षट्खंडागम ( धवला टीका ) का सार
– गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी
( पुस्तक -१ )
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।१।।
षट्खण्डागम की प्रथम पुस्तक सत्प्ररूपणा में सर्वप्रथम ‘णमोकार महामंत्र’ से मंगलाचरण किया है। इसमें १७७ सूत्र हैं। इस ग्रंथ की रचना श्रीमत्पुष्पदंत आचार्य ने की है।
इसके आगे के संपूर्ण सूत्र श्रीमद् भूतबलि आचार्य प्रणीत हैं।
इस मंगलाचरण की धवला टीका में पांचों परमेष्ठी के लक्षण बताये हैं।
यह मंत्र अनादि है या श्री पुष्पदन्ताचार्य द्वारा रचित सादि है ?
मैंने ‘सिद्धान्तचिन्तामणि’ टीका में इसका स्पष्टीकरण कया है। धवला टीका में इसे ‘निबद्धमंगल’ कहकर आचार्यदेव रचित ‘सादि’ स्वीकार किया है। इसी मुद्रित प्रथम
पुस्तक के टिप्पण में जो पाठ का अंश उद्धृत है वह धवलाटीका का ही अंश माना गया है। उसके आधार से यह मंगलाचरण ‘अनादि’ है। आचार्य श्री पुष्पदंत द्वारा रचित नहीं है, ऐसा स्पष्ट होता है। इस प्रकरण को मैंने दिया है। यथा-
अथवा
षट्खण्डागमस्य मु प्रतौ पाठांतरं।
यथा- (मुद्रितमूलग्रन्थस्य प्रथमावृत्तौ)
जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण णिबद्धदेवदाणमोक्कारो तं णिबद्धमंगलं।
जो सुत्तस्सादीए सुत्तकत्तारेण कयदेवदाणमोक्कारो तमणिबद्धमंगलं’’१।
अस्यायमर्थ:-
य: सूत्रस्यादौ सूत्रकत्र्रा निबद्ध:-संग्रहीत: न च ग्रथित: देवतानमस्कार: स निबद्ध: मंगलं।
य: सूत्रस्यादौ सूत्रकत्र्रा कृत:-ग्रथित: देवतानमस्कार: स अनिबद्धमंगलं।
अनेन एतज्ज्ञायते-अयं महामंत्र: मंगलाचरणरूपेणात्र
संग्रहीतोऽपि अनादिनिधन:, न तु केनापि रचितो ग्रथितो वा।
उत्तर च णमोकारमंत्रकल्पे श्रीसकलकीर्तिभट्टारकै: महापंचगुरोर्नाम नमस्कारसुसम्भवम् महामंत्रं जगज्जेष्ठ-मनादिसिद्धमादिदम्२।।६३।।
महापंचगुरूणां पंचत्रिंशदक्षरप्रमम्।
उच्छ्वासैस्त्रिभिरेकाग्र-चेतसा भवहानये।।६८।।
श्रीमदुमास्वामिनापि प्रोक्तम्-
ये केचनापि सुषमाद्यरका अनन्ता, उत्सर्पिणी-प्रभृतय: प्रययुर्विवत्र्ता:।
तेष्वप्ययं परतरं प्रथितं पुरापि, लब्ध्वैनमेव हि गता: शिवमत्र लोका:४।।३।
यह महामंत्र सादि है अथवा अनादि ?
अथवा, मुद्रित मूल प्रति में (प्रथम आवृत्ति में) पाठान्तर है। जैसे-
जो सूत्र की आदि में सूत्रकत्र्ता के द्वारा देवता नमस्कार निबद्ध किया जाता है, वह निबद्धमंगल है और जो सूत्र की आदि में सूत्रकत्र्ता के द्वारा देवता नमस्कार किया जाता है-रचा जाता है, वह अनिबद्धमंगल है।
इसका अर्थ यह है– सूत्र ग्रंथ के प्रारंभ में ग्रंथकार जो देवता नमस्काररूप मंगल कहीं से संग्रहीत करते हैं, स्वयं नहीं रचते हैं वह तो निबद्धमंगल है और सूत्र के प्रारंभ में ग्रंथकत्र्ता के द्वारा जो देवता नमस्कार स्वयं रचा जाता है, वह अनिबद्धमंगल है। इससे यह ज्ञात होता है कि यह णमोकार महामंत्र मंगलाचरणरूप से यहाँ संग्रहीत होते हुए भी अनादिनिधन है, वह मंत्र किसी के द्वारा रचित या गूँथा हुआ नहीं है। प्राकृतिक- रूप से अनादिकाल से चला आ रहा है।
‘‘णमोकार मंत्रकल्प’’ में श्री सकलकीर्ति भट्टारक ने कहा भी हैै-
श्लोकार्थ– नमस्कार मंत्र में रहने वाले पाँच महागुरुओं के नाम से निष्पन्न यह महामंत्र जगत में ज्येष्ठ-सबसे बड़ा और महान है, अनादिसिद्ध है और आदि अर्थात् प्रथम है।।६३।।
पाँच महागुरुओं के पैंतीस अक्षर प्रमाण मंत्र को तीन श्वासोच्छ्वासों में संसार भ्रमण के नाश हेतु एकाग्रचित्त होकर सभी भव्यजनों को जपना चाहिए अथवा ध्यान करना चाहिए।।६८।।
श्रीमत् उमास्वामी आचार्य ने भी कहा है-
श्लोकार्थ– उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी आदि के जो सुषमा, दु:षमा आदि अनन्त युग पहले व्यतीत हो चुके हैं उनमें भी यह णमोकार मंत्र सबसे अधिक महत्त्वशाली प्रसिद्ध हुआ है। मैं संसार से बहिर्भूत (बाहर) मोक्ष प्राप्त करने के लिए उस णमोकार मंत्र को नमस्कार करता हूँ।।३।।
मैंने ‘सिद्धान्तचिन्तामणि टीका’ में सर्वत्र सूत्रों का विभाजन एवं समुदायपातनिका आदि बनाई हैं। यहाँ मैंने ‘समयसार’ ‘प्रवचनसार’ ‘पंचास्तिकाय’ ग्रंथों की ‘तात्पर्यवृत्ति’ टीका का अनुसरण किया है। श्री जयसेनाचार्य की टीका में सर्वत्र गाथासूत्रों की संख्या एवं विषयविभाजन से स्थल-अन्तरस्थल बने हुए हैं। उनकी टीका के अनुसार ही मैंने यहाँ स्थल-अन्तरस्थल विभाजित किये हैं।
सर्वत्र मंगलाचरण रूप में मैंने कहीं पद्य, कहीं गद्य का प्रयोग किया है। तीर्थ और विशेष स्थान की अपेक्षा से प्राय: वहाँ-वहाँ के तीर्थंकरों को नमस्कार किया है।
यहाँ पर उनके कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं-
जिनेन्द्रदेवमुखकमलविनिर्गत-गौतमस्वामिमुखकुण्डावतरित-पुष्पदंताचार्यादिविस्तारित-गंगाया: जलसदृशं ‘‘नद्या नवघटे भृतं जलमिव’’ इयं टीका सर्वजनमनांसि संतर्पिष्यत्येवेतिमया विश्वस्यते।अथाधुना श्रीमत्पुष्पदन्ताचार्यदेवविनिर्मिते गुणस्थानादिविंशतिप्ररूपणान्तर्गर्भितसत्प्ररूपणा-नामग्रंथे अधिकारशुद्धिपूर्वकत्वेन पातनिका व्याख्यानं विधीयते। तत्रादौ ‘णमो अरिहंताणं’ इति पंचनमस्कार-गाथामादिं कृत्वा सूत्रपाठक्रमेण गुणस्थानमार्गणा-प्रतिपादनसूचकत्वेन ‘एत्तो इमेसिं’ इत्यादिसूत्रसप्तकं। तत: चतुर्दशगुणस्थाननिरूपणपरत्वेन ‘‘संतपरूवणदाए’’ इत्यादि-षोडशसूत्राणि। तत: परं चतुर्दशमार्गणासु गुणस्थानव्यवस्था-व्यवस्थापन-मुख्यत्वेन ‘‘आदेसेण गदियाणुवादेण’’ इत्यादिना चतु:पञ्चाशदधिक-एकशतसूत्राणि सन्ति। एवं अनेकान्तरस्थलगर्भित-सप्त-सप्तत्यधिक-एकशतसूत्रै: एते त्रयो महाधिकारा भवन्तीति सत्प्ररूपणाया: व्याख्याने समुदायपातनिका भवति। अत्रापि प्रथममहाधिकारे ‘णमो’ इत्यादि मंगलाचरणरूपेण प्रथमस्थले गाथासूत्रमेकं। ततो गुणस्थानमार्गणा-कथनप्रतिज्ञारूपेण द्वितीयस्थले ‘एत्तो’ इत्यादि सूत्रमेकम्। ततश्च चतुर्दशमार्गणानां नामनिरूपणरूपेण तृतीयस्थले सूत्रद्वयं। तत: परं गुणस्थानप्रतिपादनार्थं अष्टानुयोगनामसूचनपरत्वेन चतुर्थस्थले ‘एदेसिं’ इत्यादिसूत्रत्रयं। एवं षट्खण्डागमग्रन्थराजस्य, सत्प्ररूपणाया: पीठिकाधिकारे चतुर्भिरन्तरस्थलै: सप्तसूत्रै: समुदायपातनिका सूचितास्ति। अथ श्रीमद्भगवद्धरसेनगुरुमुखादुपलब्धज्ञानभव्यजनानां वितरणार्थं पंचमकालान्त्य-वीरांगजमुनिपर्यंतं गमयितुकामेन पूर्वाचार्यव्यवहारपरंपरानुसारेण शिष्टाचारपरिपालनार्थं निर्विघ्नसिद्धान्त-शास्त्रपरिसमाप्त्यादिहेतो: श्रीमत्पुष्पदन्ताचार्येण णमोकारमहामन्त्रमंगलगाथा-सूत्रावतार: क्रियते-
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व-साहूणं।।१।।
जिनेन्द्रदेव के मुखकमल से निकलकर जो गौतमस्वामी के मुखरूपी कुण्ड में अवतरित-गिरी है तथा पुष्पदन्त आचार्य आदि के द्वारा विस्तारित गंगाजल के समान ‘‘नदी से भरे हुए नये घड़े के जल सदृश’’ यह टीका सभी प्राणियों के मन को संतृप्त करेगी, ऐसा मेरा विश्वास है।
अब यहाँ श्रीमान् पुष्पदन्त आचार्यदेव द्वारा रचित गुणस्थान आदि बीस प्ररूपणाओं में अन्तर्गर्भित इस सत्प्ररूपणा नामक ग्रंथ में अधिकारशुद्धिपूर्वक पातनिका का व्याख्यान किया जाता है। उसमें सबसे पहले ‘‘णमो अरिहंताणं’’ इत्यादि इस पञ्च नमस्कार गाथा को आदि में करके सूत्र पाठ के क्रम से गुणस्थान, मार्गणा के प्रतिपादन की सूचना देने वाले ‘‘एत्तो इमेसिं’’ इत्यादि सात सूत्र हैं। उसके बाद चौदह गुणस्थानों के निरूपण की मुख्यता से ‘‘ओघेण अत्थि’’ इत्यादि सोलह सूत्र हैं। पुन: आगे चौदह मार्गणाओं में गुणस्थान व्यवस्था की मुख्यता से ‘‘आदेसेण गदियाणुवादेण’’ इत्यादि एक सौ चौवन (१५४) सूत्र हैं। इस प्रकार अनेक अन्तसर््थलों से गर्भित एक सौ सतहत्तर (१७७) सूत्रों के द्वारा ये तीन महाधिकार हो गए हैं। सत्प्ररूपणा के व्याख्यान में यह समुदायपातनिका हुई।
यहाँ भी प्रथम महाधिकार में ‘‘णमो’’ इत्यादि मंगलाचरण रूप से प्रथम स्थल में एक गाथा सूत्र है पुन: द्वितीय स्थल में गुणस्थान-मार्गणा के कथन की प्रतिज्ञा रूप से ‘‘एत्तो’’ इत्यादि एक सूत्र है और उसके बाद चौदह मार्गणाओं के नाम निरूपण रूप से तृतीय स्थल में दो सूत्र हैं। उसके आगे गुणस्थानों के प्रतिपादन हेतु आठ अनुयोग के नाम सूचना की मुख्यता से चतुर्थ स्थल में ‘एदेसिं’’ इत्यादि तीन सूत्र हैं।
इस प्रकार षट्खण्डागम ग्रंथराज की सत्प्ररूपणा के पीठिका अधिकार में चार अन्तरस्थलों के द्वारा सूत्रों में समुदायपातनिका सूचित-प्रदर्शित की गई है।
अब श्रीमत् भगवान धरसेनाचार्य गुरु के मुख से उपलब्ध ज्ञान को भव्यजनों में वितरित करने के लिए पंचमकाल के अन्त में वीरांगज मुनि पर्यन्त इस ज्ञान को ले जाने की इच्छा से, पूर्वाचार्यों की व्यवहार परम्परा के अनुसार, शिष्टाचार का परिपालन करने के लिए, निर्विघ्न सिद्धान्त शास्त्र की परिसमाप्ति आदि हेतु को लक्ष्य में रखते हुए श्रीमत्पुष्पदन्ताचार्य के द्वारा णमोकार महामंत्र मंगल गाथा सूत्र का अवतार किया जाता है-
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।१।।
अतिशय क्षेत्र महावीर जी में मैंने ‘तृतीय महाधिकार’ प्रारंभ किया था अत: श्री महावीर स्वामी को नमस्कार किया है।
यथा-
महावीरो जगत्स्वामी, सातिशायीति विश्रुत:।
तस्मै नमोऽस्तु मे भक्त्या, पूर्णसंयमलब्धये।।१।।
श्री वीरसेनाचार्य ने कहा है-
‘‘सुत्तमोदिण्णं अत्थदो तित्थयरादो, गंथदो गणहरदेवादोत्ति१।।
ये सूत्र अर्थप्ररूपणा की अपेक्षा से तीर्थंकर भगवान से अवतीर्ण हुए हैं और ग्रंथ की अपेक्षा श्री गणधर देव से अवतीर्ण हुए हैं।
अथवा ‘जिनपालित’ शिष्य को निमित्त कहा है।
श्री पुष्पदंताचार्य ने अपने भानजे ‘जिनपालित’ को दीक्षा देकर प्रारंभिक १७७ सूत्रों की रचना करके भूतबलि आचार्य के पास भेजा था। ऐसा ‘धवलाटीका’ में एवं श्रुतावतार में वर्णित है।
इस मंगलाचरण को सूत्र १ संज्ञा दी है। आगे द्वितीय सूत्र का अवतार हुआ है-
एत्तो इमेसिं चोद्दसण्हं जीवसमासाणं मग्गणट्ठदाए तत्थ इमाणि चोद्दस चेवट्ठाणाणि णादव्वाणि भवंति।।२।।
इस द्रव्यश्रुत और भावश्रुतरूप प्रमाण से इन चौदह गुणस्थानों के अन्वेषण रूप प्रयोजन के लिए यहाँ से चौदह ही मार्गणास्थान जानने योग्य हैं।
ऐसा कहकर पहले चौदह मार्गणाओं के नाम बताए हैं। यथा-गति, इंद्रिय, काय, योग, वेद, कषाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्यत्व, सम्यक्त्व, संज्ञी और आहार ये चौदह मार्गणा हैं।
पुन: पांचवें सूत्र में कहा है-
इन्हीं चौदह गुणस्थानों का निरूपण करने के लिए आगे कहे जाने वाले आठ अनुयोगद्वार जानने योग्य हैंं।।५।।
इन आठों के नाम- १. सत्प्ररूपणा २. द्रव्यप्रमाणानुगम ३. क्षेत्रानुगम ४. स्पर्शनानुगम ५. कालानुगम ६. अन्तरानुगम ७. भावानुगम और ८. अल्पबहुत्वानुगम।
आगे प्रथम ‘सत्प्ररूपणा’ का वर्णन करते हुए ओघ और आदेश की अपेक्षा निरूपण करने को कहा है।
इसी में ओघ की अपेक्षा चौदह गुणस्थानों का वर्णन है और आगे चौदह मार्गणाओं का वर्णन करके उनमें गुणस्थानों को भी घटित किया है। मार्गणाओं के नाम ऊपर लिखे गये हैं।
गुणस्थानों के नाम- १. मिथ्यात्व २. सासादन ३. मिश्र ४. असंयतसम्यग्दृष्टि ५. देशसंयत ६. प्रमत्तसंयत ७. अप्रमत्तसंयत ८. अपूर्वकरण ९. अनिवृत्तिकरण १०. सूक्ष्मसांपराय ११. उपशांतकषाय १२. क्षीणकषाय १३. सयोगिकेवली और १४. अयोगिकेवली ये चौदह गुणस्थान हैं।
इस ग्रंथ में मैंने तीन महाधिकार विभक्त किये हैं। प्रथम महाधिकार में सात सूत्र हैं जो कि ग्रंथ की पीठिका-भूमिका रूप हैं। दूसरे महाधिकार सत्प्ररूपणा के अंतर्गत १६
सूत्रों में चौदह गुणस्थानों का वर्णन है एवं तृतीय महाधिकार में मार्गणाओं में गुणस्थानों की व्यवस्था करते हुए विस्तार से १५४ सूत्र लिए हैं।
इस प्रथम ग्रन्थ में प्रारंभ में पंच परमेष्ठियों के वर्णन में एक सुन्दर प्रश्नोत्तर धवला टीका में आया है जिसे मैंने जैसे का तैसा लिया है। यथा-
‘‘संपूर्णरत्नानि देवो न तदेकदेश इति चेत् ?
न, रत्नैकदेशस्य देवत्वाभावे समस्तस्यापि तदसत्त्वापत्ते:……। इत्यादि।
शंका-संपूर्णरत्न-पूर्णता को प्राप्त रत्नत्रय ही देव है, रत्नों का एकदेश देव नहीं हो सकता है ?
समाधान-ऐसा नहीं कहना, क्योेंकि रत्नत्रय के एकदेश में देवपने का अभाव होने पर उसकी संपूर्णता में भी देवपना नहीं बन सकता है।
शंका-आचार्य आदि में स्थित रत्नत्रय समस्त कर्मों का क्षय करने में समर्थ नहीं हो सकते, क्योंकि उसमें एकदेशपना ही है, पूर्णता नहीं है ?
समाधान-यह कथन समुचित नहीं है, क्योंकि पलालराशि-घास की राशि को जलाने का कार्य अग्नि के एक कण में भी देखा जाता है इसलिए आचार्य, उपाध्याय और साधु भी देव हैं१।’’
यह समाधान श्री वीरसेनाचार्य ने बहुत ही उत्तम बताया है।
प्रथम पुस्तक ‘सत्प्ररूपणाग्रंथ’ की टीका को पूर्ण करते समय मैंने उस स्थान का विवरण दे दिया है। यथा-
‘‘वीराब्दे द्वाविंशत्यधिकपंचविंशतिशततमे फाल्गुनशुक्लासप्तम्यां खिष्ट्राब्दे षण्णवत्यधि-वैâकोनविंशतिशततमे पंचविशे दिनांके द्वितीयमासि (२५-२-१९९६) राजस्थानप्रान्ते ‘पिडावानाम-ग्रामे’ श्री पाश्र्वनाथसमवसरणमंदिरशिलान्यासस्य मंगलावसरे एतत्सत्प्ररूपणाग्रन्थस्य ‘सिद्धान्त-चिन्तामणिटीकां’ पूरयन्त्या मया महान् हर्षोऽनुभूयते। टीकासहितोऽयं ग्रन्थो मम श्रुतज्ञानस्य पूत्र्यै भूयात्।’’
पुन: वीर निर्वाण संवत् पच्चीस सौ बाईसवें वर्ष में ही फाल्गुन शुक्ला सप्तमी तिथि को ईसवी सन् १९९६ के द्वितीय मास की २५ तारीख को राजस्थान प्रान्त के पिड़ावा ग्राम में श्रीपाश्र्वनाथ समवसरण मंदिर के शिलान्यास के मंगल अवसर पर इस ‘सत्प्ररूपणा’ ग्रंथ की ‘सिद्धान्तचिन्तामणिटीका’ को पूर्ण करते हुए मुझे अत्यंत हर्ष की अनुभूति हो रही है। टीका सहित यह सत्प्ररूपणा नामक ‘षट्खण्डागम’ ग्रंथ मेरे श्रुतज्ञान की पूर्ति के लिए होवे, यही मेरी प्रार्थना है। इसमें सूत्र १७७ तथा पृ. १६४ हैं।
( पुस्तक २-आलाप अधिकार )
यह द्वितीय ग्रंथ सत्प्ररूपणा के ही अंतर्गत है। इसमें सूत्र नहीं हैं।
‘‘संपहि संत-सुत्तविवरण-समत्ताणंतरं तेसिं परुवणं भणिस्सामो।’’
सत्प्ररूपणा के सूत्रों का विवरण समाप्त हो जाने पर अनंतर अब उनकी प्ररूपणा का वर्णन करते हैं-
शंका– प्ररूपणा किसे कहते हैं ?
समाधान– सामान्य और विशेष की अपेक्षा गुणस्थानों में, जीवसमासों में, पर्याप्तियों में, प्राणों में, संज्ञाओं में, गतियों में, इन्द्रियों में, कायों में, योगों में, वेदों में, कषायों में, ज्ञानों में, संयमों में, दर्शनों में, लेश्याओं में, भव्यों में, अभव्यों में, संंज्ञी-असंज्ञियों में, आहारी-अनाहारियों में और उपयोगों में पर्याप्त और अपर्र्याप्त विशेषणों से विशेषित करके जो जीवों की परीक्षा की जाती है, उसे प्ररूपणा कहते हैं। कहा भी है-
गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, चौदह मार्गणाएँ और उपयोग, इस प्रकार क्रम से बीस प्ररूपणाएँ कही गई हैं।
इनके कोष्ठक गुणस्थानों के एवं मार्गणाओं के बनाये गये हैं।
गुणस्थान १४ हैं, जीवसमास १४ हैं-एकेन्द्रिय के बादर-सूक्ष्म ऐसे २, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय ऐसे ३, पंचेन्द्रिय के संज्ञी-असंज्ञी ऐसे २, ये ७ हुए, इन्हें पर्याप्त-अपर्याप्त से गुणा करने पर १४ हुए। पर्याप्ति ६-आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन। प्राण १० हैं-पाँच इन्द्रिय, मनोबल, वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास। संज्ञा ४ हैं-आहार, भय, मैथुन और परिग्रह। गति ४ हैं-नरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति। इन्द्रियाँ ५ हैं-एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रियजाति। काय ६ हैं-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रसकाय। योग १५ हैं-सत्यमनोयोग, असत्यमनोयोग, उभयमनोयोग, अनुभयमनोयोग, सत्यवचनयोग, असत्यवचनयोग, उभयवचनयोग, अनुभयवचनयोग, औदारिककाययोग, औदारिकमिश्र, वैक्रियिक, वैक्रियिकमिश्र, आहारक,
आहारकमिश्र और कार्मणकाय योग। वेद ३ हैं- स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद।
कषाय ४ हैं- क्रोध, मान, माया, लोभ।
ज्ञान ८ हैं- मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय, केवलज्ञान, कुमति, कुश्रुत और विभंगावधि।
संयम ७ हैं- सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय, यथाख्यात, देशसंयम और असंयम।
दर्शन ४ हैं– चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन।
लेश्या ६ हैं– कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल।
भव्य मार्गणा २ हैं– भव्यत्व और अभव्यत्व।
सम्यक्त्व ६ हैं- औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक, मिथ्यात्व, सासादन और मिश्र।
संज्ञी मार्गणा के २ भेद हैं- संज्ञी, असंज्ञी।
आहार मार्गणा २ हैं- आहार, अनाहार।
उपयोग के २ भेद हैं- साकार और अनाकार।
इस ग्रंथ को मैंने दो महाधिकारों में विभक्त किया है। इसमें कुल ५४५ कोष्ठक-चार्ट हैं। उदाहरण के लिए पाँचवें गुणस्थान का एक चार्ट दिया जा रहा है-
नं. १३ संयतासंयतों के आलाप
इनमें से संयतासंयत के कोष्ठक में-
गुणस्थान १ है- पाँचवां देशसंयत।
जीवसमास १ है- संज्ञीपर्याप्त। पर्याप्तियाँ छहों हैं, अपर्याप्तियाँ नहीं हैं। प्राण १० हैं। संज्ञायें ४ हैं। गति २ हैं-मनुष्य, तिर्यंच। इंद्रिय १ है-पंचेन्द्रिय। काय १ है-त्रसकाय। योग ९ हैं-४ मनोयोग, ४ वचनयोग, १ औदारिक काययोग। वेद ३ हैं। कषाय ४ हैं। ज्ञान ३ हैं-मति, श्रुत, अवधि। संयम १ है-संयमासंयम। दर्शन ३ हैं-केवलदर्शन के बिना। लेश्या द्रव्य से-वर्ण से छहों हैं, भावलेश्या शुभ ३ हैं। भव्यत्व १ है। सम्यक्त्व ३ हैं-औपशमिक, क्षायिक और क्षायोपशमिक। संज्ञीमार्गणा १ है-संज्ञी। आहार मार्गणा १ है-आहारक। उपयोग २ हैं-साकार और अनाकार। यही सब चार्ट मेें दिखाया गया है। मेरे द्वारा लिखित पृ. ९० हैं।
इस प्रकार यह दूसरी पुस्तक का सार अतिसंक्षेप में बताया गया है।
( पुस्तक ३-द्रव्यप्रमाणानुगम-क्षेत्रानुगम )
इस गं्रथ में श्री भूतबलि आचार्य वर्णित सूत्र हैं अब यहाँ से संपूर्ण ‘षट्खण्डागम’ सूत्रों की रचना इन्हीं श्रीभूतबलि आचार्य द्वारा लिखित है। कहा भी है-
‘‘संपहि चोद्दसण्हं जीवसमासाणमत्थित्तमवगदाणं सिस्साणं तेसिं चेव परिमाणपडिबोहणट्ठं भूदबलियाइरियो सुत्तमाह१-’’
जिन्होंने चौदहों गुणस्थानों के अस्तित्व को जान लिया है, ऐसे शिष्यों को अब उन्हीं के चौदहों गुणस्थानों के-चौदहों गुणस्थानवर्ती जीवों के परिमाण-संख्या के ज्ञान को कराने के लिए श्रीभूतबलि आचार्य आगे का सूत्र कहते हैं-
इसमें प्रथम सूत्र-
‘‘दव्वपमाणाणुगमेण दुविहो णिद्देसो ओघेण आदेसेण य।।१।।
द्रव्यप्रमाणानुगम की अपेक्षा निर्देश दो प्रकार का है, ओघ निर्देश और आदेशनिर्देश। ओघ-गुणस्थान और आदेश-मार्गणा इन दोनों की अपेक्षा से उन-उन में जीवों का वर्णन किया गया है।
इस ग्रंथ में भी मैंने दो अनुयोगद्वार लिये हैंं-द्रव्यप्रमाणानुगम और क्षेत्रानुगम। अत: इन दोनों में चार महाधिकार किये हैं। द्रव्यप्रमाणानुगम में प्रथम महाधिकार में १४ सूत्र हैं एवं द्वितीय में १७८ हैं, ऐसे कुल सूत्र १९२ हैं। क्षेत्रानुगम में तृतीय महाधिकार में ४ सूत्र एवं चतुर्थ महाधिकार में ८८ सूत्र हैं, ऐसे कुल सूत्र ९२ हैं। दोनों अनुयोगद्वारों में सूत्र १९२±९२·२८४ हैं। पृ. १३० हैं।
चौदह गुणस्थानों में जीवों की संख्या बतलाते हैं-
प्रथम गुणस्थान में जीव अनंतानंत हैं। द्वितीय गुणस्थान में ५२ करोड़ हैं। तृतीय गुणस्थान मेें १०४ करोड़ हैं। चतुर्थ गुणस्थान में सात सौ करोड़ हैंं। पाँचवें गुणस्थान में १३ करोड़ हैं।
प्रमत्तसंयत नाम के छठे गुणस्थान से लेकर अयोगकेवली नाम के चौदहवें गुणस्थान के महामुनि एवं अरहंत भगवान ‘संयत’ कहलाते हैं। उन सबकी संख्या मिलाकर ‘तीन कम नव करोड़’ है। धवला टीका में कहा है-
‘‘एवं परुविदसव्वसंजदरासिमेकट्ठे कदे अट्ठकोडीओ णवणउदिलक्खा णवणउदिसहस्स-णवसद-सत्ताणउदिमेत्तो होदि१।’’
इसी तृतीय पुस्तक में दूसरा एक और मत प्राप्त हुआ है-
‘‘एदे सव्वसंजदे एयट्ठे कदे सत्तरसद-कम्मभूमिगद-सव्वरिसओ भवंति। तेसिं पमाणं छक्कोडीओ णवणउइलक्खा णवणउदिसहस्सा णवसयछण्णउदिमेत्तं हवदि२।’’ सर्वसंयतों की संख्या छह करोड़, निन्यानवे लाख, निन्यानवे हजार, नव सौ छ्यानवे है।
इन दोनों मतों को श्री वीरसेनाचार्य ने उद्धृत किया है।
वर्तमान में प्रसिद्धि में ‘तीन कम नव करोड़’ संख्या ही है।
इन सर्वमुनियों को नमस्कार करके यहाँ इस ग्रंथ का विंâचित् सार दिया है। इसकी सिद्धान्तचिंतामणि टीका में मैंने अधिकांश गणित प्रकरण छोड़ दिया है, जो कि धवलाटीका में द्रष्टव्य है।
श्री वीरसेनाचार्य ने आकाश को क्षेत्र कहा है। आकाश का कोई स्वामी नहीं है, इस क्षेत्र की उत्पत्ति में कोई निमित्त भी नहीं है यह स्वयं में ही आधार-आधेयरूप है। यह क्षेत्र अनादिनिधन है और भेद की अपेक्षा लोकाकाश-अलोकाकाश ऐसे दो भेद हैं। इस प्रकार निर्देश, स्वामित्व, साधन, अधिकरण, स्थिति और विधान से क्षेत्र का वर्णन किया है।
क्षेत्र में गुणस्थानवर्ती जीवों को घटित करते हुए कहा है-
‘‘ओघेण मिच्छाइट्ठी केवडि खेत्ते ? सव्वलोगे।।२।।
मिथ्यादृष्टि जीव कितने क्षेत्र में हैं ? सर्व लोक में हैं।।२।।
सासणसम्माइट्ठिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखेज्जदिभाए।।३।।
सासादन सम्यग्दृष्टि से लेकर अयोगिकेवली पर्यंत कितने क्षेत्र में हैं ? लोक के असंख्यातवें भाग में हैं।।३।।
इसमें एक प्रश्न हुआ है-
लोकाकाश असंख्यातप्रदेशी है, उसमें अनंतानंत जीव वैâसे समायेंगे ?
यद्यपि लोक असंख्यात प्रदेशी है फिर भी उसमें अवगाहन शक्ति विशेष है जिससे उसमें अनंतानंत जीव एवं अनंतानंत पुद्गल समाविष्ट हैं। जैसे मधु से भरे हुए घड़े में उतना ही दूध भर दो, उसी में समा जायेगा१।
इस अनुयोगद्वार में स्वस्थान, समुद्घात और उपपाद ऐसे तीन भेदों द्वारा जीवों के क्षेत्र का वर्णन किया है।
इस ग्रंथ की पूर्ति मैंने मांगीतुंगी तीर्थ पर श्रावण कृ. १० को ईसवी सन् १९९६ में की है।
( पुस्तक ४-स्पर्शन-कालानुगम )
इस चतुर्थ ग्रंथ-पुस्तक में स्पर्शनानुगम एवं कालानुगम इन दो अनुयोगद्वारों का वर्णन है।
इन दोनों की सूत्र संख्या १८५±३४२·५२७ है।
स्पर्शनानुगम- इसमें भी मैंने गुणस्थान और मार्गणा की अपेक्षा दो महाधिकार किये हैं। यह स्पर्शन भूतकाल एवं वर्तमानकाल के स्पर्श की अपेक्षा रखता है। पूर्व में जिसका स्पर्श किया था और वर्तमान में जिसका स्पर्श कर रहे हैं, इन दोनों की अपेक्षा से स्पर्शन का कथन किया जाता है।
स्पर्शन में छह प्रकार के निक्षेप घटित किये हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावस्पर्शन।
‘तत्र स्पर्शनशब्द:’ नाम स्पर्शनं निक्षेप:, अयं द्रव्यार्थिकनयविषय:।
सोऽयं इति बुद्ध्या अन्यद्रव्येण सह अन्यद्रव्यस्य एकत्वकरणं स्थापनास्पर्शनं यथा घटपिठरादिषु अयं ऋषभोऽजित: संभवोऽभिनंदन: इति। एषोऽपि द्रव्यार्थिकनयविषय:१।’’
स्पर्शन शब्द नामस्पर्शन है। यह द्रव्यार्थिकनय का विषय है। यह वही है, ऐसी बुद्धि से अन्य द्रव्य के साथ अन्य द्रव्य का एकत्व करना स्थापनास्पर्शन निक्षेप है जैसे घट
आदि में ये ऋषभदेव हैं, अजितनाथ हैं, संभवनाथ हैं, अभिनंदननाथ हैं इत्यादि। यह भी द्रव्यार्थिक नय का विषय है, इत्यादि निक्षेपों का वर्णन है।
पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से प्ररूपणा करते हुए कहा है-
स्वस्थानस्वस्थान-वेदना-कषाय-मारणांतिक-उपपादगत मिथ्यादृष्टियों ने भूतकाल एवं वर्तमानकाल से सर्वलोक को स्पर्श किया है।
इसी प्रकार गुणस्थान और मार्गणाओं में जीवों के भूतकालीन, वर्तमानकालीन स्पर्शन का वर्णन किया है।
कालानुगम– इसमें भी गुणस्थान और मार्गणा की अपेक्षा दो महाधिकार कहे हैं। काल को नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव ऐसे चार भेद रूप से कहा है पुनश्च-‘नो आगमभावकाल’ से इस ग्रंथ में वर्णन किया है।
यह काल अनादि अनंत है, एक विध है, यह सामान्य कथन है। काल के भूत, वर्तमान और भविष्यत् की अपेक्षा तीन भेद हैं।
एक प्रश्न आया है-
स्वर्गलोक में सूर्य के गति की अपेक्षा नहीं होने से वहां मास, वर्ष आदि का व्यवहार वैâसे होगा ?
तब आचार्यदेव ने समाधान दिया है-
यहाँ के व्यवहार की अपेक्षा ही वहाँ पर ‘काल’ का व्यवहार है। जैसे जब यहाँ ‘कार्तिक’ आदि मास में आष्टान्हिक पर्व आते हैं, तब देवगण नंदीश्वर द्वीप आदि में पूजा करने पहुँच जाते हैं इत्यादि।
नाना जीव की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि का सर्वकाल है।।२।।
एकजीव की अपेक्षा किसी का अनादिअनंत है, किसी का अनादिसांत है, किसी का सादिसांत है। इनमें से जो सादि और सांत काल है, उसका निर्देश इस प्रकार है। एक जीव की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि जीव का सादिसांत काल जघन्य से अंतर्मुहूर्त है१।।३।।
वह इस प्रकार है-
कोई सम्यग्मिथ्यादृष्टि अथवा असंयतसम्यग्दृष्टि अथवा संयतासंयत अथवा प्रमत्तसंयतजीव परिणामों के निमित्त से मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। सर्वजघन्य अंतर्मुहूर्त काल रह करके, फिर भी सम्यक्त्व मिथ्यात्व को अथवा असंयम के साथ सम्यक्त्व को अथवा संयमासंयम को अथवा अप्रमत्तभाव के साथ संयम को प्राप्त हुआ। इस प्रकार से प्राप्त होने वाले जीव के मिथ्यात्व का सर्वजघन्य काल होता है२।
इस प्रकार यह कालानुगम का संक्षिप्त सार दिखाया है।
इस गं्रथ की टीका मैंने मांंगीतुंगी क्षेत्र पर भाद्रपद शु. ३, वी.सं. २५२२, दिनाँक १५-९-१९९६ को लिखकर पूर्ण की है। इसमें पृ. १९० हैं।
( पुस्तक ५-अन्तर-भाव-अल्पबहुत्वानुगम )
इस ग्रंथ में अन्तरानुगम में ३९७ सूत्र हैं, भावानुगम में ९३ सूत्र हैं एवं अल्पबहुत्वानुगम में ३८२ सूत्र हैं। इस प्रकार ३९७±९३±३८२·८७२ सूत्र हैं।
अन्तरानुगम-इस ग्रंथ की सिद्धान्तचिन्तामणि टीका में मैंने दो महाधिकार विभक्त किये हैं। प्रथम महाधिकार में गुणस्थानों में अंतर का निरूपण है। द्वितीय महाधिकार में मार्गणाओं में अंतर दिखाया गया है।
नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से छहविध निक्षेप हैं। अंतर, उच्छेद, विरह, परिणामान्तरगमन, नास्तित्वगमन और अन्यभावव्यवधान, ये सब एकार्थवाची हैं। इस प्रकार के अन्तर के अनुगम को अन्तरानुगम कहते हैं।
एक जीव की अपेक्षा जघन्य अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त है।।३।।
जैसे एक मिथ्यादृष्टि जीव सम्यग्मिथ्यात्व, अविरतसम्यक्त्व, संयमासंयम और संयम में बहुत बार परिवर्तित होता हुआ परिणामों के निमित्त से सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ और वहाँ पर सर्वलघु अंतर्मुहूर्त काल तक सम्यक्त्व के साथ रहकर मिथ्यात्व को प्राप्त हुआ। इस प्रकार सर्वजघन्य अंतर्मुहूर्त प्रमाण मिथ्यात्वगुणस्थान का अंतर प्राप्त हो गया।
मिथ्यात्व का उत्कृष्ट अंतर कुछ कम दो छ्यासठ सागरोपम काल है।।४।।
इन गं्रथों के स्वाध्याय में जो आल्हाद उत्पन्न होता है, वह असंख्यात गुणश्रेणी रूप से कर्मों की निर्जरा का कारण है। यहाँ तो मात्र नमूना प्रस्तुत किया जा रहा है।
भावानुगम-इसमें भी महाधिकार दो हैं। नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इनकी अपेक्षा यह भाव चार प्रकार का है। इसमें भी भावनिक्षेप के आगमभाव एवं नोआगमभाव ऐसे दो भेद हैं। नोआगमभाव नामक भावनिक्षेप के औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक ये पाँच भेद हैं।
असंयतसम्यग्दृष्टि में कौन सा भाव है ?
औपशमिकभाव भी है, क्षायिकभाव भी है और क्षायोपशमिक भाव भी है।।५।।
यहाँ सम्यग्दर्शन की अपेक्षा से ये भाव कहे हैं। यद्यपि यहाँ औदयिक भावों में से गति, कषाय आदि भी हैं किन्तु उनसे सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता इसलिए उनकी यहाँ विवक्षा नहीं है।
अल्पबहुत्वानुगम-इस अनुयोगद्वार के प्रारंभ में मैंने गद्यरूप में श्री महावीर स्वामी को नमस्कार किया है। इसमें भी दो महाधिकार विभक्त किये हैं।
इस अल्पबहुत्व में गुणस्थान और मार्गणाओं में सबसे अल्प कौन हैं ? और अधिक कौन हैं ? यही दिखाया गया है। यथा-
सामान्यतया-गुणस्थान की अपेक्षा से अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानों में उपशामक जीव प्रवेश की अपेक्षा परस्पर तुल्य हैं तथा अन्य सब गुणस्थानों के प्रमाण से अल्पहैं१।।२।।
और ‘मिथ्यादृष्टि सबसे अधिक अनंतगुणे हैें२।।१४।।
इस ग्रंथ में भी बहुत से महत्वपूर्ण विषय ज्ञातव्य हैं। जैसे कि-‘‘दर्शनमोहनीय का क्षपण करने वाले-क्षायिक सम्यक्त्व प्रगट करने वाले जीव नियम से मनुष्यगति में होते हैं।’’
जिन्होंने पहले तिर्यंचायु का बंध कर लिया है ऐसे जो भी मनुष्य क्षायिक सम्यक्त्व के साथ तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं उनके संयमासंयम नहीं होता है, क्योंकि भोगभूमि को छोड़कर उनकी अन्यत्र उत्पत्ति असंभव है३।’’
यह सभी सार रूप अंश मैंने यहाँ दिये हैं। अपने ज्ञान के क्षयोपशम के अनुसार इन-इन गं्रथों का स्वाध्याय श्रुतज्ञान की वृद्धि एवं आत्मा में आनंद की अनुभूति के लिए करना चाहिए।
इस ग्रंथ की टीका की पूर्ति मैंने अंकलेश्वर-गुजरात में मगसिर कृ. ७, वीर नि. सं. २५२३, दिनाँक २-१२-१९९६ को की है। इसमें पृ. १९३ हैं।
( पुस्तक ६-जीवस्थान चूलिका )
इस ग्रंथ में चूलिका के नौ भेद हैं-१. प्रकृतिसमुत्कीर्तन, २. स्थान समुत्कीर्तन ३. प्रथम महादण्डक ४. द्वितीय महादण्डक ५. तृतीय महादण्डक ६. उत्कृष्टस्थिति ७.
जघन्यस्थिति ८. सम्यक्त्वोत्पत्ति एवं ९. गत्यागती चूलिका।
इसमें क्रमश: सूत्रों की संंख्या-४६±११७±२±२±२±४४±४३±१६±२४३·५१५ है। पृ. १८७ हैं।
चूलिका-पूर्वोक्त आठों अनुयोगद्वारों के विषय-स्थलों के विवरण के लिए यह चूलिका नामक अधिकार आया है।
१. प्रकृतिसमुत्कीर्र्तन-इस चूलिका में ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकृतियों का वर्णन करके उनके १४८ भेदों का भी निरूपण किया है।
२. स्थानसमुत्कीर्तन-स्थान, स्थिति और अवस्थान ये तीनों एकार्थक हैं। समुत्कीर्तन, वर्णन और प्ररूपण इनका भी अर्थ एक ही है। स्थान की समुत्कीर्तना-स्थान समुत्कीर्तन है।
पहले प्रकृति समुत्कीर्तन में जिन प्रकृतियों का निरूपण कर आये हैं, उन प्रकृतियों का क्या एक साथ बंध होता है ? अथवा क्रम से होता है ? ऐसा पूछने पर इस प्रकार होता है। यह बात बतलाने के लिए यह स्थान समुत्कीर्तन है।
वह प्रकृतिस्थान मिथ्यादृष्टि के अथवा सासादन के, सम्यग्मिथ्यादृष्टि के, असंयतसम्यग्दृष्टि के, संयतासंयत के और संयत के होता है। ऐसे यहाँ छह स्थान ही विवक्षित हैं क्योंकि ‘संयत’ पद से छठे, सातवें, आठवें, नवमें, दशवें, ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थानवर्ती संयतों को लिया है। अयोगकेवली गुणस्थान में बंध का ही अभाव है अत: उन्हें नहीं लिया है।
जैसे ज्ञानावरण की पाँचों प्रकृतियों का बंध छहों स्थानों में अर्थात् दशवें गुणस्थान तक संयतों में होता है इत्यादि।
३. प्रथम महादण्डक-प्रथमोपशम सम्यक्त्व को ग्रहण करने के लिए अभिमुख मिथ्यादृष्टि जीवों के द्वारा बंधने वाली प्रकृतियों का ज्ञान कराने के लिए यहाँ तीन महादण्डकों की प्ररूपणा आई है।
इसमें प्रथम महादण्डक का कथन सम्यक्त्व के अभिमुख जीवों के द्वारा बध्यमान प्रकृतियों की समुत्कीर्तना करने के लिए हुआ है। विशेषता यह है कि-
‘‘एदस्सवगमेण महापावक्खयस्सुवलंभादो१।’’
क्योंकि इसके ज्ञान से महापाप का क्षय पाया जाता है।
४. द्वितीय महादण्डक-प्रकृतियों के भेद से और स्वामित्व के भेद से इन दोनों दण्डकों में भेद कहा गया है।
५. तृतीय महादण्डक-प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख ऐसा नीचे सातवीं पृथ्वी का नारकी मिथ्यादृष्टि जीव, पाँचों ज्ञानावरण, नवों दर्शनावरण, साता वेदनीय, मिथ्यात्व, अनंतानुबंधी आदि १६ कषाय, पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा इन प्रकृतियों को बांधता है इत्यादि।
६. उत्कृष्ट कर्मस्थिति-कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति को बांधने वाला जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्व को नहीं प्राप्त करता है, इस बात का ज्ञान कराने के लिए कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति का निरूपण किया जा रहा है।
७. जघन्यस्थिति-उत्कृष्ट विशुद्धि के द्वारा जो स्थिति बंधती है, वह जघन्य होती है। इत्यादि का विस्तार से कथन है।
८. सम्यक्त्वोत्पत्ति चूलिका-जिन प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशों को बाँधता हुआ, जिन प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशों के द्वारा सत्त्वस्वरूप होते हुए और उदीरणा को प्राप्त होते हुए यह जीव सम्यक्त्व को प्राप्त करता है, उनकी प्ररूपणा की गई है।
‘‘प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाला जीव पंचेन्द्रिय, संज्ञी, मिथ्यादृष्टि, पर्याप्त और सर्वविशुद्ध होता है२।।४।।’’
आगे-‘‘दर्शनमोहनीय कर्म का क्षपण करने के लिए आरंभ करता हुआ यह जीव कहाँ पर आरंभ करता है ? अढाई द्वीप समुद्रों में स्थित पंद्रह कर्मभूमियों में जहाँ जिस काल में जिनकेवली और तीर्थंकर होते हैं, वहाँ उस काल में आरंभ करता है१।।११।।’’
ऐसे दो नमूने प्रस्तुत किये हैं।
९. गत्यागती चूलिका-इसमें सम्यक्त्वोत्पत्ति के बाह्य कारणों को विशेष रूप से वर्णित किया है-
प्रश्न हुआ-‘‘तिर्यंच मिथ्यादृष्टि कितने कारणों से सम्यक्त्व उत्पन्न करते हैं ?।।२१।।
तीन कारणों से-कोई जातिस्मरण से, कितने ही धर्मोपदेश सुनकर, कितने ही जिनबिंबों के दर्शन से।।२२।।
पुन: प्रश्न होता है-जिनबिंब दर्शन प्रथमोपशम सम्यक्त्वोत्पत्ति में कारण वैâसे है ? उत्तर देते हैं-
‘‘जिणबिंबदंसणेण णिधत्तणिकाचिदस्स वि मिच्छत्तादिकम्मकलावस्स खयदंसणादो। तथा चोत्तंâ-
दर्शनेन जिनेन्द्राणां पापसंघातवुंâजरम्। शतधा भेदमायाति गिरिर्वङ्काहतो यथा२।।१।।’’
जिनप्रतिमाओं के दर्शन से निधत्त और निकाचित रूप भी मिथ्यात्वादि कर्मकलाप का क्षय देखा जाता है, जिससे जिनबिंब का दर्शन प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति में कारण देखा जाता है। कहा भी है-जिनेन्द्रदेवों के दर्शन से पापसंघातरूपी वुंâजरपर्वत के सौ-सौ टुकड़े हो जाते हैं, जिस प्रकार वङ्का के गिरने से पर्वत के सौ-सौ टुकड़े हो जाते हैं।
२१६ सूत्र की टीका में अन्य ग्रंथों के उद्धरण भी दिये गये हैं। नमूने के लिए प्रस्तुत हैं-
आत्मज्ञातृतया ज्ञानं, सम्यक्त्वं चरितं हि स:। स्वस्थो दर्शनचारित्रमोहाभ्यामनुपप्लुत:३।।
इस प्रथमखण्ड ‘जीवस्थान’ की छठी पुस्तक की टीका मैंने अपनी दीक्षाभूमि ‘‘माधोराजपुरा’’ राजस्थान में पूर्ण की है। उसमें मैंने संक्षेप में तीन श्लोक दिये हैं-
देवशास्त्रगुरुन् नत्वा, नित्य भक्त्या त्रिशुद्धित:।
षट्खण्डागमग्रंथोऽयं, वन्द्यते ज्ञानवृद्धये।।१।।
द्वित्रिपंचद्विवीराब्दे, फाल्गुनेऽसितपक्षके।
माधोराजपुराग्रामे, त्रयोदश्यां जिनालये।।२।।
नम: श्रीशांतिनाथाय, सर्वसिद्धिप्रदायिने।
यस्य पादप्रसादेन, टीकेयं पर्यपूर्यत।।३।।
मैंने शरदपूर्णिमा को वी.सं.२५२१ में हस्तिनापुर में यह टीका लिखना प्रारंभ किया था। मुझे प्रसन्नता है कि फाल्गुन कृष्णा १३, वी. नि. सं. २५२३, दि. ७-३-१९९७ को माधोराजपुरा में मैंने यह प्रथम खंड की टीका पूर्ण की है। यह टीका मांगीतुंगी यात्रा विहार के मध्य आते-जाते लगभग ३६ सौ किमी. के मध्य में मार्ग में अधिक रूप में लिखी गई है।
मैंने इसे सरस्वती देवी की अनुवंâपा एवं माहात्म्य ही माना है। इसमें स्वयं में मुझे ‘आश्चर्य’ हुआ है। जैसा कि मैंने लिखा है-
‘‘पुनश्च हस्तिनापुरतीर्थक्षेत्रे विनिर्मितकृत्रिमजंबूद्वीपस्य सुदर्शनमेर्वादिपर्वतामुपरि विराजमान-सर्वजिनबिंबानि मुहुर्मुहु: प्रणम्य यत् सिद्धान्तचिंतामणिटीकालेखनकार्यं एकविंशत्युत्तरपंचविंशतिशततमे मया प्रारब्धं, तदधुना मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्रस्य यात्राया: मंगलविहारकाले त्रयोविंशत्युत्तरपंचविंशतिशततमे वीराब्दे मार्गे एव निर्विघ्नतया जिनदेवकृपाप्रसादेन महद्हर्षोल्लासेन समाप्यते। एतत् सरस्वत्या देव्य: अनुवंâपामाहात्म्यमेव विज्ञायते, मयैव महदाश्चर्यं प्रतीयते१।’’
इस खंड में कुल सूत्र संख्या १७७±२८४±५२७±८७२±५१५·२३७५ है।
मेरे द्वारा लिखित पेजों की संख्या १६४±९०±१३१±१९०±१९३±१८७·९५५ है।
इस प्रकार ‘जीवस्थान’ नामक प्रथम खण्ड (अंतर्गत छह पुस्तकों) का यह संक्षिप्त सार मैंने लिखा है।