श्वेत वाहन मुनिराज की कथा देखों,परिणामों की विचित्रता
बहुत समय पूर्व चम्पानगरी में राजा श्वेतवाहन राज्य करता था एक बार भगवान महावीर का उपदेश सुनकर उनका हृदय वैराग्य से भर गया इस कारण उन्होंने अपने पुत्र विमल वाहन को राज्य का भार सौंप कर, अनेकद राजाओं के साथ संयम धारण कर लिया।बहुत समय तक मुनियों के समूह के साथ रहकर अखण्ड संयम को साधते साधते जब वे मुनिराज एक वृक्ष के नीचे विराजमान थे, उसी समय राजा श्रेणिक भगवान महावीर के दर्शन करने जा रहे थे। रास्ते में एक—वृक्ष के नीचे श्वेतवाहन मुनि को ध्यानस्थ देखकर राजा श्रेणिक ने उन्हें नमस्कार किया किन्तु नमस्कार करते हुए उन्हें, मुनिराज जी कुछ विकृत दिखाई दिये। राजा श्रेणिक ने समवशरण में पहुंच कर गणधर भगवान से उसका कारण पूछा, उत्तर में गणधर प्रभु ने कहा— ‘ हे श्रेणिक सुन। आज वे मुनिराज श्वेतवाहन एक माह के उपवास के बाद आहार चर्या के लिए नगर में गये थे, वहां तीन मनुष्यों के लक्षण जानने वाला था उसने इन मुनिराज को देखकर कहा कि इसके लक्षण तो साम्राज्य पदवी के कारण है परन्तु यह तो भिक्षा के लिए भटक रहा है, इसलिए जोश में कहा वह मिथ्या प्रतीत होता है। उसके उत्तर में दूसरे मनुष्य ने कहा— भाई शास्त्र में जो कहा है, वह मिथ्या नहीं है ये मुनिराज तो साम्राज्य का त्याग करके ही मुनि हुए है, किसी कारण से विरक्त होकर इन्होंने राज्य का भार छोटे से बालक पर डाल दिया और स्वयं तपश्चरण कर रहे हैं। यह सुनकर तीसरा मनुष्य बोला— तब तो इसका तप, पाप का कारण है, इससे क्या लाभ। यह बड़ा दुष्ट है, इस कारण दया छोड़कर लोक व्यवहार से अनभिज्ञ असमर्थ बालक को राज्य भार सौंपकर केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए यहां तप कर रहा है, और उधर इसके मंत्री आदि सभी लोगों ने बालक को सांकल से बांध कर राज्य विभाग कर लिया है, अब वे पापी लोग अपनी इच्छानुसार स्वयं राज्य का उपभोग कर रहे है। इस प्रकार तीसरे मनुष्य का वचन सुन कर मुनिराज श्वेतवाहन स्नेह व मान के कारण भोजन (आहार) किये बिना ही नगर से वापिस वन में आकर वृक्ष के नीचे जा बैठे है। बाह्य कारण और अपनी योग्यता से उनके हृदय में तीव्र क्रोध कषाय उत्पन्न हुई है, संक्लेश परिणामों से अशुभ लेश्या…. हुई है, जो मंत्री आदि प्रतिकूल हुए है, उन्हें हिंसा आदि सर्व प्रकार से निग्रह करने का चिंतन करने से वे मुनिराज इस समय संरक्षात्मक रौद्र ध्यान में दाखिल हुए हैं, यदि अन्र्तमुहूर्त तक उनकी यही स्थिति रही तो वे नरकायु का बंधन करने योग्य हो जाएंगे। अत: हे श्रणिक! तु शीघ्र जाकर उन्हें सम्बोधित कर साधु । शीघ्र ही इस अशुभ ध्यान परित्याग करके क्रोध रूप अग्नि को शांत करो। मोह के जाल को दूर करो। तुमने जो यह मोक्ष के कारण रूप संयम को धारण करके छोड़ा है, उसे वापिस अंगीकार करो, यह स्त्री, पुत्र, तथा भाई आदि का सम्बन्ध तो अमनोज्ञ और संसार को बढ़ाने वाला है।इस प्रकार युक्ति पूर्ण सम्बोधन से तुम मुनिराज का स्थिति करण करो। तुम्हारे उपदेश से वे पुन: स्वरूप में स्थिर होकर शुक्लध्यान रूपी अग्नि से घातिया कर्म रूपी सघन वन को भस्म कर देंगे और केवल ज्ञान आदि लब्धियों से देदीप्यमान शुद्ध स्वभाव के धारक हो जायेंगे। गणधर महाराज के ऐसे वचन सुनकर राजा श्रेणिक शीघ्र ही उन मुनिराज के समीप गये और गणधर महाराज द्वारा बताये मार्ग से उन्हें प्रसन्न किया। उन मुनिराज ने भी तुरन्त संकल्प—विकल्पों का परित्याग करके क्षपक श्रेणी का आरोहण कर शुक्ल ध्यान के प्रभाव से केवलज्ञान प्राप्त किया। देखो। परिणामों की कैसी विचित्र योग्यता है कि थोड़ी देर पहले सातवें नरक के योग्य परिणाम और थोड़ी देर पश्चात् केवल ज्ञान। इसलिए इन परिवर्तनशील अघ्रुव परिणामों का व्यामोह तजकर अपरिवर्तनशील त्रिकाली ध्रुव ज्ञायक स्वभाव का ही अब सम्बन्ध करना चाहिए।