हे नाथ! तुम्हारे गुणमणि की, गुणमाल गूंथ कर लाये हैं।
हम आज तुम्हारे चरणों में, यह माल चढ़ाने आये हैं।।
जय जय अतीत के सिद्धों की, जय वर्तमान के सिद्धों की।
जय जय भविष्य के सिद्धों की, सब सिद्ध अनंतानंतों की।।१।।
जैसे नर कटि पर हाथ रखे, पग फैलाकर खड़ा हुआ।
वैसे यह पुरुषाकार लोक, त्रैलोक्य स्वरूप विभक्त हुआ।।
त्रिभुवन के मस्तक पर ईषत्-प्राग्भारा अष्टम पृथ्वी है।
यह पूर्वापर इक राजु सात, राजू उत्तर-दक्षिण में हैं।।२।।
यह योजन आठ मात्र मोटी, इस भूमि मध्य है सिद्ध शिला।
योजन पैंतालिस लाख प्रमित यह गोल रजतमय सिद्ध शिला।।
उत्तान कटोरे१ सम या धवल छत्र या अर्धचंद्रसम है।
यह मध्य में मोटी आठ योजन क्रम से घट के इक प्रदेश है।।३।।
इस ऊपर वातवलय त्रय हैं, दो कोस घनोदधि वात वलय।
घनवात वलय है एक कोस, फिर ऊपर में तनुवातवलय।।
यह चार शतक पच्चीस धनुष कम, एक कोस का माना है।
या पंद्रह सौ पचहत्तर धनु का यह तनुवात२ बखाना है।।४।।
इसके व्यवहार धनुष करने को पांचशतक से गुणा करो।
फिर पंद्रह सौ से भाजित कर पण सौ पचीस धनु प्राप्त करो।।
यह सिद्धों का उत्कृष्ट देह दो सहस एक सौ हाथ कहा।
सबसे लघु साढ़े तीन हाथ, मध्यम सब मध्यम भेद कहा।।५।।
लघु मध्यम उत्तम अवगाहन से सिद्ध अनंतानंत वहाँ।
तनुवातवलय के अंत भाग में तिष्ठ रहे हैं सतत वहाँ।।
धर्मास्तिकाय के अभाव से ये सिद्ध न आगे जा सकते।
त्रैलोक्य गगन के चउतरपे बस एक अलोकाकाश बसे।।६।।
ये सिद्ध सभी रस रूप गंध, स्पर्श रहित शुद्धात्मा हैं।
चिन्मय चिंतामणि कल्पवृक्ष पारसमणि रत्न चिदात्मा हैं।।
निश्चयनय से हम सभी शुद्ध, चिन्मूरति परम चिदंबर हैं।
व्यवहार नयाश्रित संसारी, निश्चय से शुद्ध शिवंकर हैं।।७।।
निज के गुणमणि को प्रगट करें, इसलिए वंदना करते हैं।
‘सज्ज्ञानमती’ वैवल्य करो, बस यही याचना करते हैं।।
हे नाथ! तुम्हारे गुणमणि की, यह माल गूंथ के लाये हैं।
हम आज तुम्हारे चरणों में, यह माल चढ़ाने आये हैं।।८।।
दोहा
महावीर शासन प्रथित, नमन करूँ शत बार।
कुन्दकुन्द गुरुदेव को, वंदूं भक्ति अपार।।१।।
कुन्दकुन्द आम्नाय में, गच्छ सरस्वति मान्य।
बलात्कारगण सिद्ध है, उनमें सूरि प्रधान।।२।।
गुरु शांतिसागर हुये, चारित्र चक्री मान्य।
उनके पट्टाचार्य थे, वीरसिंधु प्राधान्य।।३।।
देकर दीक्षा आर्यिका, दिया ज्ञानमति नाम।
गुरुवर कृपा प्रसाद से, सार्थ हुआ कुछ नाम।।४।।
जिनवर भक्त्या प्रेरिता, कल्पद्रुमादि विधान।
तीन शतक ग्रंथादि रच, किया स्वपर कल्याण।।५।।
हस्तिनापुर में वीर संवत, पचीस सौ चालीस।
मगसिर सुदि एकम् तिथी, नमूँ सिद्ध नत शीश।।६।।
कर्मदहन स्तोत्र यह, पूर्ण किया धर प्रीति।
कर्मदहन होंगे सहज, यही जिनागम नीति।।७।।
जब तक तीर्थ सुमेरु है, जब तक श्रीजिनधर्म।
तब तक रहे स्तोत्र यह, करे जगत में शर्म१।।८।।