संस्थान विचय धर्मध्यान के चार भेद हैं-पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत। पिण्डस्थ ध्यान-पिण्डस्थ ध्यान में श्री वर्धमान स्वामी ने पाँच धारणाएँ बताई हैं। उनके बल से संयमी मुनि ज्ञानी होकर संसाररूपी पाश को काट डालता है। उनके-पार्थिवी, आग्नेयी, श्वसना, वारुणी और तत्त्वरूपवती ये नाम हैं। पार्थिवी धारणा-प्रथम ही योगी, मध्यलोक में स्वयंभूरमण समुद्रपर्यन्त जो तिर्यक्लोक है, उसके समान कल्लोल रहित, क्षीर समुद्र का ध्यान करें। इस समुद्र के मध्यभाग में सुन्दर सुवर्ण जैसी प्रभा वाले और जम्बूद्वीप सदृश एक लाख योजन विस्तृत एक सहस्रदल कमल का चिन्तवन करें। उस कमल के मध्य में मेरु सदृश और पीत रंग वाली कर्णिका है। उस पर श्वेत वर्ण का सिंहासन है, उस पर योगी अपनी आत्मा को शांत स्वरूप चिन्तवन करें। पुन: उस सिंहासन पर बैठे हुए चिन्तवन करें कि-मेरी आत्मा कर्मों का नाश करने में उद्यमशील है। आग्नेयी धारणा-तत्पश्चात् वह योगी ध्यान करता है कि-अपने नाभिमण्डल में सोलह ऊँचे-ऊँचे पत्तों वाला एक कमल है। उन पत्तों पर क्रम से ‘अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऌ ल¸ ए ऐ ओ औ अं अ: ये सोलह अक्षर लिखे हैं। कमल की कर्णिका पर ‘र्हं’ महामंत्र विराजमान है पुन: सोचें कि-हृदय में स्थित एक कमल अधोमुख है, आठ पांखुड़ी वाला है, उन आठ पत्तों पर क्रम से आठ कर्म स्थित हैं। नाभि में स्थित कमल के ‘र्हं’ से अग्नि की लौ निकलती हुई ऊपर बढ़ते-बढ़ते आठ दल कमल को जला रही है। कमल को दग्ध करते हुए (अग्नि बाहर) व्याप्त होकर पश्चात् त्रिकोण अग्नि बन जाती है जो कि ज्वाला समूह जलते हुए बड़वानल के समान है। बाह्य त्रिकोण अग्नि बीजाक्षर ‘रं’ से व्याप्त और अन्त में साथिया के चिन्ह से चिन्हित है एवं ऊध्र्व वायु मण्डल से उत्पन्न धूम रहित कांचन की सी प्रभा वाला है। यह अग्नि मण्डल उस नाभिस्थ कमल और शरीर को भस्म करके जलाने योग्य पदार्थ का अभाव होने से धीरे-धीरे स्वयं शान्त हो जाता है। श्वसना (वायवी) धारणा-पुन: वह ध्यानी सोचता है कि आकाश में विचरण करता हुआ महावेगवान् वायुमण्डल है अर्थात् पर्वतों को कम्पित करती हुई महावेगशाली वायु चल रही है और जो शरीरादि की भस्म है, उसको इसने तत्काल उड़ा दिया, फिर शान्त हो गई। वारुणी धारणा-पुन: बिजली, इन्द्रधनुष आदि सहित मेघमण्डल चारों तरफ से मूसलाधार वर्षा कर रहा है। यह जल शरीर के जलने से उत्पन्न हुए समस्त भस्म को प्रक्षालित कर देता है। तत्त्वरूपवती धारणा-तत्पश्चात् ‘मैं सप्तधातुरहित पूर्णचन्द्रवत् निर्मल सर्वज्ञ सदृश हो गया हूँ, सिंहासन पर आरूढ़ हूँ, देव-असुर आदि से पूजित हूँ’ ऐसा चिन्तवन करता हुआ योगी अपने को आठों कर्मों से रहित पुरुषाकार चिन्तवन करें। इस प्रकार पिण्डस्थ स्थान में निश्चल अभ्यास करता हुआ ध्यानी मुनि मोक्षसुख को शीघ्र ही प्राप्त कर लेता है।