी! हमारी नित्यप्रति रक्षा करे ।
केयूरहार-मणिकुण्डल-मुद्रिकाद्यैः, सर्वाङ्गभूषण-नरेन्द्र-मुनीन्द्र-वंद्ये !
नानासुरत्न-वर-निर्मल-मौलियुक्ते ! वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि ! ।।३।।
जिनका सर्वांग बाजूबंद, हार माणियों के कुण्डल और मुद्रिका आदि आभूषणों से आभुषित है, राजाओं और मुनियों से जो वंदनीय है, नाना प्रकार के उत्तम रत्नों से युक्त मुकुट से जिनका मुखमण्डल सुशोभित है, ऐसी सरस्वती देवी! हमारी रक्षा करें।
मंजीरकोत्कनककंकणकिंकणीनां, कांच्याश्च झंकृतरवेण विराजमाने !
सद्धर्म-वारिनिधि-संतति-वद्र्धमाने ! वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि! ।। ४।।
जो स्वर्ण के तोडे, कंकण और घुंघरूओं तथा कमर-बंधों की झंकार करती हुई विराजमान है, भगवान जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित अहिंसा-प्रधान-धर्मरूपी-समुद्र के निरन्तर बढ़ाने वाली है, ऐसी सरस्वती देवी! आप हम सबकी रक्षा करें।
कंकेलिपल्लव-विनिंदित-पाणियुग्मे ! पद्मासने दिवस-पद्मसमान-वक्त्रे !
जैनेन्द्र-वक्त्र-भवदिव्य-समस्त-भाषे ! वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि! ।। ५।।
जिन्होंने अपने सुकोमल करों से अशोक वृक्ष के कोमल पत्तों को भी तिरस्कृत कर दिया है, जिसका आसन कमल का है, जिनका मुखमण्डल दिन में विकसित होने वाले कमल के समान अत्यनत सुंदर है और जो भगवान् जिनेश्वर के मुख से उत्पन्न होने वाली सर्वभाषामयीस्वरूप ये प्रकट हुई है, ऐसी सरस्वती देवी! सदा हमारी रक्षा करें।
अर्द्धेंदुमण्डित जटाललित स्वरूपे ! शास्त्र-प्रकाशिनि-समस्त-कलाधिनाथे !
चिन्मुद्रिका-जपसराभय-पुस्तकाके ! वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि!।।६।।
अर्द्धचन्द्र से विभूषित जटा के संयोग से जिनका स्वरूप अत्यन्त मनोहर है, जो सम्पूर्ण शास्त्रों को प्रकाश करने वाली है, जो समस्त कलाओं की स्वामिनी है और जिनकी ज्ञानमुद्रा, जपमाला, अभयदान तथा पुस्तक ही जिनके लक्षण है, ऐसी सरस्वती देवी! सदा हमारी रक्षा करें।
डिंडीरपिंड-हिमशंखसिता-भ्रहारे! पूर्णेन्दु-बिम्बरुचि-शोभित-दिव्यगात्रे !
चांचल्यमान मृगशावललाट नेत्रे ! वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि! ।।७।।
समुद्र के फेन अथवा बर्फ के समान अत्यन्त सफेद हार जिनके कण्ठ में है, जिनका शरीर पूर्णिमा के चन्द्रबिम्ब के समान अत्यन्त सुशोभित है तथा जिनके नेत्र-कमल मृग के छोटे-छोटे बच्चों के समान चंचल है, ऐसी हे सरस्वती देवी! हमारी रक्षा करे।
पूज्ये पवित्रकरणोन्नत कामरूपे! नित्यं फणीन्द्र-गरुडाधिप-किन्नरेन्द्रैः!
विद्याधरेन्द्र-सुरयक्ष-समस्त-वृन्दैः, वागीश्वरि ! प्रतिदिनं मम रक्ष देवि !।।८।।
जो सभी को पवित्र करने वाली उत्तम काम स्वरूप है, जो नागराज, गरुडराज, किन्नरेन्द्र, विद्याधरराज, देवेन्द्र, यक्ष आदि समस्त देवों के समुदाय से सदा पूजनीय है, ऐसी हे सरस्वती देवी! तुम सदा हमारी रक्षा करो।