इस लेख में लेखक ने सूचित किया है कि उसने संघभेद एवं श्रुतावतार शीर्षक प्रबन्ध तैयार किया है। इसमें लेखक ने अनेक प्रचलित मान्यताओं से भिन्न निष्कर्ष स्थापित किये हैं। लेखक इन प्रतिक्रियाओं के परिप्रेक्ष्य में निष्कर्षों को पुष्ट/संशोधित करना चाहते हैं। प्राय: पुष्पदंत—भूतबली के षट्खंडागम की रचना को ही श्रुतावतार कहा जाता है। कोई लोहाचार्य तक ही वीर नि.संवत् ६८३ का काल मानकर बाद में श्रुतावतारकर्ता हुए,ऐसा मानते हैं तो कोई लोहाचार्य तक वी.नि. ५६५ वर्ष गिनाकर आगे अर्हद्बली—माघनंदी—धरसेन—पुष्पदंत—भूतबली ११८ वर्ष में हुए, ऐसा मानकर वीर नि. ६८३ तक श्रुतावतार हुआ था ऐसा बताते हैं।१किन्तु नंदीसंघ के पट्टावली के अनुसार— १. आ. भद्रबाहु (द्वि.) -वीर नि. ४९२ से ५१५ या ४७४ से ४९६ २. आ. अर्हद्बली (गुप्तिगुप्त या विशारद) -वीर नि. ४९६ से ५०६ अनेक अंग के धारी ३. आ. माघनंदी वीर -नि. ५०६ से ५१० अंगधर + पूर्वपदांशवेदी ४. आ. जिनचन्द्र (चंदसूरि या चंद्रनंदी) -वीर नि. ५११ से ५१८ महाकर्मप्रकृति के ज्ञाता ५. आ. पद्मनंदी (कुन्दकुन्द =·गृद्धपिच्छदि) -वीर नि.५१९ से ५७१ अंगधर+सप्तज्ञाद्धि के धारी तथा ग्रंथकर्ता ६. आ. उमास्वाति (उमास्वामी) -वीर नि.५७१ से ६१२ तत्वार्थसूत्र के कर्ता ७. आ. समंतभद्र (लोहार्य या लोहाचार्य) -वीर नि. ६१२ से ६२३ दशांगधर, ग्रंथकर्ता ८. आ. यश:कीर्ति -वीर नि. ६२३ से ६८३ प्रबोधसारादि १८ ग्रंथकर्ता +अंतिम आरातीय ९. आ. यशोदेव -वीर नि. ६८२ से ७२९ यहाँ आरातीय का अर्थ है-श्रुतनिबद्ध करने वाले अंगधर। आ. यशोदेव यद्यपि वीर. नि. ६८१ के फाल्गुन माह में पट्ट पर बिठाये गये थे, तथापि वीर नि. ६८३ के चैत्र शुक्ल पंचमी तक आ. यश:कीर्ति जीवित रहे थे। उसी प्रकार धवल या प्राकृत पट्टावली के अनुसार अर्हद्बली— माघनंदी—पुष्पदंत—भूतबली ऐसी भी परम्परा थी तथा वे वीर नि. ५६५ तक ही हो गये थे। इसमें अर्हद्बली का काल वीर नि. ४९६—५०६ तथा माघनंदी का काल वीर नि. ५०६ से ५१० तक उपर बताया ही है। अत: आगे आ. धरसेन -वीर नि. ५०९ से ५२० महाकर्म प्रकृति के ज्ञाता+ अंगधर आ. पुष्पदंत- वीर नि. ५२० से ५४० बीसदी सूत्रों के कर्ता+ अंगधर आ. भूतबली- वीर नि. ५२० से ५५० षट्खंडागम के कर्ता+ अंगधर मुनि जिनपालित-वीर नि. ५२५ से ५६५ पुष्पदंत आदि के शिष्य यहाँ उद्धृत भूतबली बांगी (या बागड़) देश के नरवाहन नाम के राजा थे तथा उनके मंत्री सुबुद्धि ही पुष्पदंत आचार्य हुए थे।३ राजा नरवाहन का राज्यकाल वीर नि. ५०९ से ५१३ तक होगा। आपने आ. अर्हद्बली से ५१४ में मुनिदीक्षा ली थी। इसी कारण ५१९ के महिमानगढ़ के मुनि सम्मेलन में दोनों गये थे और आगे इन दोनों को धरसेनाचार्य से वर्षाऋतुक अध्ययन तथा चौमासे के लिये अंकलेश्वर गमन हुआ था अत: श्रुतावतार ५२० से ५३० तक होने की सम्भावना है।
श्रुतकेवलियों का पिण्डकाल
यह काल १०० वर्ष का जो बताया जाता है, उसमें भ्रम निर्माण कर पंचम श्रुतकेवली भद्रबाहु को वीर नि. १६२ वर्ष तक ही मानना भी युक्त नहीं है। ऐसा मानने से प्रथम भद्रबाहु तथा चन्द्रगुप्त मौर्य की समकालीनता नहीं बनती, जो इतिहासप्रसिद्ध है। इसी कारण पं. कैलाशचन्द्रजी को एक काल्पनिक पट्ट परम्परा बनाकर ६० वर्ष एकादशांगधर के कम कर श्रुतकेवलियों के काल में मिलाना पड़े।४ इससे प्रथम भद्रबाहु का काल वीर नि. २२२ वर्ष तक माना तो गया किन्तु मात्र एक के लिये पूरी पट्टावली को बदल देना युक्त नहीं है क्योंकि पट्ट पर आने की दृष्टि से वह पिण्डकाल तो सही है किन्तु उनके जीवित रहने की अपेक्षा व्यक्तिश: वह मर्यादा बढ़ भी सकती है। इससे सिद्ध होता है कि आ. भद्रबाहु प्रथम ने वीर नि. १३३ में आचार्य पद तो स्वीकार किया तथा १६२ में आ.विशाख को पट्ट पर बिठाकर दक्षिण में विहार करने की अनुमति दी। हो सकता है कि इसके बाद भद्रबाहु ६०/६२ वर्ष तक जीवित रहे हों। साहित्य के साथ—साथ चन्द्रगुप्त मौर्य और भद्रबाहु प्रथम के समकाल के प्रमाण श्रवणबेलगोल के शिलालेख में विद्यमान हैं। चन्द्रगुप्त के कारण ही वहां का एक पहाड़ ‘चन्द्रगिरि’ कहा जाता है। वहां ईसवी सन् पहली शताब्दी का ब्राह्मी लिपि मेें लिखा हुआ एक शिलालेख भी पाया जाता है। उससे दोनों भद्रबाहु के वहां आने की तथा दूसरे भद्रबाहु के समय भी अकाल पड़ने की सिद्धि होती है। यद्यपि उस लेख में कुन्दकुन्दाचार्य का नाम नहीं है तथापि बोधपाहुड़ मेें ही कुन्दकुन्दाचार्य ने दोनों भद्रबाहु का उल्लेख कर उनको गुरु कहने से यह शिलालेख भी उन्हीं के कारण खुदाया जाने की संभावना अधिक है।
दिगम्बर—श्वेताम्बर संघभेद का समय
उज्जयिनी में जब वीर. नि.सं.४७४ में महावीर जयंती के दिन द्वि. भद्रबाहु जैन यति बने तब कुछ दिन बाद उनको उत्तर भारत में बारह वर्ष का अकाल पड़ने का संकेत मिला। निमित्त ज्ञान से उन्होंने जाना और घोषणा की कि इस भाग में १२ वर्ष का अकाल पड़ेगा अत: जहाँ सुभिक्ष हो वहां विहार करना चाहिये। वे स्वयं भी दक्षिणापथ में चले गये। अत: वीर. नि. ४७५ से ४८६ तक बारह वर्ष का अकाल रहा। इसी कारण इस समय वलभी (गुजरात) के जैन यतिसंघ ने वस्त्र पात्र स्वीकार किया था। जो साधु भद्रबाहु के नेतृत्व में महाराष्ट्र आये थे वे संघरूप से जुन्नर, तेर, नासिक, गोवर्धन, सोपरग, पाले, कार्ले, करजक, कान्हेरी, कल्याण, सुदर्शना, करवड़ी, मामाड (मावत), बेणाकट, नानगोल आदि जगह विहार कर रहे थे। तब इनके संघ को भद्रायनीय महासंघ कहा जाता था। अनेक सातवाहन राजाओं ने तथा मुनिभक्त श्रावक श्राविकाओं ने उस भद्रायनीय मुनिसंघ को आहार, औषधि तथा निवास का दान देकर उनका यथोचित सत्कार किया था। वीर नि. ४८७ व ४८८ में जब अच्छी बरसात हुई तब गुजरात संघ के नायक शांतिगणी ने छेदोपस्थापना करने का आदेश निकाला किन्तु संघस्थ एक सुखासीन शिष्य ने उनका ही घात कर ‘स्वतंत्र श्वेतसंघ’ की घोषणा की। ऐसे में तीन वर्ष निकल गये। वीर नि. ४९१ में जब आ.भद्रबाहु का संघ उत्तर भारत में आया तब जनता में उनका उत्साह से स्वागत हुआ तथा उनका आचार्यपद भी मान्य किया गया।८ जनता का रुख देखकर श्वेतसंघनायक जिनचन्दसूरि (या चन्द्रनंदी) ने संघ परिवर्तन कर लिया। नागार्जुन आदि साधु श्वेताम्बर संघ में ही रहे। उन्होंने वल्लभी में ही श्रुतसंकलन का प्रयत्न किया। उसी वर्ष मथुरा में भी आर्य स्कंदिल के नेतृत्व में द्वितीय श्रुतवाचना हुई किन्तु श्रुत संकलन के समय जब ‘मुनि के लिये क्या वस्त्र—पात्र का विधान होना चाहिये या नहीं?’ यह प्रश्न आया तो विवाद खड़ा हुआ और आर्यमंगु आदि मुनि उस सम्मेलन से बाहर हो गये। इस बढ़ते विरोध को रोकने के लिये उत्तर भारत में वीर नि. ४९२ में फिर से भद्रबाहु को ही गणी बनाया गया। वीर नि. ४९६ में भद्रबाहु ने जब दक्षिणापथ जाने का विचार किया तब यापनीय अर्हद्बली को आचार्य पद दिया गया। कारंजा के नंदीसंघ पट्टावली में इनकी उत्पत्ति श्वेताम्बरों में से बताई है। इनके चार शिष्य थे— (१) माघनंदी (२) चन्द्रनंदी (जिनचन्द्र) (३) वीरनंदी तथा (४) जिननंदी (जिनसेन)। अर्हदबली के जीवित रहते समय ही माघनंदी तथा जिनचन्द्र वी. नि.सं. ५१८ तक पट्टधर रहे हैं।
मुनि सम्मेलन तथा श्रुतावतार का काल
वीर नि. ५१५ में द्वि. भद्रबाहु का स्वर्गवास हुआ था और ५१८ में जब जिनचन्द्र अस्वस्थ हुये थे तब पंचवर्षीय प्रतिक्रमण हेतु तथा जिनचन्द्र का पट्टशिष्य ठहराने हेतु अर्हद्बली ने एक मुनि सम्मेलन बेणकुर या महिमानगढ (जिला सतारा) में आयोजित किया था। उस सम्मेलन में पद्मनंदी को पट्ट शिष्य चुना तो गया किन्तु उसी समय अर्हद्बली को पता चला कि भद्रबाहु के कनिष्ठ शिष्य लोहाचार्य को भद्रबाहु के पट्ट पर ५१५ में ही स्थापित किया गया है तथा वे अब जिस प्रदेश से आये उस पंजाब, सिंध देश में उनका काफी धर्मप्रभाव है और उनके ही कारण अग्रवालों में अच्छा धर्म प्रचार हुआ है अत: उस सम्मेलन में मूलसंघ का नेता पद्मनंदी को चुनने पर प्रदेश भेद के कारण आ.अर्हद्बली को एक कुन्दकुन्दान्वय संघ का चार संघों में बटवारा करना पड़ा था। इसी सम्मेलन में श्रुतसंकलन के हेतु धरसेनाचार्य को बुलाया था किन्तु वार्धक्य के कारण वे नहीं आ सके। उनकी सूचनानुसार उसी वर्ष उनके पास भूतबली+पुष्पदंत को श्रुतधारण के लिये भेजा गया। उसी वर्ष इन दो मुनियों को जो भी देना आवयश्यक था वह देकर उनको विदा किया गया और धरसेनाचार्य ने वर्षा ऋतु में ही सन्यासमरण ले लिया। अत: उनका स्वर्गवास वीर नि. ५२० से ही520से५३० तक श्रुतावतार होने की संभावना अधिक है। इसके पूर्व गुणधराचार्य ने कषायपाहुड की रचना की थी तथा उनके भी पूर्व अनुत्तरवादी आचार्य प्रभव ने प्रथमानुयोग की रचना की थी१६ तथापि जेठ सुदी पंचमी में श्रुतावतार रचना की प्रसिद्धि के कारण ही उसको प्रथम श्रुतस्कंध कहा गया और कुन्दकुन्दाचार्य के शास्त्र को द्वितीय श्रुतस्कंध माना गया। मैंने इन सब विषय का ‘संघभेद तथा श्रुतावतार’ इस शोध प्रबंध में विस्तार से खुलासा किया है। उसको प्रकाशित करने के पूर्व विद्वानों के अभिप्राय आमंत्रित हैं। सूचनानुसार प्रबंध में यदि कोई कमी हो तो उसकी पूर्ति की जा सकेगी। ऊँ, शांति।।
संदर्भ
१.जैनेन्द्र सिद्धांत कोश भाग १, पृ. ३१
२.सातवाहन आणि पश्चिमी समय यांच इतिहास आणि कोरीव लेख क्रमांक ५५, पृ. १२८
३.विबुध श्रीधर विरचित, श्रुतावतार
४. जैन साहित्य का इतिहास, पूर्व पीठिका, पृ.१५६
५.नंदीसंघ पट्टावली कारंजा तथा अंजनगांव सूर्णी
६. देवसेन आचार्य कृत भावसंग्रह, गाथा १३७ से १५२
७. देवसेन आचार्य कृत भावसंग्रह, १५३ से १५८
८.यद्यपि यह काल वि. सं. १३६ तथा १३९ बताया है तथापि अंतिम अंगधर के ११८ वर्ष उसमें कमी करने पर यही काल आता है।
९.जैन शिलालेख संग्रह, भाग २ क्रमांक ९४, पृ.३1
१०.यापनीय और उसका साहित्य— डा. पटेरिया, पृ.१९ तथा ३२
११.पं. बेचरदास कृत जैन साहित्य में विकार, पृ.४४-४५
१२.जैन साहित्य का इतिहास, ले. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री, पृ.१७