यूनानी सम्राट सिकंदर के मन में विश्व-विजेता बनने की लालसा उत्पन्न हुई। अपनी कामना पूर्ण करने के लिए वह एक चमत्कारी योगी के आश्रम में पहुंचा। यथायोग्य सेवासुश्रूषा कर उसने योगी को प्रसन्न किया। योगी ने सिकंदर के विश्व विजय होने के मनोरथ को पूरा करने का आश्वासन- आशीर्वाद दिया। मनुष्य के मनोरथ की कोई सीमा होती है भला? सिकंदर ने सोचा, यदि योगी ने मेरा यह मनोरथ पूर्ण किया तो बाद में उसके समक्ष दूसरे अन्य मनोरथों के प्रस्ताव रखूँगा। सिकंदर को आते देख योगी मुस्कराये। उन्होंने अपने योग के सहारे सिकंदर की भावी योजना को परख लिया था। योगी कुटिया में और एक मानवी खोपड़ी लाकर बोला तुम इस खोपड़ी को अनाज के दानों से भरकर मेरे पास ले आओ। यदि तुम खोपड़ी भरकर ले आए तो तुम्हारी इच्छा अवश्य पूर्ण होगी। सिकंदर उस खोपड़ी को राजमहल में ले गया और अनाज की बोरियाँ उसमें उड़ेलने लगा, पर वह खोपड़ी अंतत: खाली ही रही। सिकंदर निराश होकर योगी के पास लौट आया। योगी ने कहा, सिकंदर। तुम इतने बड़े साम्राज्य से भी संतुष्ट नहीं हो तो फिर पृथ्वी का साम्राज्य मिलने पर भी तुम इस खोपड़ी की तरह ही स्वयं को खाली अनुभव करोगे। सिकंदर योगी के रहस्य को जान चुका था। वह चुपचाप लौट गया। तृप्ति का परिणाम है संतोष। जीवन और जगत में अतृप्त सदा दु:खी रहता है जब कि तृप्त रहता है सदा सुखी। संतोषी सदा संतुष्ट और सुखी रहता है।