संस्कार शब्द चमकना, कांतिसूचक अर्थ में है। वह बाहरी या शोभा का द्योतक है जिससे मनुष्य की रहनसहन, भावना बुद्धि, व्यक्तित्व समाज में दीप्तिमान हो उठे। जिस शिक्षा से मनुष्य का हित करने, एकता तथा सामंजस्य बनाने, दीन-दरिद्र, असहाय-अनाथ को यथायोग्य सब प्रकार का सहयोग करने के विचार उत्पन्न होते हैं। आध्यात्मिक गुणों का विकास होता है। उस शिक्षा को संस्कार कहते हैं। दोषों को दूर करके गुणों का ग्रहण करना ही संस्कार है। अपने देश, कुल एवं ऐतिहासिक पुरूषों की संस्कृति, उत्तम परंपराओं को जीवित रखना ही संस्कृति है। जीवों में पाये जाने वाले संस्कार १. असंस्कार २. कुसंस्कार ३. सुसंस्कार ४. पूर्वोपार्जित संस्कार ५. कुल परंपरागत संस्कार ६. माता-पिता द्वारा प्रदत्त संस्कार ७. संगति से प्राप्त संस्कार ८. गुरुप्रदत्त संस्कार। १. असंस्कार- संस्कार विहीन अवस्था असंस्कार है। २. कुसंस्कार- जिन कार्यों से जीवन पतित होता है जैसे- जुआ खेलना, शराब पीना, मांस खाना, परस्त्री सेवन करना, वेश्यागमन, शिकार खेलना, चोरी करना ये सप्त व्यसन और आत्मिक पतन करने वाली आदतें कुसंस्कार कहलाती हैं। कुसंस्कार से जीव अधोगति–नरकगति को प्राप्त होता है। ३. सुसंस्कार- श्रेष्ठ संस्कारों को सुसंस्कार कहते हैं। जिन कार्यों को करने से स्वयं का और दूसरे का हित हो ऐसे कार्यों का करने को भावना रखना सुसंस्कार है। परोपकार, दया, करुणा, देशहित, पापनिवृत्ति और अच्छे कार्यों में प्रवृत्ति रखना यही सुसंस्कार है। जो कार्य इस लोक में सुख-शांति देने वाले हैं और परलोक में ऊर्ध्वगामी (मनुष्यगति, देवगति, मोक्षगति) बनाने वाले हैं वे सब सुसंस्कार हैं। आजतक लोक में जितने महात्मा, संत, महापुरुष चाहे वे लौकिक क्षेत्र में हो या धार्मिक, सामाजिक क्षेत्र में या देशहित के क्षेत्र में हो उत्तम श्रेष्ठ संस्कारों से सुसंस्कारित ही हुए हैं। चाहे कोई व्यक्ति निर्धन ही क्यों न हो उसके पास अच्छे संस्कार हो तो अच्छे धनाढ्यों के बीच में सन्मान को प्राप्त करता है। पूर्वोपार्जित संस्कार पूर्वभव में किये गये कर्मों के फल प्राप्त पाप और पुण्य प्राप्त आदतें पूर्वोपार्जित संस्कार हैं। सहज रूप से किसी व्यक्ति का धर्म या कार्य विशेष में रुचि होना पूर्वोपार्जित संस्कार है। पूर्वोपार्जित स्नेह और प्रेम के कारण ही राम-लक्ष्मण, सीता-राम, कृष्ण-बलभद्र, रुक्मिणी-प्रद्युम्न आदि का आपस में अपूर्व स्नेह था। इसी प्रकार रावण का लक्ष्मण से, कमठ का पाश्र्वनाथ से, कंस का कृष्ण से, तथा कौरवों का पांडवों से सहज द्वेष और वैर परिणाम था। जब एक तिर्यंच एवं व्रुर जीव भी अपने पूर्वोपार्जित दुष्ट संस्कारों को पुरुषार्थ करके तोड सकता है तो फिर हम तो मानव हैं। क्या हम खोटे संस्कारों को नहीं तोड सकते ? लेकिन इसके लिए दिशा-निर्देशन और दिशा निर्देशक सही हो। सच्चे सुख का मार्ग दिखानेवाला सही मार्ग दर्शक हो।
मातापिता आदि के कुल से आये हुए संस्कार कुलपरंपरागत संस्कार कहे जाते हैं। जैसे- सिंह में व्रूरता और मांसाहार के संस्कार कुल से ही प्राप्त होते हैं। ==
माता पिता अपने बच्चे को विशेष रूप से संस्कार किस समय और किस प्रकार देते हैं यह जानना अति आवश्यक है।जब गर्भ में जीव आता है तब माता का कर्तव्य है तीसरे महीने में, छठे महीने में और नौवे महीने में शास्त्रोक्त विधि से गर्भ संस्कार विधिवत करें। गर्भ-संस्कार की किताबें हर जगह उपलब्ध हो रही है। रामायण पढ़े। शांतिनाथ भगवान का चरित्र, महावीर भगवान का चरित्र, त्रेसठ शलाका पुरुषों का चरित्र रोज पढ़ें। सात्त्विक भोजन करें। अच्छा साहित्य पढ़े। रोज देवदर्शन करें। निर्मल पवित्र विचारों से मन, वचन और काया को शुद्ध करें। प्रवचन सुनें इससे गर्भस्थ शिशु पर अच्छे संस्कार होते हैं। बालक या बालिका एक साल की हो जाए उसे नहाने के बाद भगवान का दर्शन कराकर णमोकार मंत्र और दर्शन पाठ सिखाना। ४/५ साल का हो जाए तो उसे राम, हनुमान, ध्रुव-श्रावण बाल की कहानी सुनाएँ। ४/५ साल का बालक कहानी समझता है। ६/७ साल का हो जाए तो बालबोध पहला दूसरा भाग पढ़ाना। घर में प्रतिमा हों तो सामने बिठाकर अभिषेक करना। आरती के समय उसे साथ में लेकर आरती करना। १० साल का हो जाए तो भक्तांबर पाठ जैसे छोटे स्तोत्र रोज पढ़ने से और बोलने से मुखोद्गत हो जाते हैं। धीरे-धीरे स्वाध्याय करने में प्रवृत्त करना।उसे धार्मिक संस्कारों के साथ पाप-पुण्य, अच्छा-बुरा, अपना हित-अहित किसमें है यह समझाना बहोत आवश्यक है। झूठ नहीं बोलना, किसी की चीज नहीं उठाना, सबका आदर सम्मान करना ये सब बातें उन्हें बचपन से ही सिखायें तो बचपन में किये गये संस्कार बालक जिंदगीभर नहीं भूलते। विनयशील, सुसंस्कारी बालक अपना भविष्य उज्ज्वल बनाकर अपने कुल की गरिमा बनाएँ रखता है और अत्यंत महानता को प्राप्त करता है। परोपकारी, दयालु, महान आत्मा होता है। संगति से प्राप्त संस्कार सत् संगति और सत् साहित्य भी व्यक्ति के जीवन को परिवर्तित करने में समर्थ है। व्यक्ति में यदि सत् साहित्य पढने की रुचि हो तो कभी जीवन से ऊब नहीं आ सकती है। क्योंकि सत् साहित्य पढ़ने से समस्याओं का समाधान सहज रूप से मिल सकता है। भगवान मुँह से बोलकर कुछ नहीं कहते, गुरुओं का समागम हमेशा नहीं मिलता लेकिन जिनागम ऐसी चीज है, जो दिनरात मार्गदर्शन देने में समर्थ होती है। मूड कितना भी खराब हो, वेदना हो रही हो, नींद नहीं आ रही हो, कोई भारी तनाव महसूस हो रहा हो, अच्छा साहित्य पढ़ने बैठ जाओ तो सब बातें समाप्त हो जाएंगी। वह जीवन से हारकर कभी आत्महत्या का विचार नही कर सकता है। मन को नयी दिशा मिल जाएगी। सब जीवों के प्रति क्षमाभाव, समताभाव जागृत होगा। सामाजिक और आध्यात्मिक दृष्टि से भी सत् साहित्य आपका सही मार्गदर्शक होगा। ऐसे अनेक दृष्टांत इतिहास में और वर्तमान में भी दिखाई देते हैं जिन्होंने सत् साहित्य या श्रेष्ठ सज्जनों की, महान संतों की संगति पाकर या उपदेश प्राप्त करके अपने कौडी (निर्मूल्य) जैसे जीवन को हीरे के समान बहुमूल्य या अमूल्य बना दिया। उदा. वाल्या कोली का वाल्मीकि ऋषि बन गया। सब जानते हैं अंगुलीमाल का उदाहरण। सत् संगति से सप्त व्यसनधारी जीव भी दीक्षा लेकर आत्मा का कल्याण कर सकता है। उदा. प.पूज्य पायसागर जी मुनिराज। प.पूज्य आचार्य श्री शांतिसागर महाराज के सान्निध्य में आकर मुनिदीक्षा लेकर अपने आत्मा का उद्धार किया।
‘‘कुदली सीप भुजंग मुख ख्याति एक गुण तीन। जैसी संगति बैठिये तासों ही फल दी न।।’’
जिस प्रकार पानी की बूंद स्वाती नक्षत्र समय सींप में गिरती है तो मोती का रूप धारण करती है। वही बूँद केले के वृक्ष में गिरकर कपूर और सर्प के मुख में जहर बन जाती है। ==
आप बच्चों पर परोपकार के संस्कार अवश्य डालें। क्योंकि परोपकार से दूसरे का उपकार हो या ना हो स्वयं का उपकार सहज रूप से हो जाता है। वैज्ञानिकों का मत है कि परोपकार करने से व्यक्ति के मस्तिक में अल्फा तरंग, बिटा तरंग और धीटा तरंग आदि अच्छी तरंगे निकलती हैं। इन तरंगों के कारण सेवाभावी व्यक्ति हमेशा प्रसन्न, प्रभावशाली एवं चुंबकीय शक्ति से युक्त हो जाता है। इसलिए अच्छी भावनाओं से रोगनिरोधक श्वेत-रक्तकणों की संख्या बढ़ती है। तथा उसके चारों ओर प्रभावशाली प्रभामंडल बन जाता है जिससे रोग प्रवेश नहीं कर पाते हैं। अपनी लेश्या शुभ होती है। परोपकार करने से सातिशय पुण्य का बंध होता है। और पूर्वोपाजित पाप का क्षय होता है। मेरा खुद का अनुभव है, मैने अपने बच्चों पर सुसंस्कार और धार्मिक संस्कार किये हैं। आज दोनों बेटे परिवार में और बाहर समाज में भी उनके गुणों के कारण सब जगह, सबके अत्यंत प्रिय और आदर्श हो गये हैं। जैन धर्म और तीर्थंकरों के प्रति असीम श्रद्धा और गुरुओं के प्रति भक्ति उनके हृदय में भरी है। सब जीवों के प्रति प्रेमभाव और आप्तजनों को हमेशा मदद करने के लिए तत्पर रहते हैं। दया, करुणा, स्वहित और परहित करना पाप निवृत्ति और अच्छे कार्यों में प्रवृत्ति करना इन सब गुणों के कारण आज सब उनका आदर करते हैं। उन्हें आदर्श मानते हैं। जीवन में माँ के बाद गुरु ही होते हैं जिनसे ज्ञान की प्राप्ति होती है। गुरु की संगति से जीवन में परिवर्तन होता है। सम्यकत्व की प्राप्ति होती है। रोज हम अखबार में आत्महत्या की खबरें पढते हैं। सुनते हैं। धैर्य, साहस, सहनशीलता इन गुणों का अभाव होने से, भौतिक और लौकिक शिक्षा के साथ नैतिक और धार्मिक संस्कार युवा पीढी को मिलेंगे तो वे किसी भी संकट या परेशानी की घडी में, प्रतिकूल परिस्थिति में अपना धैर्य और आत्मविश्वास बनाये रखेंगे और मनुष्य जन्म को सार्थक करेंगे। इंटरकास्ट मोरेज आज समाज की समस्या बन गयी है। अपने जैन समाज में भी इंटरकास्ट मेरेज ज्यादा हो रहे है। इसलिये माता-पिता खुद संस्कारी होंगे तो बच्चे भी संस्कारी होंगे तो युवक या युवती ऐसा गलत कदम नहीं उठाएँगे, जिससे मातापिता को दुख पहुँचे। धर्म की रक्षा होगी। बेटा जब घर छोड़कर पढ़ने के लिए या जॉब के लिए बाहर जाता है देश के बाहर जाता है और बेटी शादी करके जीवनभर के लिए पति के घर जाने हेतु माता-पिता से विदा लेती है तब कैसे संस्कार देने चाहिए ये अति महत्त्वपूर्ण है। वैसे माँ का बेटे पर पूरा विश्वास रहता है कि मेरा बेटा कभी किसी प्रकार का गलत कार्य नहीं कर सकता। फिर भी संगति से और धन के यौवन के मद में बेटा आपको भूल सकता है। इसलिए समझदार माँ बेटे को कुछ ऐसे सूत्र देती है जिसके माध्यम से बेटा धर्म सदाचार, एवं कुल प्रतिष्ठा को बनाएँ रखता है। जैसे महात्मा गांधीजी विलायत जा रहे थे तब उनकी माँ पुतलाबाई ने उनसे तीन बातें कही थी। कभी शराब तथा अंडे को नहीं छूना। किसी भी कुंवारी या विवाहित लडकी को नहीं छेडना। यदि इनमें से एक भी काम कर लो तो लौटकर घर मत आना। इन सूत्रों ने गांधीजी को राष्ट्रपिता बना दिया। क्योंकि इन सूत्रों का पालन करने में उन्हें बहुत परीक्षाएँ देनी पड़ी थी। लेकिन माँ के उपदेश ने और इन सूत्रों ने उन्हें पतित होने से बचा लिया। इसी प्रकार जब लडकी ससुराल जाती है तो माता-पिता उसे विशेष शिक्षाएँ देते हैं। बड़ों की बात को नहीं टालना, नम्रतापूर्वक रहना। बड़ों के प्रति सम्मान तथा छोटों के साथ वात्सल्य रखना। घर की आर्थिक स्थिति देखकर खर्च करना। पति-पत्नी के परस्पर व्यवहार की चर्चा नहीं करना। घर की बात बाहर नहीं करना। बड़ों के सोने के बाद सोना, उनके खाने के बाद खाना। पड़ोसी, मेहमान एवं कुटुंबीजन के साथ सद्व्यवहार करना। सुसंस्कारी लड़की अपने स्नेहमय आचरण से घर को स्वर्ग बना देती है। परिवार, पति को सुखी बनाती है। अपने कुल की मर्यादा का पालन करती है। सबके दिल में अपनी जगह बनाती है। जीवन में सुसंस्कार का अत्यंत महत्त्व है ! घर, समाज, देश, राष्ट्र, सदाचार और नीतिमत्ता से ही अपनी उन्नति कर सकता है। धर्म का पालन करके ही सर्वश्रेष्ठ बन सकता है।