सुप्रभा– बहन कनकप्रभा ! आज स्वाध्याय करते हुए मैंने बहुत ही ह्रदयद्रावक एक कथा पढ़ी है,सो मैं तुम्हेँ सुनाती हूँ
कनकप्रभा– हाँ बहन ! जरुर सुनाओं ! एतिहासिक घटनाओं को सुनने से ह्रदय पर बहुत ही अच्छा प्रभाव पड़ना है और मन सहसा पाप से भीरु हो उठता है
सुप्रभा – जिस समय सीता की अग्नी परीक्षा के लिए गहरे कुण्ड में अग्नी प्रज्ज्वलित कराई जा रही थी,उसी समय कि घटना है कि अयोध्या नगरी के निकट महेन्द्रोदय नामक उद्यान में रात्रि में ध्यान में स्थित सर्वभूषण मुनिराज पर विद्युतवक्त्री नाम की राक्षसी ने घोर उपसर्ग किया था और वे मुनिराज उपसर्ग से चलायमान न होकर घाटिया कर्मों का नाश कर केवली हो गए थे ” उनके केवलज्ञान की पूजा के लिये इन्द्रादिगण वहाँ जा रहे थे कि बीच में मेषकेतु नाम के देव ने इस अग्निकुंण्ड को देखकर इंद्र से कहा कि हे सुरराज ! अकारण ही सीता सती पर यह उपसर्ग क्यों हो रहा है ? इंद्र ने कहा -मैं सकलभूषण केवली की वंदना के लिये जा रहा हूँ सो तुम यहाँ ठहरकर इस उपसर्ग का निवारण करो ” ऐसा कहकर इन्द्रादि देव चले गये थे और मेषकेतु देव ने सीता के शील के महात्म्य से प्रभावित होकर अग्नि को जल करके सीता को कमलासन पर बिठाया था
कनकप्रभा– बहन ! विद्युतवक्त्री राक्षसी ने मुनिराज पर उपसर्ग क्यों किया था ?
सुप्रभा– विजयार्ध पर्वत की उत्तर श्रेणी में गुंजा नाम के नगर में सिंह नाम का राजा था उसकी “श्री” नाम की रानी से सकलभूषण नाम का पुत्र हुआ था ” यौवनावस्था में इन सकलभूषण के आठ सौ स्त्रियाँ थीं ” उनमें किरणमण्डला रानी सबसे प्रधान थीं ” शुद्ध ह्रदय को धारण करने वाली किरणमण्डला ने किसी समय सपत्नी के कहने पर चित्रपट में अपने मामा के पुत्र का चित्र बनाया ” उसे देखकर राजा सकलभूषण सहसा क्रुद्ध हो गए परन्तु अन्य पत्नियों के कहने पर वे शंका से रहित हो गये ” पतिव्रता किरणमण्डला किसी समय अपने पति के निकट सोई हुई थीं ” प्रमाद के कारण उसने बार-बार हेमसिख का नाम उच्चारण किया जिसे सुनकर राजा अत्यंत कुपित हुआ और उन्होंने विरक्त होकर जैनेश्र्वरी दीक्षा ले ली
उधर किरणमण्डला भी साध्वी हो गईं किन्तु पति ने निर्दोष को दोषी समझकर दीक्षा ली है,इस निमित्तक संक्लेश के कारण से वह मरकर विद्युतवक्त्री नाम की राक्षसी हो गई ” वहाँ उसने कुअवधिज्ञान से अपने पति का वैर जानकर उन पर उपसर्ग करना शुरु किया ” जब सकलभूषण मुनि भिक्षा के लिए भ्रमण कर रहे थे,तब वह दुष्ट राक्षसी कुपति हो अन्तराय करने में तत्पर हो जाती थी ” कभी वह मत्त हाथी का बंधन तोड़ देती,कभी घर में आग लगा देती ” कभी घोड़ा,बैल बनकर मार्ग में बाधा देती,कभी मार्ग को कंटकों से अवरुद्ध कर देती ” कभी किसी के घर में सन्धि फोड़कर धन लाकर ध्यान में लीन मुनिराज के सामने रखकर ‘यही चोर है’ऐसा हल्ला मचाकर भीड़ इकट्ठा कर देती ” कभी आहार करके बाहर आते समय स्त्रियों का हार लाकर इनके गले में बाँधकर कहती “यह चोर है”” इस प्रकार अत्यंत क्रूर राक्षसी ने इस मुनिराज पर भयंकर उपसर्ग किये ” ये ही मुनिराज किसी समय महेन्द्रोदय उद्यान में ध्यान में लीन थे ” तब इस राक्षसी ने पूर्व बैर के संस्कार से हाथी,व्याघ्र,सिंह तथा भयंकर सर्पादि का रूप लेकर तमाम उपसर्ग किये
इन उपसर्गों को जीतकर महामना मुनिराज ने क्षपकश्रेणी पर आरोहण करके केवलज्ञान प्राप्त कर लिया था
कनकप्रभा– बहन ! इस राक्षसी ने निर्दोष मुनिराज पर इतने उपसर्ग किये इसे कितना पाप लगा होगा ?
सुप्रभा– हाँ बहन ! किसी भी मुनिराज के ऊपर उपसर्ग करने से या उनकी निंदा करने से अथवा उनकी अवहेलना,अपमान आदि करने से महान पाप का बंध होता है ” देखो ! राजा श्रेणिक ने मात्र मरे हुए सर्प को मुनि के गले में डाला था,उसी समय उनके नरक की आयु का बंध हो गया था ” ऐसे अनेकों भी उदहारण पुराणों में पढ़ने में आते हैं अतः मुनियों के प्रति कभी स्वप्न में भी अनादर का भाव नहीं करना चाहिये
कनकप्रभा– बहन !एक आर्यिका ने जैनधर्म के अनुकूल तपश्र्चरण करने पर भी राक्षस कुल के देवों में कैसे जन्म लिया ?
सुप्रभा– बहन ! मैं निर्दोष थी फिर भी मेरे पति ने मुझे दोषी समझकर दीक्षा ले ली ” ऐसा संक्लेश उनके ह्रदय में बना रहा और उसके सम्यक्त्व भी नहीं हो सका ” इसी कारण से उसे व्यंतरवासी देवों के राक्षस कुल में और स्त्री पर्याय में जन्म लेना पड़ा
यदि सम्यक्त्व रत्न की प्राप्ति हो जाती तो अवश्य ही वह आर्यिका स्त्री पर्याय को ना प्राप्त होती और न व्यंतर देवों में जन्म लेती,नियम से वैमानिक देवों में ही जन्म लेती ” अतः बहन कनकप्रभा ! अब अपने को अवश्य ही सम्यग्दृष्टि बनना चाहिये ” सच्चे देव,शास्त्र,गुरु के सिवाय किसी पर भी श्रद्धान नहीं करना चाहिये और अनेक प्रकार के संकल्प-विकल्पों को छोड़कर खूब स्वाध्याय करते हुए अपने शुद्ध आत्मा की प्राप्ति का पुरुषार्थ करना चाहिये