अष्टापाहुड की प्राचीन पाण्डुलिपियों की प्राप्ति हेतु हमने राजस्थान, दिल्ली, गुजरात, उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश आदि प्रान्तों की शोध यात्राएँ करके पचासों शास्त्र भण्डारों का सर्वेक्षण किया। इसमें हमें पर्याप्त सफलता मिली। किन्तु सीमित अवधि एवं धन में सभी स्थानों का स्वयं जाकर सर्वेक्षण करना सम्भव नहीं होने के कारण सूची पत्रों तथा अन्य स्रोतों से पाण्डुलिपियों की जानकारी प्राप्त कर शास्त्र भण्डारों के व्यवस्थापकों, संचालकों आदि से पत्राचार किया। प्रारम्भ में हमें निराशा हुई, लेकिन धैर्य के साथ हमने पत्राचार का क्रम बनाये रखा जिसके परिणामस्वरूप जयपुर, पूना, खजुराहो, इन्दौर, उज्जैन आदि स्थानों से हमें पाण्डुलिपियों प्राप्त हुर्इं। इस कार्य में प्रो. गोकुलचन्द्र जैन का कुशल निर्देशन एवं उनके व्यक्तिगत सम्पर्कों का हमें अच्छा लाभ मिला। एक वर्ष पत्राचार के फलस्वरूप श्री भट्टारक यशकीर्ति दिगम्बर जैन गुरुकुल, ऋषभदेव (राजस्थान) से हमें षट् पाहुड की दो पाण्डुलिपयाँ प्राप्त हुई हैं। जिसमे से एक मूल गाथा मात्र है तथा दूसरी हिन्दी पद्यानुवाद सहित है। यह दूसरी प्रति अब तक अप्रकाशित होने के कारण अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। इसका परिचय अधोलिखित है—
प्राकृत गाथा, हिन्दी पद्यानुवाद—ाqचंतामनिकृत, पत्र—अक्षर २७ पंक्ति प्रति पत्र—१४ अक्षर प्रति पंक्ति, प्रति पंक्ति— ४५— ५१, आकार—३२²१६ से.मी., संवत् १८०१, प्रतिलिपि काल संवत् १९०७, प्राप्ति स्थान—श्री भट्टारक यशकीर्ति दिगम्बर जैन सरस्वती भण्डार, ऋषभदेव (राजस्थान), पुस्तकालय पंजी. संख्या— १९८, लिपि—देवनागरी, कागज—ठीक, स्याही—काली।
प्रारम्भ—‘‘ॐ नम: सिद्धेभ्य:’’
गाथा काऊण णमोयारं जिणवरवसहस्स वड्ढमाणस्स।
दंसण मग्गं वोछामि जहाकम्भं समासेण।।९।।
दोहा- आदिवृषभ वीरांतजिन सबकों करों प्रणाम।
दरसन मारग क्रम अलप कहों सुगम अभिराम।।७।।
गाथा दंसण मूलो धम्मो उवइट्ठा जिणवरेहिं सिस्साणं।
तं सोऊण सकण्ण दंसणहीणा ण बंदिव्वो।।२।।
दोहा- मूलधर्म दरसन अमल, सुनहो भव्यजन कान।
दरसन हीन न बंदीयें, भाष्यो श्री भगवान।।२।।
अंतिम गाथा— एवं जिण्पण्णप्तं मोक्खस्स य पाहुडं सुभत्तीए।
जो पढइ भावइ सुणइ, सो पावइ सासयं सुक्खं।।१०६।।
याविधि प्राभृत मुकतकों, भाष्य श्री जिनराज।
पढै सुनै भाविनय, पावै चिरसुखश् काज।।१०६।
प्रशस्ति दोहा— दरसन सूत्र चरन पुनि, ज्ञान भाव अरुमोष।
षट् पाहुड जिनवर भनै, परम धरम के कोष।।१०७।
गीता कुन्दकुन्द आचारज भाषित, पाहुड गाथा सो चारि।
इकतालीस अधिकविधि, प्राकृत शब्द अर्थ सवसरैविचारि।।
ता ऊपरि भाषा दोहादिक चिंतामनि निजमति अनुसार।
वरनी है सिवसुख की धरनी, करनी भव्य भाव निरधार।।
दोहा– जिनसेवक जिनदाससुत, देवीसिंध सुनाम।
गोत छाबड़ा प्रगट है, खंडेलवासल सुखधाम।।
कवित्त छंद जिनपदनिमें, चिंतामनिममनाम।
भाखै देवीसिंधसव, रूढनाम जगकाम।।
नवलसिंध भाईभलो, जिनचरनति को दास।
वाईतुलसा वहनिनें, कीनोंश्रुत अभ्यास।।१२।।
जिनपूजा श्रुतदयामय, उभयपढ़तदिनरैन।
भाषा षट् पाहुडसुनें, धरैसु उरमे चैल।।१३।।
छत्रसींगनरवरपति, राजतकुरमवंस।
बुद्धिवान गजसिंधसुत, निजकुल कौ अवतंस।।१४।।
या राजा के राज में, वरन्यो भाषा ग्रंथ।
पढै सुनै श्रद्धा सहित, तो पावै सिवपंथ।।१५।।
संमतविक्रमराजगत, अठारह सौ एक।
श्रावन सुकल त्रयोदशी, पूरन कियौ विवेक।।१६।।
लिखिकरि पूरनविधिकियौ, ग्रंथपरमसुखदाय।
दुतिया मारग असीतकी, मंगल मंगलदाय।।१७।।
इति श्री कुन्दकुन्दचार्यकृत प्राकृत गाथा षट्टपाहुड संपूर्ण।।
संवत १९०७ वर्षे शाके १७७२ प्रवत् र्तमान्ये: प्रथमवैशाखवदि छ मंगलवारे लिखितं पुरुषोत्तम: प्रतापगढमध्ये: श्रीरस्तु कल्याणमस्तु शुभंभवतु मंगमंभूयात् श्री श्री श्री। इसमें सुत्तपाहुड की गाथा संख्या १० जह मूलाओं….. का भाषा दोहा लिखने के उपरान्त ‘उक्तं च’ लिखकर किसी अन्य कवि का एक पद उद्धृत किया है—
‘सम्यक्तमूल श्रुतपेऽदल गुनदानादिकडार।
सुमनसुजस सुरतरुधरम मुकति सुफलदातार।।
कहीं-कहीं प्राकृत गाथा मेंं संस्कृत शब्दार्थ भी दिये गये हैं। उक्त पद्यानुवाद के पद्य—छन्दों में दोहा की प्रधानता है। इसके अतिरिक्त सोरठा, छप्पय, चौपाई, कवित्त, कुंडलिया, अडिडल, रोडक, चौवोला और गीता छन्द का प्रयोग किया गया है। अष्ट पाहुड की प्रकाशित भाषा वचनिका पं. जयचन्द्र छाबड़ा ने संवत् १८६७ में लिखी थी। जबकि श्री चिन्तामणि अपरनाम देवीसिंह छाबड़ा ने इस हिन्दी पद्यानुवाद की रचना भाषा वचनिका से पूर्व संवत् १८०१ में की थी। तथा यह रचना अब तक अप्रकाशित है। इस कारण यह प्रति अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इसके पद्य सारगर्भित, संक्षिप्त तथा सुस्पष्ट हैं। उपरोक्त रचना की तीन और पाण्डुलिपियों की सूचना है—
१. पाश्र्वनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर, इन्दरगढ़,
२. आदिनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर, बूंदी और
३.संभवनाथ दिगम्बर जैन मन्दिर, उदयपुर के शास्त्र भण्डारों में हैं।
उक्त तीनों प्रतियों की जानकारी मैंने जनवरी १९९४ में ‘पाहुड सुत्तों की दशाधिक टीकाएँ’ शीर्षक से एक अन्य लेख में भी प्रकाशित करवाई थी। श्री भट्टारक यशकीर्ति दिगम्बर जैन गुरुकुल, ऋषभदेव के मंत्री पं. चन्दनलाल जैन शास्त्री ने हमारे अनुरोध पर दो पाण्डुलिपियां प्रेषित की, हम उनके अभारी हैं ।