भव्यात्माओं! आज से लगभग २५६० वर्ष पूर्व की घटना है जब भगवान महावीर को दिव्य केवलज्ञान प्राप्त हुआ और तत्क्षण इन्द्र की आज्ञा से धनकुबेर ने समवसरण की रचना कर दी किन्तु भगवान की दिव्यध्वनि नहीं खिरी। छ्यासठ दिन तक मौनपूर्वक विहार करते हुए श्री वर्धमान भगवान जगत्प्रसिद्ध भगवान मुनिसुव्रतनाथ की जन्मभूमि राजगृही नगरी आए वहाँ जिस प्रकार सूर्य उदयाचल पर आरुढ़ होता है उसी प्रकार लोगों को प्रतिबद्ध करने के लिए समवसरणलक्ष्मी के स्वामी भगवान विपुलाचल पर्वत पर विराजमान हो गए।
जब इन्द्रराज ने देखा कि भगवान को केवलज्ञान होकर ६६ दिन व्यतीत हो गए फिर भी उनकी दिव्यध्वनि नहीं खिर रही है क्या कारण है? तब चिन्तन कर योग्य गणधर का अभाव जान सौधर्मेन्द्र इन्द्रभूति ब्राह्मण को इस योग्य जानकर उस अभिमानी को युक्ति से समवसरण में ले आया, वहाँ मानस्तंभ को देखते ही गौतम का मान गलित हो गया और उन्हें सम्यक्त्व प्रकट हो गया। समवसरण के सारे वैभव को देखते हुए महान आश्चर्य को प्राप्त उन्होंने भगवान महावीर स्वामी का दर्शन किया और भक्ति में गद्गद् होकर ‘जयति भगवान् ’ इत्यादि स्तुति करने लगे।
स्तुति करके विरक्तमना होकर उन इन्द्रभूति ने प्रभु के चरण सानिध्य में जैनेश्वरी दीक्षा ले ली तत्क्षण ही उन्हें मति-श्रुत ज्ञान के साथ ही अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञान प्रगट हो गया। वे गणधर पद को प्राप्त हो गए तभी भगवान की दिव्यध्वनि खिरी थी, तब प्रभु की दिव्यध्वनि को सुनकर उन गौतम गणधर ने ११ अंग और १४ पूर्व रूप द्वादशांग श्रुत की रचना की। उनके द्वारा रचित प्रतिक्रमणसूत्र में उन्होंने कहा-
जो सारो सव्वसारेसु, सो सारो एस गोयम। सारं झाणंति णामेण, सव्वं बुद्धेहिं देसिदो।।
अर्थात् उन्होंने स्वयं को सम्बोधित करते हुए कहा कि हे गौतम! संसार में अगर सारभूत है, तो ध्यान ही है। किसी एक विषय में चित्त को रोकना ध्यान है इसके चार भेद हैं-आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान।
दुःख से युक्त होने वाले ध्यान को आर्तध्यान कहते हैं जिसके इष्टवियोगज, अनिष्टसंयोगज, पीड़ाजन्य एवं निदान ऐसे चार भेद हैं क्रूर परिणामों से होने वाला ध्यान रौद्रध्यान है इसके हिंसानंदी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी और परिग्रहानन्दी ऐसे चार भेद हैं। धर्म से विशिष्ट ध्यान को धर्मध्यान कहते हैं इसके आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय ऐसे चार भेद हैं। शुद्धध्यान को शुक्लध्यान कहते हैं इसके भी चार भेद हैं-
शुक्लध्यान के चार भेद
१. पृथक्त्ववितर्व
२. एकत्ववितर्व
३. सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती और
४. व्युपरतक्रियानिवृत्ति।
इसमें आर्तध्यान से तिर्यंचगति मिलती है, रौद्रध्यान से नरकगति मिलती है, धर्मध्यान ही सारभूत है जो शुक्लध्यान को प्राप्त कराने वाला है और शुक्लध्यान मोक्ष को प्राप्त कराने वाला है। निर्विकल्प ध्यान को शुक्लध्यान कहते हैं जो आज सुलभ नहीं है, हाँ धर्मध्यान सुलभ है। मन को किसी एक स्थान पर टिका लेना ध्यान है।
उस ध्यान की सिद्धि हेतु गुरुओं का सत्संग, यात्रा, पंचकल्याणक प्रतिष्ठाएं की जाती हैं जितने भव्य पंचकल्याणक आदि हैं वे सब ध्यान की सिद्धि के लिए, ध्यान के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए किए जाते हैं। आत्मा की सिद्धि हेतु धर्मध्यान कारण है/सामग्री है।
इसके द्वारा हम मन को एकाग्र कर सकते हैं। मन बंदर की तरह चंचल है, किन्तु उस चंचल मन को ध्यान के द्वारा एकाग्रचित्त कर लें तो क्या होगा? हमारी आत्मा तो यहीं बैठी हैं परन्तु एक मिनट को चिन्तन किया कि मेरी आत्मा सिद्धालय में जा रही है उससे महान पुण्य का बंध हो जाएगा और वह ध्यान की सिद्धि में कारण बन जाएगा।
अपने को ऐसा काम करना है जिससे नरक आदि गति न मिले, स्वर्गादि गतियां मिलें अत: हमें सदैव धर्मध्यान का ही आश्रय लेना चाहिए। कभी किसी को इष्टवियोगज आर्तध्यान हो जाता है, तब मोह व्यक्ति को विह्वल कर देता है, ऐसे समय में अगर तीर्थयात्रा जाओ, गुरु के पास रहो तो चित्त बदलता है।
एक सेठ का अपनी पत्नी की ओर ध्यान था, अत: वह आर्तध्यान से मरकर मेढ़क हुआ। कोई किसी के प्रति विशेष प्रेम करता है तो पूर्वजन्म के संस्कार काम करते हैं, कोई किसी के प्रति विद्वेष करे तो वह भी संस्कार है। यह प्राणी आर्तरौद्रादि दुधर्यानों के माध्यम से किस प्रकार से कर्मों को भोगता है और किस प्रकार से धर्म और शुक्ल ध्यान के माध्यम से मोक्षरूपी सम्पदा को प्राप्त कर लेता है इसका एक बहुत ही रोमांचक उदाहरण मैं आपको सुनाती हूँ-
अयोध्या नगरी के सिद्धार्थ सेठ एवं जयावती की कथा
अयोध्या नगरी में प्रजापाल नामक राजा राज्य करते थे, उनके राज्य में एक सिद्धार्थ नाम के विख्यात श्रेष्ठी रहते थे जिनकी ३२ स्त्रियां थीं, किन्तु दुर्भाग्यवश उनके कोई सन्तान नहीं थी। इन ३२ स्त्रियों में जयावती नाम की स्त्री सेठ जी को प्राणों से भी अधिक प्रिय थी। वह जयावती पुत्र प्राप्ति के लिए सदा मिथ्यात्व क्रियाएँ किया करती थी।
एक बार की बात है एक मुनिराज ने जयावती को सम्बोधित करते हुए कहा कि पुत्री! तू जिनधर्म पर विश्वास रख, जैनधर्म पर दृढ़ श्रद्धा रखने से तू अपनी मनवाञ्छित वस्तु को सात वर्ष के भीतर अवश्य प्राप्त कर लेगी। मुनि के वचनों को सुनकर जयावती जिनधर्म पर श्रद्धान करने लगी। मुनि का कथन सत्य हुआ और जिनधर्म के प्रसाद से जयावती ने पुत्ररत्न की प्राप्ति की और बहुत प्यार से उसका नाम रखा ‘सुकौशल’। सुकौशल खूबसूरत होने के साथ-साथ तेजस्वी भी था।
इधर सिद्धार्थ सेठ जी विषयों को भोगते-भोगते विरक्तमना हो चुके थे, उन्हें अब क्षणमात्र भी संसार सुख रुचिकर नहीं लग रहा था किन्तु सम्पत्ति को संभालने वाला कोई न होने से लाचारीवश घर में रह रहे थे। सुकोशल के जन्म लेते ही अत्यन्त प्रसन्नमना सेठ जी पुत्र का मुख देख उसे सेठ पद का तिलक कर नयंधर नामक मुनिराज के पास दीक्षित हो गये।
नवजात बालक और प्रिय पत्नी को इतनी कठोरतापूर्वक निर्ममभाव से छोड़कर जिनदीक्षा लेने की बात सुनकर सेठानी जयावती को न सिर्फ अपने पति पर ही गुस्सा आया बल्कि नयंधर मुनि पर भी बड़ा क्रोध आया, उसे मुनि मात्र पर ही अश्रद्धा हो गयी और उसने घर में मुनियों का आना-जाना तक बंद कर दिया।
सच ही है, मोह व्यक्ति को बड़े से बड़ा दुष्कर्म भी करवा देता है इसलिए आचार्यों ने मोह को सभी कर्मों में प्रधान मानकर शत्रु की भी उपमा दी है, मोह के वशीभूत प्राणी जन्म से अंधे पुरुष के समान धर्मरूपी चिन्तामणि रत्न को भी खो देता है। सेठानी जयावती ने युवावस्था में सुकौशल का अच्छे-अच्छे घराने की ३२ कन्या रत्नों के साथ विवाह कर दिया और सुकौशल भौतिक सुखों का उपभोग करते हुए आराम से रहने लगे।
माता के अत्यधिक स्नेहवश सैकड़ों दास-दासी उसकी सेवा में उपस्थित रहते थे। सच भी है, जिनके पुण्य का उदय होता है उन्हें सब सुख-सम्पत्ति सहज में ही प्राप्त हो जाती हैं। एक बार की बात है सुकौशल अपनी माता, स्त्रियों एवं धाय के साथ अपने महल की छत पर बैठे अयोध्या की शोभा व प्रकृति का आनंद ले रहे थे तभी दूर से उन्हें कोई मुनिराज आते दिखे जो कि उनके पिता ही थे, जो अन्य नगरों से विहार करते हुए इधर आ रहे थे,
नग्न दिगम्बर मुनि को कभी न देखने वाले सुकौशल ने जब आश्चर्यचकित हो अपनी माँ से इस अजब वेष के बारे में पूछा तो जयावती की आँखों में खून उतर आया और घृणा व उपेक्षाभाव से बोली-होगा कोई भिखारी, तुझे इससे क्या मतलब? परन्तु सुकौशल उनकी सुन्दरता व तेज को देख जब बार-बार माँ से पूछने लगा तब पास में बैठी धाय सुनन्दा से अपने मालिक के लिए भिखारी शब्द सुनकर न रहा गया और वह सुकौशल को सारी बात बताने लग गई।
धाय की बात पूरी हो इससे पूर्व ही जयावती ने उसे आँख के इशारे से चुप कर दिया। वैसे तो सुकौशल पूरी बात सुन नहीं पाया था पर इतना अवश्य जान गया कि माँ ने सच बात मुझे नहीं बताई, इतने में रसोइया सुकौशल को भोजन हेतु बुलाने आ पहुँचा, किन्तु उसने भोजन से इंकार कर दिया, यहां तक कि माता व पत्नियों के कहने पर भी भोजन के लिए न जाकर बोले कि जब तक मैं उन महापुरुष का सच्चा-सच्चा हाल न सुन लूँ तब तक भोजन नहीं करुंगा।
जयावती तो सुकौशल के इस हठाग्रह से नाराज हो वहां से चली गयी पर पीछे से धाय ने सारी बात बता दी, तब दुःखी सुकौशल को वैराग्य हो गया और उसने तत्काल ही सिद्धार्थ महाराज के पास जाकर धर्मश्रवण किया और मुनिधर्म व गृहस्थधर्म का पूरा स्वरूप समझकर मुनिधर्म को अंगीकार करने की भावना से वापस घर आकर अपनी सुभद्रा नामक स्त्री के गर्भस्थ शिशु का सेठ पद का तिलककर सर्व आरंभ-परिग्रह, मोह-ममता का परित्याग कर सिद्धार्थ मुनि के पास ही जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली।
अब तो एकमात्र पुत्र के मुनि बन जाने की बात सुन माता जयावती को गहरी ठेस पहुँची और पुत्र के मोह में पागल सी दुःख और चिन्ता के मारे दिनोंदिन सूखने लगी और एक दिन इष्टवियोगज आर्तध्यान से उसके प्राण निकले अत: अशुभ भावों के कारण वह मगधदेश के मौद्गिल नामक पर्वत पर व्याघ्री हुई, जिसके तीन बच्चे थे। संयोगवश विहार करते हुए सिद्धार्थ व सुकौशल मुनि ने उसी पर्वत पर योग धारण कर लिया। योगपूर्ण कर जब ये आहार हेतु शहर की ओर जा रहे थे तब उस व्याघ्री ने इन्हें खा लिया।
दोनों पिता-पुत्र समाधिपूर्वक शरीर छोड़कर सर्वार्थसिद्धि में एक भवावतारी देव हुए। इधर व्याघ्री ने सुकौशल को खाते-खाते जब उसका हाथ खाना शुरू किया तब उसकी दृष्टि सुकौशल के हाथों के लाञ्छनों पर गई और उसे जातिस्मरण हो गया, यह सोचकर कि
‘‘ओह! जिसे मैं खा रही हूँ वह कभी मेरा प्यारा पुत्र था’’ वह आत्मग्लानि से स्वयं को धिक्कारने लगी-उस मोह को धिक्कार है जिसके वशीभूत यह जीव हित-अहित को भूल कुमार्ग में फंसकर दुःख उठाता है। इस प्रकार अपने कर्मों की आलोचना करते हुए उस व्याघ्री ने सन्यास ग्रहण कर लिया और आयु के अंत में शुभ भावों से मरकर सौधर्म स्वर्ग में देव पद प्राप्त किया।
जैनधर्म के अनुसार कर्मों का कर्ता व भोक्ता
आचार्यों ने सत्य ही कहा है कि जीवों की शक्ति अद्भुत ही हुआ करती है और जैनधर्म का प्रभाव भी संसार में बड़ा ही उत्तम है। जैनधर्म के अनुसार प्रत्येक प्राणी स्वयं ही अपने कर्मों का कर्ता व भोक्ता है, भावों की जैसी परिणति होगी, जैसा ध्यान होगा वैसी ही गति भी होगी।
देखो! इष्टवियोगज आर्तध्यान का प्रभाव, जो माता अपने पुत्र को इतना राग, इतना मोह करती थी, पहले पति की विरक्ति पुनः पुत्र की दीक्षा से दुःखी हो आर्तध्यान से शरीर छोड़ा और अशुभ भावों के कारण व्याघ्री बनकर अपने बच्चों सहित उसी पति और बेटे को खाने लग गयी पुनः जब सुकौशल मुनि के हाथों के लाञ्छन देख पूर्वजन्म का ज्ञान हुआ तो आत्मग्लानि से अपने कर्मों की निन्दा करती हुई
सन्यास ग्रहण कर शुभ भावों से मरकर स्वर्ग गयी और धर्मध्यान का प्रभाव भी देखो कि उन सिद्धार्थ व सुकौशल मुनि ने इस घोर उपसर्ग को सहन करते हुए आत्मचिंतन में लीन हो शरीर से ममत्व भाव को छोड़ा और सर्वार्थसिद्धि में देव हुए। वास्तव में संसार में भावों की बड़ी महिमा है, कहां तो आर्तध्यान से तिर्यंचगति और कहां धर्मध्यान से सर्वार्थसिद्धि में एक भवावतारी देव बनकर सिद्धपद की प्राप्ति। आचार्य श्री पद्मनन्दि ने पद्मनन्दिपंचविंशतिका नामक ग्रंथ में आत्म चिन्तवन के बारे में बताते हुए कहा है कि-
जिस प्रकार श्रेष्ठ तथा ज्ञानस्वरूप चैतन्य के बिना समस्त मौजूद पदार्थ भी नहीं मौजूद के समान हैं और जिस चैतन्य के होने पर समस्त पदार्थों का प्रगट रीति से प्रतिभास होता है उसे ज्ञानस्वरूप आत्मारूपी ज्योति की भव्यजीवों को अवश्य आराधना व उपासना करनी चाहिए। आचार्यों ने परम ध्यान का लक्षण बताते हुए कहा है-
तुम कुछ भी तन की चेष्टा को, मत करो वचन भी मत बोलो। मन से भी चिंतन कुछ न करो, जैसे होवे स्थिर हो लो।।
इस विध जब आत्मा-आत्मा में, स्वयमेव लीन हो जाता है। तुम समझो जग में यही ध्यान, बस सर्वश्रेष्ठ कहलाता है।।
भव्यात्माओं! आप लोगों को भी संसार में रहते हुए गृहस्थ धर्म का संचालन करने के साथ-साथ अपनी आत्मा को परमात्मा बनाने का पुरुषार्थ करना चाहिए। यदि आपने कुछ क्षण को भी अध्यात्म भावना का चिन्तन कर लिया तो निश्चित ही आज का किया हुआ
लघु चिन्तन भी आने वाले समय में आपके पूर्ण आत्मचिन्तन में सहायक होगा और आपकी आत्मा को परमात्मास्वरूप पद प्रदान करने में भी सहायक होगा अतः आप सभी भव्यजीव २४ घंटे में कुछ क्षण के लिए ही शुद्धात्म स्वरूप का चिन्तन करें कि मेरी आत्मा सिद्ध स्वरूपी है, चित्चैतन्य चिदानन्द स्वरूपी है और सिद्धस्वरूपी है। यह आत्मचिन्तन, देव-शास्त्र-गुरु की भक्ति आपको चरम लक्ष्य तक पहुँचावे यही मंगल आशीर्वाद है।