पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति इन भेदों से नाना प्रकार के स्थावर जीव है, ये सब एक स्पर्शन इन्द्रिय के ही धारक हैं तथा शंख आदि दो, तीन, चार और पाँच इन्द्रियों के धारक त्रस जीव होते हैं।
पृथ्वी, जल, अग्नी, वायुकाय, औ वनस्पतिकायिक जानो।
एकेन्द्रिय स्थावर पाँच कहे, इनके सब भेद विविध मानो।।
दो इन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, औ पंचेन्द्रिय त्रस माने हैं।
जो शंख, पिपील, भ्रमर, मानव, आदिक से जाते जाने हैं।।११।।
स्थावर जीव – स्थावर नामकर्म के उदय से स्थावर, एकेन्द्रिय जाति नामकर्म के उदय से एक पहली स्पर्शन इन्द्रिय से सहित स्थावर एकेन्द्रिय जीव होते हैं। इनके पाँच भेद माने गये हैं-पृथ्वी, जल आदि। पृथ्वीकायिक जीव असंख्यातासंख्यात हैं, जलकायिक जीव असंख्यातासंख्यात हैं, अग्निकायिक जीव असंख्यातसंख्यात हैं, वायुकायिक जीव असंख्यातासंख्यात हैं तथा वनस्पतिकायिक जीव अनंतानंत हैं। इन स्थावर जीवों से यह तीनों लोक ठसाठस भरा हुआ है। इन एकेन्द्रिय स्थावर जीवों के बादर और सूक्ष्म की अपेक्षा से दो भेद भी होते हैं। बादर नामकर्म के उदय से जीव बादर होते हैं और सूक्ष्म नामकर्म के उदय से जीव सूक्ष्म होते हैं। बादर जीव आधार से ही रहते हैं किन्तु सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव सर्वत्र लोक में निराधार हैं। इन सूक्ष्म जीवों को न किसी से बाधा होती है और न इनसे ही किन्हीं जीवों को बाधा संभव है। इन जीवों का अस्तित्व मात्र सर्वज्ञ के द्वारा प्ररूपित आगम से ही गम्य है बादर जीवों का अस्तित्व तो आज वैज्ञानिक लोग भी मानने लगे हैं एवं पेड़-पौधों से जीव को सिद्ध करने लगे हैं। जैन सिद्धान्त के अनुसार इन एकेन्द्रिय जीवों में भी आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ये चारों संज्ञाएं पाई जाती हैं। ज्ञान और दर्शनमयी चेतना प्राण भी इनमें हैं अन्यथा जैनत्व का ही अभाव हो जावेगा, उसी प्रकार से इन एकेन्द्रिय जीवों में स्पर्शन इन्द्रिय, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये चार प्राण होते हैं। जब तक इन जीवों की पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं होती हैं तब तक इन जीवों के श्वासोच्छ्वास से अतिरिक्त तीन प्राण ही होते हैं। बहुत से जीव ऐसे होते हैं जो बिना पर्याप्ति पूर्ण किये ही मर जाते हैं उन्हें अपर्याप्तक कहते हैं किन्तु जिनकी पर्याप्तियाँ पूर्ण होने वाली हैं उनके पर्याप्त नामकर्म का उदय होता है। पर्याप्ति के छह भेद हैं-आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन। इनमें से आदि की चार पर्याप्तियाँ ही स्थावर जीवों में होती हैं। अपर्याप्त एकेन्द्रिय जीवों के आहार, शरीर और इन्द्रिय ये तीन पर्याप्तियाँ ही होती हैं। आहार पर्याप्ति से यहाँ कर्मवर्गणाओं को समझना चाहिए।
त्रस जीव – द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों को त्रस कहते हैं। त्रस नामकर्म के उदय से जीव त्रस कहलाते हैं। जिनके स्पर्शन और रसना ये दो इन्द्रियाँ होती हैं वे द्वीन्द्रिय त्रस हैं, जिनके स्पर्शन, रसना और घ्राण ये तीन इन्द्रियाँ हैं वे त्रीन्द्रिय त्रस जीव हैं, जिनके स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु ये चार इन्द्रियाँ हैं वे चतुरिन्द्रिय त्रस जीव हैं और जिनके स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु तथा कर्ण ये पाँचों इन्द्रियाँ पाई जाती हैं वे पंचेन्द्रिय त्रस जीव हैं। दो इन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात हैं, तीन इन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात हैं, चार इन्द्रिय जीव असंख्यातासंख्यात हैं और पंचेन्द्रिय जीव भी असंख्यातासंख्यात हैं। शंख, सीप, कृमि-जोंक, केचुआ, लट आदि दो इन्द्रिय जीव हैं। कुन्थु, चींटा, चींटी, जूँ, खटमल, बिच्छू आदि तीन इन्द्रिय जीव हैं। डांस, मच्छर, मक्खी, भौंरा, बर्र, ततैया आदि उड़ने वाले जीव चतुरिन्द्रिय जीव हैं। हाथी, घोड़े, कबूतर, मछली आदि तिर्यंच, मनुष्य, देव तथा नारकी ये सब पंचेन्द्रिय जीव हैं। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय ये तिर्यंच ही होते हैं। पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के जलचर, स्थलचर और नभचर ऐसे तीन भेद होते हैं। जल में रहने वाले मेंढक, मछली, मगरमच्छ आदि जलचर हैं, पृथ्वी पर चलने वाले हाथी, घोड़ा, सिंह, व्याघ्र आदि थलचर हैं और आकाश में उड़ने वाले कबूतर, चिड़ियाँ आदि नभचर हैं। ऐसे ही नारकी और देवों में भी अनेक भेद माने गये हैं। मनुष्यों में स्त्री, पुरुष और नपुंसकवेद की अपेक्षा तीन भेद होते हैं। आर्य-म्लेच्छ की अपेक्षा दो भेद होते हैं एवं कर्मभूमि, भोगभूमि की अपेक्षा भी भेद हो जाते हैं। ये सब भेद-प्रभेद गोम्मटसार जीवकाण्ड ग्रंथ से ज्ञातव्य हैं। संसारी छद्मस्थ जीव अतीन्द्रिय, अमूर्तिक, निज शुद्ध, परमात्म स्वभाव की अनुभूति से उत्पन्न हुए अमृतरसमयी स्वात्मसुख को नहीं प्राप्त कर पाते हैं अतएव वे तुच्छ इन्द्रिय सुख की अभिलाषा करते हैं। उस इन्द्रियसुख में आसक्त होते हुए एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि त्रस-स्थावर जीवों का घात करते रहते हैं। इसी असंयम पाप से त्रस, स्थावर योनियों में पुन: पुन: जन्म-मरण करते रहते हैं। जो भव्यजीव इन त्रस, स्थावर पर्यायों में जन्म नहीं लेना चाहते हैं, वे ही महापुरुष त्रस, स्थावर जीवों की हिंसा का सर्वथा त्याग करके महामुनि होकर निज परमात्मतत्व की भावना करते हैं, तब वे ही महामुनि क्रम से संसार परम्परा का अंत कर निर्वाण प्राप्त कर लेते हैं। जो मुनि नहीं बन सकते हैं, उनका भी कर्तव्य है कि गृहस्थाश्रम में रहते हुए त्रस जीवों के वध का तो त्याग ही कर दें, जिससे वे भी अणुव्रती श्रावक होते हुए परम्परा से मुक्ति के अधिकारी हो जाते हैं। ऐसा समझकर आपका कर्तव्य है कि जब तक मुनि और आर्यिका के व्रत न ग्रहण कर सवेंâ तब तक उनके चरणों की भक्ति करते हुए यह नियम कर लें कि हम कभी भी संयमी मुनि, आर्यिकाओं की निन्दा न करेंगे और न सुनेंगे ही, तभी आप सम्यग्दृष्टि रह सवेंगे।
पंचेन्द्रिय संज्ञि-असंज्ञी दो, इनसे अतिरिक्त सभी प्राणी।
होते मन रहित असंज्ञी ही, विकलेन्द्रिय तीन भेद प्राणी।।
एकेन्द्रिय बादर-सूक्ष्म कहे, ये सात भेद हो जाते हैं।
पर्याप्त-अपर्याप्तक दो से, ये चौदह भेद कहाते हैं।।१२।।
पंचेन्द्रिय जीव सैनी-असैनी ऐसे दो प्रकार के होते हैं, शेष सब जीव असैनी ही हैं। एकेन्द्रिय जीव बादर-सूक्ष्म के भेद से दो प्रकार के हैं। ये सभी जीव पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के होते हैं अत: चौदह जीव समास हो जाते हैं। इनका खुलासा इस प्रकार है कि- पंचेन्द्रिय सैनी, पंचेन्द्रिय असैनी, दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय ये सात हैं, इन सातों के पर्याप्त-अपर्याप्त भेद कर देने से चौदह भेद हो जाते हैं। इन्हें ही चौदह जीवसमास कहते हैं। प्रत्येक सैनी जीव के हृदय में आठ पांखुड़ी के कमल के आकार का द्रव्य मन होता है और उस द्रव्य मन के आधार से शिक्षा, वचन, उपदेश आदि क्रिया का ग्राहक भावमन होता है। ये द्रव्य और भाव दोनों प्रकार के मन जिनके पाये जाते हैं, वे सैनी जीव कहलाते हैं और जिनके मन का अभाव है, वे सब असैनी जीव हैं। देव, नारकी और मनुष्य तो सैनी ही होते हैं। तिर्यंचों में पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के दो भेद हो जाते हैं-सैनी और असैनी तथा एकेन्द्रिय से लेकर चार इन्द्रिय तक सब जीव असैनी ही होते हैं। सैनी, समनस्क और संज्ञी पर्यायवाची नाम हैं, वैसे ही असैनी, अमनस्क और असंज्ञी पर्यायवाची हैं। पर्याप्तियाँ ६ होती हैं-आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन। इनमें से एकेन्द्रिय जीवों के आदि की चार पर्याप्तियाँ होती हैं। दो इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, चार इन्द्रिय और असैनी पंचेन्द्रिय जीवों के मन रहित पाँच पर्याप्तियाँ होती हैं तथा पंचेन्द्रिय सैनी जीवों के छहों पर्याप्तियाँ होती हैं। जिन जीवों के यह पर्याप्तियाँ पूर्ण नहीं होती हैं और नियम से ही मर जाते हैं, वे अपर्याप्तक कहलाते हैं और जिनके ये पर्याप्तियाँ पूर्ण हो जाती हैं वे पर्याप्तक हैं। इन पर्याप्तियों का प्रारंभ एक साथ हो जाता है और पूर्णता क्रम-क्रम से होती है। इनकी पूर्णता में अंतर्मुहूर्त से अधिक समय नहीं लगता है अत: गर्भ में बालक के आते ही यद्यपि उसके शरीर का आकार नहीं बना है फिर भी उसमें शरीर के इन्द्रिय आदि आकारों को बनाने की शक्ति की पूर्णता का हो जाना ही पर्याप्ति की पूर्णता है अत: गर्भ में आते ही बालक के अन्तर्मुहूर्त में सभी पर्याप्तियाँ पूर्ण हो जाती हैं। जो गर्भ में ही २-३ आदि महीने के बालक का मरण हो जाता है, उसमें भी पर्याप्तक का ही मरण है न कि अपर्याप्तक का क्योंकि गर्भज मनुष्य अपर्याप्तक नहीं होते हैं, ऐसा नियम है। ५ इन्द्रिय, ३ बल, १ आयु और १ श्वासोच्छ्वास, ये १० प्राण होते हैं। पंचेन्द्रिय सैनी में १० प्राण होते हैं, पंचेन्द्रिय असैनी के मन से रहित ९ प्राण होते हैं, चार इन्द्रिय जीवों में मन और कर्णेन्द्रिय से रहित ८ प्राण होते हैं। तीन इन्द्रिय जीवों में चक्षु इन्द्रिय से भी रहित ७ प्राण होते हैं। दो इन्द्रिय जीवों में घ्राण से भी रहित ६ प्राण होते हैं तथा एकेन्द्रिय जीवों में स्पर्शन इन्द्रिय, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास ऐसे ४ प्राण होते हैं। इन जीवसमासों को समझकर क्या करना ? नाना प्रकार के विकल्प जालरूप मन को वश में करके आगम के अनुवूâल प्रवृत्ति करते हुए इन जीवों की दया पालना तथा मन को अपनी शुद्ध आत्मा के चिंतवन में लगाना यही इन जीवसमासों को समझने का सार है। आगे कहते हैं- चौदह मार्गणा तथा चौदह, गुणस्थानों युत यह संसारी। औ चौदह जीवसमासों युत, जग में संसरण करे भारी।। यह कथन अशुद्ध नयापेक्षा, इस नय से ही संसारी हैं। फिर भी सब जीव शुद्ध नय से, नित शुद्ध अवस्थाधारी हैं१।।१३।। अशुद्ध नय की अपेक्षा से चौदह मार्गणा, चौदह गुणस्थान और चौदह जीवसमासों के द्वारा ये जीव संसारी है और शुद्धनय से सभी जीव शुद्ध हैं, ऐसा समझना। अभिप्राय यह है कि जो सिद्धान्त ग्रंथों में १४ मार्गणा, १४ गुणस्थान और १४ जीवसमासों के द्वारा जीवों का वर्णन किया जाता है वह सब संसारी जीवों का वर्णन है। नयों की विवक्षा से अशुद्ध नय से ही संसार है और इस अशुद्ध नय से ही जीवों की ये मार्गणा, गुणस्थान आदि अवस्थाएं होती हैं। शुद्धनय से विचार किया जाता है तब तो सभी संसारी जीव शुद्ध हैं, सिद्ध समान हैं। मार्गणा और गुणस्थानों के भेदों से रहित मात्र दर्शन, ज्ञान, सुख और वीर्य इन चतुष्टयस्वरूप हैं। इस शुद्धनय की अपेक्षा से निगोदिया जीव तो क्या अभव्यजीव भी शुद्ध हैं, सिद्ध समान हैं परन्तु वर्तमान में तो वे दु:खों को भोग ही रहे हैं तथा अभव्य जीव तो कभी भी मोक्ष प्राप्त कर ही नहीं सकेगे अत: यह शुद्धनय मात्र जीव की शक्ति को ही बतलाता है। अभव्य जीवों में केवलज्ञान आदि शक्तिरूप से विद्यमान हैं परन्तु वे कभी भी प्रगट नहीं होवेंगे तथा भव्यों में भी किन्हीं दूरानुदूर भव्यों के अतिरिक्त शेष भव्य मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं। जब जीव अपने गुणों को प्रगट कर लेगा, कर्मों का नाश कर देगा, तभी वह अनंत सुखी बन सकेगा, उसके पहले नहीं, अत: शुद्धनय से अपनी शक्ति को पहचान कर उसे व्यक्त करने का पुरुषार्थ करना चाहिए, यही अभिप्राय है।