भगवान महावीर के निर्वाण के बाद ती अर्हत् केवली गौतम, सुधर्म और जम्बूस्वामी ने संघ का नेतृत्व किया। अनन्तर द्वादशांग श्रुत के ज्ञाता विष्णु, नन्दिमित्र अपराजित गोवद्र्धन और भद्रबाहु पांच श्रुतकेवली हुए।सुयकेवलणाणी पंच जणा विण्हु नन्दिमित्तो य। अपराजिय गोवद्धण तह भद्दबाहु य संजादा। नन्दीसंघ वलात्कारगण स. ग. प्रा. पा. गोवद्र्धनाचार्य के साक्षात् शिष्य प्रभावशाली तेजोमय व्यक्तित्व सम्पन्न श्रुतकेवलीजो हि सुदेणाभिगच्छदि अप्पाणमिणं तु केवलं सुद्धं।
णाणं अप्पा सव्वं जम्हा सुदकेवली तम्हा। ९ १०।। समयसार भद्रबाहु अप्रतिम प्रतिभावान् थे और इनका व्यक्तित्व सूर्य के समान तेजस्वी था। यो भद्रबाहु: मुनिपुंगव पट्टपद्म। सूर्य: स वो दशतु निर्मलसंघवृद्धिभ।। जैनसिद्धान्तभास्कर भाग १ किरण ४ पृ. ५१ भद्रबाहु अध्यात्म के सबल प्रतिनिधि श्रुतधारा को अविरल और अखण्डित रूप में श्रुतधर गोवद्र्धनाचार्य से ग्रहण कर उसे सुरक्षित रखने वाले अन्तिम श्रुतकेवली थे, जिन्हें मर्हिष कुन्दकुन्द ने अपने गमक गुरू के रूप में स्वीकार किया है।वारस अंगवियाणं चउदस पुव्वंगविउल वित्थरणं।
सो तह कहियं णायं सीसेणं य भद्दबाहुस्स।।६१।। बोधपाहुड श्रुतधर भद्रबाहु दिगम्बर श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में सम्मानास्पद को प्राप्त हुए हैं। श्वेताम्बर इन्हें यशोभद्र का शिष्य स्वीकार करते हैं।भद्रबाहु ने वैराग्यपूर्वक श्रुतधर आचार्य यशोभद्र के पास वी. नि १३९ (वि. पू. ३३१) में मुनिदीक्षा ग्रहण की। गुरु के पास १७ वर्ष तक रहकर उन्होंने आगमों का गम्भीर अध्ययन किया। बृहत्कथाकोषकार ने भद्रबाहु का जन्म पौण्ड्रवद्र्धन राज्य के कोटिकपुर (कोटपुर) ग्राम में बताया है और राज्य पुरोहित सोमशर्मा सोमश्री के पुत्र कहा है। एक बार गोली के ऊपर गोली चढ़ाते हुए उन्होंने चौदह गोलियां एक दूसरे के ऊपर चढ़ा दी, यह खेल गोवद्र्धनाचार्य ने देखा और अपने निमित्त ज्ञान से जाना कि यह चौदह पूर्व के ज्ञाता होंगे तभी उनके पिता से बालक भद्रबाहु को अपने साथ ले जाने की अनुमति ली और साथ रख कर आगम का अभ्यास करा दिया। दीक्षा ग्रहण कर वह श्रुतधर हो गये। श्वेताम्बर सम्प्रदाय के ‘तित्थोगालिय पइन्ना’ आवश्यकर्चूिण, निर्युक्ति आदि ग्रंथों में श्रुतधर भद्रबाहु के कुछ जीवन प्रसंग हैं, किन्तु उनके माता—पिता आदि गृहस्थ जीवन से सम्बन्धित सामग्री नहीं हैं नन्दीसूत्र में इन्हें ‘प्राचीन’ गोत्रीय कहा है।भद्रबाहुं च पाईणं (नन्दी स्थविरावली) दश श्रुतस्कन्धनिर्युक्ति में भी प्राचीन गोत्री कहकर वन्दन किया है। वंदामि भद्दबाहुं पाईणं चरिम सथल यसुयनाणिं तित्थोगालिय पइन्ना में इनके श्रेष्ठ शरीर रचना के विषय में लिखा है—
योग साधक श्रुतधर आचार्य भद्रबाहु महासत्व सम्पन्न थे, उनकी भुजाएं प्रलम्बमान सुन्दर सुदृढ़ और सुस्थिर थीं। ये सामथ्र्य—सम्पन्न, अनुभव सम्पन्न, श्रुत सम्पन्न अनुपम व्यक्तित्व थे। कल्पसूत्र स्थविरावली में इनके स्थविर गौदास, स्थविर अग्निदत्त, स्थविर भत्तदत्त, स्थविर, सोमदत्त, इन चार शिष्यों का उल्लेख है। थेररसणं अज्जभद्दबाहुस्स पाईत्त सगुत्तस्स इमे चत्तारि अंतेवासी अहावच्चा अभिन्नया हुत्था ते जहा धेरे गोदासे थेरे अगिदत्ते थेरे भवदत्ते ४ थेरे सोमदत्ते। श्वेताम्बर परम्परा आचार्य भद्रबाहु को श्रुतधर और आगम के रचनाकार के रूप में प्रस्तुत करती है। उन्होंने छेदसूत्रों की रचना की है। आगम साहित्य में छेदसूत्रों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। दश श्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प व्यवहार, निशीथ, इन चार छेदसूत्रों की रचना आचार्य भद्रबाहु के द्वारा की गई है। दिगम्बर साहित्य में आचार्य भद्रबाहु का व्यक्तित्व बहुत महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया गया है। चन्द्रगिरि के शिलालेख में उनके विषय में लिखा है कि जिसमें समस्त शीलरूपी रत्नसमूह भरे हुए हैं औ जो शुद्धि से प्रख्यात है, उस वंश रूपी समुद्र में चन्द्रमा के समान श्री भद्रबाहु स्वामी हुए। समस्त बुद्धिशालियों में श्री भद्रबाहु स्वामी अग्रेसर थे। शुद्ध सिद्ध शासन और सुन्दर प्रबन्ध से शोभा सहित बढ़ी हुई है व्रत की सिद्धि जिनकी तथा कर्मनाशक तपस्या से भरी हुई है र्कीित ऐसे ऋद्धिधारक श्री भद्रबाहु स्वामी थे।शिलालेख संग्रह भा. १ इनकी महिमा का ज्ञान शिलालेख में इस प्रकार किया गया है—
यच्छिश्यताप्तसुकृतेन च चन्द्रगुप्त:श्शुश्रुष्यतेस्म सुचिरं वन—देवताभि:।। जै. शि. सं. भा. १/पृ. १०१
भला कहो तो सही कि मोहरूपी महामल्ल के मद को चूर्ण करने वाले भी भद्रबाहु स्वामी की महिमा कौन कह सकता है ? जिनके शिष्यत्व के पुण्यप्रभाव से वनदेवताओं ने चन्द्रगुप्त की बहुत दिनों तक सेवा की। श्रुतकेवली भद्रबाहु के विविध जीवन प्रसंगों से उनका माहात्म्य स्पष्ट है। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराएँ उनको अति महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करती हैं फिर भी उनके शिष्य चन्द्रगुप्त मौर्य के सम्बन्ध में मतैक्य नहीं है। श्रुतधर भद्राबाहु और निमित्तधर भद्रबाहु के पार्थक्य का भी उल्लेख मिलता है। दिगम्बर परम्परा के हरिषेण कृत बृहत्कथाकोष एवं रत्ननन्दी कृत ‘भद्रबाहुचरित’ के उल्लेखनानुसार श्रुतकेवली भद्रबाहु अवन्ति देश पहुँचे। चन्द्रावदातसत्र्कीितश्चन्द्रवन्मोदकर्तृ (कृन्न) णाम्। चन्द्रगुप्तिर्नृपस्तत्राऽचकच्चारु गुणोदय:।।६।। भद्रबाहुचरित परि. वहाँ के शासक श्री चन्द्रगुप्त ने अपने द्वारा देखे गये १६ स्वप्न भद्रबाहु स्वामी को सुनाये। उन्होंने उनका फल अनिष्टसूचक बताया, जिससे सम्राट को वैराग्य हो गया। उसने श्रुतकेवली भद्रबाहु से श्रमण दीक्षा अंगीकार कर ली। दीक्षा लेने वाले अन्तिम सम्राट चन्द्रगुप्त थे।मउडधरेसु चरियो जिणदिक्खं धरदिचंद्दगुत्तो य। तत्तो मउडधरादुंप्पवजं णेव गेण्हति।। तिलो. प. ४/१४८१ गोवद्र्धनाचार्य के बाद २९ वर्ष जिनशासन की प्रभावना काल श्री भद्रबाहु का रहा है। श्वेताम्बर परम्परा श्रुतकेवली भद्रबाहु का शिष्य चन्द्रगुप्त को नहीं मानती है। आवश्यकर्चूिण में श्रुतकेवली भद्रबाहु की नेपाल यात्रा का कथन किया गया है।‘नेपाल’ वत्तिणीए य भद्दबाहुसाभी अच्छंति चोद्दस्स पुब्वी। आवश्यकर्चूिण भाग—२ पत्रांक १८७ श्वेताम्बरीय साहित्य तित्थोगालिय पइन्ना, आवश्यकनिर्युक्ति परिशिष्ट पर्व आदि ग्रंथों में श्रुतकेवली भद्रबाहु के जीवन प्रसंग उपलब्ध हैं, किन्तु उनके शिष्य चन्द्रगुप्त का उल्लेख नहीं है और न दक्षिण यात्रा का ही उल्लेख है। हाँ, ऐसा उल्लेख अवश्य है कि भद्रबाहु विशाल श्रमण संघ के साथ दुष्काल में बंगाल में रहे जैसा कि श्वेताम्बर परम्परा के ग्रंथ परिशिष्ट पर्व में लिखा है—
इतश्च तस्मिन् दुष्काले कराले काल रात्रिवत्। निर्वाहार्थं साधुसंघस्तीर नीर निधेर्ययौ।।
अर्थात् जीवन निर्वाहार्थ साधुसंघ समुद्री किनारों पर दुष्करल की घड़ियों में विहरण कर रहा था। यही अभिमत आचार्य हेमचन्द्र सूरि का है। दिगम्बरीय साहित्य में श्रुतकेवली भद्रबाहु के साथ उनके शिष्य चन्द्रगुप्त का उल्लेखश्रीभद्रस्सर्वतो या हि भद्रबाहुरिति श्रुत;। श्रुतकेवलिनाथेषु चरम: परमो मुनि:।। श्री चन्द्रप्रकाशोज्जवलसान्द्रर्कीित:, श्री चन्द्रगुप्तोऽजनि तस्य शिष्य:। यस्य प्रभावाद्वनदेवताभिराराधित: स्वस्य गणो मुनीनाम् ।। शिलालेख नं ३ जै. शि. सं. भा.१ तो ही है साथ में उत्तम में दुष्काल पड़ने के कारण दक्षिण में विहार का प्रसंग तो बहुत विस्तार से प्रतिपादित किया गया है। श्री भद्रबाहु ने कथानक में प्रसंग हैबहृत्कथाकोषा (भद्रबाहु कथा) कि एक दिन आचार्य श्री भद्रबाहु ने गोचरी के लिए नगर में जिनदास श्रेष्ठी के घर में प्रवेश किए तो वहाँ पालने में लेटे हुए बालक ने देखकर कहा, ‘जाओ जाओ’ तब भद्रबाहु ने उससे पूछा कितने समय के लिए ? उस अबोध बालक ने द्वादश वर्ष के लिए जाओ, ऐसा कहा। आचार्य बिना आहार ग्रहण किए उद्यान में लौटे वहाँ समस्त संघ को बुलाकर बताया कि यहाँ बालव (अवन्ति उज्जयिनी) देश में १२ वर्ष का दुष्काल पड़ेगा। समस्त संघ दक्षिण की विहार करने की तैयारी में जुट गया। अनन्तर १२००० साधुओं के साथ दक्षिण की ओर जब भद्रबाहु आगे बढ़े तब अनेक श्रेष्ठियों ने रोकने का प्रयत्न किया, किन्तु वे वहाँ नहीं रुके। संघ के साथ श्रुतकेवली भद्रबाहु धन, जन, धान्य, सुवर्ण, गाय, भैंस आदि पदार्थों से भरे हुए अनेक नगरों में होते हुए पृथिवी तल के आभूषण रूप इस श्रवण बेलगोल के चन्द्रगिरि (कटवप्र) नामक पर्वत पर पहुँचे।अथखलु…….गुरुपरम्पराणामभ्यागतमहापुरुषसन्ततिसमयद्योतान्वय श्री भद्रबाहु स्वामिना उज्जयिन्यां अष्टांगमहानिमित्त तत्त्वज्ञोन त्रैकाल्यर्दिशना निमित्तेन द्वादशसम्वत्सरकालवैषम्यमुपलभ्यकथिते सर्वसंघ उत्त्रपथात् दक्षिणापथं प्रस्थित: …… कटवप्रनामकोपलक्षिते…..शिखरिणिजीवितिशेषम् अल्पतरकालं अवध्याध्वन: सुचकित: तप: समाधिमाराधयितुमापृच्छय निरवशेषसंघं विसृज्य शिष्येणैकेन पृथुलकास्तीर्णतलासु शिलासु शीतलासु स्वदेहं सन्नयस्याराधितवान्। उद्धृत श्वेताम्बरमत समीक्षान पृ. १६१। इसी पर्वत पर उन्हें निमित्त ज्ञान से ज्ञात हो गया कि मेरी आयु अल्प है, ऐसा समझकर उन्होंने समाधिरण करने पर विचार बनाया। भगवान् जिनेन्द्र की देशना के आधार पर आचार्य लिखते हैं—
इन्द्रियों की शक्ति मन्द हो जाने पर अतिवृद्धपना एवं उपसर्ग आ जाने पर शरीरिक बलक्षीण होने पर तथा धर्मध्यान और कायोत्सर्ग करने की शक्ति हीन हो जाने पर सल्लेखना अवश्य ग्रहण करना चाहिए। सल्लेखना और समाधिमरण ये दोनों पर्यायवाची शब्द हैं। आचार्य समन्तभद्र रत्नकरण्डश्रावकाचार में सल्लेखना का लक्षण लिखते हैं—
अर्थात् निष्प्रतीकार उपसर्ग, र्दुिभक्ष बुढ़ापा और रोग के उपस्थित होने पर धर्म की रक्षा के लिए शरीर के परित्याग का नाम सल्लेखना है। सल्लेखना तुरन्त बाद समाधिमरण ग्रहण करने की प्रेरणा दी है।
जीवन के अन्त समय में समाधिरूप क्रिया का आश्रय लेना ही जीवन भर की तपस्या का फल है। ऐसा सर्वदर्शी भगवन्तों ने कहा है। आचार्य शिवकोटि ने सल्लेखना और समाधिमरण भेद नहीं रहने दिया। आचार्य उमास्वामी ने भी सल्लेखना और समाधिमरण को एक ही अर्थ में प्रयुक्त किया है। समाधिमरण व्रत—तप का फल है, जैसा कि कहा भी है—
अर्थात् तपे हुए तप, पालन किए हुए व्रत, पढ़े हुए शास्त्रों का फल समाधिमरण में है बिना समाधिमरण के ये सब व्यर्थ है। इसलिए जब तक शक्ति रहे, तब तक समाधिमरण में प्रयत्न करना चाहिए। आचार्य शिवकोटि ने समाधिमरण के कर्ता की स्तुति करते हुए कहा है कि जिन्होंने भगवती आराधना को पूर्ण किया, वे पुण्यशाली और ज्ञानी हैं और उन्हें जो प्राप्त करने योग्य था, उसे प्राप्त कर लिया सल्लेखक/क्षपक एक तीर्थ है, क्योंकि संसार से पार उतारने में निमित्त है। उसमें स्नान करने से पाप कर्मरूपी मल दूर होता है। अत: जो दर्शक समस्त आदर भक्ति के साथ उस महातीर्थ में स्नान करते हैं, वे भी कृतकृत्य होते हैं तथा वे सौभाग्यशाली हैं।भगवती आराधना १९९६ व १९९२। पण्डित आशाधर जी ने कहा है—‘‘जिस महासाधक ने संसार परम्परा को सम्पूर्ण रूप से उन्मूलन करने वाले समाधिमरण को धारण किया है, उसने धर्मरूपी महान् निधि को पर—भव में जाने के लिएसाथ ले लिया है। इस जीवने अनन्त बार मरण प्राप्त किया, किन्तु समाधि सहित पुण्य मरण नहीं हुआ। यदि समाधि सहित पुण्य—मरण होता, तो यह आत्मा संसार रूपी पिजड़े में कभी भी बन्द होकर नहीं रहता।सागाराधर्मामृत ७/५८ और ८/२७-२८ भगवती आराधना में ही कहा गया है कि जो जीव एक पर्याय में भी समाधिपूर्वक मरण करता है, वह सात आठ पर्याय से अधिक संसार परिभ्रमण नहीं करता है।भगवती आराधना कहा है—जो महान् फल बड़े बड़े व्रती संयमी आदि को काय—क्लेश आदि उत्कृष्ट तप तथा अिंहसा आदि महाव्रतों को धारण करने से प्राप्त नहीं होता, वह फल अन्त समय में समाधिपूर्वक शरीर त्यागने से प्राप्त होता है।शान्तिसोपान ८१। उक्त भावों को धारण कर ही श्रुतकेवली भद्रबाहु स्वामी ने सल्लेखना/समाधि ग्रहण की थी। बृहत्कथाकोष में बताया गया है कि भद्रबाहु की समाधि अवन्ति (उज्जयिनी) में ही हुई थी यथा—
प्राप्य भाद्रपदं देशं श्रीमदुज्जयिनीभवम्। चकराऽनशनं धीर: स दिनानि बहून्यलम्।।
अर्थात् भद्रबाहु अवन्ति के भद्रपाद नामक स्थान में विराजे, वहीं उनका अनशन की अवस्था में समाधिमरण हो गया। रत्ननन्दी ने भी यही लिखा है कि भद्रबाहु दक्षिण की ओर बढ़े किन्तु थोड़े ही दूर जाकर प्राकृतिक संकेतों के आधार पर उन्हें अपना अन्तिम समय सन्निकट प्रतीत हुआ।अथाऽसौ विहरन्स्वामी भद्रबाहु: शनै: शनै:। प्रान्महाटवीं तत्र शुश्रव गगनध्वनिम्। श्रुत्वा…… आयुरलिपष्ठमात्मीयमज्ञासीद् बोधलोचन:।। तृतीय परि. भद्रबाहुचरित्त उन्होंने वहीं रुक कर समाधि ग्रहण कर ली। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार नेपाल में भद्रबाहु की समाधि मानी जाती है। वहाँ लिखा है कि जैन शासन को द्वितीय शताब्दी मध्यकाल में दुष्काल के भयंकर वात्याचक्र से जूझ्ना पड़ा। उचित शिक्षा के अभाव में अनेक श्रुत सम्पन्न मुनि काल—कवलित हो गये। भद्रबाहु के अतिरिक्त कोई भी मुनि चौदह पूर्व का ज्ञाता नहीं बचा था। वे उस समय नेपाल की पहाड़ियों में महाप्रयाण ध्यान की साधना कर रहे थे। संघ को इससे गम्भीर चिन्ता हुई। आगमनिधि की सुरक्षा के लिए श्रमण संघाटक नेपाल पहुँचा। वहाँ संघ ने निवेदन किया कि आप मुनिजनों को दृष्टिवाद की ज्ञानराशि से लाभान्वित करें।आवश्यकर्चूिण: भाग २ पत्रांक १८७ रामचन्द्र मुमुक्षु रचित पुण्यास्रव कथाकोष के अन्तर्गत भद्रबाहुचरित में र्विणत है कि दक्षिण की एक गुफा में आकाशवाणी से अपनी अल्पायु सुनकर भद्रबाहु ने विशाखाचार्य को ससंघ चोलदेश भेज दिया और स्वयं अपने शिष्य चन्द्रगुप्त के साथ वहीं रुक गये और वहीं की गुफा में आत्मस्थ होकर रहने लगे।पुण्यास्रव कथाकोष (जीवराजग्रंथमालासोलपुर) पृ. ३६५ महाकवि रइधू ने लिखा है कि जब भद्रबाहु मध्यरात्रि को ध्यान में स्थित थे तभी वाणी उत्पन्न हुई कि तुम्हारी निषिद्धिका (समाधिभूमि) यहाँ ही होगी।तुम्महँणिसही इत्थुजिहो सई गयणसद्दुएरिसु तहुघोसइ।। (भद्रबाहु चाणक्य चन्द्रगुप्त कथा) इस आकाशवाणी को सुनकर श्री भद्रबाहु स्वामी ने जान लिया कि—समाधिमरण/सल्लेखना धारण करने का समय है। साधक की दीर्घकालीन साधना का फल समाधिमरण है। दीर्घकाल से व्रताचरण करते हुए भव्य जीव की सफलता समाधिमरण से होती है। जब जाना कि ‘‘अपने पवित्र मुनिपद की आयु अब थोड़ी ही रह गयी है’’ तब उन्होंने श्री विशाखाचार्य के नेतृत्व संघ को आगे भेज कर उसी पर्वत पर समाधि ग्रहण कर ली। उनकी सेवा हेतु चन्द्रगुप्त वहीं रुक गये। भद्रबाहु ने शरीर अशक्तता के कारण चर्तुिवध प्रकार के आहार का त्याग कर समाधि ग्रहण कर ली। गुरु आज्ञापूर्वक चन्द्रगुप्त (प्रभाचन्द्र) ने कान्तार चर्या की। श्रुतकेवली भद्रबाहु ने चेतन का ध्यान करते हुए धर्मध्यान पूर्वक प्राण त्याग किये और स्वग्र सिधारे।भद्दबाहु चेयणि झाएप्पिणु धम्मज्णाणं णाण चएप्पिणु।। भद्रबाहु चा. चन्द्र. कथा रइधू (२८६) कुछ कथाकारों द्वारा लिखा गया है कि दुष्काल मगध में पड़ा और वहाँ के राजा चन्द्रगुप्त को दीक्षा देकर और अपने साथ लेकर दक्षिण देश को गये। स्वयं तो मुनि चन्द्रगुप्त के साथ एक गुहाटवी में रुक गये और विशाखाचार्य के नेतृत्व के संघ, चोल, तमिल, पुन्नाट देश की ओर भेज दिया। उक्त कथानकों एवं शिलालेखों के आधार पर श्रुतकेवली भद्रबाहु के भाद्रपद देश, दक्षिणाटवी, शुक्लसर या शुक्लतीर्थ आदि समाधि स्थल के नाम प्राप्त होते हैं, किन्तु शिलालेखीय प्रमाण यथार्थ मालूम होते हैं। अत: विचार करने पर उक्त नाम श्रवणबेलगोल के ही प्रतीत होते हैं। शब्द भेद होने पर भी अर्थभेद नहीं होना चाहिए, ऐसा लगता है।भद्रबाहु चरित प्रस्तावना पृ. ११ (सम्प. डॉ. राजा राम जैन) समाधिमरण जीवन की अन्तिम बेला में की जाने वाली एक उत्कृष्ट साधना है। इसी उद्देश्य से श्रुतकेवली भद्रबाहु ने शरीर की क्षीणता और अपनी अल्पायु निमित्त ज्ञान से जानकर समाधि ग्रहण की थी। प्रत्येक साधक व्रत धारण का फल—समाधिमरण यह भली—भाँति जानता है। इसलिए समाधिमरण की पवित्र भावना/याचना करता है—दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो, सुगइगमणं समाहिमरणं…..। अर्थात् दु:खों का क्षय हो, बोधिलाभ हो, सुगति में गमन हो, समाधिमरण हो ! साधक को मृत्यु का भय नहीं रहता, वह तो प्रसन्नतापूर्वक ज्ञान वैराग्य भावना तत्पर होकर मृत्यु को महोत्सव मानता है।संसारासक्तचित्तानां मृत्युभीतै: भवेन्नृणाम्। मोदायते पुन: सोऽपि ज्ञानवैराग्यवासिनाम्।। मृतयु महोत्सव। साधक समाधि के लिए अरिहन्त सिद्ध की प्रतिमाओं से युक्त पर्वत आदि योग्य स्थान का चयन करते हैं।अरिहंतसिद्धसायर पउमसरं खीरपुप्फ फालभरिदं। उज्जाण भवण पासादं णाग। जक्खघरं।। ५६० मूलाराधना।इसीलिए श्रुतकेवली भद्रबाहु ने सर्वदृष्टि से उचित चन्द्रगिरि (कटवप्र) को समाधि के लिए चुना। भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त की तपस्या और सल्लेखना विधि के द्वारा इस छोटी पहाड़ी (चिक्कवेट्ट) पर शरीर त्याग से यह स्थल तीर्थ बन गया। श्रुतकेवली भद्रबाहु और सम्राट चन्द्रगुप्त का अनुकरण करते हुुए समाधिमरण के लिए पवित्र स्थान के रूप में यह चन्द्रगिरि पहाड़ी इतनी प्रसिद्ध हुई कि यहाँ के सबसे प्राचीन ६०० ई. के शिलालेख में इसे कटवप्र या कल्पवप्पु (समाधिशिखर) तीर्थगिरि एवं ऋषिगिरि कहा गया है। सल्लेखना पूर्वक श्रुतकेवली भद्रबाहु ने वी. नि. १५५ में चन्द्रगिरि पर समाधिमरण को प्राप्त कर अपने को कृत्कृत्य किया। सल्लेखना उच्चतम आध्यात्मिक दशा का सूचक है। मृत्यु का आकस्मिक वरण नहीं है और न वह मौत का आह्वन है। वरन जीवन के अन्तिम क्षणों में सावधानी पूर्वक चलना है। इसे जीवन की अन्तिम साधना कहा जा सकता है। वास्तव में जीवन रूपी मन्दिर का भव्य कलश है। इसी चिन्तन पूर्वक श्रुतकेवली भद्रबाहु ने समाधिमरण धारण कर कर्मभार को हल्का किया। अपने साधक जीवन के रहस्य को पहचाना और साधना को सफल कर स्वर्गस्थ हुर्ए।
डॉ. श्रेयांस कुमार जैन
रीडर—संस्कृत विभाग, दि. जैन कॉलेज, बड़ौत
अनेकान्त बाहुबली महामस्तकाभिषेक २००६ पृ. ११८ से १२८ तक