हमारे प्राचीन आचार्यों ने मोक्ष मार्ग के लिये छ: बाह्य (अनशन, अवमोदार्य, वृत्ति परिसंख्यान, रस परित्याग, विविक्त शय्यासन, काय क्लेश तथा छ: अन्तरंग (प्रायश्चित, विनय, स्वाध्याय, वैयावृत्ति, व्युत्सर्ग, ध्यान) तपों का मार्ग बताया है।१ इनमें स्वाध्याय को भी एक अन्तरंग तप माना है। स्वाध्याय तप के अन्तर्गत वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा (चिन्तन), पाठ और धर्मोपदेश को सम्मिलित किया गया है। इस प्रकार नित्य स्वाध्याय तप की आराधना को मोक्ष का मार्ग बताया है। जीवन के अन्तरंग निखार के लिये इसे अति आवश्यक तप कहा गया है। यदि स्वाघ्याय आवश्यक है तो उसके लिये शास्त्रों की रचना भी आवश्यक थी। इसीलिए हमारे आचार्यों ने मानव के अध्यात्मिक विकास के लिये शास्त्रों का लेखन किया। इन शास्त्रों के मूलरूप को पांडुलिपी कहा जाता है तथा इसकी विभिन्न प्रतियों को प्रतिलिपि कहा जाता है। इन्हीं पांडुलिपियों में हमारी संस्कृति की व्यापक झलक देखने को मिलती है। अत: इनके संरक्षण की आवश्यकता है। इस प्रकार स्वाध्याय के लिये शास्त्र तैयार किये और ये मानव जीवन में कल्याण का कार्य कर सके इसके लिये स्वाध्याय तप को आवश्यक बताया। हम कितनी महान संस्कृति के लोग है जिसमें स्वाध्याय करने को भी तप की आराधना कहा गया है।
स्वाध्याय कर्म
मोक्ष मार्ग के लिये न केवल तप की आवश्यकता है बल्कि गृहस्थ जीवन के लिये ६ दैनिक कर्म ( देव पूजा, गुरु उपासना, स्वाघ्याय, इन्द्रिय संयम, तप, दान, ) भी आवश्यक बताये है।२ इन ६ कर्मों में भी तीसरा कर्म स्वाध्याय का है। अत: आवश्यक कर्मों के उपादान के लिये भी शास्त्रों की आवश्यकता हुई और इसीलिए शास्त्र, साहित्य आदि की रचना की गई।शास्त्रों की उपयोगिता तथा निरन्तर आपूर्ति बनी रहे इसके लिये गृहस्थ के लिये जिन चार प्रकार के दानों की चर्चा की गई हैं उसमें शास्त्रोंं के दान का भी उल्लेख मिलता है। इस प्रकार हमारे श्रेष्ठ आचार्यों ने शास्त्रों तथा स्वाध्याय को तप, कर्म तथा दान से जोड़कर इसे न केवल महत्वपूर्ण बना दिया बल्कि उसे सतत् जारी रहने वाली क्रिया बना दिया। हमारी संस्कृति में इन पांडुलिपियों का बहुत ही महत्व है। हमारे आचार्यों ने, श्रेष्ठियों ने,श्रावकों तथा सन्तों ने इन पांडुलिपियों से हमारे ज्ञान के भंडार में वृद्धि की है। इनमें कई मंत्रों र्के रूप में, कई चित्र कथाओं के रूप में स्तोत्रों के रूप में तथा कुछ सूत्रों के रूप में भी उपलब्ध है। इनकी आराधना से जीवन को निखार जा सकता है। कई कथा चित्रों को बाद में लिपिबद्ध किया गया होगा। इससे इनकी व्याख्याओं में विभिन्नता आना स्वाभाविक है। अत: इस प्रकार के कार्यों में उच्च कोटि का सम्पादन भी आवश्यक है।
धर्म और सम्प्रदाय
इन प्राचीन पांडुलिपियों में हमारी संस्कृति तथा धर्म की जो जानकारी मिलती है उसके अनुसार धर्म कभी भी नकारात्मक नहीं बल्कि सकारात्मक ही हो सकता है। यह जाति, समाज अथवा राष्ट्र मूलक भी नहीं हो सकता है। कोई भी धर्म किसी जाति विशेष अथवा राष्ट्र के उत्थान के लिये नहीं बना है। वह तो सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण ही क्यों समस्त जीव तथा पर्यावरण के विकास के लिए बना है अत: किसी जाति, समाज तथा राष्ट्र विशेष के विकास को धर्म से जोड़ना गलत है। धर्म का लक्ष्य मानव कल्याण है और उसके अधीन अलग—अलग सम्प्रदाय हो सकते हैं। सभी सम्प्रदायों का लक्ष्य एक ही है अत: ये सभी धर्म समत् हैं तथा एक ही धर्म के अधीन हैं। इन सम्प्रदायों में विभिन्नता स्वाभाविक है क्योंकि ये जाति विशेष अथवा समाज विशेष की आवश्यकता और परिस्थितियों के अनुकूल बनाये गये हैं। लेकिन फिर भी इनमें विभिन्नता के बावजूद भी ये विरोधाभासी नहीं हैं क्योंकि सभी एक ही धर्म के अन्तर्गत हैं। अत: अलग—अलग सम्प्रदाय होना मेरे विचार से अस्वाभाविक नहीं है क्योंकि सभी एक ही धर्म के अन्तर्गत कार्य करते हैं। अत: इनके प्रति सभी का सम्मान, स्नेह तथा प्रेम होना चाहिये। वास्तव में सम्प्रदाय एक प्रकार से मार्ग है एक ही मंजिल पर पहुँचने के लिए जिस प्रकार अलग—अलग मार्ग हो सकते हैं ठीक उसी प्रकार से मोक्ष मार्ग की प्राप्ति के लिये अलग—अलग सम्प्रदाय बन सकते हैं। हो सकता है मेरा मार्ग आपके घर के सामने से गुजरे । केवल मार्ग की स्थिति के कारण ही यह अच्छा अथवा बुरा नहीं हो सकता है तकलीफ जब होने लगती है जब मुझे मेरे घर के पास से गुजरने वाले मुझे अच्छे नहीं लगे। हमारी इसी प्रवृत्ति के कारण विरोधाभास की स्थिति उत्पन्न होने लगती है। हमें अपने सम्प्रदाय को श्रेष्ठ बताने की बजाय दूसरे सम्प्रदाय के प्रति प्रेम, स्नेह तथा सम्मान भाव प्रकट करना चाहिये। यही हमारी संस्कृति है इसीलिये यह देश कई संस्कृतियों का संगम स्थल बना हुआ है।आज इन विराट संस्कृतियों के सरंक्षण की आवश्यकता है। इन्हीं संस्कृतियों में मानव के भौतिक जीवन तथा अध्यामित्मक दशा के विकास के मार्ग तथा तरीके विद्यमान है। आज इनको समझने, खोजने तथा अंगीकार करने की आश्यकता है।
सामाजिक समस्यायें और संस्कृति
कुछ लोग हमारी सांस्कृतिक विरासत पर संदेह करने लगे है। भारत में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा धन कमाने के अनैतिक तरीकों की व्यापकता को कमजोर संस्कृति का कारण मानने लगते हैं। उनका मानना है कि गरीबी, बेरोजगारी , अशिक्षा, नारी शोषण आदि से भरमार इस राष्ट्र की संस्कृति कैसे महान हो सकती है? संस्कृति से इस प्रकार के निष्कर्ष निकालना सरासर गलत तथा भ्रामक है। संस्कृति स्थान, जाति तथा राष्ट्र शून्य होती है। किसी राष्ट्र अथवा जाति की उन्नति अथवा अवनति को सांस्कृतिक परिवेश से जोड़ना उचित नहीं है। हमारे यहाँ लोग किसी राष्ट्र की तुलना में कम नैतिक नहीं हैं। आज भी हमारे यहाँ कई आदर्शों और श्रेष्ठों को देखा जा सकता है, अनुभव किया जा सकता है। सामाजिक बुराईयों का कारण राजनैतिक और आर्थिक नीति में देखना चाहिये।
बाजारवाद तथा उपभोक्ता
वास्तव में तीव्र औद्यौगीकरण तथा पश्चिम के बढ़ते बाजारवाद ने सब को अधिक भौतिकवादी बना दिया है। आज बाजार उपभोक्ता वस्तुओं से भरे पड़े हैं। विव्रेता किसी भी तरह आकर्षक योजना अथवा उपहार देकर अपनी वस्तु बेचना चाहता है। और उपभोक्ता भी वस्तुओं के प्रति लालायित होकर उसे प्राप्त करना चाहता है। कई बार तो वह अपनी क्षमता से अधिक प्राप्त कर लेता है और फिर ऋण जाल मेंफस जाता है। ‘व्रेडिट कार्ड’ के माध्यम से भी उपभोक्ता को बाजार ‘उधारी के जाल’ में फसाने का भरसक प्रयास कर रहा है। ऐसे वातावरण में हम भी अपने उपभोग के स्तर को ऊँचा उठाने के लिये आय अर्जन के नये—्नाये तरीके खोजने में लग गये हैं। अब कार्य के घंटो की कोई सीमा नहीं है। १०—१२—१५ घंटे कोई सीमा नहीं। सभी तरफ कमाने—कमाने का बोल है। इस कुचक्र में कुछ सफल हो जाते हैं और कुछ उच्च आय की मरीचिका में फस जाते हैं। जों कुछ भी सफल हुये हैं उन्होंने अन्य की आय पर अतिक्रमण किया होगा? कैसा विकास ? सब अधिक से अधिक हथियाना चाहते हैं। ऐसे में उसके पास संस्कृति के बारे में सोचने या धर्म का आचरण करने का समय ही कहाँ रह जाता है। इस बाजार मूलक विकास ने व्यक्ति को मात्र अर्थव्यवस्था का उपभोक्ता बनाकर रख दिया है। ऐसे में कैसे हम मानव के भावनात्मक तथा अध्यामिक विकास की कल्पना कर सकते हैं। आज न हम प्राकृतिक सम्पदा के उचित विदोहन की सोचते हैं और न ही पर्यावरण के रख—रखाव की चिन्ता करते हैं। जीव मात्र के प्रति हमारी करूणा कहाँ मर गई है? आज अधिक दूध प्राप्त करने के लिये गायों को लेक्टोजन का इन्जेक्शन लगाते हैं जिससे उसकी आयु को भी दाँव पर लगा देते हैंं अभी तो वैज्ञानिक ने यह हरी सब्जियों में भी लगाने लगे हैं। कहते हैं इससे सब्जी का आकर जल्दी बढ़ता है। ये केमीकल सब्जी के माध्यम से हमारे शरीर में जा हरा है। कभी नहीं सोचते कि उसका क्या दुष्परिणाम होगा ? कैसा विकृत विकास? पर्यावरण, प्रदूषण, मिलावट आदि के कर्इं उदाहरण हम आये दिन समाचार पत्रों में देखते हैं। लगता है बाजारवाद तथा बढ़ते हुए मुद्रास्फीति के दबाव में हम विकास का अर्थ ही भूल गये हैं।
बाजारवाद आर्थिक संकट
वास्तव में बाजारवाद में आर्थिक विकास की दर को बढ़ाने की प्रतिस्पर्धा ने विश्व अर्थ व्यवस्था को कई संकटों में पँâसा दिया है। कभी एशियाई देशों की अर्थ व्यवस्था को तो कभी इण्डोनेशिया तथ अर्जेंटीना की अर्थ व्यवस्था को धराशायी होते देखा है।संकट तथा संधर्ष ने भीमकाय अमेरिकन अर्थ व्यवस्था को भी नहीं छोड़ा है। पिछले लगातार तीन वर्षों से वह भी आर्थिक मन्दी से ग्रस्त है। बेरोजगारी की बढ़ती दर से वह भी चिन्तित है। अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवाद से वह भी नहीं बच सका। सम्नपन्न, शक्तिशाली तथा शोषण से बचने के लिये कई राष्ट्रों को आर्थिक संघ बनाने को मजबूर किया है। यह नया आर्थिक दर्शन किस प्रकार की राजनैतिक तथा सामाजिक अर्थ व्यवस्था को जन्म देगा इसकी कल्पना अभी करना कठिन है। संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी संस्था भी अप्रभावी हो गई है। आर्थिक उथल—पुथल, अनिश्चितता, भय जनित विकास को कैसे आदर्श विकास कहा जा सकता है।
विकास का सही माप
वास्तव में आज विचारक विकास की सही परिभाषा खोजने में लगे हुये हैं। प्रति व्यक्ति आय बढ़ जाने अथवा उपभोग के लिये ज्यादा वस्तुओं को प्राप्त कर ेलेने की क्षमता ही विकास नहीं है। पेट्रोलियम पदार्थों की बढ़ती कीमतो ने कई खाड़ी देशों की क्रय शक्ति तो बढ़ा दी लेकिन यह उनकी मानवीय क्षमता को बढ़ाने में सक्षम नहीं हो सकी। इस प्रकार की अवस्था को विकास वैâसे कहा जा सकता है? अत: अब लोग विकास को मानवीय क्षमताओं में वृद्धि के रूप में देख रहे हैं। इस रूप में विकास का अर्थ शिक्षा, स्वास्थ्य तथा क्रय शक्ति में विस्तार से हो। इसीलिये अब अन्तराष्ट्रीय स्तर पर दशों के विकास का आकलन मानवीय पूँजी अर्थात् मानवीय क्षमताओं के रूप में कर रहे हैं। इस पर थोड़ा और चिन्तन करें तो पायेंगे की यह मानवीय क्षमता न केवल वर्तमाना के लिए बल्कि भविष्य के सन्दर्भ में भी होना चाहिये। आगे के वर्षों में भी निरन्तर जारी रहना चाहिए। इसके लिये हमें भविष्य के लिये अपनी प्राकृतिक सम्पदा तथा पर्यावरण को बचाये रखना पड़ेगा। इस प्रकार आर्थिक विकास, मानवीय क्षमता तथा प्राकृतिक सम्पदा और पर्यावरण संरक्षण के समन्वय को विचारक ‘सामाजिक विकास’ कहने लगे हैं। इसमें शिक्षा तथा स्वास्थ्य महत्वपूर्ण है जिससे मानवीय क्षमताओं में वृद्धि की जा सके। इसके लिए विकास को पर्यावरण सम्मत बनाने के लिये जोर दिया जाने लगा है। विकास की इसी नई आवधारणा के कारण विश्व व्यापार संगठन ने विश्व व्यापार में कई पर्यावरणीय तथा सामाजिक शर्तों को जोड़ दिया है। भारत समेत कई विकासशील देशों के लिये अब निर्यात व्यपार बढ़ाना कठिन हो रहा है क्योंकि ये पर्यावरणीय तथा सामाजिक शर्तों को पूरा नहीं कर पा रहे हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि अब विकास का आंकलन सामाजिक विकास तथा पर्यावरण संरक्षण के रूप में किया जाने लगा है। इस प्रकार के विकास का सीधा सम्बन्ध शिक्षा तथा स्वास्थ्य से है।
विकास में शिक्षा का महत्व
अर्थशास्त्र में नोबल पुरस्कार विजेता भारतीय अर्थशास्त्री प्रो. अमृत्य सेन ने इसी आधार पर शिक्षा और स्वास्थ्य को विकास की आवश्यक शर्त माना है।४ शिक्षा तथा स्वास्थ्य सुविधाओं के आधार पर मानवीय पूंजी का निर्माण किया जा सकता है। इस प्रकार की मानवीय पूंजी तकनीकी ज्ञान का विकास करने और उसे ग्रहण करने में अधिक सक्षम होती है। शिक्षित मानवीय सम्पदा अवसरों का उपयोग करने में भी अधिक सजग रहती है। अत: इस प्रकार की मानवीय पूंजी का निर्माण स्वत: ही सतत् तथा आदर्श विकास कर सकेगा। पिछले दशक में हमने तकनीकी तथा ज्ञान आधारित विकास का चमत्कार देखा है। किस प्रकार ज्ञान ने हमारी अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में प्रवेश कर उत्पादन की संरचना को ही बदल दिया है, हम सब उससे परिचित हैं। यह वैâसे संभव हुआ? शिक्षा तथा ज्ञान से। इस प्रकार आधुनिक विश्व अर्थ व्यवस्था में शिक्षा तथा ज्ञान विकास के महत्वपूर्ण घटक बन गये हैं। हमें गर्व है कि हमारी प्राचीन संस्कृति में शिक्षा तथा ज्ञान के विकास के लिये स्वाध्याय को तप, कर्म तथा शास्त्रदान से जोड़ कर इसे जीवन के लिये परम आवश्यक बना रखा। इससे न केवल भौतिक जीवन बल्कि आध्यमिक जीवन में भी निखार आता है। इसीलिए शिक्षा तथा दीक्षा सभी के लिये आवश्यक है। मर्यादा पुरूषोत्तम राम तो अवतारी पुरुष थे लेकिन राजा दशरथ ने उनको भी गुरू विशिष्ट के पास निर्माण ज्ञानार्जन के लिए भेजा । माता—ाqपता जन्म दे सकते हैं लेकिन जीवन का कार्य गुरू अर्थात् शिक्षा से ही संभव है।
भारतीय संस्कृति
भारतीय संस्कृति की अहम बात यह है कि इसमें विविध किस्मों की महक और उनकी सामाजिक विशेषताये हैं। जन्म, परिणय, गृह निर्माण, वास्तु, विरक्ति, मृत्यु आदि का हमारी संस्कृति में बहुत महत्व है, पवित्र है। परिणय संस्कार के प्रति भी विशिष्ट श्रद्धा व पवित्रता देखी जा सकती है। मंत्र से दो अनजान दिलों को अपनत्व के धागे से जोड़ा जाता है और वे जन्म जन्मों के बंधन में बंध कर एक हो जाते हैं। कितनी पवित्रता है। राखी के बंधन की पवित्रता हमारी संस्कृति की अनुपम कृति है जो इतिहास के पन्नों में स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। कितनी महान तथा आदर्श संस्कृति है जिसमें भौतिकता तथा अध्यात्मिकता का बराबर समावेश है। हम आध्यात्मिकता से ही भौतिक को सीमित कर पाते हैं। इसीलिए मृत्यु भी हमारे लिये एक महोत्सव है जहाँ मृत्यु आने पर कह सकते हैं कि ‘ओ बन्धु मृत्यु’ मैं तुम्हारा स्वागत करता हूँ। आदर्श धर्म का उद्देश्य व्यक्ति को जीवित रखने के साथ—साथ मरने के प्रति भी तैयार करता है। हमारा अध्यात्म न केवल इस जीवन को वरन आने वाले जीवन को भी निखारता है। इसीलिए इस संस्कृति ने भौतिक सुखों का परित्याग कर अध्यात्म का विकास किया है। यह भौतिक तथा अध्यात्म का समन्वय ही हमारी संस्कृति की महत्वपूर्ण उपलब्धी है औरा यही सच्चा विकास है। हमारी सांस्कृतिक विरासत में कई अमूल्य सम्पदा का खजाना भरा पड़ा है। उसे खोजने, समझने तथा अनुसरण करने की आवश्यकता है। हमारी कई पाण्डुलिपियाँ विदेशों में देखी जा सकती हैं जो उनके यहां आधुनिक अनुसन्घान का आधार बनी हुई है। आज इसे खोजने और चिन्तन करने की आवश्यकता है क्योंकि अब तो विकास का केन्द्र बिन्दु श्रम नहीं, पूंजी नहीं ज्ञान होने वाला है। उत्पादन ढाँचे में बहुत जल्दी तीव्र बदलाव आने वाला है जिससे हमारी उत्पादन क्षमता कई गुना बढ़ जावेगी। महावीर वाणी में आचार्य रजनीश ने लिखा है कि अब मनुष्य को अपनी आवश्यक सुख सुविधा जुटाने के लिये मात्र २—३ घंटे कार्य करना पड़ेगा।५ इस प्रकार तकनाकी ज्ञान के कारण कार्य की अवधि समाज स्वाध्याय की ओर करा सका तो समाज का विकास होता जावेगा और इस ओर प्रवृत्त नहीं कर सके तो यह खाली समय अथवा दिमाग कई विकृतियाँ उत्पन्न करेगा। इसलिये यह हमारा कत्र्तव्य है कि अपने हम लोगों को स्वाघ्याय की ओर प्रवृत्त करें। इसी प्रकार वैज्ञानिकों ने हमारी सांस्कृतिक विरासत में ‘ध्यान’ पर काफी खोज की है। उनका मत है कि हम अपने मस्तिष्क की क्षमता के मात्र कुछ ही भाग का उपयोग कर पाते हैं। ध्यान के द्वाारा इसकी उपयोग सीमा को बढ़ाया जा सकता है। ध्यान के माध्यम से मस्तिष्क को बनाया जा कसता है। वास्तव में ध्यान विज्ञान भी है और कला भी। ध्यान दरअसल में अध्यामिक तकनीकी है। इसमें मानव मन में उत्पन्न होने वाले अनन्त विचारों के प्रबन्धन की कला है। इससे मन का विचलन कम हो जाता है। ध्यान का जितना अध्यामिक मूल्य है उतना ही व्याहारिक मूल्य भी है। आन्तरिक आनन्द या अपरिमित आनन्द तो ध्यान की चरम अवस्था है। ध्यान से उर्जा का संचार और केन्द्रीयकरण किया जा सकता है। वास्तव में हम भौतिक उपभोग से ऊर्जा का ही संचार करते हैं इसी प्रकार हमारी संस्कृति में योग / वास्तु/ आयुर्वेद आदि में जीवन जीने की कला के सम्बन्ध में काफी खजाना भरा है।उसके उपयोग से हम अपने भौतिक जीवन तथा अध्यामिक जीवन को निखार सकते हैं। इसीलिए आज हमारी सांस्कृतिक विरासत जो पाण्डुलिपियों के अन्दर भरी पड़ी है उसके सरंक्षण, समझने और उस पर वैज्ञानिक सोच की आवश्यकता है। इसके द्वारा ही हम सच्चे अर्थों में अपना कल्याण कर सकेगे। मुझे यह जानकर बहुत प्रसन्नता हुई कि कुन्दकुन्द ज्ञान पीठ पाण्डुलिपियों के संरक्षण के कार्य में अपनी प्रभावी भूमिका निभा रहा है। मैं इस कार्य में उनकी सफलता की कामना करता हूँ। कुन्दकुन्द व्याख्यान में मुझे यह अवसर देने के लिये आप सबका आभार।
सन्दर्भ स्थल
१.तत्वार्थ सूत्र ९/१९, ९/२०
२.पद्मनन्दि पंचविंशतिका, आ. पद्मनन्दि,१९७७
३. मानव संसाधन विकास प्रतिवेदन २००२, यू. एन.डी.पी. प्रकाशन
४.Resources Values and Decelopment- Amartya Oxford University Press, 1999