कमला-माताजी! सभी सम्प्रदाय के साधु-ब्रह्मचारी ही होते हैं फिर उनका त्याग उत्तम फल क्यों नहीं दे सकता?
माताजी-बेटी कमला! किसी-किसी सम्प्रदाय में कुछ साधु अपने साथ पत्नी को रखते हैं। ऐसे उदाहरण आज भी देखने को मिलते हैं और चतुर्थकाल में भी रखते थे जिनके उदाहरण शास्त्र में मौजूद हैं।
कमला-शास्त्र में तो मैंने नहीं पढ़ा। माताजी! आप कोई उदाहरण सुनाइये।
माताजी-बेटी! अभी तुमने शास्त्र स्वाध्याय कहाँ किया है! एक-दो छोटी पुस्तके पढ़ ली हैं। सुनो, मैं तुम्हें पद्मपुराण की एक घटना सुनाती हूँ। ‘‘ब्रह्मरुचि नाम का एक ब्राह्मण था। उसके कूर्मी नाम की स्त्री थी। कुछ मन्दकषाय होने से वह ब्राह्मण तापस बन गया और पत्नी के साथ ही वन में रहने लगा। वहाँ वे दोनों प्राणी फल तथा कन्दमूल आदि भक्षण करते थे। कुछ दिन बाद ब्राह्मणी गर्भवती हो गई। एक समय निग्र्रंथ मुनि अपने संघ सहित कहीं जा रहे थे, सो इधर से ही निकले, उनको थकान अधिक हो चुकी थी अत: श्रम दूर करने के लिए वे सब मुनि कुछ क्षण के लिए उस आश्रम में बैठ गये। उन मुनियों ने इन तापस दम्पत्ति को देखा, जिनका आकार तो उत्तम था पर कार्य निंदनीय था। गर्भ के भार से पीड़ित ब्राह्मणी को देखकर मुनियों के हृदय में उस तापस को धर्मोपदेश देने की इच्छा हुई। उनमें जो बड़े मुनि थे, वे उपदेश देने लगे- ‘‘हे तापस! तूने संसार-सागर से पार होने की आशा से धर्म समझकर यह वेष धारण किया है। भाई-बंधुओं को छोड़कर स्वयं अपने आपको वन के कष्टों में डाल रखा है। अरे भले मानुष! तूने प्रव्रज्या धारण की है पर तुझमें और गृहस्थ में भेद ही क्या है? तूने जो चारित्र ग्रहण किया था, उसके प्रतिकूल चल रहा है। केवल वेष ही तेरा साधु का है पर चारित्र तो गृहस्थ जैसा ही है। जो साधु एक बार स्त्री का त्याग कर दीक्षा ले लेता है और पुन: स्त्री का सेवन करता है, वह पापी है। मरकर भयंकर अटवी में भेड़िया होता है। जो सब प्रकार के आरंभ को कर रहा है, अब्रह्म और नशा का सेवन करता है, ईष्र्या और काम से जल रहा है वह अत्यन्त मोही है।
जो सुखपूर्वक उठता, बैठता और विहार करता है, सदा भोजन एवं वस्त्रों में बुद्धि लगाये रखता है, फिर भी अपने आपको सिद्ध मानता है वह मूर्ख अपने आपको धोखा देता है। जिनका चित्त एकाग्र है, ऐसे सर्व परिग्रह के त्यागी मुनि ही ध्यान करने योग्य तत्त्व का ध्यान कर सकते हैं, तुम्हारे जैसे आरंभी मनुष्य नहीं। परिग्रह के रखने से राग-द्वेष की उत्पत्ति होती है, राग से काम उत्पन्न होता है और द्वेष से जीवों का विघात होता है। जो काम और क्रोध के अभिभूत हो रहा है, उसका मन मोह से ग्रसित रहता है। वह करने योग्य और न करने योग्य कार्यों में मूर्ख रहता है, उसकी बुद्धि विवेकयुक्त नहीं रहती है। जिस प्रकार जलते हुए मकान से कोई बाहर निकल आवे और पुन: उसी में प्रवेश कर जावे तो वह मूर्ख ही कहलाता है, उसी प्रकार तू मूढ़ ही दिख रहा है। जो मनुष्य इच्छानुसार चाहे जो काम करते रहते हैं, उनके अशुभ कर्मों का ही बंध होता है और उनका इस भयंकर संसार-सागर का भ्रमण कभी समाप्त नहीं हो सकता है अत: हे साधो! यदि तुझे संसार के दु:खों से छूटने की इच्छा है, तो वैराग्य को धारण कर और स्त्री-संसर्ग, आरंभ, परिग्रह इन सबका त्याग कर।’’ इस प्रकार से सच्चे उपदेश को सुनकर ब्रह्मरुचि विचार करने लगा- ‘‘ओह! मेरा जीवन सचमुच में बड़ा कष्टकर ही है। घर छोड़कर यहाँ आकर मैंने कुटी बना ली है उससे मुझे क्या तत्त्व मिला है? देखो, इन सभी मुनियों की चर्या कितनी पवित्र है और ये कितनी सुखी हैं! अपने को भी इन्हीं का शिष्यत्व स्वीकार कर लेना चाहिए जिससे इहलोक भी निद्र्वंद्व सुखी हो, परमात्मा का ध्यान कर सकूँ तथा परलोक में भी अच्छी गति मिले।’’ ऐसा सोचकर वह ब्रह्मरुचि गुरु के श्रीचरणों में गिर पड़ा और पश्चात्ताप करते हुए बोला- ‘‘भगवन्! अभी तक मैं मिथ्यात्व के निमित्त से मूढ़ होता हुआ अपनी आत्मा को ही ठग रहा था, अब आपके प्रसाद से मुझे सच्चे धर्म का उपदेश मिला है अत: हे नाथ! हे दयासागर! अब दया करके मुझ मूढ़ का उद्धार कीजिए और मुझे यह पवित्र जिनदीक्षा दीजिए।’’ इतना कहकर वह अपनी पत्नी कूर्मी को समझा-बुझाकर उससे विरक्त हो जैनी दीक्षा लेकर गुरु के संघ में प्रविष्ट होकर उन्हीं के साथ वहाँ से विहार कर गया। कूर्मी ने भी जान लिया कि जीवों का जो संसार में परिभ्रमण होता है वह राग के निमित्त से ही होता है, ऐसा सोचकर वह मिथ्यादृष्टियों का संसर्ग छोड़कर जिनभक्ति में तत्पर होती हुई निर्जन वन में सिंहनी के समान रहने लगी। नवमास व्यतीत होने के बाद दशवें महीने में उसके पुत्र का जन्म हुआ। पुत्र के सुन्दर मुख को देखकर सन्तुष्ट होती हुई भी वह माता विचार करने लगी-
‘‘महर्षियों ने इस संसर्ग को अनर्थ का ही कारण कहा है अत: अब मैं इस पुत्र की संगति से अलग होकर अपनी आत्मा का हित क्यों न करूँ? इस शिशु ने भी पूर्वजन्म में जो शुभ या अशुभ कर्म संचित किए होंगे, उसी के अनुसार ही इसको अच्छा या बुरा फल मिलेगा। घोर अटवी, समुद्र अथवा शत्रुओं के मध्य में स्थित जीवों की अपने आपके द्वारा किये हुए कर्म ही रक्षा करते हैं, अन्य लोग नहीं। जिसका काल आ जाता है ऐसा कर्मों के अधीन हुआ जीव माता की गोद में स्थित क्यों न हो, मृत्यु के द्वारा हर लिया जाता है।’’ इस प्रकार तत्त्व का चिन्तन करती हुई तापसी ने निरपेक्ष बुद्धि से उस बालक को वन में ही छोड़ दिया। आप स्वयं अपना मन शांत करके आलोक नगर में चली गई, वहाँ आर्यिकाओं के संघ की गणिनी इन्द्रमालिनी आर्यिका की शरण लेकर उनके पास आर्यिका हो गई और उन्हीं के सानिध्य में रहकर निर्दोष चर्या पालन करने लगी। इधर जृंभक नाम के देव आकाश मार्ग से कहीं जा रहे थे। उन्होंने रोने आदि से रहित इस पुण्यात्मा बालक को देखा। नीचे उतरकर आये और बड़े आदर से उस बालक को उठाकर अपने साथ ले गये। उसका अच्छी तरह से पालन किया और युवा होने पर उसे समस्त शास्त्र पढ़ा दिये। विद्वान् होकर उस बालक ने आकाशगामिनी विद्या प्राप्त कर ली और भरी जवानी में ही अत्यन्त दृढ़ अणुव्रत धारण कर लिये।
उसने देवों द्वारा कथित चिन्हों से पहचान कर अपनी माता के दर्शन किए और अपने पिता निर्ग्रन्थ गुरु का दर्शन कर उसके निकट में सम्यग्दर्शन ग्रहण कर लिया। क्षुल्लक के व्रत ग्रहण कर जटारूपी मुकुट को धारण करता हुआ वह अवद्वार के समान हो गया अर्थात् न गृहस्थ रहा न मुनि ही किन्तु उन दोनों के मध्य का हो गया। वह कंदर्प, कौत्कुच्य और मौखर्य से अधिक स्नेह रखता था, कलह देखने का सदा इच्छुक रहता था, संगीत का प्रेमी और प्रभावशाली था। बड़े-बड़े राजा लोग उसका सम्मान किया करते थे। वह राजाओं के अन्त:पुर में बिना रोक-टोक के आता-जाता रहता था। निरन्तर कुतूहलों पर दृष्टि डालता हुआ आकाश तथा पृथ्वी पर सर्वत्र भ्रमण किया करता था। देवों ने उसका पालन किया था इसलिए उसकी प्राय: सभी चेष्टाएँ देवों के समान थीं। वह ‘देवर्षि’ अथवा ‘नारद’ होता हुआ सदा आश्चर्यकारी कार्यों को करता रहता था। यह नारद मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र के समय में हुआ है। बेटी कमला! इस प्रकार से मैंने तुझे संन्यासियों के सपत्नीक रहने की तथा नारद की उत्पत्ति की प्रामाणिक कथा सुनाई है। इस कथानक से यही अभिप्राय निकालना चाहिए कि चतुर्थकाल में भी कुछ संन्यासी स्त्रियों के साथ रहते थे। कमला-माताजी! यह कथा तो मैंने आज ही सुनी है, बहुत रोमांचकारी है और साथ ही वैराग्य बढ़ाने वाली भी है। अच्छा, एक बात तो बताइए ऐसे ‘नारद’ कितने हुए हैं? माताजी-बेटी! नारद नव होते हैं और रुद्र भी नव होते हैं, वे इस हुंडावसर्पिणी के दोष से ही जन्मते हैं, अन्यत्र क्षेत्रों में अथवा अन्य अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी में इनका जन्म नहीं होता है। बेटी कमला! तुम तिलोयपण्णत्ति, पद्मपुराण, हरिवंशपुराण आदि ग्रंथों का स्वाध्याय करो, इससे तुम्हें बहुत सा ऐतिहासिक ज्ञान प्राप्त होगा। कमला-अच्छा माताजी! अब मैं स्वाध्याय जरूर करूँगी।